(1) ऐ नबी! जब तुम लोग औरतों को तलाक़ दो तो उन्हें उनकी इद्दत के लिए तलाक़ दिया करो।1 और इद्दत के ज़माने का ठीक-ठीक हिसाब रखो,2 और अल्लाह से डरो जो तुम्हारा रब है। (इद्दत के ज़माने में) न तुम उन्हें उनके घरों से निकालो और न वे निकले3 सिवाय यह कि वे कोई खुली बुराई कर बैठें।4 ये अल्लाह की क़ायम की हुई हदें हैं, और जो कोई अल्लाह की हदों को पार करेगा वह अपने ऊपर ख़ुद ज़ुल्म करेगा। तुम नहीं जानते, शायद इसके बाद अल्लाह (मेल-मिलाप की) कोई सूरत पैदा कर दे।5
1. यानी तुम लोग तलाक़ देने के मामले में जल्दी न किया करो कि ज्यों ही मियाँ-बीवी में कोई झगड़ा हुआ, फ़ौरन ही ग़ुस्से में आकर तलाक़ दे डाली, और निकाह का झटका इस तरह दिया कि दोबारा मिलाप की गुंजाइश भी न छोड़ी। बल्कि जब तुम्हें बीवियों को तलाक़ देना हो तो उनकी इद्दत के लिए दिया करो। इद्दत के लिए तलाक़ देने के दो मतलब हैं और दोनों ही यहाँ मुराद भी हैं—
एक मतलब इसका यह है कि इद्दत की शुरुआत करने के लिए तलाक़ दो, या दूसरे अलफ़ाज़ में उस वक़्त तलाक़ दो जिससे उनकी इद्दत शुरू होती हो। यह बात सूरा-2 बक़रा, आयत-228 में बताई जा चुकी है कि जिस औरत से सोहबत हो चुकी हो और उसे माहवारी आती हो उसकी इद्दत तलाक़ देने के बाद तीन बार माहवारी का आना है। इस हुक्म को निगाह में रखकर देखा जाए तो इद्दत की शुरुआत करने के लिए तलाक़ देने की सूरत लाज़िमी तौर से यही हो सकती है कि औरत को माहवारी की हालत में तलाक़ न दी जाए, क्योंकि उसकी इद्दत उस माहवारी से शुरू नहीं हो सकती जिसमें उसे तलाक़ दी गई हो, और इस हालत में तलाक़ देने का मतलब यह हो जाता है कि अल्लाह के हुक्म के ख़िलाफ़ औरत की इद्दत तीन माहवारी के बजाय चार माहवारी बन जाए। इसके अलावा इस हुक्म का तक़ाज़ा यह भी है कि औरत को उस तुहर (पाकी की हालत) में तलाक़ न दी जाए जिसमें शौहर उससे सोहबत कर चुका हो, क्योंकि इस सूरत में तलाक़ देते वक़्त शौहर और बीवी दोनों में से किसी को भी यह मालूम नहीं हो सकता कि सोहबत के नतीजे में कोई हम्ल (गर्भ) ठहर गया है या नहीं, इस वजह से इद्दत की शुरुआत न इस अन्दाज़े की बुनियाद पर की जा सकती है कि यह इद्दत आगे आनेवाली माहवारियों के एतिबार से होगी और न इसी अन्दाज़े पर की जा सकती है कि यह हामिला (गर्भवती) औरत की इद्दत होगी। इसलिए यह हुक्म एक साथ दो बातों का तक़ाज़ा करता है। एक यह कि माहवारी की हालत में तलाक़ न दी जाए।
दूसरे यह कि तलाक़ या तो उस तुहर (पाक हालत) में दी जाए जिसमें सोहबत न की गई हो, या फिर उस हालत में दी जाए जबकि औरत का हामिला (गर्भवती) होना मालूम हो। ग़ौर किया जाए तो महसूस होगा कि तलाक़ पर ये क़ैदें लगाने में बहुत बड़ी मस्लहतें हैं। माहवारी की हालत में तलाक़ न देने की मस्लहत यह है कि यह वह हालत होती है जिसमें औरत और मर्द के दरमियान सोहबत मना होने की वजह से एक तरह की दूरी पैदा हो जाती है, और तिब्बी (मेडिकल) तौर पर भी यह बात साबित है कि इस हालत में औरत का मिज़ाज मामूल पर (सामान्य) नहीं रहता। इसलिए अगर उस वक़्त दोनों के दरमियान कोई झगड़ा हो जाए तो औरत और मर्द दोनों उसे ख़त्म करने के मामले में एक तरह से बेबस हो जाते हैं, और झगड़े से तलाक़ तक नौबत पहुँचाने के बजाय अगर औरत के माहवारी से निबटने तक इन्तिज़ार कर लिया जाए तो इस बात का काफ़ी इमकान होता है कि औरत का मिज़ाज भी मामूल पर आ जाए (सामान्य हो जाए) और दोनों के दरमियान फ़ितरत ने जो कशिश रखी है वह भी अपना काम करके दोनों को फिर से जोड़ दे। इसी तरह जिस तुहर में सोहबत की जा चुकी हो उसमें तलाक़ के मना होने की मस्लहत यह है कि उस ज़माने में अगर हम्ल (गर्भ) ठहर जाए तो मर्द और औरत, दोनों में से किसी को भी इसकी जानकारी नहीं हो सकती। इसलिए वह वक़्त तलाक़ देने के लिए मुनासिब नहीं है। हम्ल (गर्भ) का पता चल जाने की सूरत में तो मर्द भी दस बार सोचेगा कि जिस औरत के पेट में उसका बच्चा परवरिश पा रहा है उसे तलाक़ दे या न दे, और औरत भी अपने और अपने बच्चे की आनेवाली ज़िन्दगी का ख़याल करके शौहर की नाराज़ी की वजहें दूर करने की पूरी कोशिश करेगी। लेकिन अंधेरे में बिना सोचे-समझे तीर चला बैठने के बाद अगर मालूम हो कि हम्ल (गर्भ) ठहर चुका था, तो दोनों को पछताना पड़ेगा।
यह तो है 'इद्दत के लिए' तलाक़ देने का पहला मतलब, जो सिर्फ़ उन औरतों पर चस्पाँ होता है जिनसे सोहबत हो चुकी हो और जिनको माहवारी आती हो और जिनके हामिला (गर्भवती) होने का इमकान हो। अब रहा इसका दूसरा मतलब तो वह यह है कि तलाक़ देना हो तो इद्दत तक के लिए तलाक़ दो, यानी एक साथ तीन तलाक़ देकर हमेशा की जुदाई के लिए तलाक़ न दे बैठो, बल्कि एक, या हद-से-हद दो तलाक़ें देकर इद्दत तक इन्तिज़ार करो, ताकि इस मुद्दत में हर वक़्त तुम्हारे लिए पलटने की गुंजाइश बाक़ी रहे। इस मतलब के लिहाज़ से यह हुक्म उन औरतों के बारे में भी फ़ायदेमन्द है जिनसे सोहबत हो चुकी हो और जिनको माहवारी आती हो और उनके मामले में भी फ़ायदेमन्द है जिनको माहवारी आनी बन्द हो गई हो, या जिन्हें अभी माहवारी शुरू न हुई हो, या जिनका तलाक़ के वक़्त हामिला (गर्भवती) होना मालूम हो। अल्लाह के इस हुक्म की पैरवी की जाए तो किसी शख़्स को भी तलाक़ देकर पछताना न पड़े, क्योंकि इस तरह तलाक़ देने से इद्दत के अन्दर दोबारा मिलाप भी हो सकता है, और इद्दत गुज़र जाने के बाद भी यह मुमकिन रहता है कि पहले के मियाँ-बीवी फिर आपस में रिश्ता जोड़ना चाहें तो नए सिरे से निकाह कर लें।
'फ़तल्लिक़ूहुन-न लिइद्दतिहिन-न' (उन्हें तलाक़ दो तो उनकी इद्दत के लिए तलाक़ दो) का यही मतलब क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले बड़े आलिमों ने बयान किया है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) इसकी तफ़सीर में फ़रमाते हैं कि “तलाक़ माहवारी की हालत में न दे, और न उस तुहर (माहवारी के बाद पाकी की हालत) में दे जिसके अन्दर शौहर सोहबत कर चुका हो, बल्कि उसे छोड़े रखे यहाँ तक माहवारी से निबटकर वह पाक हो जाए। फिर उसे एक ही तलाक़ दे दे। इस सूरत में अगर वह दोबारा मिलन न भी करे और इद्दत गुज़र जाए तो वह सिर्फ़ एक तलाक़ से जुदा होगी,” (इब्ने-जरीर)। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) फ़रमाते हैं, “इद्दत के लिए तलाक़ यह है कि तुहर (पाकी) की हालत में सोहबत किए बिना तलाक़ दी जाए।” यही तफ़सीर अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०), अता (रह०), मुजाहिद (रह०), मैमून-बिन-महरान (रह०), मुक़ातिल-बिन-हय्यान (रह०) और ज़ह्हाक (रह०) से रिवायत हुई है, (इब्ने-कसीर)। इकरिमा इसका मतलब यह बयान करते हैं, “तलाक़ इस हालत में दे कि औरत का हामिला (गर्भवती) होना मालूम हो और इस हालत में न दे कि वह उससे सोहबत कर चुका हो और कुछ पता न हो कि वह हामिला (गर्भवती) हो गई है या नहीं,” (इब्ने-कसीर)। हज़रत हसन बसरी (रह०) और इब्ने-सीरीन, दोनों कहते हैं, “तुहर (पाकी) की हालत में सोहबत किए बिना तलाक़ दी जाए, या फिर उस हालत में दी जाए जबकि हम्ल (गर्भ) ज़ाहिर हो चुका हो।” (इब्ने-जरीर)
इस आयत के मंशा को बेहतरीन तरीक़े से ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उस मौक़े पर बयान फ़रमाया था जब हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) ने अपनी बीवी को माहवारी की हालत में तलाक़ दे दी थी। इस वाक़िए की तफ़सीलात क़रीब-क़रीब हदीस की तमाम किताबों में नक़्ल हुई हैं, और वही हक़ीक़त में इस मामले में क़ानून का ख़ास ज़रिआ हैं। क़िस्सा इसका यह है कि जब हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) ने अपनी बीवी को माहवारी की हालत में तलाक़ दे दी तो हज़रत उमर (रज़ि०) ने जाकर नबी (सल्ल०) से इसका ज़िक्र किया। आप (सल्ल०) सुनकर सख़्त नाराज़ हुए और फ़रमाया कि “उसको हुक्म दो कि बीवी से रुजू (मिलाप) कर ले और उसे अपनी बीवी की हैसियत से रोके रखे यहाँ तक कि वह पाक हो जाए, फिर उसे माहवारी आए और उससे भी निबटकर वह पाक हो जाए, उसके बाद अगर वह उसे तलाक़ देना चाहे तो तुहर (पाकी) की हालत में सोहबत किए बिना तलाक़ दे। यही वह इद्दत है जिसके लिए तलाक़ देने का अल्लाह तआला ने हुक्म दिया है।” एक रिवायत के अलफ़ाज़ ये हैं कि “या तो पाकी की हालत में सोहबत किए बिना तलाक़ दे, या फिर ऐसी हालत में दे जबकि उसका हम्ल (गर्भ) ज़ाहिर हो चुका हो।"
इस आयत के मंशा पर और रौशनी कुछ दूसरी हदीसें भी डालती हैं जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और बड़े सहाबा से नक़्ल हुई हैं। नसई में रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को ख़बर दी गई कि एक आदमी ने अपनी बीवी को एक ही वक़्त में तीन तलाक़ें दे डाली हैं। नबी (सल्ल०) यह सुनकर ग़ुस्से में खड़े हो गए और फ़रमाया, “क्या अल्लाह की किताब के साथ खेल किया जा रहा है, हालाँकि मैं तुम्हारे दरमियान मौज़ूद हूँ?” इस हरकत पर नबी (सल्ल०) के ग़ुस्से की कैफ़ियत देखकर एक आदमी ने पूछा, “क्या मैं उसे क़त्ल न कर दूँ?" अब्दुर्रज्ज़ाक़ ने हज़रत उबादा-बिन-सामित (रज़ि०) के बारे में रिवायत नक़्ल की है कि उनके बाप ने अपनी बीवी को हज़ार तलाक़ें दे डालीं। उन्होंने जाकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से मसला पूछा। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तीन तलाक़ों के ज़रिए से तो अल्लाह की नाफ़रमानी के साथ वह औरत उससे जुदा हो गई, और 997 ज़ुल्म व ज़्यादती के तौर पर बाक़ी रह गईं जिनपर अल्लाह चाहे तो उसे अज़ाब दे और चाहे तो माफ़ कर दे।” हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) के क़िस्से की जो तफ़सील दारे-क़ुतनी और इब्ने-अबी-शैबा में रिवायत हुई है उसमें एक बात यह भी है कि नबी (सल्ल०) ने जब हज़रत अब्दुल्लाह-बिन उमर (रज़ि०) को बीवी से मिलाप करने का हुक्म दिया तो उन्होंने पूछा, “अगर मैं उसको तीन तलाक़ दे देता तो क्या फिर भी मैं रुजू कर सकता था?” नबी (सल्ल०) ने जवाब दिया, “नहीं, वह तुझसे जुदा हो जाती और यह काम गुनाह होता।” एक रिवायत में आप (सल्ल०) के अलफ़ाज़ ये हैं कि “अगर तुम ऐसा करते तो अपने रब की नाफ़रमानी करते और तुम्हारी बीवी तुमसे जुदा हो जाती।"
सहाबा किराम (रज़ि०) से इस बारे में जो फ़तवे नक़्ल हुए हैं वे भी नबी (सल्ल०) के इन ही फ़रमानों से मेल खाते हैं। मुवत्ता में है कि एक आदमी ने आकर हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-सऊद (रज़ि०) से कहा, “मैंने अपनी बीवी को आठ तलाक़ें दे डाली हैं।” इब्ने-मसऊद (रज़ि०) ने पूछा, “फिर इसपर तुम्हें क्या फ़तवा दिया गया?” उसने कहा, “मुझसे कहा गया कि औरत मुझसे जुदा हो गई।” उन्होंने फ़रमाया, “लोगों ने सच कहा, मसला यही है जो वे बयान करते हैं।” अब्दुर्रज़्ज़ाक़ ने अल्क़मा से रिवायत की है कि एक आदमी ने इब्ने-मसऊद (रज़ि०) से कहा, “मैंने अपनी बीवी को 99 तलाक़ें दे डाली हैं।” उन्होंने फ़रमाया, “तीन तलाक़ें उसे जुदा करती हैं, बाक़ी सब ज़्यादतियाँ हैं।” वक़ीअ-बिन-अल-जर्राह ने अपनी सुनन में हज़रत उसमान (रज़ि०) और हज़रत अली (रज़ि०), दोनों का यही मसलक नक़्ल किया है।
हज़रत उसमान (रज़ि०) से एक आदमी ने आकर कहा कि “मैं अपनी बीवी को हज़ार तलाक़ें दे बैठा हूँ।” उन्होंने फ़रमाया, “वह तीन तलाक़ों से तुझसे जुदा हो गई।” ऐसा ही वाक़िआ हज़रत अली (रज़ि०) के सामने पेश हुआ तो उन्होंने जवाब दिया, “तीन तलाक़ों से वह तुझसे जुदा हो गई, बाक़ी तलाकों को अपनी दूसरी औरतों में बाँटता फिर।” अबू-दाऊद और इब्ने-जरीर ने थोड़े लफ़्ज़ी फ़र्क़ के साथ मुजाहिद की रिवायत नक़्ल की है कि वे इब्ने-अब्बास (रज़ि०) के पास बैठे थे। इतने में एक आदमी आया और उसने कहा कि मैं अपनी बीवी को तीन तलाक़ें दे बैठा हूँ। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) सुनकर ख़ामोश रहे, यहाँ तक कि मैंने समझा कि शायद ये उसकी बीवी को उसकी तरफ़ पलटा देनेवाले हैं। फिर उन्होंने फ़रमाया, “तुममें से एक आदमी पहले तलाक़ देने में बेवक़ूफ़ी कर गुज़रता है, उसके बाद आकर कहता है, ऐ इब्ने-अब्बास! ऐ इब्ने-अब्बास! हालाँकि अल्लाह तआला ने फ़रमाया है कि जो कोई अल्लाह से डरते हुए काम करेगा अल्लाह उसके लिए मुश्किलों से निकलने का रास्ता पैदा कर देगा, और तूने अल्लाह से तक़वा (डर) नहीं किया। अब मैं तेरे लिए कोई रास्ता नहीं पाता। तूने अपने रब की नाफ़रमानी की और तेरी बीवी तुझसे जुदा हो गई।” एक और रिवायत जिसे मुवत्ता और तफ़सीर इब्ने-जरीर में कुछ लफ़्ज़ी फ़र्क़ के साथ मुजाहिद ही से नक़्ल किया गया है, उसमें यह ज़िक्र है कि एक आदमी ने अपनी बीवी को सौ तलाक़ें दे दीं, फिर इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से मसला पूछा। उन्होंने जवाब दिया, “तीन तलाक़ों से तो वह तुझसे जुदा हो गई, बाक़ी 97 से तूने अल्लाह की आयतों को खेल बनाया।” ये मुवत्ता के अलफ़ाज़ हैं।
इब्ने-जरीर में इब्ने-अब्बास के जवाब के अलफ़ाज़ ये हैं, “तूने अपने रब की नाफ़रमानी की और तेरी बीवी तुझसे जुदा हो गई और तू अल्लाह से नहीं डरा कि वह तेरे लिए इस मुश्किल से निकलने का कोई रास्ता पैदा करता।” इमाम तहावी ने रिवायत नक़्ल की है कि एक शख़्स इब्ने-अब्बास (रज़ि०) के पास आया और उसने कहा मेरे चचा ने अपनी बीवी को तीन तलाक़ें दे डाली हैं। उन्होंने जवाब दिया, “तेरे चचा ने अल्लाह की नाफ़रमानी की और गुनाह किया और शैतान की पैरवी की। अल्लाह ने उसके लिए इस मुश्किल से निकलने का कोई रास्ता नहीं रखा है।” अबू-दाऊद और मुवत्ता में है कि एक आदमी ने अपनी बीवी को सोहबत से पहले तीन तलाक़ें दे दीं, फिर उससे दोबारा निकाह करना चाहा और फ़तवा पूछने निकला। हदीस के रिवायत करनेवाले मुहम्मद-बिन-इयास-बिन-बुकैर कहते हैं कि मैं उसके साथ इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और अबू-हुरैरा (रज़ि०) के पास गया। दोनों का जवाब यह था, “तेरे लिए जो गुंजाइश थी तूने उसे अपने हाथ से छोड़ दिया।” ज़मख़शरी ने कश्शाफ़ में बयान किया है कि हज़रत उमर (रज़ि०) के पास जो शख़्स भी ऐसा आता जिसने अपनी बीवी को तीन तलाक़ें दे दी हों, वे उसे मारते थे और उसकी तलाक़ों को लागू कर देते थे। सईद-बिन-मंसूर ने यही बात सही सनद के साथ हज़रत अनस (रज़ि०) की रिवायत से नक़्ल की है। इस मामले में सहाबा किराम (रज़ि०) की आम राय, जिसे इब्ने-अबी-शैबा और इमाम मुहम्मद ने इबराहीम नख़ई (रह०) से नक़्ल किया है, यह थी कि “सहाबा (रज़ि०) इस बात को पसन्द करते थे कि कोई आदमी अपनी बीवी को सिर्फ़ एक तलाक़ दे दे और उसको छोड़े रखे यहाँ तक कि उसे तीन माहवारी आ जाएँ।” ये इब्ने-अबी-शैबा के अलफ़ाज़ हैं। और इमाम मुहम्मद (रह०) के अलफ़ाज़ ये हैं, “उनको यह तरीक़ा पसन्द था कि तलाक़ के मामले में एक-से-ज़्यादा न बढ़ें, यहाँ तक की इद्दत पूरी हो जाए।”
इन हदीसों और सहाबा के अमल से क़ुरआन मजीद की ऊपर बयान कि की गई आयत का मंशा समझकर इस्लाम के फ़क़ीहों ने जो तफ़सीली क़ानून बनाया है उसे हम नीचे नक़्ल करते हैं—
(1) हनफ़ी मसलक के आलिम तलाक़ की तीन क़िस्में क़रार देते है : अहसन, हसन और बिदई।
'अहसन' तलाक़ यह है कि आदमी अपनी बीवी को ऐसी पाक हालत में जिसके अन्दर उसने सोहबत न की हो, सिर्फ़ एक तलाक़ देकर इद्दत गुज़र जाने दे। 'हसन' यह है कि हर तुहर में एक-एक तलाक़ दे। इस सूरत में तीन पाक हालतों में तीन तलाक़ देना भी सुन्नत के ख़िलाफ़ नहीं है, अगरचे बेहतर यही है कि एक ही तलाक़ देकर इद्दत गुज़र जाने दी जाए। और 'बिदई’ तलाक़ यह है कि आदमी एक ही वक़्त में तीन तलाक़ दे, या एक ही तुहर के अन्दर अलग-अलग वक़्तों में तीन तलाक़ें दे, या माहवारी की हालत में तलाक़ दे, या ऐसी पाक हालत में तलाक़ दे जिसमें वह सोहबत कर चुका हो। इनमें से जो काम भी वह करेगा गुनहगार होगा। यह तो है हुक्म ऐसी औरत का जिससे सोहबत हो चुकी हो और जिसे माहवारी आती हो। रही ऐसी औरत जिसके साथ सोहबत न की गई हो तो उसे सुन्नत के मुताबिक़ पाकी और माहवारी दोनों हालतों में तलाक़ दी जा सकती है। और अगर औरत जिससे सोहबत की गई हो ऐसी हो जिसे माहवारी आनी बन्द हो गई हो, या अभी आनी शुरू न हुई हो, तो उसे सोहबत के बाद भी तलाक़ दी जा सकती है, क्योंकि उसके हामिला (गर्भवती) होने का इमकान नहीं है।
और औरत हामिला (गर्भवती) हो तो सोहबत के बाद उसे भी तलाक़ दी जा सकती है, क्योंकि उसका हामिला (गर्भवती) होना पहले ही मालूम है। लेकिन इन तीनों क़िस्म की औरतों को सुन्नत के मुताबिक़ तलाक़ देने का तरीक़ा यह है कि एक-एक महीने बाद तलाक़ दी जाए, और अहसन तरीक़ा यह है कि सिर्फ़ एक तलाक़ देकर इद्दत गुज़र जाने दी जाए। (हिदाया, फ़त्हुल-क़दीर, अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास, उम्दतुल-क़ारी)
इमाम मालिक (रह०) के नज़दीक भी तलाक़ की तीन क़िस्में हैं। सुन्नी (सुन्नत के मुताबिक़), बिदई मकरूह, और बिदई हराम। सुन्नत के मुताबिक़ तलाक़ यह है कि उस औरत को जिससे सोहबत हो चुकी हो, जिसे माहवारी आती हो, पाकी की हालत में सोहबत किए बिना सिर्फ़ एक तलाक़ देकर इद्दत गुज़र जाने दी जाए। 'बिदई मकरूह' यह है कि ऐसी पाक हालत में तलाक़ दी जाए जिसमें आदमी सोहबत कर चुका हो, या सोहबत किए बिना एक तुहर में एक से ज़्यादा तलाक़ें दी जाएँ, या इद्दत के अन्दर अलग-अलग पाक हालतों में तीन तलाक़ें दी जाएँ या एक साथ तीन तलाक़ें दे डाली जाएँ। और 'बिदई हराम' यह है कि माहवारी की हालत में तलाक़ दी जाए। (हाशियतुद-दुसूक़ी अलश-शरहिल-कबीर, अहकामुल-क़ुरआन लिइब्निल-अरबी)
इमाम अहमद-बिन-हंबल (रह०) का भरोसेमन्द मसलक यह है जिसपर ज़्यादातर हंबली फ़क़ीह एक राय हैं, औरत जिससे सोहबत हो चुकी हो, जिसको माहवारी आती हो, उसे सुन्नत के मुताबिक़ तलाक़ देने का तरीक़ा यह है कि पाकी की हालत में सोहबत किए बिना उसे तलाक़ दी जाए, फिर उसे छोड़ दिया जाए, यहाँ तक कि इद्दत गुज़र जाए। लेकिन अगर उसे पाकी की तीन हालतों में तीन अलग-अलग तलाक़ें दी जाएँ, या एक ही पाक हालत में तीन तलाक़ें दे दी जाएँ, या एक साथ तीन तलाक़ें दे डाली जाएँ, या माहवारी की हालत में तलाक़ दी जाए, या ऐसी पाकी की हालत में तलाक़ दी जाए जिसमें सोहबत की गई हो और औरत का हामिला (गर्भवती) होना ज़ाहिर न हो, तो ये सब तलाक़ बिदअत और हराम हैं। लेकिन अगर औरत के साथ सोहबत न हुई हो, या सोहबत की हुई ऐसी औरत हो जिसे माहवारी आनी बन्द हो गई हो, या अभी माहवारी आनी शुरू ही न हुई हो, या हामिला (गर्भवती) हो, तो उसके मामले में न वक़्त के लिहाज़ से सुन्नत और बिदअत का कोई फ़र्क़ है, न तादाद के लिहाज़ से। (अल-इनसाफ़ु फ़ी मारि-फ़तुर-राजिह मिनल-ख़िलाफ़ि अला मज़्हबि अहमदिब्नि हंबलिन रह०)
इमाम शाफ़िई (रह०) के नज़दीक तलाक़ के मामले में सुन्नत और बिदअत का फ़र्क़ सिर्फ़ वक़्त के लिहाज़ से है न कि तादाद के लिहाज़ से। यानी वह औरत जिससे सोहबत हो चुकी हो, जिसको माहवारी आती हो, उसे माहवारी की हालत में तलाक़ देना, या जो हामिला (गर्भवती) हो सकती हो उसे ऐसी पाकी की हालत में तलाक़ देना जिसमें सोहबत की जा चुकी हो और औरत का हामिला (गर्भवती) होना ज़ाहिर न हुआ हो, बिदअत और हराम है। रही तलाक़ों की तादाद, तो चाहे एक साथ तीन तलाक़ें दी जाएँ, एक ही तुहर में दी जाएँ, या अलग-अलग पाक हालतों में दी जाएँ, बहरहाल यह सुन्नत के ख़िलाफ़ नहीं है। और ऐसी औरत जिसके साथ हमबिस्तरी न की गई हो, या ऐसी औरत जिसे माहवारी आनी बन्द हो गई हो, या माहवारी आई ही न हो, या जिसका हामिला (गर्भवती) होना ज़ाहिर हो चुका हो, उसके मामले में सुन्नत और बिदअत का कोई फ़र्क़ नहीं है। (मुग़निल-मुहताज)
(2) किसी तलाक़ के बिदअत, मकरूह, हराम, या गुनाह होने का मतलब चारों इमामों के नज़दीक यह नहीं है कि वह लागू ही न हो। चारों मसलकों में तलाक़, चाहे माहवारी की हालत में दी गई हो, या एक साथ तीन तलाक़ें दे दी गई हों, या ऐसी पाक हालत में (लो तलाक़ दी गई हो जिसमें सोहबत की जा चुकी हो और औरत का हामिला (गर्भवती) होना ज़ाहिर न हुआ हो, या किसी और ऐसे तरीक़े से दी गई हो जिसे किसी इमाम ने बिदअत क़रार दिया है, बहरहाल लागू हो जाती है, अगरचे आदमी गुनहगार होता है। लेकिन कुछ दूसरे इजतिहाद (तहक़ीक़) करनेवाले आलिमों की राय इस मसले में चारों इमामों से अलग है।
सईद-बिन-मुसय्यब और कुछ दूसरे ताबिईन कहते हैं कि जो आदमी सुन्नत के ख़िलाफ़ माहवारी की हालत में तलाक़ दे, या एक साथ तीन तलाक़ दे दे उसकी तलाक़ सिरे से होती ही नहीं है। यही राय इमामिया की है। और इस राय की बुनियाद यह है कि ऐसा करना चूँकि मना और हराम बिदअत है इसलिए यह बेअसर है। हालाँकि ऊपर जो हदीसें हम नक़्ल कर आए हैं उनमें यह बयान हुआ है कि हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) ने जब बीवी को माहवारी की हालत में तलाक़ दी तो नबी (सल्ल०) ने उन्हें रुजू (दोबारा मिलाप) का हुक्म दिया। अगर यह तलाक़ हुई ही न थी तो रुजू का हुक्म देने का क्या मतलब? और यह भी बहुत-सी हदीसों से साबित है कि नबी (सल्ल०) ने और बड़े सहाबा (रज़ि०) ने एक से ज़्यादा तलाक़ देनेवाले को अगरचे गुनहगार क़रार दिया है, मगर उसकी तलाक़ को बेअसर क़रार नहीं दिया।
ताऊस और इकरिमा कहते हैं कि एक साथ तीन तलाक़ें दी जाएँ तो सिर्फ़ एक तलाक़ होती है, और इसी राय को इमाम इब्ने-तैमिया (रह०) ने अपनाया है। उनकी इस राय की बुनियाद यह रिवायत है कि अबुस-सहबा ने इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से पूछा, “क्या आपको मालूम नहीं है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के दौर में और हज़रत उमर (रज़ि०) के इबतिदाई दौर में तीन तलाक़ों को एक क़रार दिया जाता था?" उन्होंने जवाब दिया, “हाँ,” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)। और मुस्लिम, अबू-दाऊद और मुसनद अहमद में इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की बयान की हुई यह बात नक़्ल की गई है कि "अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के दौर, और हज़रत उमर (रज़ि०) की ख़िलाफ़त के इबतिदाई दो सालों में तीन तलाक़ को एक क़रार दिया जाता था। फिर हज़रत उमर (रज़ि०) ने कहा कि लोग एक ऐसे मामले में जल्दबाज़ी करने लगे हैं जिसमें उनके लिए सोच-समझकर काम करने की गुंजाइश रखी गई थी। अब क्यों न हम उनके इस अमल को लागू कर दें? चुनाँचे उन्होंने उसे लागू कर दिया।"
लेकिन यह राय कई वजहों से क़ुबूल किए जाने लायक़ नहीं है। एक तो कई रिवायतों के मुताबिक़ इब्ने-अब्बास (रज़ि०) का अपना फ़तवा इसके ख़िलाफ़ था, जैसा कि हम ऊपर नक़्ल कर चुके हैं। दूसरी यह बात उन हदीसों के भी ख़िलाफ़ पड़ती है जो नबी (सल्ल०) और बड़े सहाबा (रज़ि०) से नक़्ल हुई हैं, जिनमें एक साथ तीन तलाक़ देनेवाले के बारे में यह फ़तवा दिया गया है कि उसकी तीनों तलाक़ें लागू हो जाती हैं। ये हदीसें भी हमने ऊपर नक़्ल कर दी हैं। तीसरी, ख़ुद इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत से मालूम होता है कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने सहाबा (रज़ि०) की भीड़ में तीन तलाक़ों को लागू करने का एलान किया था, लेकिन न उस वक़्त, न उसके बाद कभी सहाबा (रज़ि०) में से किसी ने उससे अलग राय का इज़हार किया। अब क्या यह सोचा जा सकता है कि हज़रत उमर (रज़ि०) सुन्नत के ख़िलाफ़ किसी काम का फ़ैसला कर सकते थे? और सारे सहाबा (रज़ि०) उसपर चुप्पी भी साधे रह सकते थे? इसके अलावा रुकाना-बिन-अब्दे-यज़ीद के क़िस्से में अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, इब्ने-माजा, इमाम शाफ़िई (रह०), दारमी और हाकिम ने यह रिवायत नक़्ल की है कि रुकाना ने जब एक ही मजलिस में अपनी बीवी को तीन तलाक़ें दीं तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनको क़सम देकर पूछा कि उनकी नीयत एक ही तलाक़ देने की थी? (यानी बाक़ी दो तलाक़ें पहली तलाक़ पर ज़ोर देने के लिए उनकी ज़बान से निकली थीं, तीन तलाक़ देकर हमेशा के लिए जुदा कर देना मक़सद न था।) और जब उन्होंने क़सम खाकर यह बयान दिया तो नबी (सल्ल०) ने उनको रुजू का हक़ दे दिया। इससे इस मामले की अस्ल हक़ीक़त मालूम हो जाती है कि इबतिदाई दौर में किस तरह की तलाक़ों को एक के हुक्म में रखा जाता था। इसी वजह से हदीस की तशरीह करनेवाले आलिमों ने इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत का यह मतलब लिया है कि इबतिदाई दौर में लोगों के अन्दर दीनी मामलों में ख़ियानत (बेईमानी) क़रीब-क़रीब न होने के बराबर थी, इसलिए तीन तलाक़ देनेवाले के इस बयान को मान लिया जाता था कि उसकी अस्ल नीयत एक तलाक़ देने की थी और बाक़ी दो तलाक़ें सिर्फ़ पहली तलाक़ पर ज़ोर देने के लिए उसकी ज़बान से निकली थीं। लेकिन हज़रत उमर (रज़ि०) ने जब देखा कि लोग पहले जल्दबाज़ी करके तीन-तीन तलाक़ें दे डालते हैं और फिर एक ही तलाक़ पर ज़ोर देने का बहाना करते हैं तो उन्होंने इस बहाने को क़ुबूल करने से इनकार कर दिया।
इमाम नववी (रह०) और इमाम सुबकी ने इसे इब्ने-अब्बास (रज़ि०) के ज़रिए से बयान की हुई रिवायत की बेहतरीन तावील (तशरीह) क़रार दिया है। आख़िरी बात यह है कि ख़ुद अबुस-सहबा की उन रिवायतों में इज़तिराब (झोल) पाया जाता है जो इब्ने-अब्बास (रज़ि०) के क़ौल के बारे में उनसे रिवायत हुई हैं। मुस्लिम, अबू-दाऊद और नसई ने अबुस-सहबा से एक दूसरी रिवायत यह नक़ल की है कि उनके पूछने पर इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने फ़रमाया, “एक आदमी जब सोहबत से पहले अपनी बीवी को तीन तलाक़ें देता था तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के दौर और हजरत उमर (रज़ि०) के इबतिदाई दौर में उसको एक तलाक़ क़रार दिया जाता था।” इस तरह एक ही रिवायत करनेवाले ने इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से दो अलग-अगल बातों की रिवायतें नक़्ल की हैं और यह इख़िलाफ़ दोनों रिवायतों को कमज़ोर कर देता है।
(3) माहवारी की हालत में तलाक़ देनेवाले को चूँकि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने रुजू (दोबारा मिलाप) करने का हुक्म दिया था, इसलिए फ़क़ीहों के दरमियान यह सवाल पैदा हुआ है कि यह हुक्म किस मानी में है। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०), इमाम शाफ़िई (रह०), इमाम अहमद (रह०), इमाम औज़ाई, इब्ने-अबी-लैला, इसहाक़-बिन-राहवैह और अबू-सौर (रह०) कहते हैं कि ऐसे शख़्स को रुजू का हुक्म तो दिया जाएगा, मगर रुजू पर मजबूर न किया जाएगा, (उम्दतुल-क़ारी)। हिदाया में हनफ़ी मसलकवालों की राय यह बयान की गई है कि इस सूरत में रुजू (फिर मिलाप) करना न सिर्फ़ मुस्तहब (पसन्दीदा) बल्कि वाजिब है। मुग़निल-मुहताज में शाफ़िई आलिमों का मसलक यह बयान हुआ है कि जिसने माहवारी में तलाक़ दी हो और तीन तलाक़ें न दे डाली हों, उसके लिए सुन्नत के मुताबिक़ तरीक़ा यह है कि वह रुजू करे, और उसके बादवाली पाक हालत में तलाक़ न दे, बल्कि उसके गुज़रने के बाद जब दूसरी बार औरत माहवारी से निबट जाए तब तलाक़ देना चाहे तो दे, ताकि माहवारी में दी हुई तलाक़ से पलटना सिर्फ़ खेल के तौर पर न हो। अल-इनसाफ़ में हंबली आलिमों का मसलक यह बयान हुआ है कि इस हालत में तलाक़ देनेवाले के लिए रुजू (फिर से मिलन) करना मुस्तहब (पसन्दीदा) है। लेकिन इमाम मालिक (रह०) और उनके साथी आलिम कहते हैं कि माहवारी की हालत में तलाक़ देना ऐसा जुर्म है जिसमें पुलिस को कार्रवाई का हक़ है। औरत चाहे माँग करे या न करे, बहरहाल हाकिम का यह फ़र्ज़ है कि जब किसी शख़्स की यह हरकत उसकी जानकारी में आए तो वह उसे रुजू (बीवी को वापस लेने) पर मजबूर करे और इद्दत के आख़िरी वक़्त तक उसपर दबाव डालता रहे। अगर वह इनकार करे तो उसे क़ैद कर दे। फिर भी इनकार करे तो उसे मारे। इसपर भी न माने तो हाकिम ख़ुद फ़ैसला कर दे कि “मैंने तेरी बीवी तुझपर वापस कर दी।” और हाकिम का यह फ़ैसला रुजू होगा जिसके बाद मर्द के लिए उस औरत से सोहबत करना जाइज़ होगा, चाहे उसकी नीयत रुजू की हो या न हो, क्योंकि हाकिम की नीयत उसकी नीयत की जगह पर है,” (हाशियतुद-दुसूक़ी)।
आलिम यह भी कहते हैं कि जिस शख़्स ने ख़ुशी से या नापसन्दीदगी से माहवारी में दी हुई तलाक़ से रुजू कर लिया हो वह अगर तलाक़ ही देना चाहे तो उसके लिए मुस्तहब (पसन्दीदा) तरीक़ा यह है कि जिस माहवारी में उसने तलाक़ दी है उसके बादवाले तुहर में उसे तलाक़ न दे, बल्कि जब दोबारा माहवारी आने के बाद वह पाक हो उस वक़्त तलाक़ दे। तलाक़ से जुड़े हुए तुहर (पाकी की हालत) में तलाक़ न देने का हुक्म अस्ल में इसलिए दिया गया है कि माहवारी की हालत में तलाक़ देनेवाले का पलटना सिर्फ़ ज़बानी न हो, बल्कि उसे पाकी के ज़माने में औरत से सोहबत करनी चाहिए। फिर जिस तुहर में सोहबत की जा चुकी हो उसमें तलाक़ देना चूँकि मना है, लिहाज़ा तलाक़ देने का सही वक़्त उसके बाद वाला तुहर ही है। (हाशियतुद-दुसूक़ी)
(4) रजई तलाक़ (वह तलाक़ जिसके बाद दोबारा मिलाप किया जा सकता है) देनेवाले के लिए रुजू करने का मौक़ा किस वक़्त तक है? इसमें भी फ़क़ीहों के दरमियान रायों का फ़र्क़ हुआ है, और यह फ़र्क़ इस सवाल पर पैदा हुआ है कि सूरा-2 बक़रा की आयत-228 में 'सला-स-त क़ुरूइन' से मुराद तीन माहवारी हैं या तीन तुहर (पाकी की हालतें)? इमाम शाफ़िई (रह०) और इमाम मालिक (रह०) के नज़दीक 'क़रउन' से मुराद तुहर है, और यह राय हज़रत आइशा (रज़ि०), इब्ने-उमर (रज़ि०) और ज़ैद-बिन-साबित (रज़ि०) से नक़्ल हुई है। हनफ़ी आलिमों का मसलक यह है कि 'क़रउन' से मुराद हैज़ (माहवारी) है और इमाम अहमद-बिन-हंबल (रह०) का भरोसेमन्द मसलक भी यही है। यह राय चारों ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन, अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), उबई-बिन-काब (रज़ि०), मुआज़-बिन-जबल (रज़ि०), अबुद-दरदा (रज़ि०), उबादा-बिन-सामित (रज़ि०) और अबू-मूसा अशअरी (रज़ि०) से नक़्ल हुई है। इमाम मुहम्मद (रह०) ने मुवत्ता में शअबी का क़ौल नक़्ल किया है कि वे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के 13 सहाबियों से मिले हैं, और उन सबकी राय यही थी। और यही राय बहुत-से ताबिईन ने भी अपनाई है।
रायों के इस इख़्तिलाफ़ की वजह से शाफ़िई मसलक और मालिकी मसलक के आलिमों के नज़दीक तीसरी माहवारी में दाख़िल होते ही औरत की इद्दत ख़त्म हो जाती है, और मर्द का दोबारा रुजू (मिलाप करने) का हक़ ख़त्म हो जाता है। और अगर तलाक़ माहवारी की हालत में दी गई हो, तो उस माहवारी की गिनती इद्दत में न होगी, बल्कि चौथी माहवारी में दाख़िल होने पर इद्दत ख़त्म होगी, (मुग़निल-मुहताज, हाशियतुद-दुसूक़ी)। हनफ़ी आलिमों का मसलक यह है कि अगर तीसरी माहवारी में दस दिन गुज़रने पर ख़ून बन्द हो तो औरत की इद्दत ख़त्म हो जाएगी चाहे औरत ग़ुस्ल करे या न करे। और अगर दस दिन से कम में ख़ून बन्द हो जाए तो इद्दत उस वक़्त तक ख़त्म न होगी जब तक औरत ग़ुस्ल न कर ले, या एक नमाज़ का पूरा वक़्त न गुज़र जाए। पानी न होने की सूरत में इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०) के नज़दीक जब औरत तयम्मुम करके नमाज़ पढ़ ले उस वक़्त रुजू (मर्द का दोबारा मिलन) का हक़ ख़त्म होगा, और इमाम मुहम्मद (रह०) के नज़दीक तयम्मुम करते ही रुजू (वापस लेने) का हक़ ख़त्म हो जाएगा, (हिदाया)। इमाम अहमद का भरोसेमन्द मसलक जिसपर ज़्यादातर हंबली फ़क़ीह एक राय हैं, यह है कि जब तक औरत तीसरी माहवारी से निबटकर ग़ुस्ल न कर ले, मर्द का रुजू (दोबारा मिलन) का हक़ बाक़ी रहेगा। (अल-इनसाफ़)
(5) रुजू (बीवी को वापस लेना) किस तरह से होता है और किस तरह से नहीं होता? इस मसले में फ़क़ीहों के दरमियान इस बात पर एक राय है कि जिस आदमी ने अपनी बीवी को रजई (रुजू करने लायक़) तलाक़ दी हो, वह इद्दत ख़त्म होने से पहले जब चाहे उससे मिलन कर सकता है, चाहे औरत राज़ी हो या न हो। क्योंकि क़ुरआन मजीद (सूरा-2 बक़रा, आयत-228) में फ़रमाया गया है, “उनके शौहर इस मुद्दत के अन्दर उन्हें वापस ले लेने के पूरी तरह हक़दार हैं। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह नतीजा निकलता है कि इद्दत गुज़रने से पहले तक उनका शौहर-बीवी का ताल्लुक़ बाक़ी रहता है और वे उन्हें पूरी रह छोड़ देने से पहले वापस ले सकते हैं। दूसरे अलफ़ाज़ में रुजू (वापस लेना) कोई दोबारा निकाह करना नहीं है कि इसके लिए औरत की रज़ामन्दी ज़रूरी हो। इस हद तक एक राय होने के बाद आगे रुजू (वापस लेने) के तरीक़े में फ़क़ीहों की रायें अलग-अलग हो गई हैं।
शाफ़िई आलिमों के नज़दीक रुजू सिर्फ़ ज़बान ही से हो सकता है, अमल से नहीं हो सकता। अगर आदमी ज़बान से यह न कहे कि मैंने रुजू किया (मैंने तुझे अपनी बीवी की हैसियत से वापस लिया) तो सोहबत या लिपटने-चिमटने की कोई हरकत, चाहे रुजू की नीयत ही से की गई हो, रुजू क़रार नहीं दी जाएगी, बल्कि इस सूरत में औरत से हर तरह का फ़ायदा उठाना हराम है चाहे वह बिना शहवत (वासना) ही हो। लेकिन रजई तलाक़ पाई हुई औरत से सोहबत करने पर हद्द (क़ुरआन या हदीस में बयान हुई सज़ा) नहीं है, क्योंकि आलिम इसके हराम होने पर एक राय नहीं है। अलबत्ता जो इसके हराम होने का अक़ीदा रखता हो उसे ताज़ीर (हाकिम के ज़रिए से तय की हुई सज़ा) दी जाएगी। इसके अलावा शाफ़िई मसलक के मुताबिक़ रजई तलाक़ पाई हुई औरत के साथ सोहबत करने पर बहरहाल महरे-मिस्ल (वह मह्र जो औरत के ददिहाल में चलता हो) लाज़िम आता है चाहे उसके बाद आदमी ज़बान से रुजू (वापस लेने) की बात कहे या न कहे। (मुग़निल-मुहताज)
मालिकी आलिम कहते हैं कि रुजू (वापस लेना) ज़बान और अमल, दोनों से हो सकता है। अगर ज़बान से रुजू करने में आदमी साफ़ अलफ़ाज़ इस्तेमाल करे तो चाहे उसकी नीयत रुजू की हो या न हो, रुजू हो जाएगा, बल्कि अगर वह मज़ाक़ के तौर पर भी रुजू (वापस लेने) के साफ़ अलफ़ाज़ कह दे तो वह रुजू क़रार पाएँगे। लेकिन अगर अलफ़ाज़ साफ़ न हों तो वे सिर्फ़ उस सूरत में रुजू क़रार दिए जाएँगे, जबकि वे रुजू की नीयत से कहे गए हों। रहा अमल से रुजू (वापस लेना) तो कोई हरकत चाहे वह लिपटना-चिमटना हो, या सोहबत व हमबिस्तरी, उस वक़्त तक रुजू नहीं कही जा सकती जब तक वह रुजू की नीयत से न की गई हो। (हाशियतुद-दुसूक़ी, अहकामुल-क़ुरआन लिइब्निल-अरबी)
हनफ़ी और हंबली आलिमों का मसलक ज़बान से रुजू (वापस लेने) के मामले में वही है। जो मालिकी आलिमों का है। रहा अमल से रुजू, तो मालिकी आलिमों के बरख़िलाफ़ इन दोनों मसलकों का फ़तवा यह है कि शौहर अगर इद्दत के अन्दर रजई तलाक़ पाई औरत से सोहबत कर ले तो वह आप-से-आप रुजू है, चाहे रुजू (वापस लेने) की नीयत हो या न हो। अलबत्ता दोनों के मसलक में फ़र्क़ यह है कि हनफ़ी आलिमों के नज़दीक लिपटने-चिमटने की हर हरकत रुजू है चाहे वह सोहबत से कम किसी दरजे की हो, और हंबली आलिम सिर्फ़ लिपटने-चिमटने को रुजू नहीं मानते। (हिदाया, फ़त्हुल-क़दीर, उम्दतुल-क़ारी, अल-इनसाफ़)
(6) सुन्नत तलाक़ और बिदअत तलाक़ के नतीजों का फ़र्क़ यह है कि एक तलाक़ या दो तलाक़ देने की सूरत में अगर इद्दत गुज़र भी जाए तो तलाक़ पाई हुई औरत और उसके पिछले शौहर के दरमियान आपसी रज़ामन्दी से फिर निकाह हो सकता है। लेकिन अगर आदमी तीन तलाक़ दे चुका हो तो न इद्दत के अन्दर रुजू करना मुमकिन है और न इद्दत गुज़र जाने के बाद दोबारा निकाह किया जा सकता है। सिवाय यह कि उस औरत का निकाह किसी और शख़्स से हो, वह निकाह सही तरह का हो, दूसरा शौहर उस औरत से सोहबत भी कर चुका हो, फिर या तो वह उसे तलाक़ दे दे या मर जाए। इसके बाद अगर औरत और उसका पिछला शौहर आपसी रज़ामन्दी के साथ नए सिरे से निकाह करना चाहें तो कर सकते हैं। हदीसों की ज़्यादातर किताबों में सही सनद के साथ यह रिवायत आई है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से पूछा गया कि एक शख़्स ने अपनी बीवी को तीन तलाक़ें दे दीं, फिर उस औरत ने दूसरे शख़्स से निकाह कर लिया, और उस दूसरे शौहर के साथ तन्हाई में मुलाक़ात भी हुई, मगर सोहबत नहीं हुई, फिर उसने उसे तलाक़ दे दी, अब क्या उस औरत का अपने पिछले शौहर से दोबारा निकाह हो सकता है? नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “नहीं, जब तक कि दूसरा शौहर उससे उसी तरह लुत्फ़ न उठा चुका हो जिस तरह पहले शौहर ने उठाया था।” रहा साज़िशी निकाह, जिसमें पहले से यह तय हो चुका हो कि औरत को पिछले शौहर के लिए हलाल करने की ख़ातिर एक आदमी उससे निकाह करेगा और सोहबत करने के बाद उसे तलाक़ दे देगा, तो इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०) के नज़दीक यह निकाह फ़ासिद (अवैध) है, और इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) के नज़दीक इससे औरत हलाल तो हो जाएगी, मगर यह हरकत मकरूहे-तहरीमी (हराम दरजे का नापसन्दीदा अमल) है। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अल्लाह ने हलाला करनेवाले और हलाला करानेवाले, दोनों पर लानत की है,” (हदीस : तिरमिज़ी, नसई)।
हज़रत उक़बा-बिन-आमिर (रज़ि०) कहते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने सहाबा से पूछा, “क्या मैं तुम्हें न बताऊँ कि किराए का साँड कौन होता है?” सहाबा ने कहा, “ज़रूर बताएँ।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “वह हलाला करनेवाला है। ख़ुदा की लानत है हलाला करनेवाले पर भी और उस शख़्स पर भी जिसके लिए हलाला किया जाए!” (इब्ने-माजा, दारे-क़ुतनी)
2. यह हुक्म मर्दों को भी दिया गया है और औरतों को भी और उनके ख़ानदानवालों को भी। मतलब यह है कि तलाक़ को खेल न समझ बैठो कि तलाक़ का अहम मामला पेश आने के बाद यह भी याद न रखा जाए कि कब तलाक़ दी गई है, कब इद्दत शुरू हुई और कब उसको ख़त्म होना है। तलाक़ एक बहुत ही नाज़ुक मामला है जिससे औरत और मर्द और उनकी औलाद और उनके ख़ानदान के लिए बहुत-से क़ानूनी मसले पैदा होते हैं। इसलिए जब तलाक़ दी जाए तो उसके वक़्त और तारीख़ को याद रखा जाए, और यह भी याद रखा जाए कि किस हालत में औरत को तलाक़ दी गई है, और हिसाब लगाकर देखा जाए कि इद्दत की शुरुआत कब हुई है, कब तक वह बाक़ी है और कब वह ख़त्म हो गई। इस हिसाब पर इन बातों के फ़ैसले का दारोमदार है कि शौहर को कब तक रुजू का हक़ है, कब तक उसे औरत को घर में रखना है, कब तक उसका ख़र्च देना है, कब तक वह औरत का वारिस होगा और औरत उसकी वारिस होगी, कब औरत उससे जुदा हो जाएगी और उसे दूसरा निकाह कर लेने का हक़ हासिल हो जाएगा। और अगर यह मामला किसी मुक़द्दमे की सूरत अपना ले तो अदालत को भी सही फ़ैसला करने के लिए तलाक़ की सही तारीख़ और वक़्त और औरत की हालत मालूम होने की ज़रूरत होगी, क्योंकि इसके बिना अदालत उन औरतों के मामले में जिनसे सोहबत हो चुकी है और जिनसे सोहबत नहीं हुई है, हामिला (गर्भवती) और वह जो हामिला नहीं है, जिनको माहवारी आती है और जिनको माहवारी नहीं आती, जिनको रजई तलाक़ दी गई है और जिनको ग़ैर-रजई तलाक़ दी गई है, तलाक़ से पैदा हुए मसलों का सही फ़ैसला नहीं कर सकती।
3. यानी न मर्द ग़ुस्से में आकर औरत को घर से निकाल दे, और न औरत ख़ुद ही बिगड़कर घर छोड़ दे। इद्दत तक घर उसका है। उसी घर में दोनों को रहना चाहिए, ताकि आपस में जाँच मेल-मिलाप की कोई सूरत अगर निकल सकती हो तो उससे फ़ायदा उठाया जा सके। तलाक़ अगर रजई (वापस लेने लायक़) हो तो किसी वक़्त भी शौहर की तबीअत बीवी की तरफ़ (आकृष्ट) हो सकती है, और बीवी भी इख़्तिलाफ़ की वजहों को दूर करके शौहर को राज़ी करने की कोशिश कर सकती है। दोनों एक घर में मौज़ूद रहेंगे तो तीन महीने तक, या तीन माहवारी आने तक, या हम्ल (गर्भ) की हालत में बच्चा पैदा होने तक इसके मौक़े बार-बार पेश आ सकते हैं। लेकिन अगर मर्द जल्दबाज़ी करके उसे निकाल दे, या औरत नासमझी से काम लेकर मायके जा बैठे तो इस सूरत में रुजू (दोबारा मिलाप) के इमकान बहुत कम रह जाते हैं और आम तौर से तलाक़ का अंजाम आख़िरकार पूरी तरह जुदाई होकर रहता है। इसी लिए फ़क़ीहों ने यहाँ तक कहा है कि रजई तलाक़ की सूरत में जो औरत इद्दत गुज़ार रही हो उसे बनाव-सिंगार करना चाहिए, ताकि शौहर उसकी तरफ़ माइल हो। (हिदाया, अल-इनसाफ़)
फ़क़ीह इस बात में एक राय हैं कि रजई तलाक़ पाई हुई औरत को इद्दत के ज़माने में रहने के लिए घर और गुज़ारा-ख़र्च पाने का हक़ है, और औरत के लिए यह जाइज़ नहीं है कि शौहर की इजाज़त के बिना घर से जाए, और मर्द के लिए भी यह जाइज़ नहीं है कि उसे घर से निकाले। अगर मर्द उसे निकालेगा तो गुनहगार होगा, औरत अगर ख़ुद निकलेगी तो गुनहगार भी होगी और गुज़ारा-ख़र्च और रहने के लिए घर के हक़ से भी महरूम हो जाएगी।
4. इसके कई मतलब अलग-अलग फ़क़ीहों (आलिमों) ने बयान किए हैं। हज़रत हसन बसरी, आमिर शअबी, ज़ैद-बिन-असलम, ज़ह्हाक, मुजाहिद, इकरिमा, इब्ने-ज़ैद, हम्माद और लैस (रह०) कहते हैं कि इससे मुराद बदकारी है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) कहते हैं कि इससे मुराद बद-ज़बानी है, यानी यह कि तलाक़ के बाद भी औरत का मिज़ाज दुरुस्त न हो, बल्कि वह इद्दत के ज़माने में शौहर और उसके ख़ानदानवालों से झगड़ती और बद-ज़बानी करती रहे। क़तादा कहते हैं कि इससे मुराद सरकशी है, यानी औरत को सरकशी की वजह से तलाक़ दी गई हो और इद्दत के ज़माने में भी वह शौहर के मुक़ाबले पर सरकशी करना न छोड़े। अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०), सुद्दी, इब्नुस-साइब, और इबराहीम नख़ई कहते हैं कि इससे मुराद औरत का घर से निकल जाना है, यानी उनकी राय में तलाक़ के बाद इद्दत के ज़माने में औरत का घर छोड़कर निकल जाना अपनी जगह ख़ुद खुली बुराई कर बैठना है, और यह कहना कि ‘वे न ख़ुद निकलें सिवाय यह कि खुली बुराई कर बैठें’ कुछ इस तरह की बात है जैसे कोई कहे कि 'तुम किसी को गाली न दो सिवाय यह कि बदतमीज़ बनो’। इन चार रायों में से पहली तीन रायों के मुताबिक़ 'सिवाय यह कि' का ताल्लुक़ 'उनको घरों से न निकालो’ के साथ है और इस जुमले का मतलब यह है कि अगर वे बद-चलनी या बद-ज़बानी या सरकशी करें तो उन्हें निकाल देना जाइज़ होगा। और चौथी राय के मुताबिक़ इसका ताल्लुक़ 'और न वे ख़ुद निकलें' के साथ है और मतलब यह है कि अगर वे निकलेंगी तो खुली बुराई करेंगी।
5. ये दोनों जुमले उन लोगों के ख़याल को भी ग़लत साबित करते हैं जो इस बात को मानते हैं कि माहवारी की हालत में तलाक़ देने या एक साथ तीन तलाक़ दे देने से कोई तलाक़ सिरे से होती ही नहीं है, और उन लोगों की राय को भी ग़लत साबित कर देते हैं जिनका ख़याल यह है कि एक साथ तीन तलाक़ एक ही तलाक़ के हुक्म में हैं। सवाल यह है कि अगर बिदई तलाक़ होती ही नहीं है या तीन तलाक़ एक ही रजई तलाक़ के हुक्म में हैं तो यह कहने की आख़िर ज़रूरत ही क्या रह जाती है कि जो अल्लाह की हदों, यानी सुन्नत के बताए हुए तरीक़े के ख़िलाफ़ अमल करेगा वह अपने-आपपर ज़ुल्म करेगा, और तुम नहीं जानते शायद इसके बाद अल्लाह मेल-मिलाप की कोई सूरत पैदा कर दे? ये दोनों बातें तो उसी सूरत में मानीदार हो सकती हैं जबकि सुन्नत के ख़िलाफ़ तलाक़ देने से वाक़ई कोई नुक़सान होता हो जिसपर आदमी को पछताना पड़े, और तीन तलाक़ एक साथ दे बैठने से रुजू (दोबारा मिलन) का कोई इमकान बाक़ी न रहता हो। वरना ज़ाहिर है कि जो तलाक़ लागू ही न हो उससे अल्लाह की हदों की कोई ख़िलाफ़वर्ज़ी नहीं होती जो अपने-आपपर ज़ुल्म क़रार पाए, और जो तलाक़ बहरहाल रजई ही हो उसके बाद तो लाज़िमी तौर से मेल-मिलाप की सूरत बाक़ी रहती है, फिर यह कहने की कोई ज़रूरत नहीं है कि शायद उसके बाद अल्लाह मेल-मिलाप की कोई सूरत पैदा कर दे।
इस जगह पर एक बार फिर सूरा-2 बक़रा, आयतें—228 से 230 और सूरा-65 तलाक़ की इन आयतों के आपसी ताल्लुक़ को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। सूरा-2 बक़रा में तलाक़ की कुल तादाद तीन बताई गई है, जिनमें दो के बाद वापसी का हक़, और इद्दत गुज़र जाने के बाद बिना हलाला किए दोबारा निकाह कर लेने का हक़ बाक़ी रहता है, और तीसरी तलाक़ दे देने से ये दोनों हक़ ख़त्म हो जाते हैं। सूरा-65 तलाक़ की ये आयतें इस हुक्म में किसी रद्दो-बदल या इसे बिलकुल ख़त्म करने के लिए नहीं उतरी हैं, बल्कि यह बताने के लिए उतरी हैं कि बीवियों को तलाक़ देने के जो इख़्तियार मर्दों को दिए गए हैं उनको इस्तेमाल करने की सही सूरत क्या है, जिसकी पैरवी अगर की जाए तो घर बिगड़ने से बच सकते हैं, तलाक़ देकर पछताने की नौबत पेश नहीं आ सकती, मेल-मिलाप पैदा होने के ज़्यादा-से-ज़्यादा मौक़े बाक़ी रहते हैं, और अगर आख़िरकार जुदाई हो भी जाए तो यह आख़िरी रास्ता खुला रहता है कि फिर मिल जाना चाहें तो दोबारा निकाह कर लें। लेकिन अगर कोई शख़्स नादानी के साथ अपने इन इख़्तियारात को ग़लत तरीक़े से इस्तेमाल कर बैठे तो वह अपने ऊपर ख़ुद ज़ुल्म करेगा और भरपाई के तमाम मौक़े खो बैठेगा। यह बिलकुल ऐसा ही है जैसे एक बाप अपने बेटे को तीन सौ रुपये दे और कहे कि ये तुम्हारी मिलकियत हैं, इनको तुम अपनी मरज़ी से ख़र्च करने के मालिक हो। फिर वह उसे नसीहत करे कि अपने इस माल को जो मैंने तुम्हें दे दिया है, इस तरह एहतियात के साथ मौक़े के हिसाब से और थोड़ा-थोड़ा करके इस्तेमाल करना कि तुम इससे सही फ़ायदा उठा सको, वरना मेरी नसीहत के ख़िलाफ़ तुम बेएहतियाती के साथ उसे बे-मौक़ा ख़र्च करोगे या सारी रक़म एक ही वक़्त में ख़र्च कर बैठोगे तो नुक़सान उठाओगे और फिर और कोई रक़म मैं तुम्हें बरबाद करने के लिए नहीं दूँगा। यह सारी नसीहत ऐसी सूरत में बे-मतलब हो जाती है जबकि बाप ने पूरी रक़म सिरे से उसके हाथ में छोड़ी ही न हो, वह बे मौक़े ख़र्च करना चाहे तो रक़म उसकी जेब से निकले ही नहीं, या पूरे तीन सौ ख़र्च कर डालने पर भी एक सौ ही उसके हाथ से निकलें और दो सौ बहरहाल उसकी जेब में पड़े रहें, सही सूरते-हाल अगर यही हो तो इस नसीहत की आख़िर ज़रूरत क्या है।