(54) हक़ीक़त में तुम्हारा रब अल्लाह ही है जिसने आसमानों और ज़मीन को छः दिनों में पैदा किया,40 फिर अपने तख़्ते-सल्तनत (राजसिंहासन) पर जलवा फ़रमा हुआ,41 जो रात को दिन पर ढाँक देता है और फिर दिन रात के पीछे दौड़ा चला आता है, जिसने सूरज और चाँद और तारे पैदा किए। सब उसके हुक्म के पाबंद हैं। ख़बरदार रहो! उसी की ख़ल्क़ (सृष्टि) है और उसी का हुक्म है।42 बड़ी बरकतवाला है43 अल्लाह, सारे जहानों का मालिक और पालनहार।
40. यहाँ दिन का लफ़्ज़ या तो उसी चौबीस घण्टे के दिन का हम मानी (समानार्थक) है जिसे दुनिया के लोग दिन कहते हैं या फिर यह लफ़्ज़ दौर (Period) के मानी में इस्तेमाल हुआ है, जैसा कि सूरा-22 हज्ज की 47वीं आयत में फ़रमाया, “और हक़ीक़त यह है कि तेरे रब के यहाँ एक दिन हज़ार साल के बराबर है, उस हिसाब से जो तुम लोग लगाते हो।” और सूरा-70 मआरिज की आयत-4 में फ़रमाया कि “फ़रिश्ते और जिबरील उसकी तरफ़ एक दिन में चढ़ते हैं जो 50 हज़ार साल के बराबर है।” इसका सही मतलब अल्लाह तआला ही बेहतर जानता है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-41 हा॰ मीम सजदा, हाशिया-11 से 15)
41. ख़ुदा के तख़्ते-सल्तनत (राजसिंहासन) पर जलवा फ़रमा होने की तफ़सीली कैफ़ियत को समझना हमारे लिए मुश्किल है। बहुत मुमकिन है कि अल्लाह तआला ने कायनात को पैदा करने के बाद किसी जगह को अपनी इस लामहदूद सल्तनत (असीमित राज्य) का मर्कज़ ठहरा कर अपनी तजल्लियात (जलवों) को वहाँ केंद्रित कर दिया हो और उसी का नाम अर्श हो जहाँ से सारी दुनिया पर ज़िन्दगी और क़ुव्वत की बारिश भी हो रही है और मामलों का इन्तिज़ाम भी किया जा रहा है। और यह भी मुमकिन है कि तख़्त (अर्श) से मुराद हुकूमत, का इक़तिदार हो और उसपर जलवा फ़रमा होने से मुराद यह हो कि अल्लाह ने कायनात को पैदा करके उसकी बागडोर अपने हाथ में ले ली। बहरहाल अर्श पर जलवा फ़रमा होने का तफ़सीली मतलब चाहे जो भी हो, क़ुरआन में उसके ज़िक्र का अस्ल मक़सद यह ज़ेहन में बिठाना है कि अल्लाह तआला महज़ कायनात का पैदा करनेवाला ही नहीं है, बल्कि कायनात के निज़ाम को ठीक-ठीक चलानेवाला भी है। वह दुनिया को वुजूद में लाने के बाद उससे बेताल्लुक़ होकर कहीं बैठ नहीं गया है, बल्कि अमली तौर पर वही सारे जहान के छोटे-बड़े हिस्से पर हुकूमत कर रहा है। बादशाही व हुक्मरानी के तमाम इख़्तियारात अमली तौर पर उसके हाथ में हैं, हर चीज़ उसके हुक्म की पाबन्द है, ज़र्रा-ज़र्रा उसके हुक्म का ग़ुलाम है और तमाम मौजूद चीज़ों की क़िस्मतें हमेशा के लिए उसके हुक्म से जुड़ी हुई हैं। इस तरह क़ुरआन उस बुनियादी ग़लतफ़हमी की जड़ काटना चाहता है जिसकी वजह से इनसान कभी शिक्र की गुमराही में मुब्तला हुआ है और कभी ख़ुदमुख़्तारी और ख़ुदसरी व सरकशी की गुमराही में। ख़ुदा को कायनात के इन्तिज़ाम से अमली तौर पर बेताल्लुक़ समझ लेने का लाज़िमी नतीजा यह है कि आदमी या तो अपनी क़िस्मत को दूसरों के हाथ में समझे और उनके आगे सिर झुका दे, या फिर अपनी क़िस्मत का मालिक ख़ुद अपने आप को समझे और ख़ुदमुख़्तार बन बैठे।
यहाँ एक बात और ध्यान देने के क़ाबिल है। क़ुरआन मजीद में ख़ुदा और उसकी मख़लूक़ (सृष्टि) के ताल्लुक़ को वाज़ेह करने के लिए इनसानी ज़बान में से ज़्यादा तर वे अलफ़ाज़, इस्तिलाहें (परिभाषाएँ), मिसालें और अन्दाज़े-बयान चुने गए हैं जो सल्तनत व बादशाही से ताल्लुक़ रखते हैं। बयान का यह अन्दाज़ क़ुरआन में इस कद्र नुमायाँ है कि कोई शख़्स जो समझकर क़ुरआन पढ़ता हो इसे महसूस किए बग़ैर नहीं रह सकता। कुछ कम समझ नाक़िदों (आलोचकों) के दूसरों से मुतास्सिर दिमाग़ों ने इससे यह नतीजा निकाला है कि यह किताब जिस ज़माने में तैयार की गई है उस ज़माने में इनसान के ज़ेहन पर शाही निज़ाम छाया हुआ था इसलिए तैयार करनेवाले ने (जिससे मुराद उन ज़ालिमों के नज़दीक मुहम्मद सल्ल० है) ख़ुदा को बादशाह के रंग में पेश किया। हालाँकि दर अस्ल क़ुरआन जिस दाइमी (शाश्वत) और हमेशा रहनेवाली हक़ीक़त को पेश कर रहा है वह इसके बरख़िलाफ़ है। वह हक़ीक़त यह है कि ज़मीन और आसमानों में बादशाही सिर्फ़ एक ज़ात की है, और हाकिमियत (Sovereignity) जिस चीज़ का नाम है वह उसी ज़ात के लिए ख़ास है और कायनात का यह निज़ाम एक मुकम्मल मर्कज़ी निज़ाम (केन्द्रीय व्यवस्था) है, जिसमें तमाम इख़्तियारात को वही एक ज़ात इस्तेमाल कर रही है। लिहाज़ा इस निज़ाम में जो शख़्स या गरोह अपनी या किसी और की जुज़्वी या कुल्ली (आंशिक या पूर्ण) हाकिमियत का दावेदार है, वह सिर्फ़ धोखे में पड़ा है। फिर यह बात भी है कि इस निज़ाम के अन्दर रहते हुए इनसान के लिए इसके सिवा कोई दूसरा रवैया सही नहीं हो उसी एक जात को मज़हबी मानी में अकेला माबूद भी माने और सियासी और समाजी मानी में अकेला बादशाह (Sovereign) भी तसलीम करे।
42. यह उसी मज़मून (विषय) की और ज़्यादा तशरीह है जो “इस्तिवा-अलल-अर्श” (अर्श पर जलवा फ़रमा होने) के अलफ़ाज़ में मुख़्तसर तौर पर बयान किया गया था। यानी यह कि ख़ुदा सिर्फ़ पैदा करनेवाला नहीं, हुक्म देनेवाला और हाकिम भी है। उसने अपनी मख़लूक़ (सृष्टि) को पैदा करके न तो दूसरों के हवाले कर दिया है कि वे उसमें हुक्म चलाएँ और न पूरी मख़लूक़ को या उसके किसी हिस्से को ख़ुदमुख़्तार बना दिया है कि जिस तरह चाहे ख़ुद काम करे, बल्कि अमली तौर पर तमाम कायनात का इन्तिज़ाम ख़ुदा के अपने हाथ में है। दिन और रात का आना और जाना आप-से-आप नहीं हो रहा है, बल्कि ख़ुदा के हुक्म से हो रहा है, जब चाहे उसे रोक दे और जब चाहे उसके निज़ाम को तब्दील कर दे। सूरज और चाँद और तारे ख़ुद किसी ताक़त के मालिक नहीं हैं, बल्कि उनकी लगाम पूरे तौर पर ख़ुदा के हाथ में है और वे मजबूर ग़ुलामों की तरह बस वही काम किए जा रहे हैं जो ख़ुदा उनसे ले रहा है।
43. बरकत के अस्ल मानी हैं बढ़ोतरी, पलने-बढ़ने और फैलने के और इसी के साथ इस लफ़्ज में बुलन्दी, अज़मत और बड़ाई के मानी भी पाए जाते हैं और मज़बूती और जमाव के भी। फिर इन सब मानी के साथ ख़ैर और भलाई का तसव्वुर लाज़िमन शामिल है। इसी लिए अल्लाह के निहायत बाबरकत होने का मतलब यह हुआ कि उसकी ख़ूबियों और भलाइयों की कोई हद नहीं है, बेहद व बेहिसाब भलाइयाँ उसकी ज़ात से फैल रही हैं, और वह बहुत बुलन्द व बरतर हस्ती है, कहीं जाकर उसकी बुलन्दी ख़त्म नहीं होती, और उसकी यह भलाई और बुलन्दी हमेशा बाक़ी रहनेवाली है, वक़्ती नहीं है कि कभी ख़त्म हो जाए, (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिये-1-19)