Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

سُورَةُ الأَعۡرَافِ

7. अल-आराफ़

(मक्का में उतरी, आयतें 206)

नाम

इस सूरा का नाम आराफ़ इसलिए रखा गया है कि इसकी मूल अरबी की आयत 46 में एक स्थान पर 'आराफ़' शब्द आया है, मानो इसे 'सूरा आराफ़' कहने का अर्थ यह है कि “वह सूरा जिसमें ‘आराफ़' (बुलन्दियो) का उल्लेख हुआ है।"

अवतरणकाल

इसके विषयों पर विचार करने से स्पष्ट रूप से महसूस होता है कि इसका अवतरणकाल लगभग वहीं है जो छठवीं सूरा अनआम का है। इसलिए इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को  समझने के लिए उस भूमिका पर एक दृष्टि डाल लेना पर्याप्त होगा जो हमने पिछली सूरा अनआम पर लिखी है।

वार्ताएँ

इस सूरा के व्याख्यान का केन्द्रीय विषय रसूल की पैरवी की ओर बुलाना है। समस्त वार्ता का उद्देश्य यह है कि सम्बोधित लोगों को अल्लाह के भेजे हुए पैग़म्बर की पैरवी करने पर तैयार किया जाए, लेकिन इस दावत में डरावे और चेतावनी का रंग अधिक स्पष्ट मिलता है, क्योंकि जिन लोगों को सम्बोधित किया है (अर्थात मक्कावाले) उन्हें समझाते-समझाते एक लंबा समय बीत चुका है और उनका न सुनना हठधर्मी और विरोधात्मक दुराग्रह इस सीमा को पहुँच चुका है कि बहुत जल्द पैग़म्बर को उनसे सम्बोधन बन्द करके दूसरों लोगों को संबोधित करने का आदेश मिलनेवाला है, इसलिए समझाने के अन्दाज़ में रसूल की पैरवी क़ुबूल करने की दावत देने के साथ उनको यह भी बताया जा रहा है कि जो नीति तुमने अपने पैग़म्बर के मुक़ाबले में अपना रखी है, ऐसी ही नीति तुमसे पहले की क़ौमें अपने पैग़म्बरों के मुकाबले में अपनाकर बहुत बुरा परिणाम देख चुकी हैं। फिर चूँकि उनपर बात सप्रमाण पूरी होने के क़रीब आ गई है, इसलिए व्याख्यान के अन्तिम भाग में आह्वान की दिशा उनसे हटकर किताबवालों [अर्थात यहूदी, ईसाई आदि] की ओर फिर गई है और एक जगह तमाम दुनिया के लोगों से सामान्य सम्बोधन भी किया गया है, जो इसकी निशानी है कि अब हिजरत क़रीब है और वह दौर जिसमें नबी का सम्बोधन पूर्णत: अपने निकटवर्ती लोगों से हुआ करता है, समाप्ति पर आ लगा है।

अभिभाषण के बीच में चूँकि सम्बोधन यहूदियों की ओर भी फिर गया है, इसलिए साथ-साथ रसूल की पैरवी की ओर बुलाने के इस पहलू को भी स्पष्ट कर दिया गया है कि पैग़म्बर पर ईमान लाने के बाद उसके साथ मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियो) जैसी नीति अपनाने और सुनने और उसपर अमल करने की दृढ़ प्रतिज्ञा करने के बाद उसे तोड़ देने और सत्य-असत्य के अन्तर को जान लेने के बाद असत्यवाद में डूबे रहने का परिणाम क्या है।

सूरा के अन्त में नबी (सल्ल०) और आपके साथियों (सहाबा) को प्रचार-नीति के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण निर्देश दिए गए हैं और मुख्य रूप से उन्हें नसीहत की गई है कि विरोधियों की भड़कानेवाली बातों और उनके जुल्मो-सितम के मुकाबले में सब्र और धैर्य से काम लें और भावनाओं के प्रवाह में आकर कोई ऐसा क़दम न उठाएँ जो मूल उद्देश्य को क्षति पहुँचानेवाला हो।

 

---------------------

سُورَةُ الأَعۡرَافِ
7. अल-आराफ़
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
الٓمٓصٓ
(1) अलिफ़-लाम-मीम सॉद।
كِتَٰبٌ أُنزِلَ إِلَيۡكَ فَلَا يَكُن فِي صَدۡرِكَ حَرَجٞ مِّنۡهُ لِتُنذِرَ بِهِۦ وَذِكۡرَىٰ لِلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 1
(2) यह एक किताब है जो तुम्हारी तरफ़ उतारी गई है1, इसलिए ऐ नबी! तुम्हारे दिल में इससे कोई झिझक न हो,2 इसके उतारने का मक़सद यह है कि तुम इसके ज़रिए से (इनकारियों को) डराओ और ईमान लानेवाले लोगों को नसीहत हो।3
1. किताब से मुराद यही सूरा आराफ़ है।
1. किताब से मुराद यही सूरा आराफ़ है। 2. यानी बिना किसी झिझक और डर के इसे लोगों तक पहुँचा दो और इस बात की कुछ परवाह न करो कि मुख़ालफ़त करनेवाले इसके साथ कैसा सुलूक करते हैं। वे बिगड़ते हैं, बिगड़ें मज़ाक़ उड़ाते हैं, उड़ाएँ। तरह-तरह की बातें बनाते हैं, बनाएँ। दुश्मनी में और ज़्यादा सख़्त होते हैं, हो जाएँ। तुम बेखटके इस पैग़ाम को पहुँचाओ और इसकी तबलीग़ (प्रचार) में झिझक और डर महसूस न करो। जिस मफ़हूम (मतलब) के लिए हमने लफ़्ज़ झिझक इस्तेमाल किया है, अस्ल अरबी इबारत में उसके लिए लफ़्ज़ “ह-र-जुन” इस्तेमाल हुआ है। अरबी लुग़त (शब्दकोश) के मुताबिक़ “हरज” उस घनी झाड़ी को कहते हैं जिसमें से गुज़रना मुश्किल हो। दिल में हरज होने का मतलब यह हुआ कि मुख़ालफ़तों और रुकावटों के बीच अपना रास्ता साफ़ न पाकर आदमी का दिल आगे बढ़ने से रुके। इसी बात को क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर दिल की तंगी भी कहा गया है। जैसे कि “ऐ नबी, हमें मालूम है कि जो बातें ये लोग बनाते हैं, उनसे तुम्हारा दिल तंग होता है।” (क़ुरआन; सूरा-22 हिज्र, आयत-97) यानी तुम्हें परेशानी हो जाती है कि जिन लोगों की ज़िद, हठधर्मी और हक़ की मुख़ालफ़त का यह हाल है, उन्हें आख़िर किस तरह सीधी राह पर लाया जाए। “तो कहीं ऐसा न हो कि जो कुछ तुमपर उतारा जा रहा है, उसमें से कोई चीज़ तुम बयान करने से छोड़ दो और इस बात से तुम्हारा दिल तंग हो कि वे तुम्हारे पैग़ाम के जवाब में कहेंगे कि इसपर कोई ख़ज़ाना क्यों न उतरा या इसके साथ कोई फ़रिश्ता क्यों न आया।” (क़ुरआन; सूरा-11 हूद, आयत-12)
3. मतलब यह है कि इस सूरा का अस्ल मक़सद तो है लोगों को डराना यानी रसूल की दावत क़ुबूल न करने के नतीजों से डराना और ग़ाफ़िलों को चौंकाना और ख़बरदार करना। रही ईमानवालों की याददिहानी तो वह एक अलग फ़ायदा है जो डराने के साथ ही ख़ुद-ब-ख़ुद हासिल हो जाता है।
ٱتَّبِعُواْ مَآ أُنزِلَ إِلَيۡكُم مِّن رَّبِّكُمۡ وَلَا تَتَّبِعُواْ مِن دُونِهِۦٓ أَوۡلِيَآءَۗ قَلِيلٗا مَّا تَذَكَّرُونَ ۝ 2
(3) लोगो! जो कुछ तुम्हारे रब की तरफ़ से तुमपर उतारा गया है, उसकी पैरवी करो और अपने रब को छोड़कर दूसरे सरपरस्तों की पैरवी न करो,4 मगर तुम नसीहत कम ही मानते हो।
4. यह इस सूरा का मर्कज़ी मज़मून (केन्द्रीय विषय) है। अस्ल दावत जो ख़ुतबे में दी गई है वह यही है कि इनसान को दुनिया में ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए जिस हिदायत और रहनुमाई की ज़रूरत है, अपनी और कायनात (सृष्टि) की हक़ीक़त और अपने वुजूद का मक़सद समझने के लिए जो इल्म उसे दरकार है, और अपने अख़लाक़, तहज़ीब, समाज और रहन-सहन को सही बुनियादों पर क़ायम करने के लिए जिन उसूलों का वह मुहताज है, उन सबके लिए उसे सिर्फ़ तमाम जहानों के रब अल्लाह को अपना रहनुमा मानना चाहिए और सिर्फ़ उसी हिदायत की पैरवी इख़्तियार करनी चाहिए जो अल्लाह ने अपने रसूलों के ज़रिए से भेजी है। अल्लाह को छोड़कर किसी दूसरे रहनुमा से हिदायत चाहना और अपने आपको उसकी रहनुमाई के हवाले कर देना इनसान के लिए बुनियादी तौर पर एक ग़लत रवैया है, जिसका नतीजा हमेशा तबाही की शक्ल में निकला है और हमेशा तबाही की शक्ल ही में निकलेगा। यहाँ औलिया (सरपरस्तों) का लफ़्ज़ इस मानी में इस्तेमाल हुआ है कि इनसान जिसकी रहनुमाई पर चलता है, उसे अस्ल में अपना वली या सरपरस्त बनाता है, चाहे ज़बान से उसकी तारीफ़ करता हो या उसपर धुत्कार और लानत की बौछार करता हो, चाहे उसकी सरपरस्ती को क़ुबूल करता हो या पूरे ज़ोर के साथ इससे इनकार करे। (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखें— सूरा-42 शूरा, हाशिया-6)
وَكَم مِّن قَرۡيَةٍ أَهۡلَكۡنَٰهَا فَجَآءَهَا بَأۡسُنَا بَيَٰتًا أَوۡ هُمۡ قَآئِلُونَ ۝ 3
(4) कितनी ही बस्तियाँ हैं जिन्हें हमने हलाक कर दिया। उनपर हमारा अज़ाब अचानक रात के वक़्त टूट पड़ा, या दिन दहाड़े ऐसे वक़्त आया जबकि वे आराम कर रहे थे।
فَمَا كَانَ دَعۡوَىٰهُمۡ إِذۡ جَآءَهُم بَأۡسُنَآ إِلَّآ أَن قَالُوٓاْ إِنَّا كُنَّا ظَٰلِمِينَ ۝ 4
(5) और जब हमारा अज़ाब उनपर आ गया तो उनकी ज़बान पर इसके सिवा कोई बात न थी कि वाक़ई हम ज़ालिम थे5
5. यानी तुम्हें सबक़ और इबरत देने के लिए उन क़ौमों की मिसालें मौजूद हैं जो ख़ुदा की हिदायत से मुँह मोड़कर इनसानों और शैतानों की रहनुमाई पर चलीं और आख़िरकार इतनी ज़्यादा बिगड़ों कि ज़मीन पर उनका वुजूद एक नाक़ाबिले-बर्दाश्त लानत बन गया और ख़ुदा के अज़ाब ने आकर उनकी गन्दगी से दुनिया को पाक कर दिया। आख़िरी जुमले का मक़सद दो बातों पर ख़बरदार करना है। एक यह कि भरपाई का वक़्त गुज़र जाने के बाद किसी का होश में आना और अपनी ग़लती को मानना बेकार है। बेहद नादान है। वह शख़्स और वह क़ौम जो ख़ुदा की दी हुई मुहलत को लापरवाहियों और मौज-मस्तियों में गुम होकर बरबाद कर दे और हक़ की तरफ़ बुलानेवालों की पुकारों को बहरे कानों से सुने जाए और होश में सिर्फ़ उस वक़्त आए जब अल्लाह की पकड़ का मज़बूत हाथ उसपर पड़ चुका हो। दूसरे यह कि लोगों की ज़िन्दगियों में भी और क़ौमों की ज़िन्दगियों में भी एक-दो नहीं अनगिनत मिसालें तुम्हारे सामने गुज़र चुकी हैं कि जब किसी के पापों का घड़ा भर जाता और वह अपनी मुहलत की हद को पहुँच जाता है, तो फिर ख़ुदा की गिरफ़्त उसे अचानक आ पकड़ती है, और एक बार पकड़ में आ जाने के बाद छुटकारे की कोई राह उसे नहीं मिलती। फिर जब तारीख़ (इतिहास) के दौरान में एक-दो बार नहीं, सैकड़ों और हज़ारों बार यही कुछ हो चुका है तो आख़िर क्या ज़रूरी है कि इनसान इसी ग़लती को बार-बार दोहराता चला जाए और होश में आने के लिए उसी घड़ी का इन्तिज़ार करता रहे, जब होश में आने का कोई फ़ायदा हसरत और पछतावे के सिवा कुछ नहीं होता।
فَلَنَسۡـَٔلَنَّ ٱلَّذِينَ أُرۡسِلَ إِلَيۡهِمۡ وَلَنَسۡـَٔلَنَّ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 5
(6) तो यह ज़रूर होकर रहना है कि हम उन लोगों से पूछगच्छ करें,6 जिनकी तरफ़ हमने पैग़म्बर भेजे हैं और पैग़म्बरों से भी पूछें (कि उन्होंने पैग़ाम पहुँचाने की ज़िम्मेदारी कहाँ तक निभाई और उन्हें इसका क्या जवाब मिला),7
6. पूछ-गछ से मुराद क़ियामत के दिन की पूछ-गछ है। बुरे काम करनेवाले लोगों और क़ौमों पर दुनिया में जो अज़ाब आता है वह अस्ल में उनके कर्मों की पूछ-गछ नहीं है और न वह उनके जुर्मों की पूरी सज़ा है, बल्कि उसकी हैसियत तो बिलकुल ऐसी है जैसे कोई मुजरिम जो छूटा फिर रहा था, अचानक गिरफ़्तार कर लिया जाए और आगे और ज़्यादा ज़ुल्म व फ़साद करने के मौक़े उससे छीन लिए जाएँ। इनसानी तारीख़ (मानव-इतिहास) इस तरह की गिरफ़्तारियों की अनगिनत मिसालों से भरी पड़ी है और ये मिसालें इस बात की एक खुली अलामत (निशानी) हैं कि इनसान को दुनिया में बे-नकेल के ऊँट की तरह छोड़ नहीं दिया गया है कि जो चाहे करता फिरे, बल्कि ऊपर कोई ताक़त है जो एक ख़ास हद तक उसे ढील देती है। ख़बरदार पर ख़बरदार करती है कि अपनी शरारतों से रुक जाए, और जब वह किसी तरह नहीं मानता तो उसे अचानक पकड़ लेती है। फिर अगर कोई इस तारीख़ी तजरिबे पर ग़ौर करे तो आसानी से यह नतीजा भी निकाल सकता है कि जो हाकिम (शासक) इस कायनात पर हुकूमत कर रहा है, उसने ज़रूर ऐसा एक वक़्त मुक़र्रर किया होगा जब इन सारे मुजरिमों पर अदालत क़ायम होगी और उनसे उनके कामों के बारे में पूछ-गछ की जाएगी। यही वजह है कि ऊपर की आयत को जिसमें दुनियावी अज़ाब का ज़िक्र किया गया है, बादवाली आयत के साथ लफ़्ज़ “तो” के साथ जोड़ दिया गया है, यानी इस दुनियावी अज़ाब का बार-बार आना इस बात की एक दलील है कि यक़ीनन आख़िरत की पूछ-गछ होगी।
7. इससे मालूम हुआ कि आख़िरत की पूछ-गछ सरासर रिसालत ही की बुनियाद पर होगी। एक तरफ़ पैग़म्बरों से पूछा जाएगा कि तुमने इनसानों तक ख़ुदा का पैग़ाम पहुँचाने के लिए क्या कुछ किया। दूसरी तरफ़ जिन लोगों तक रसूलों का पैग़ाम पहुँचा उनसे सवाल किया जाएगा कि इस पैग़ाम के साथ तुमने क्या बरताव किया। जिस शख़्स या जिन इनसानी गरोहों तक नबियों का पैग़ाम न पहुँचा हो, उनके बारे में तो क़ुरआन हमें कुछ नहीं बताता कि उनके मुक़द्दमों का क्या फ़ैसला किया जाएगा। इस मामले में अल्लाह तआला ने अपना फ़ैसला महफ़ूज़ रखा है। लेकिन जिन लोगों और क़ौमी तक पैग़म्बरों की तालीम पहुँच चुकी है, उनके बारे में क़ुरआन साफ़ कहता है कि वे अपने कुफ़्र व इनकार और फ़िस्क़ व नाफ़रमानी के लिए कोई बहाना न पेश कर सकेंगे और उनका अंजाम इसके सिवा कुछ न होगा कि पछतावे और शर्मिन्दगी के साथ हाथ मलते हुए जहन्नम की तरफ़ चल पड़ें।
فَلَنَقُصَّنَّ عَلَيۡهِم بِعِلۡمٖۖ وَمَا كُنَّا غَآئِبِينَ ۝ 6
(7) फिर हम ख़ुद पूरे इल्म के साथ सारी दास्तान उनके आगे पेश कर देंगे, आख़िर हम कहीं गायब तो नहीं थे।
وَٱلۡوَزۡنُ يَوۡمَئِذٍ ٱلۡحَقُّۚ فَمَن ثَقُلَتۡ مَوَٰزِينُهُۥ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 7
(8) और वज़न उस दिन बिलकुल हक़'8 (सत्य) होगा। जिनके पलड़े भारी होंगे, वही कामयाबी पाएँगे।
8. इसका मतलब यह है कि उस दिन ख़ुदा के इनसाफ़ के तराज़ू में वज़न और हक़ (सत्य) दोनों का मतलब एक ही होगा। हक़ के सिवा वहाँ कोई चीज़ वज़नी न होगी और वज़न के सिवा कोई चीज़ हक़ न होगी। जिसके साथ जितना हक़ होगा उतना ही वह वज़नदार होगा। और फ़ैसला जो कुछ भी होगा वज़न के लिहाज से होगा, किसी दूसरी चीज़ का ज़र्रा बराबर लिहाज़ न किया जाएगा। बातिल (मिथ्या) की पूरी ज़िन्दगी चाहे दुनिया में कितनी ही लम्बी-चौड़ी रही हो और कितने ही बज़ाहिर शानदार कारनामे उससे जुड़े हों, उस तराज़ू में सरासर बेवज़न ठहरेगी। बातिल-परस्त (मिथ्याचारी) जब उस तराज़ू में तौले जाएँगे तो अपनी आँखों से देख लेंगे कि दुनिया में जो कुछ वे सारी उम्र करते रहे वह सब मक्खी के एक पंख के बराबर भी वज़न नहीं रखता। यही बात है जो सूरा-18 कह्फ़ की आयत 103 से 105 में कही गई है कि जो लोग दुनिया की ज़िन्दगी में सब कुछ दुनिया ही के लिए करते रहे और अल्लाह की आयतों से इनकार करके जिन लोगों ने यह समझते हुए काम किया कि आख़िरकार कोई आख़िरत नहीं है और किसी को हिसाब देना नहीं है, इस दुनिया में उनके ज़रिए किए गए कारनामों को आख़िरत में हम कोई वज़न न देंगे।
وَمَنۡ خَفَّتۡ مَوَٰزِينُهُۥ فَأُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُم بِمَا كَانُواْ بِـَٔايَٰتِنَا يَظۡلِمُونَ ۝ 8
(9) और जिनके पलड़े हलके रहेंगे, वही अपने आपको घाटे में डालनेवाले होंगे9; क्योंकि वे हमारी आयतों के साथ ज़ालिमाना बर्ताव करते रहे थे।
9. इस विषय को यूँ समझिए कि इनसान ने ज़िन्दगी में जो कुछ किया होगा वह दो पहलुओं (पहलुओं) में बंट जाएगा। एक मुसबत (सकारात्मक) पहलू और दूसरा मनफ़ी (नकारात्मक) पहलू । मुसबत पहलू में सिर्फ़ हक़ को जानना और मानना और हक़ की पैरवी में हक़ ही की ख़ातिर काम करना गिना जाएगा और आख़िरत में अगर कोई चीज़ वज़नी और क़ीमती होगी तो वह बस यही होगी। इसके बर-ख़िलाफ़ हक़ से गाफ़िल होकर या हक़ से मुँह मोड़कर इनसान जो कुछ भी अपने मन की ख़ाहिश या दूसरे इनसानों और शैतानों की पैरवी करते हुए ग़ैर-हक़ (असत्य) की राह में करता है वह सब मनफ़ी पहलू में जगह पाएगा और सिर्फ़ यही नहीं कि यह मनफ़ी पहलू अपने आप में बेक़द्र होगा, बल्कि यह आदमी के मुसबत पहलुओं की क़द्र व अहमियत भी घटा देगा। तो आख़िरत में इनसान की फ़लाह व कामयाबी का सारा दारोमदार इसपर है कि उसकी ज़िन्दगी में किए गए कामों का मुसबत (सकारात्मक) पहलू उसके मनफ़ी पहलू पर ग़ालिब हो और नुक़सानात में बहुत कुछ दे-दिलाकर भी उसके हिसाब में कुछ न कुछ बचा रह जाए। रहा वह शख़्स जिसकी ज़िन्दगी का मनफ़ी पहलू उसके तमाम मुसबत पहलुओं को दबा ले तो उसका हाल बिलकुल उस दीवालिए कारोबारी का-सा होगा जिसकी सारी दौलत घाटों का भुगतान करने और क़र्ज़ चुकाने में ही खप जाए और फिर भी कुछ न कुछ मुतालबे उसके ज़िम्मे बाक़ी रह जाएँ।
وَلَقَدۡ مَكَّنَّٰكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَجَعَلۡنَا لَكُمۡ فِيهَا مَعَٰيِشَۗ قَلِيلٗا مَّا تَشۡكُرُونَ ۝ 9
(10) हमने तुम्हें ज़मीन में इख़्तियार के साथ बसाया और तुम्हारे लिए यहाँ ज़िन्दगी का सामान जुटाया, मगर तुम लोग कम ही शुक्रगुज़ार होते हो।
وَلَقَدۡ خَلَقۡنَٰكُمۡ ثُمَّ صَوَّرۡنَٰكُمۡ ثُمَّ قُلۡنَا لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ ٱسۡجُدُواْ لِأٓدَمَ فَسَجَدُوٓاْ إِلَّآ إِبۡلِيسَ لَمۡ يَكُن مِّنَ ٱلسَّٰجِدِينَ ۝ 10
(11) हमने तुम्हारी पैदाइश की शुरुआत की, फिर तुम्हारी सूरत बनाई, फिर फ़रिश्तों से कहा कि आदम को सजदा करो।10 इस हुक्म पर सबने सजदा किया, मगर इबलीस सजदा करनेवालों में शामिल न हुआ।
10. तक़ाबुल (तुलना) के लिए देखें— सूरा-2 बक़रा की आयतें 30 से 39 तक। सूरा बक़रा में सजदे का हुक्म देने का ज़िक्र जिन लफ़्ज़ों में आया है उनमें यह शक हो सकता है कि फ़रिश्तों को सजदा करने का हुक्म सिर्फ़ आदम (अलैहि०) की शख़्सियत के लिए दिया गया था, मगर यहाँ वह शक दूर हो जाता है। यहाँ इस बात को जिस तरह से बयान किया गया है उससे साफ़ मालूम होता है कि आदम (अलैहि०) को जो सजदा कराया गया था वह आदम होने की हैसियत से नहीं बल्कि, नौए-इनसानी (मानव-जाति) का नुमाइन्दा शख़्स होने की हैसियत से था। और यह जो कहा कि “हमने तुम्हारी पैदाइश की शुरुआत की, फिर तुम्हारी सूरत बनाई, फिर फ़रिश्तों को हुक्म दिया कि आदम को सजदा करो,” इसका मतलब यह है कि हमने पहले तुम्हारी पैदाइश का मंसूबा बनाया, और फिर तुम्हारी पैदाइश का माद्दा (तत्व) तैयार किया, फिर उस माद्दे (तत्व) को इनसानी शक्ल दी, फिर जब एक ज़िन्दा हस्ती की हैसियत से इनसान वुजूद में आ गया तो उसे सजदा करने के लिए फ़रिश्तों को हुक्म दिया। इस आयत का यह मतलब ख़ुद क़ुरआन मजीद में दूसरी जगहों पर बयान हुआ है। मिसाल के तौर पर सूरा-38 सॉद में है, “ख़याल करो उस वक़्त का जबकि तुम्हारे रब ने फ़रिश्तों से कहा कि मैं एक इनसान मिट्टी से पैदा करनेवाला हूँ; फिर जब मैं उसे पूरी तरह तैयार कर लूँ और उसके अन्दर अपनी रूह से कुछ फूँक दूँ तो तुम सब उसके आगे सजदे में गिर जाना।” (आयत 71-72) इस आयत में वही तीन मरहले (चरण) एक-दूसरे अन्दाज़ में बयान किए गए हैं। यानी पहले मिट्टी से एक इनसान को बनाना, फिर उसको ठीक-ठाक करना यानी शक्ल-सूरत बनाना और उसके जिस्म के हिस्सों और उसके अन्दर रखी गई क़ुव्वतों को मुनासिब अन्दाज़ में रखना, फिर उसके अन्दर अपनी रूह से कुछ फूँककर आदम को वुजूद में ले आना। इसी मज़मून को सूरा-15 हिज्र में इस तरह बयान किया गया है, “और ख़याल करो उस वक़्त का जबकि तुम्हारे रब ने फ़रिश्तों से कहा कि मैं ख़मीर उठी हुई मिट्टी के गारे से एक इनसान पैदा करनेवाला हूँ, फिर जब मैं उसे पूरी तरह तैयार कर लूँ और उसके अन्दर अपनी रूह से कुछ फूँक दूँ तो तुम सब उसके आगे सजदे में गिर पड़ना।“ (आयत 28-29) इनसान की पैदाइश की इस शुरुआत को उसकी तफ़सीली कैफ़ियत के साथ समझना हमारे लिए मुश्किल है। हम इस हक़ीक़त को पूरी तरह नहीं समझ सकते कि ज़मीनी चीज़ (तत्व) से इनसान किस तरह बनाया गया, फिर उसकी शक्ल-सूरत कैसे बनी और उसकी तमाम चीज़ों को मुनासिब अन्दाज़ कैसे दिया और उसके अन्दर रूह फूँकने की शक्ल क्या थी। लेकिन बहरहाल यह बात बिलकुल ज़ाहिर है कि क़ुरआन मजीद इनसानियत के आग़ाज़ (शुरुआत) की कैफ़ियत उन नज़रियों और ख़यालों के ख़िलाफ़ बयान करता है जो मौजूदा ज़माने में डार्विन को माननेवाले साइंस के नाम से पेश करते हैं। इन नज़रियों के मुताबिक़ इनसान ग़ैर-इनसानी और नीम (अर्ध) इनसानी हालत के मुख़्तलिफ़ मरहलों से तरक़्क़ी करता हुआ इनसानियत के दरजे तक पहुँचा है और इस दरजा-ब-दरजा तरक़्क़ी करने के इस लम्बे मरहले में कोई ख़ास नुक्ता ऐसा नहीं हो सकता, जहाँ से ग़ैर-इनसानी हालत को ख़त्म ठहराकर 'इनसानी नस्ल' की शुरुआत मान ली जाए। इसके बरख़िलाफ़ क़ुरआन हमें बताता है कि इनसानियत का आग़ाज़ ख़ालिस इनसानियत ही से हुआ है। उसकी तारीख़ (इतिहास) किसी ग़ैर-इनसानी हालत से क़तई कोई रिश्ता नहीं रखती, वह पहले दिन से इनसान ही बनाया गया था और ख़ुदा ने उसके कामिल इनसानी शुऊर के साथ पूरी रौशनी में उसकी ज़मीनी ज़िन्दगी की शुरुआत की थी। इनसानियत की तारीख़ (इतिहास) के बारे में दो अलग-अलग नजरिये हैं, और इनसे इनसानियत के दो बिलकुल अलग-अलग तसव्वुर पैदा होते हैं। एक तसव्वुर को इख़्तियार कीजिए तो आपको इनसान जानवरों की एक क़िस्म नज़र आएगा। उनकी ज़िन्दगी के तमाम क़ानून, यहाँ तक कि किसी अख़लाक़ी क़ानून के लिए भी आप बुनियादी उसूल उन क़ानूनों में तलाश करेंगे जिनके तहत जानवरों की ज़िन्दगी चल रही है। उसके लिए जानवरों का-सा रवैया अपको बिलकुल एक फ़ितरी रवैया मालूम होगा। ज़्यादा-से-ज़्यादा जो फ़र्क़ इनसानी रवैये और हैवानी रवैये में आप देखना चाहेंगे वह बस इतना ही होगा कि जानवर जो कुछ मशीनों और ज़िन्दगी में इस्तेमाल होनेवाले दूसरे साज़ो-सामान और तहज़ीबी नक़्शो-निगार के बग़ैर करते हैं, इनसान वही सब कुछ इन चीज़ों के साथ कर ले। इसके बरख़िलाफ़ दूसरा तस्सवुर इख़्तियार करते ही इनसान को जानवर के बजाय ‘इनसान’ होने की हैसियत से देखेंगे। आपकी निगाह में वह ‘बात करनेवाला जानवर’ या ‘सामाजिक जानवर’ (Social Animal) नहीं होगा, बल्कि धरती पर ख़ुदा का ख़लीफ़ा (प्रतिनिधि) होगा। आपके नज़दीक वह चीज़ जो उसे दूसरे जानवरों से अलग करती है, उसका बात कर लेना या उसका सामाजिक होना न होगा, बल्कि उसकी अख़लाक़ी ज़िम्मेदारी और इख़्तियारों की वह अमानत होगी जिसे ख़ुदा ने उसके सिपुर्द किया है और जिसकी बिना पर वह ख़ुदा के सामने जवाबदेह है। इस तरह इनसानियत और उससे जुड़े तमाम मामलों पर आपकी नज़र सोचने के पहले अन्दाज़ से बिलकुल मुख़्तलिफ़ हो जाएगी। आप इनसान के लिए ज़िन्दगी का एक दूसरा ही फ़लसफ़ा (दर्शन) और अख़लाक़ी, सामाजिक और क़ानूनी एतिबार से एक दूसरा ही निज़ाम तलब करने लगेंगे और उस फ़लसफ़े और निज़ाम के उसूल और बुनियादें तलाश करने के लिए आपकी निगाह ख़ुद-ब-ख़ुद पाताल के बजाय आसमान की तरफ़ उठने लगेगी। एतिराज़ किया जा सकता है कि इनसान के बारे में यह दूसरा तसव्वुर (नज़रिया) चाहे अख़लाक़ी और नफ़सियाती (मनोवैज्ञानिक) हैसियत से कितना ही बुलन्द हो, मगर महज़ इस ख़याल की ख़ातिर एक नज़िरये को किस तरह रद्द कर दिया जाए जो साइंटिफ़िक दलीलों से साबित है। लेकिन जो लोग यह एतिराज़ करते हैं उनसे हमारा सवाल यह है कि क्या सचमुच इनसान के बारे में डार्विन का यह नज़रिया कि 'वह जानवर से धीरे-धीरे तरक़्क़ी करते हुए इनसान बना', साइंटिफ़िक दलीलों से साबित हो चुका है। साइंस की महज़ सरसरी जानकारी रखनेवाले लोग तो बेशक इस ग़लतफ़हमी में हैं कि यह नज़रिया एक साबित-शुदा इल्मी हक़ीक़त बन चुका है, लेकिन सच्चाई का पता लगानेवाले इस बात को जानते हैं कि अलफ़ाज़़ और हड्डियों के लम्बे चौड़े सरो-सामान के बावजूद अभी तक यह सिर्फ़ एक नज़रिया ही है और इसकी जिन दलीलों को ग़लती से सुबूत की दलीलें कहा जाता है वे अस्ल में इमकान (सम्भावना) की दलीलें हैं, यानी उनकी बिना पर ज़्यादा-से-ज़्यादा बस इतना ही कहा जा सकता है कि डार्विन के तरक़्क़ी के इस नज़रिये का वैसा ही इमकान है जैसा इस बात का है कि एक-एक इनसान और एक-एक जानवर को अलग-अलग बनाया गया हो।
قَالَ مَا مَنَعَكَ أَلَّا تَسۡجُدَ إِذۡ أَمَرۡتُكَۖ قَالَ أَنَا۠ خَيۡرٞ مِّنۡهُ خَلَقۡتَنِي مِن نَّارٖ وَخَلَقۡتَهُۥ مِن طِينٖ ۝ 11
(12) पूछा, “तुझे किस चीज़ ने सजदा करने से रोका, जबकि मैंने तुझको हुक्म दिया था?” बोला, “मैं उससे बेहतर हूँ। तूने मुझे आग से पैदा किया है और उसे मिट्टी से।"
قَالَ فَٱهۡبِطۡ مِنۡهَا فَمَا يَكُونُ لَكَ أَن تَتَكَبَّرَ فِيهَا فَٱخۡرُجۡ إِنَّكَ مِنَ ٱلصَّٰغِرِينَ ۝ 12
(13) फ़रमाया, “अच्छा, तू यहाँ से नीचे उतर। तुझे हक़ नहीं है कि यहाँ बड़ाई का घमंड करे। निकल जा कि हक़ीक़त में तू उन लोगों में से है जो ख़ुद अपनी रुसवाई चाहते हैं।"11
11. अरबी में लफ़्ज़ 'साग़िरीन' इस्तेमाल हुआ है। 'साग़िर' के मानी हैं— 'वह जो रुसवाई और छोटी हैसियत को ख़ुद इख़्तियार करे'। इसलिए अल्लाह तआला के कहने का मतलब यह था कि बन्दा और मख़लूक़ होने के बावजूद तेरा अपनी बड़ाई के घमण्ड में पड़ना और अपने रब के हुक्म से इस बिना पर बग़ावत करना कि अपनी इज़्ज़त और बड़ाई का जो तसव्वुर तूने ख़ुद क़ायम कर लिया है उसके लिहाज़ से वह हुक्म तुझे अपनी तौहीन करनेवाला नज़र आता है, यह अस्ल में यह मानी रखता है कि तू ख़ुद अपनी रुसवाई चाहता है। बड़ाई का झूठा घमण्ड, इज़्ज़त का बे-बुनियाद दावा और किसी निजी हक़ के बग़ैर अपने आपको ख़ाह-मख़ाह बुज़ुर्गी के मनसब पर समझ बैठना, तुझे बड़ा इज़्ज़तवाला और बुज़ुर्ग नहीं बना सकता बल्कि तुझे छोटा और रुसवा और नीचा ही बनाएगा। और अपनी इस ज़िल्लत व रुसवाई का सबब तू आप ही होगा।
قَالَ أَنظِرۡنِيٓ إِلَىٰ يَوۡمِ يُبۡعَثُونَ ۝ 13
(14) बोला, “मुझे उस दिन तक मुहलत दे जबकि ये सब दोबारा उठाए जाएँगे।”
قَالَ إِنَّكَ مِنَ ٱلۡمُنظَرِينَ ۝ 14
(15) फ़रमाया, “तुझे मुहलत है।”
قَالَ فَبِمَآ أَغۡوَيۡتَنِي لَأَقۡعُدَنَّ لَهُمۡ صِرَٰطَكَ ٱلۡمُسۡتَقِيمَ ۝ 15
(16) बोला, “अच्छा तो जिस तरह तूने मुझे गुमराही में डाला है, मैं भी अब तेरी सीधी राह पर इन इनसानों की घात में लगा रहूँगा,
ثُمَّ لَأٓتِيَنَّهُم مِّنۢ بَيۡنِ أَيۡدِيهِمۡ وَمِنۡ خَلۡفِهِمۡ وَعَنۡ أَيۡمَٰنِهِمۡ وَعَن شَمَآئِلِهِمۡۖ وَلَا تَجِدُ أَكۡثَرَهُمۡ شَٰكِرِينَ ۝ 16
(17) आगे और पीछे, दाएँ और बाएँ, हर तरफ़ से इनको घेरूँगा और तू इनमें से ज़्यादातर लोगों को शुक्रगुज़ार न पाएगा।"12
12. यह वह चैलेंज था जो इबलीस ने ख़ुदा को दिया। उसके कहने का मतलब यह था कि यह मुहलत जो आपने मुझे क़ियामत तक के लिए दी है, इससे फ़ायदा उठाकर मैं यह साबित करने के लिए पूरा ज़ोर लगा दूँगा कि इनसान उस बड़ाई का हक़दार नहीं है जो आपने मेरे मुक़ाबले में उसे दी है। मैं आपको दिखा दूँगा कि यह कैसा नाशुक्रा, कैसा नमक-हराम और कैसा एहसान-फ़रामोश (कृतघ्न) है। यह मुहलत जो शैतान ने माँगी और ख़ुदा ने उसे दे दी, इससे मुराद सिर्फ़ वक़्त ही नहीं, बल्कि उस काम का मौक़ा देना भी है जो वह करना चाहता था। यानी उसकी माँग यह थी कि मुझे इनसान को बहकाने और उसकी कमज़ोरियों से फ़ायदा उठाकर उसका निकम्मापन साबित करने का मौक़ा दिया जाए। और यह मौक़ा अल्लाह तआला ने उसे दे दिया। चुनाँचे सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत 61 से 65 में उसका बयान है कि अल्लाह तआला ने उसे इख़्तियार दे दिया कि आदम और उसकी औलाद को सीधे रास्ते से हटा देने के लिए जो चालें वह चलना चाहता है, चले। उन चालबाज़ियों से उसे रोका नहीं जाएगा, बल्कि वे सब रास्ते खुले रहेंगे जिनसे वह इनसान को फ़ितने में डालना चाहेगा। लेकिन इसके साथ शर्त यह लगा दी कि “मेरे बन्दों पर तुझे कोई इख़्तियार न होगा।” (सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-65) तू सिर्फ़ यह तो कर सकता है कि उसको ग़लतफ़हमियों में डाले, झूठी उम्मीदें दिलाए, बुराई और गुमराही को उनके सामने लुभावनी बनाकर पेश करे, लज़्ज़तों और फ़ायदों के हरे-भरे बाग़ दिखाकर उनको ग़लत रास्तों की तरफ़ बुलाए मगर यह ताक़त तुझे नहीं दी जाएगी कि उन्हें हाथ पकड़कर ज़बरदस्ती अपने रास्ते पर खींच ले जाए, और अगर वे ख़ुद सीधे रास्ते पर चलना चाहें तो उन्हें न चलने दे। यही बात सूरा-14 इबराहीम की 22वीं आयत में कही गई है कि क़ियामत में अल्लाह की अदालत में फ़ैसला हो जाने के बाद शैतान अपनी पैरवी करनेवाले इनसानों से कहेगा, “मेरा तुमपर कोई ज़ोर तो था नहीं कि मैंने अपनी पैरवी पर तुम्हें मजबूर किया हो। मैंने इसके सिवा कुछ नहीं किया कि तुम्हें अपनी राह पर बुलाया और तुमने मेरी दावत क़ुबूल कर ली। लिहाज़ा अब मुझे मलामत न करो, बल्कि अपने आपको मलामत करो।" और यह जो शैतान ने ख़ुदा पर इलज़ाम लगाया है कि तूने मुझे गुमराही में डाला तो इसका मतलब यह है कि शैतान ने ख़ुदा के हुक्म की जो नाफ़रमानी की उसकी ज़िम्मेदारी वह ख़ुदा पर डालता है। उसको शिकायत है कि आदम को सजदा करने का हुक्म देकर तूने मुझे फ़ितने में डाला और मेरे नफ़्स के तकब्बुर (मन के अहं) को ठेस लगाकर मुझे इस हालत में डाल दिया कि मैंने तेरी नाफ़रमानी की। मानो उस बेवक़ूफ़ की ख़ाहिश यह थी कि उसके मन की चोरी पकड़ी न जाती, बल्कि जिस घमण्ड और जिस सरकशी को उसने अपने अन्दर छिपा रखा था उसपर परदा ही पड़ा रहने दिया जाता। यह एक खुली हुई बेवक़ूफ़ी की बात थी जिसका जवाब देने की कोई ज़रूरत न थी, इसलिए अल्लाह ने सिरे से उसका कोई नोटिस ही नहीं लिया।
قَالَ ٱخۡرُجۡ مِنۡهَا مَذۡءُومٗا مَّدۡحُورٗاۖ لَّمَن تَبِعَكَ مِنۡهُمۡ لَأَمۡلَأَنَّ جَهَنَّمَ مِنكُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 17
(18) फ़रमाया, “निकल जा यहाँ से रुसवा किया हुआ और ठुकराया हुआ। यक़ीन रख कि इनमें से जो तेरी पैरवी करेंगे, तुझ समेत इन सबसे जहन्नम को भर दूँगा।
وَيَٰٓـَٔادَمُ ٱسۡكُنۡ أَنتَ وَزَوۡجُكَ ٱلۡجَنَّةَ فَكُلَا مِنۡ حَيۡثُ شِئۡتُمَا وَلَا تَقۡرَبَا هَٰذِهِ ٱلشَّجَرَةَ فَتَكُونَا مِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 18
(19) और ऐ आदम! तू और तेरी बीवी, दोनों इस जन्नत में रहो, जहाँ जिस चीज़ को तुम्हारा जी चाहे खाओ, मगर इस पेड़ के पास न फटकना वरना ज़ालिमों में से हो जाओगे।"
فَوَسۡوَسَ لَهُمَا ٱلشَّيۡطَٰنُ لِيُبۡدِيَ لَهُمَا مَا وُۥرِيَ عَنۡهُمَا مِن سَوۡءَٰتِهِمَا وَقَالَ مَا نَهَىٰكُمَا رَبُّكُمَا عَنۡ هَٰذِهِ ٱلشَّجَرَةِ إِلَّآ أَن تَكُونَا مَلَكَيۡنِ أَوۡ تَكُونَا مِنَ ٱلۡخَٰلِدِينَ ۝ 19
(20) फिर शैतान ने उनको बहकाया ताकि उनकी शर्मगाहें जो एक-दूसरे से छिपाई गई थीं, उनके सामने खोल दे। उसने उनसे कहा, “तुम्हारे रब ने तुम्हें जो इस पेड़ से रोका है, उसकी वजह इसके सिवा कुछ नहीं है कि कहीं तुम फ़रिश्ते न बन जाओ, या तुम्हें हमेशा की ज़िन्दगी हासिल न हो जाए।”
وَقَاسَمَهُمَآ إِنِّي لَكُمَا لَمِنَ ٱلنَّٰصِحِينَ ۝ 20
(21) और उसने क़सम खाकर उनसे कहा कि मैं तुम्हारा सच्चा ख़ैरख़ाह हूँ।
فَدَلَّىٰهُمَا بِغُرُورٖۚ فَلَمَّا ذَاقَا ٱلشَّجَرَةَ بَدَتۡ لَهُمَا سَوۡءَٰتُهُمَا وَطَفِقَا يَخۡصِفَانِ عَلَيۡهِمَا مِن وَرَقِ ٱلۡجَنَّةِۖ وَنَادَىٰهُمَا رَبُّهُمَآ أَلَمۡ أَنۡهَكُمَا عَن تِلۡكُمَا ٱلشَّجَرَةِ وَأَقُل لَّكُمَآ إِنَّ ٱلشَّيۡطَٰنَ لَكُمَا عَدُوّٞ مُّبِينٞ ۝ 21
(22) इस तरह धोखा देकर वह उन दोनों को धीरे-धीरे अपने ढब पर ले आया। आख़िरकार जब उन्होंने उस पेड़ का मज़ा चखा तो उनके सतर (गुप्तांग) एक-दूसरे के सामने खुल गए और वे अपने जिस्मों को जन्नत के पत्तों से ढाँकने लगे। तब उनके रब ने उन्हें पुकारा, “क्या मैंने तुम्हें इस पेड़ से न रोका था और न कहा था कि शैतान तुम्हारा खुला दुश्मन है?"
قَالَا رَبَّنَا ظَلَمۡنَآ أَنفُسَنَا وَإِن لَّمۡ تَغۡفِرۡ لَنَا وَتَرۡحَمۡنَا لَنَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 22
(23) दोनों बोल उठे, “ऐ रब! हमने अपने ऊपर ज़ुल्म किया। अब अगर तूने हमें माफ़ न किया और रहम न किया तो यक़ीनी तौर पर हम तबाह हो जाएँगे।"13
13. इस क़िस्से से चंद हक़ीक़तों पर रौशनी पड़ती है। (1) इनसान के अन्दर शर्म व हया का जज़्बा एक फ़ितरी जज़्बा है और इसका सबसे पहला इज़हार उस शर्म के ज़रिए होता है, जो अपने जिस्म के ख़ास हिस्सों को दूसरों के सामने खोलने में इनसान को फ़ितरी तौर पर महसूस होती है। क़ुरआन हमें बताता है कि यह शर्म इनसान के अन्दर तहज़ीबी तरक़्क़ी से बनावटी तौर पर पैदा नहीं हुई है और न यह इनसान की पैदा और हासिल की हुई चीज़ है, जैसा कि शैतान के कुछ शागिर्दो ने गुमान किया है, बल्कि हक़ीक़त में यह फ़ितरी चीज़ है जो पहले दिन से इनसान में मौजूद थी। (2) शैतान की पहली चाल जो उसने इनसान को इनसानी फ़ितरत की सीधी राह से हटाने के लिए चली, यह थी कि उसकी शर्म व हया के इस जज़्बे पर चोट लगाए और नंगेपन के रास्ते से उसके लिए बेशर्मियों के दरवाज़े खोले और उसको जिंसी मामलों (यौन संबंधों) में गुमराह कर दे। दूसरे लफ़्ज़ों में अपने हरीफ़ (प्रतिद्वंद्वी) के मुक़ाबले में सबसे कमज़ोर मक़ाम जो उसने हमले के लिए तलाश किया वह उसकी ज़िन्दगी का जिंसी पहलू था, और पहली चोट जो उसने लगाई वह उस हिफ़ाज़त करनेवाली दीवार पर लगाई जो शर्म व हया की शक्ल में अल्लाह ने इनसानी फ़ितरत में रखी थी। शैतानों और उनके शागिर्दो की यह रविश आज तक ज्यों की त्यों क़ायम है। ‘तरक़्क़ी’ का कोई काम उनके यहाँ शुरू नहीं हो सकता जब तक कि औरत को बे-पर्दा करके वे बाज़ार में न ला खड़ा करें और उसे किसी-न-किसी तरह नंगा न कर दें। (3) यह भी इनसान की ऐन फ़ितरत है कि वह बुराई की खुली दावत को कम ही क़ुबूल करता है। आम तौर से उसे जाल में फाँसने के लिए बुराई की तरफ़ हर बुलानेवाले को ख़ैरख़ाह के भेस ही में आना पड़ता है। (4) इनसान के अन्दर 'आला और बुलन्द मामलों' मिसाल के तौर पर इनसान होने के मक़ाम से ऊँचे मक़ाम पर पहुँचने या हमेशा की ज़िन्दगी हासिल करने की एक फ़ितरी प्यास मौजूद है और शैतान को उसे फ़रेब देने में पहली कामयाबी इसी ज़रिए से हुई कि उसने इनसान की इस ख़ाहिश से अपील की। शैतान की सबसे ज़्यादा चलती हुई चाल यह है कि वह आदमी को बुलन्दी पर ले जाने और मौजूदा हालत से बेहतर हालत पर पहुँचा देने की उम्मीद दिलाता है और फिर उसके लिए वह रास्ता पेश करता है जो उसे उलटा पस्ती की तरफ़ ले जाए। (5) आम तौर पर यह जो मशहूर हो गया है कि शैतान ने पहले हज़रत हव्वा को अपने जाल में फाँसा और फिर उन्हें हज़रत आदम (अलैहि०) को फाँसने के लिए ज़रिआ बनाया, क़ुरआन इस बात को रद्द करता है। उसका बयान यह है कि शैतान ने दोनों को धोखा दिया और दोनों उससे धोखा खा गए। बज़ाहिर यह बहुत छोटी-सी बात मालूम होती है, लेकिन जिन लोगों को मालूम है कि हज़रत हव्वा के बारे में इस मशहूर रिवायत ने दुनिया में औरत के अख़लाक़ी क़ानूनी और सामाजिक रुतबे को गिराने में कितना ज़बरदस्त हिस्सा लिया है, वही क़ुरआन के इस बयान की अस्ल क़द्र व क़ीमत समझ सकते हैं। (6) यह गुमान करने के लिए कोई मुनासिब वजह मौजूद नहीं है कि मना किए गए पेड़ का मज़ा चखते ही आदम व हव्वा के सतर (शर्मगाह) का खुल जाना उस पेड़ की किसी ख़ासियत (विशिष्टता) का नतीजा था। हक़ीक़त में यह अल्लाह तआला की नाफ़रमानी के सिवा किसी और चीज़ का नतीजा न था। अल्लाह तआला ने पहले उनका सतर अपने इन्तिज़ाम से ढाँका था। जब उन्होंने हुक्म के ख़िलाफ़ काम किया तो ख़ुदा की हिफ़ाज़त उनसे हटा ली गई, उनका परदा खोल दिया गया और उन्हें ख़ुद उनके अपने नफ़्स (मन) के हवाले कर दिया गया कि अपनी परदादारी का इन्तिज़ाम ख़ुद करें अगर इसकी ज़रूरत समझते हैं, और अगर ज़रूरत न समझें या उसके लिए कोशिश न करें तो ख़ुदा को इसकी कुछ परवाह नहीं कि वे किस हालत में फिरते हैं। यह मानो हमेशा के लिए इस हक़ीक़त का ज़ाहिर करना था कि इनसान जब ख़ुदा की नाफ़रमानी करेगा तो देर या सवेर उसका परदा खुलकर रहेगा। और यह कि इनसान के साथ ख़ुदा की मदद व हिमायत उसी वक़्त तक रहेगी जब तक वह ख़ुदा के हुक्मों पर चलता रहेगा। फ़रमाँबरदारी की हदों से क़दम बाहर निकालने के बाद उसे ख़ुदी की मदद व हिमायत हरगिज़ न मिलेगी, बल्कि उसे ख़ुद उसके अपने नफ़्स (मन) के हवाले कर दिया जाएगा। यह वही बात है जो कई हदीसों में नबी (सल्ल०) ने बयान की है और इसी के बारे में नबी (सल्ल०) ने दुआ की है कि “अल्लाहुम-म रह-म-त-क अरजू, फ़ला तकिलनी इला नफ़्सी तर-फ़-त ऐनिन।” “ऐ अल्लाह में तेरी रहमत का उम्मीदवार हूँ, तू मुझे एक लम्हे के लिए भी मेरे नफ़्स के हवाले न कर।” (हदीस : अहमद) (7) शैतान यह साबित करना चाहता था कि इनसान उस बड़ाई का हक़दार नहीं है जो उसके मुक़ाबले में इनसान को दी गई है, लेकिन पहले ही मुक़ाबले में उसे हार का मुँह देखना पड़ा। इसमें शक नहीं कि इस मुक़ाबले में इनसान अपने रब के हुक्म की फ़रमाँबरदारी करने में पूरी तरह कामयाब न हो सका और उसकी यह कमज़ोरी ज़ाहिर हो गई कि वह अपने मुख़ालिफ़ की चाल में आकर फ़रमाँबरदारी की राह से हट सकता है। मगर बहरहाल इस सबसे पहले मुक़ाबले में यह पूरी तरह साबित हो गया कि इनसान अपने अख़लाक़ी मर्तबे में एक अफ़ज़ल मख़लूक़ (श्रेष्ठ सृष्टि) है। पहली बात यह कि शैतान अपनी बड़ाई का ख़ुद दावेदार था, और इनसान ने इसका दावा ख़ुद नहीं किया, बल्कि बड़ाई उसे दी गई। दूसरी यह कि शैतान ने ख़ालिस ग़ुरूर और घमण्ड की बिना पर अल्लाह के हुक्म की नाफ़रमानी आप अपने इख़्तियार से की और इनसान ने नाफ़रमानी ख़ुद नहीं की, बल्कि शैतान के बहकाने से वह ऐसा कर बैठा। तीसरी बात यह कि इनसान ने बुराई की खुली दावत को क़ुबूल नहीं किया, बल्कि बुराई की तरफ़ बुलानेवाले (शैतान) को भलाई की तरफ़ बुलानेवाला बनकर उसके सामने आना पड़ा। वह पस्ती की तरफ़ पस्ती की तलब में नहीं गया, बल्कि इस धोखे में पड़कर गया कि यह रास्ता उसे बुलन्दी की तरफ़ ले जाएगा। चौथी चीज़ यह कि शैतान को ख़बरदार किया गया तो वह अपने क़ुसूर को मानने और बन्दगी की तरफ़ पलट आने के बजाय नाफ़रमानी पर और ज़्यादा जम गया, और जब इनसान को उसके क़ुसूर पर ख़बरदार किया गया तो उसने शैतान की तरह सरकशी नहीं की, बल्कि अपनी ग़लती का एहसास होते ही वह शर्मिन्दा हुआ, अपनी ग़लती मानकर बग़ावत से फ़रमाँबरदारी की तरफ़ पलट आया और माफ़ी माँगकर अपने रब की रहमत की गोद में पनाह दूँढने लगा। (8) इस तरह शैतान की राह और वह राह जो इनसान के लायक़ है, दोनों एक-दूसरे से बिलकुल अलग ज़ाहिर हो गईं। ख़ालिस शैतानी राह यह है कि बन्दगी से मुँह मोड़े, ख़ुदा के मुक़ाबले में सरकशी इख़्तियार करे, ख़बरदार किए जाने के बावजूद पूरे घमण्ड के साथ अपनी बग़ावत के रवैये पर अड़ा रहे और जो लोग फ़रमाँबरदारी की राह पर चल रहे हों उनको भी बहकाए और बुराई के रास्ते पर लाने की कोशिश करे। इसके बरख़िलाफ़ जो राह इनसान के लायक़ है वह यह है कि अव्वल तो शैतानी बहकावे का मुक़ाबला करे और अपने इस दुश्मन की चालों को समझने और उनसे बचने के लिए हर वक़्त चौकन्ना रहे, लेकिन अगर कभी उसका क़दम बन्दगी और फ़रमाँबरदारी की राह से हट भी जाए तो अपनी ग़लती का एहसास होते ही पछतावे और शर्मिंदगी के साथ फ़ौरन अपने रब की तरफ़ पलटे और उस ग़लती की भरपाई कर दे जो उससे हो गई है। यही वह अस्ल सबक़ है जो अल्लाह तआला इस क़िस्से से यहाँ देना चाहता है। मक़सद ज़ेहन में यह बिठाना है कि जिस राह पर तुम लोग जा रहे हो यह शैतान की राह है। यह तुम्हारा ख़ुदाई हिदायत से बेपरवाह होकर इनसान और जिन्न रूपी शैतानों को अपना दोस्त और सरपरस्त बनाना और बार-बार तुम्हें ख़बरदार किए जाने के बावजूद यह तुम्हारा अपनी ग़लती पर अड़े रहना, यह अस्ल में ख़ालिस शैतानी रवैया है। तुम अपने हमेशा दुश्मन के फंदे में फँस चुके हो और उससे पूरी तरह हार रहे हो। इसका अंजाम फिर वही है जिससे शैतान ख़ुद दो-चार होनेवाला है। अगर तुम हक़ीक़त में ख़ुद अपने दुश्मन नहीं हो गए हो और कुछ भी होश तुम में बाक़ी है तो संभलो और वह राह इख़्तियार करो जो आख़िरकार तुम्हारे माँ-बाप आदम और हव्वा ने इख़्तियार की थी।
قَالَ ٱهۡبِطُواْ بَعۡضُكُمۡ لِبَعۡضٍ عَدُوّٞۖ وَلَكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُسۡتَقَرّٞ وَمَتَٰعٌ إِلَىٰ حِينٖ ۝ 23
(24) कहा, “उतर जाओ,14 तुम एक-दूसरे के दुश्मन हो, और तुम्हारे लिए एक ख़ास मुद्दत तक ज़मीन ही में ठहरने की जगह और ज़िन्दगी गुज़ारने का सामान है।"
14. यह न समझा जाए कि हज़रत आदम (अलैहि०) और हज़रत हव्वा (अलैहि०) को जन्नत से बाहर उतर जाने का यह हुक्म सज़ा के तौर पर दिया गया था। क़ुरआन में कई जगहों पर इस बात को साफ़-साफ़ बयान कर दिया गया है कि अल्लाह ने उनकी तौबा क़ुबूल कर ली और उन्हें माफ़ कर दिया। लिहाज़ा इस हुक्म में सज़ा का कोई पहलू नहीं है, बल्कि इससे वह मक़सद पूरा करना है जिसके लिए इनसान को पैदा किया गया था। (तशरोह के लिए देखें— सूरा-2 अल-बक़रा, हाशिया, 48 और 53)
قَالَ فِيهَا تَحۡيَوۡنَ وَفِيهَا تَمُوتُونَ وَمِنۡهَا تُخۡرَجُونَ ۝ 24
(25) और फ़रमाया, “वहीं तुमको जीना और वहीं मरना है और उसी में से तुमको आख़िरकार निकाला जाएगा।”
يَٰبَنِيٓ ءَادَمَ قَدۡ أَنزَلۡنَا عَلَيۡكُمۡ لِبَاسٗا يُوَٰرِي سَوۡءَٰتِكُمۡ وَرِيشٗاۖ وَلِبَاسُ ٱلتَّقۡوَىٰ ذَٰلِكَ خَيۡرٞۚ ذَٰلِكَ مِنۡ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ لَعَلَّهُمۡ يَذَّكَّرُونَ ۝ 25
(26) ऐ आदम की औलाद!15 मैंने तुमपर लिबास उतारा है कि तुम्हारे जिस्म के क़ाबिले-शर्म हिस्सों को ढाँके और तुम्हारे लिए जिस्म की हिफ़ाज़त और ज़ीनत का ज़रिआ भी हो, और बेहतरीन लिबास तक़वा का लिबास है। यह अल्लाह की निशानियों में से एक निशानी है, शायद कि लोग इससे सबक़ लें।
15. अब आदम व हव्वा के क़िस्से के एक ख़ास पहलू की तरफ़ ध्यान दिलाकर अरब के लोगों के सामने ख़ुद उनकी अपनी ज़िन्दगी के अन्दर शैतान के बहकावे से पैदा हुए एक बहुत ही नुमायाँ असर की निशानदही की जाती है। ये लोग लिबास को सिर्फ़ ज़ीनत (ख़ूबसूरती) और मौसम के असरात से जिस्म की हिफ़ाज़त के लिए इस्तेमाल करते थे, लेकिन उसकी सबसे पहली बुनियादी ग़रज़, यानी जिस्म के क़ाबिले-शर्म हिस्सों को ढाँकना उनके नज़दीक कोई अहमियत न रखती थी। उन्हें अपने सतर (छिपे अंग) दूसरों के सामने खोल देने में कोई झिझक न होती थी। सबके सामने बेलिबास होकर नहा लेना, राह चलते पाख़ाना-पेशाब करने के लिए बैठ जाना, इज़ार (पाजामा, शलवार वग़ैरा) खुल जाए तो सतर के बे-परदा हो जाने की परवाह न करना, उनके रात-दिन की बातें थीं। इससे भी बढ़कर यह कि उनमें से बहुत-से लोग हज के मौक़े पर काबा के गिर्द बे-लिबास होकर तवाफ़ (परिक्रमा) करते थे और इस मामले में उनकी औरतें उनके मर्दो से भी कुछ ज़्यादा बेशर्म थीं। उनकी निगाह में यह एक मज़हबी काम था और नेक काम समझकर वे ऐसा करते थे। फिर चूँकि यह सिर्फ़ अरबों ही की ख़ुसूसियत (विशिष्टता) न थी, दुनिया की बहुत-सी क़ौमें इस बेहयाई में मुब्तला रही हैं और आज तक हैं। इसलिए ख़िताब अरब के लोगों के लिए ख़ास नहीं है बल्कि आम है, और सारे इनसानों को ख़बरदार किया जा रहा है कि देखो, यह शैतानी बहकावे की एक खुली अलामत तुम्हारी ज़िन्दगी में मौजूद है। तुमने अपने रब की रहनुमाई से बेपरवाह होकर और उसके रसूलों की दावत से मुँह मोड़कर अपने आपको शैतान के हवाले कर दिया और उसने तुम्हें इनसानी फ़ितरत के रास्ते से हटाकर उसी बेहयाई में मुब्तला कर दिया जिसमें वह तुम्हारे पहले बाप और माँ को मुब्तला करना चाहता था। इसपर ग़ौर करो तो यह हक़ीक़त तुमपर खुल जाए कि रसूलों की रहनुमाई के बग़ैर तुम अपनी फ़ितरत के इब्तिदाई मुतालबात तक को न समझ सकते हो और न पूरा कर सकते हो।
فَرِيقًا هَدَىٰ وَفَرِيقًا حَقَّ عَلَيۡهِمُ ٱلضَّلَٰلَةُۚ إِنَّهُمُ ٱتَّخَذُواْ ٱلشَّيَٰطِينَ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَيَحۡسَبُونَ أَنَّهُم مُّهۡتَدُونَ ۝ 26
(30) एक गरोह को तो उसने सीधा रास्ता दिखा दिया है, मगर दूसरे गरोह पर गुमराही चिपककर रह गई है; क्योंकि उन्होंने अल्लाह के बजाय शैतानों को अपना सरपरस्त बना लिया है और वे समझ रहे हैं। कि हम सीधे रास्ते पर हैं।
۞يَٰبَنِيٓ ءَادَمَ خُذُواْ زِينَتَكُمۡ عِندَ كُلِّ مَسۡجِدٖ وَكُلُواْ وَٱشۡرَبُواْ وَلَا تُسۡرِفُوٓاْۚ إِنَّهُۥ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 27
(31) ऐ आदम की औलाद! हर इबादत के मौक़े पर अपनी ज़ीनत (साज-सज्जा) से आरास्ता रहो20 और खाओ-पियो और हद से आगे न बढ़ो। अल्लाह हद से आगे बढ़नेवालों को पसन्द नहीं करता21
20. यहाँ ज़ीनत से मुराद मुकम्मल लिबास है। ख़ुदा की इबादत में खड़े होने के लिए सिर्फ़ इतना ही काफ़ी नहीं है कि आदमी सिर्फ़ अपना सतर छिपा ले, बल्कि इसके साथ यह भी ज़रूरी है कि जहाँ तक हो सके वह अपना पूरा लिबास पहने जिससे सतर-पोशी भी हो और ज़ीनत भी। यह हुक्म उस ग़लत रवैये को रद्द करने के लिए है, जिसपर जाहिल लोग अपनी इबादतों में अमल करते रहे हैं और आज तक कर रहे हैं। वे समझते हैं कि नंगे या अधनंगे होकर और अपने हुलियों को बिगाड़कर ख़ुदा की इबादत करनी चाहिए। इसके बरख़िलाफ़ ख़ुदा कहता है कि अपनी ज़ीनत से आरास्ता होकर ऐसी हालत में इबादत करनी चाहिए जिसमें नंगापन तो क्या, नाशाइस्तगी और बदतहज़ीबी तक ज़रा भी न झलके।
21. यानी ख़ुदा को तुम्हारी ख़स्ताहाली और भूखा रहने और पाक और अच्छी रोज़ी से महरूमी पसन्द नहीं है कि उसकी बन्दगी बजा लाने के लिए यह किसी दरजे में भी चाही गई हो, बल्कि उसकी ख़ुशी तो यह है कि तुम उसके बख़्शे हुए उम्दा लिबास पहनो और पाक रोज़ी से फ़ायदा उठाओ। उसकी शरीअत में अस्ल गुनाह यह है कि आदमी उसकी मुक़र्रर की हुई हदों से आगे बढ़ जाए, चाहे यह हद से आगे बढ़ना हलाल को हराम कर लेने की शक्ल में हो या हराम को हलाल कर लेने की शक्ल में।
قُلۡ مَنۡ حَرَّمَ زِينَةَ ٱللَّهِ ٱلَّتِيٓ أَخۡرَجَ لِعِبَادِهِۦ وَٱلطَّيِّبَٰتِ مِنَ ٱلرِّزۡقِۚ قُلۡ هِيَ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا خَالِصَةٗ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ كَذَٰلِكَ نُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 28
(32) ऐ नबी! इनसे कहो, किसने अल्लाह की उस ज़ीनत को हराम कर दिया जिसे अल्लाह ने अपने बन्दों के लिए निकाला था और किसने अल्लाह की दी हुई पाक चीज़ें हराम ठहरा दीं?22 कहो, ये सारी चीज़ें दुनिया की ज़िन्दगी में भी ईमान लानेवालों के लिए हैं, और क़ियामत के दिन तो ख़ास तौर से उन्हीं के लिए होंगी।23 इस तरह हम अपनी बातें साफ़-साफ़ बयान करते हैं उन लोगों के लिए जो इल्म रखनेवाले हैं।
22. मतलब यह है कि अल्लाह ने तो दुनिया की सारी ज़ीनतें और पाकीज़ा चीज़ें बन्दों ही के लिए पैदा की हैं, इसलिए अल्लाह का मंशा तो बहरहाल यह नहीं हो सकता कि उन्हें बन्दों के लिए हराम कर दे। अब अगर कोई मज़हब या कोई अख़लाक़ी और समाजी-निज़ाम (सामाजिक व्यवस्था) ऐसा है जो उन्हें हराम, या क़ाबिले-नफ़रत, या रूहानी तरक़्क़ी रुकावट क़रार देता है तो उसका यह काम ख़ुद ही इस बात का खुला सुबूत है कि वह ख़ुदा की तरफ़ से नहीं है। यह भी उन हुज्जतों (दलीलों) में से एक अहम हुज्जत है जो क़ुरआन ने बातिल मज़हबों के रद्द में पेश की हैं, और इसको समझ लेना इस बात को समझने के लिए ज़रूरी है कि क़ुरआन किसी बात को साबित करने या असके लिए दलील पैदा करने का क्या तरीक़ा अपनाता है।
23. यानी हक़ीक़त के लिहाज़ से तो ख़ुदा की पैदा की हुई तमाम चीज़ें दुनिया की ज़िन्दगी में भी ईमानवालों ही के लिए हैं; क्योंकि वही ख़ुदा की वफ़ादार रिआया (प्रजा) हैं और हक़्क़े-नमक सिर्फ़ नमक हलालों ही को पहुँचता है। लेकिन दुनिया का मौजूदा इन्तिज़ाम चूँकि आज़माइश और मुहलत के उसूल पर क़ायम किया गया है, इसलिए यहाँ अकसर ख़ुदा की नेमतें नमक हरामों पर भी तक़्सीम होती रहती हैं और बहुत बार नमक हलालों से बढ़कर उन्हें नेमतों से मालामाल कर दिया जाता है। अलबत्ता आख़िरत में (जहाँ का सारा इन्तिज़ाम ख़ालिस हक़ की बुनियाद पर होगा) ज़िन्दगी के ऐशो-आराम और रोज़ी की पाक चीज़ें सब की सब महज़ नमक हलालों के लिए ख़ास होंगी और वे नमक हराम उनमें से कुछ न पा सकेंगे जिन्होंने अपने रब की रोज़ी पर पलने के बाद अपने रब ही के ख़िलाफ़ सरकशी की।
قُلۡ إِنَّمَا حَرَّمَ رَبِّيَ ٱلۡفَوَٰحِشَ مَا ظَهَرَ مِنۡهَا وَمَا بَطَنَ وَٱلۡإِثۡمَ وَٱلۡبَغۡيَ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّ وَأَن تُشۡرِكُواْ بِٱللَّهِ مَا لَمۡ يُنَزِّلۡ بِهِۦ سُلۡطَٰنٗا وَأَن تَقُولُواْ عَلَى ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 29
(33) ऐ नबी! इनसे कहो कि मेरे रब ने जो चीज़ें हराम की हैं वे तो ये हैं— बेशर्मी के काम-चाहे खुले हों या छिपे24— और गुनाह25 और हक़ के ख़िलाफ़ ज़ुल्म-ज़्यादती26 और यह कि अल्लाह के साथ तुम किसी को शरीक करो, जिसके लिए उसने कोई दलील नहीं उतारी और यह कि अल्लाह के नाम पर कोई ऐसी बात कहो जिसके बारे में तुम्हें इल्म न हो (कि वह हक़ीक़त में उसी ने कही है।
24. तशरीह के लिए देखें— सूरा-6 अल-अनआम, हाशिया-128, 131 ।
25. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'इस्म' इस्तेमाल हुआ है जिसके अस्ल मानी कोताही के हैं। 'आसिमा' उस ऊँटनी को कहते हैं जो तेज़ चल सकती हो मगर जान-बूझकर सुस्त चले। इसी से इस लफ़्ज़ में गुनाह के मानी पैदा हुए हैं, यानी इनसान का अपने रब की इताअत व फ़रमाँबरदारी में क़ुदरत और सकत के बावजूद कोताही करना और उसकी ख़ुशी तक पहुँचने में जान बूझकर ग़लती करना।
26. यानी अपनी हद को पार करके ऐसी हदों में क़दम रखना जिनके अन्दर दाख़िल होने का आदमी को हक़ न हो। उस तारीफ़ (परिभाषा) के मुताबिक़ वे लोग भी बाग़ी क़रार पाते हैं जो बन्दगी की हद से निकलकर ख़ुदा के मुल्क में ख़ुदमुख़्ताराना रवैया इख़्तियार करते हैं, और वे भी जो ख़ुदा की ख़ुदाई में अपनी बड़ाई के डंके बजाते हैं, और वे भी जो ख़ुदा के बन्दों के हक़ों को छीनते हैं।
وَلِكُلِّ أُمَّةٍ أَجَلٞۖ فَإِذَا جَآءَ أَجَلُهُمۡ لَا يَسۡتَأۡخِرُونَ سَاعَةٗ وَلَا يَسۡتَقۡدِمُونَ ۝ 30
(34) हर क़ौम के लिए मुहलत की एक मुद्दत मुक़र्रर है। फिर जब किसी क़ौम की मुद्दत आन पूरी होती है तो एक घड़ी भर भी आगे पीछे नहीं होती,27
27. मुहलत की मुद्दत मुक़र्रर किए जाने का मतलब यह नहीं है कि हर क़ौम के लिए बरसों और महीनों और दिनों के लिहाज़ से एक उम्र मुक़र्रर की जाती हो और उस उम्र के पूरा होते ही उस का क़ौम को लाज़िमन ख़त्म कर दिया जाता हो, बल्कि इसका मतलब यह है कि हर क़ौम को दुनिया में काम करने का जो मौक़ा दिया जाता है उसकी एक अख़लाक़ी हद मुक़र्रर कर दी जाती है। इस मानी में कि उसके कामों में अच्छाई और बुराई का कम-से-कम कितना तनासुब (अनुपात) बरदाश्त किया जा सकता है। जब तक एक क़ौम की बुरी सिफ़ात (अवगुण) उसकी अच्छी सिफ़ात (सद्गुणों) के मुक़ाबले में तनासुब की उस आख़िरी हद से नीचे रहती हैं उस वक़्त तक उसे उसकी तमाम बुराइयों के बावजूद मुहलत दी जाती रहती है, और जब बुरी सिफ़ात उस हद से गुज़र जाती हैं तो फिर उस बदकार और बुरी सिफ़ातवाली क़ौम को और ज़्यादा मुहलत नहीं दी जाती। इस बात को समझने के लिए सूरा-71 नूह की आयत 4, 10 और 12 निगाह में रहें।
يَٰبَنِيٓ ءَادَمَ إِمَّا يَأۡتِيَنَّكُمۡ رُسُلٞ مِّنكُمۡ يَقُصُّونَ عَلَيۡكُمۡ ءَايَٰتِي فَمَنِ ٱتَّقَىٰ وَأَصۡلَحَ فَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 31
(35) (और यह बात अल्लाह ने पैदाइश के शुरू ही में साफ़ कह दी थी कि) ऐ आदम की औलाद! याद रखो अगर तुम्हारे पास ख़ुद तुम ही में ऐसे रसूल आए जो तुम्हे मेरे आयते सुना रहे हों, तो जो कोई नाफ़रमानी से बचेगा और अपने रवैए का सुधार कर लेगा, उसके लिए किसी डर और रंज का मौक़ा नहीं है,
وَٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَٱسۡتَكۡبَرُواْ عَنۡهَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 32
(36) और जो लोग हमारी आयतों को झुठलाएँगे और उनके मुक़ाबले में सरकशी अपनाएँगे, वही दोज़ख़वाले होंगे जहाँ वे हमेशा रहेंगे।28
28. यह बात क़ुरआन मजीद में हर जगह उस मौक़े पर कही गई है जहाँ आदम (अलैहि०) और हव्वा (अलैहि०) के जन्नत से उतारे जाने का ज़िक्र आया है। (देखें— सूरा-2 अल-बक़रा, आयत-38, 39; सूरा-20 ताहा, आयत-123, 124) लिहाज़ा यहाँ भी इसको उसी मौक़े से मुताल्लिक़ समझा जाएगा, यानी नौए-इनसानी (मानव-जाति) की ज़िन्दगी का आग़ाज़ जब हो रहा था उसी वक़्त यह बात साफ़ तौर पर समझा दी गई थी। (देखें— सूरा-3 आले-इमरान, हाशिया-69)
فَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَوۡ كَذَّبَ بِـَٔايَٰتِهِۦٓۚ أُوْلَٰٓئِكَ يَنَالُهُمۡ نَصِيبُهُم مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِۖ حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَتۡهُمۡ رُسُلُنَا يَتَوَفَّوۡنَهُمۡ قَالُوٓاْ أَيۡنَ مَا كُنتُمۡ تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِۖ قَالُواْ ضَلُّواْ عَنَّا وَشَهِدُواْ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡ أَنَّهُمۡ كَانُواْ كَٰفِرِينَ ۝ 33
(37) आख़िर उससे बड़ा ज़ालिम और कौन होगा जो बिलकुल झूठी बातें गढ़कर अल्लाह से जोड़े या अल्लाह की सच्ची आयतों को झुठलाए? ऐसे लोग अपने नसीब के लिखे के मुताबिक़ अपना हिस्सा पाते रहेंगे,29 यहाँ तक कि वह घड़ी आ जाएगी जब हमारे भेजे हुए फ़रिश्ते उनकी रूहें निकालने के लिए पहुँचेंगे। उस वक़्त वे उनसे पूछेंगे कि “बताओ,अब कहाँ हैं तुम्हारे वे माबूद (उपास्य) जिनको तुम अल्लाह के बजाय पुकारते थे?” वे कहेंगे कि “सब हमसे गुम हो गए।” और वे ख़ुद अपने ख़िलाफ़ गवाही देंगे कि हम हक़ीक़त में हक़ के इनकारी थे।
29. यानी दुनिया में जितने दिन उनकी मुहलत के मुक़र्रर हैं, यहाँ रहेंगे और जिस क़िस्म की बज़ाहिर अच्छी या बुरी ज़िन्दगी गुज़ारना उनके नसीब में है, गुज़ार लेंगे।
قَالَ ٱدۡخُلُواْ فِيٓ أُمَمٖ قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِكُم مِّنَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِ فِي ٱلنَّارِۖ كُلَّمَا دَخَلَتۡ أُمَّةٞ لَّعَنَتۡ أُخۡتَهَاۖ حَتَّىٰٓ إِذَا ٱدَّارَكُواْ فِيهَا جَمِيعٗا قَالَتۡ أُخۡرَىٰهُمۡ لِأُولَىٰهُمۡ رَبَّنَا هَٰٓؤُلَآءِ أَضَلُّونَا فَـَٔاتِهِمۡ عَذَابٗا ضِعۡفٗا مِّنَ ٱلنَّارِۖ قَالَ لِكُلّٖ ضِعۡفٞ وَلَٰكِن لَّا تَعۡلَمُونَ ۝ 34
(38) अल्लाह फ़रमाएगा, जाओ, तुम भी उसी जहन्नम में चले जाओ जिसमें तुमसे पहले गुज़रे हुए जिन्न और इनसानों के गरोह जा चुके हैं। हर गरोह जब जहन्नम में दाख़िल होगा तो अपने अगले गरोह पर लानत करता हुआ दाख़िल होगा, यहाँ तक कि जब सब वहाँ जमा हो जाएँगे तो हर बादवाला गरोह पहले गरोह के बारे में कहेगा कि ऐ रब! ये लोग थे जिन्होंने हमें गुमराह किया, इसलिए इन्हें आग का दोहरा अज़ाब दे। जवाब में कहा जाएगा, हर एक के लिए दोहरा ही अज़ाब है मगर तुम जानते नहीं हो30
30. यानी बहरहाल तुममें से हर गरोह किसी का ख़ल्फ़ (पीछे आनेवाला) था, तो किसी का सल्फ़ (पहले गुज़रा हुआ) भी था। अगर किसी गरोह से पहले के लोगों ने उसके लिए फ़िक्र व अमल की गुमराहियों की विरासत छोड़ी थी तो ख़ुद वह भी अपने बाद में आनेवालों के लिए वैसी ही विरासत छोड़कर दुनिया से रुख़़सत हुआ। अगर एक गरोह के गुमराह होने की कुछ ज़िम्मेदारी उसके बुज़ुर्गों पर आनी है तो उसके बाद में आनेवाली नस्लों की गुमराही का अच्छा-ख़ासा बोझ ख़ुद उसपर भी आ पड़ता है। इसी बिना पर फ़रमाया कि हर एक के लिए दोहरा अज़ाब है। एक अज़ाब ख़ुद गुमराही इख़्तियार करने का और दूसरा अज़ाब दूसरों को गुमराह करने का। एक सज़ा अपने जुर्मों की और दूसरी सज़ा इस बात की कि वह दूसरों के लिए पेशगी जुर्मों की मीरास छोड़कर आया है। हदीस में इसी बात को इस तरह बयान किया गया है कि, “जिसने किसी नई गुमराही की शुरुआत की जो अल्लाह और उसके रसूल के नज़दीक नापसन्दीदा हो, तो उसपर उन सब लोगों के गुनाह की ज़िम्मेदारी पड़ेगी जिन्होंने उसके निकाले हुए तरीक़े पर अमल किया, बग़ैर इसके कि ख़ुद उन अमल करनेवालों की ज़िम्मेदारी में कोई कमी हो।” (हदीस : इब्ने-माजा) दूसरी हदीस में है, “दुनिया में जो इनसान भी ज़ुल्म के साथ क़त्ल किया जाता है उसके ख़ूने-नाहक़ का एक हिस्सा आदम के उस पहले बेटे को पहुँचता है जिसने अपने भाई को क़त्ल किया था क्योंकि इनसान के क़त्ल का रास्ता सबसे पहले उसी ने खोला था।” (हदीस : बुख़ारी) इससे मालूम हुआ कि जो शख़्स या गरोह किसी ग़लत ख़याल या ग़लत रवैये की बुनियाद डालता है वह सिर्फ़ अपनी ही ग़लती का ज़िम्मेदार नहीं होता, बल्कि दुनिया में जितने इनसान उससे मुतास्सिर होते हैं उन सबके गुनाह की ज़िम्मेदारी का भी एक हिस्सा उसके हिसाब में लिखा जाता रहता है और जब तक उसकी इस ग़लती के असरात चलते रहते हैं उसके हिसाब में उनको लिखा जाता रहता साथ ही इससे यह भी मालूम हुआ कि हर शख़्स अपनी नेकी या बदी का सिर्फ़ अपनी ज़ात की हद तक ही ज़िम्मेदार नहीं है, बल्कि इस बात का भी जवाबदेह है कि उसकी नेकी या बदी के क्या असरात दूसरों की ज़िन्दगियों पर पड़े। मिसाल के तौर पर एक ज़ानी (व्यभिचारी या बलात्कारी) को लीजिए। जिन लोगों की तालीम व तरबियत से, जिनकी संगत के असर से, जिनकी बुरी मिसालें देखने से और जिनकी तरग़ीबात (प्रेरणाओं) से उस शख़्स के अन्दर ज़िनाकारी (व्यभिचार या बलात्कार) की ख़राबी पैदा हुई वे सब उसके ज़िनाकार बनने में हिस्सेदार हैं और ख़ुद उन लोगों ने जहाँ-जहाँ से इस बदनज़री व बदनीयती और बदकारी की मीरास पाई है वहाँ तक उसकी ज़िम्मेदारी पहुँचती है। यहाँ तक कि यह सिलसिला उस सबसे पहले इनसान तक पहुँचता है जिसने सबसे पहले इनसान को मन की ख़ाहिश की तसकीन का यह ग़लत रास्ता दिखाया। यह उस ज़ानी के हिसाब का वह हिस्सा है जो उसके अपने ज़माने के लोगों और उससे पहले गुज़रे हुए लोगों से ताल्लुक़ रखता है। फिर वह ख़ुद भी अपनी ज़िनाकारी (बदकारी) का ज़िम्मेदार है। उसको भले और बुरे की जो पहचान दी गई थी, उसमें ज़मीर (अन्तरात्मा) की जो ताक़त रखी गई थी, उसके अन्दर अपनी ख़ाहिशों को क़ाबू में रखने की जो क़ुव्वत रखी गई थी, उसको नेक लोगों से ख़ैर (भलाई) और शर (बुराई) का जो इल्म पहुँचा था, उसके सामने भले लोगों की जो मिसालें मौजूद थीं, उसको सिनफ़ी बदअमली (यौन-दुराचार) के बुरे अंजामों की जो जानकारी थी, उनमें से किसी चीज़ से भी उसने फ़ायदा न उठाया और अपने आपको नफ़्स की उस अन्धी ख़ाहिश के हवाले कर दिया जो सिर्फ़ अपनी तसकीन (तृप्ति) चाहती थी चाहे वह किसी तरीक़े से हो। यह उसके हिसाब का वह हिस्सा है जो उसकी अपनी ज़ात से ताल्लुक़ रखता है। फिर यह शख़्स उस बदी को जिसको उसने ख़ुद कमाया था और जिसे ख़ुद अपनी कोशिशों से वह परवरिश करता रहा, दूसरों में फैलाना शुरू करता है। किसी मर्ज़े-ख़बीस (संक्रामक रोग) की छूत कहीं से लगा लाता है और उसे अपनी नस्ल में और ख़ुदा जाने किन-किन नस्लों में फैलाकर नामालूम कितनी ज़िन्दगियों को ख़राब कर देता है। कहीं अपना नुतफ़ा छोड़ आता है और जिस बच्चे को परवरिश का बोझ उसे ख़ुद उठाना चाहिए था उसे किसी और की कमाई का नाजाइज़ हिस्सेदार, उसके बच्चों के हुक़ूक़ में ज़बरदस्ती का शरीक, उसकी विरासत में नाहक़ का हक़दार बना देता है और इस हक़तलफ़ी का सिलसिला न जाने कितनी नस्लों तक चलता रहता है। किसी नौजवान लड़की को फुसलाकर बदअख़लाक़ी की राह पर डालता है और उसके अन्दर वे बुरी बातें उभार देता है जो उससे निकलकर न जाने कितने ख़ानदानों और कितनी नस्लों तक पहुँचती हैं और कितने घर बिगाड़ देती हैं। अपनी औलाद, अपने रिश्तेदारों, अपने दोस्तों और अपनी सोसाइटी के दूसरे लोगों के सामने अपने अख़लाक़ की एक बुरी मिसाल पेश करता है। और नामालूम कितने आदमियों के चाल-चलन ख़राब करने का सबब बन जाता है, जिसके असरात बाद की नस्लों में लम्बी मुद्दत तक चलते रहते हैं। यह सारा बिगाड़ जो इस शख़्स ने समाज में फैलाया, इनसाफ़ चाहता है कि यह भी उसके हिसाब में लिखा जाए और उस वक़्त तक लिखा जाता रहे जब तक उसकी फैलाई हुई ख़राबियों का सिलसिला दुनिया में चलता रहे। ऐसा ही मामला नेकी के बारे में भी समझ लेना चाहिए। जो नेक विरासत अपने असलाफ़ (बुज़ुर्गो) से हमको मिली है उसका बदला और इनाम उन सब लोगों को पहुँचना चाहिए जो दुनिया के शुरू होने से हमारे ज़माने तक उसको दूसरों तक पहुँचाने के काम में हिस्सा लेते रहे हैं, फिर इस विरासत को लेकर उसे संभालने और तरक़्क़ी देने में जो ख़िदमत हम अंजाम देंगे उसका अच्छा बदला हमें भी मिलना चाहिए। फिर अपनी अच्छी कोशिशों के जो निशान और असरात हम दुनिया में छोड़ जाएँगे उन्हें भी हमारी भलाइयों के हिसाब में उस वक़्त तक बराबर लिखा जाता रहना चाहिए जब तक ये निशान बाक़ी रहें और उनके असरात का सिलसिला इनसानों में चलता रहे और उनके फ़ायदों से ख़ुदा के बन्दे फ़ायदा उठाते रहें। जज़ा (बदले) की यह सूरत जो क़ुरआन पेश कर रहा है, हर अक़्लवाला इनसान मानेगा कि सही और मुकम्मल इनसाफ़ अगर हो सकता है तो इसी तरह हो सकता है। इस हक़ीक़त को अगर अच्छी तरह समझ लिया जाए तो इसमें उन लोगों की ग़लतफ़हमियाँ भी दूर हो सकती हैं, जिन्होंने जज़ा (बदले) के लिए इसी दुनिया की मौजूदा ज़िन्दगी को काफ़ी समझ लिया है, और उन लोगों की ग़लतफ़हमियाँ भी जो यह गुमान रखते हैं कि इनसान को उसके आमाल का पूरा बदला आवागमन की सूरत में मिल सकता है। दर अस्ल इन दोनों गरोहों ने न तो इस बात को समझा है कि इनसानी आमाल और उनके असरात व नतीजे कितनी दूर तक फैले हुए हैं, न इनसाफ़ के सिलसिले में मिलनेवाले बदले और उसके तक़ाज़ों को। एक इनसान आज अपनी पचास-साठ साल की ज़िन्दगी में जो अच्छे या बुरे काम करता है उनकी ज़िम्मेदारी में न जाने ऊपर की कितनी नस्लें शरीक हैं जो गुज़र चुकीं और आज यह मुमकिन नहीं कि उन्हें इसकी सज़ा या इनाम पहुँच सके। फिर उस शख़्स के वे अच्छे या बुरे आमाल जो वह आज कर रहा है उसकी मौत के साथ ख़त्म नहीं हो जाएँगे, बल्कि उसके आमाल का सिलसिला आनेवाले सैकड़ों वर्षों तक चलता रहेगा, हज़ारों, लाखों बल्कि करोड़ों इनसानों तक फैलेगा और उसके हिसाब का खाता उस वक़्त तक खुला रहेगा जब तक ये असरात चल रहे हैं और फैल रहे हैं किस तरह मुमकिन है कि आज ही इस दुनिया की ज़िन्दगी में उस शख़्स को उसकी कमाई का पूरा बदला मिल जाए, हालाँकि अभी उसकी कमाई के असरात का लाखवाँ हिस्सा भी जाहिर नहीं हुआ है। फिर इस दुनिया की महदूद (सीमित) ज़िन्दगी और उसके महदूद इमकानात सिरे से इतनी गुंजाइश ही नहीं रखते कि यहाँ किसी को उसके आमाल का पूरा बदला मिल सके। आप किसी ऐसे शख़्स के जुर्म का तसव्वुर कीजिए जो मिसाल के तौर पर दुनिया में एक जंगे-अज़ीम (विश्व युद्ध) की आग भड़काता है और उसकी इस हरकत के अनगिनत बुरे नतीजे हज़ारों साल तक अरबों इनसानों तक फैलते हैं। क्या कोई बड़ी से बड़ी जिस्मानी, अख़लाक़ी, रूहानी या माद्दी (भौतिक) सज़ा भी जो इस दुनिया में दी जा सकती है, उसके इस जुर्म की पूरी मुनसिफ़ाना (न्यायसंगत) सज़ा हो सकती है? इसी तरह क्या दुनिया का कोई बड़े-से-बड़ा इनाम भी, जिसका तसव्वुर आप कर सकते हैं, किसी ऐसे शख़्स के लिए काफ़ी हो सकता है जो तमाम उम्र इनसानों की भलाई के लिए काम करता रहा हो और हज़ारों साल तक अनगिनत इनसान जिसकी कोशिशों के नतीजों से फ़ायदा उठाए चले जा रहे हों। अमल और बदले के मसले को इस पहलू से जो शख़्स देखेगा उसे यक़ीन हो जाएगा कि जज़ा (बदला) के लिए एक दूसरी ही दुनिया चाहिए है जहाँ तमाम अगली और पिछली नस्लें जमा हों, तमाम इनसानों के खाते बन्द हो चुके हों, हिसाब करने के लिए सब कुछ जानने और सबकी ख़बर रखनेवाला एक ख़ुदा इनसाफ़ की कुर्सी पर विराजमान हो, और आमाल का पूरा बदला पाने के लिए इनसान के पास ग़ैर-महदूद (असीमित) ज़िन्दगी और उसके आस-पास इनाम और सज़ा के ग़ैर-महदूदू इमकानात मौजूद हों। फिर इसी पहलू पर ग़ौर करने से आवागमन को माननेवालों की एक और बुनियादी ग़लती भी दूर हो सकती है जिसमें मुब्तला होकर उन्होंने अवागमन का चक्कर पेश किया है। वे इस हक़ीक़त को नहीं समझे कि सिर्फ़ उसकी मुख़्तसर-सी पचास वर्ष की ज़िन्दगी के कारनामे का फल पाने के लिए उससे हज़ारों गुना ज़्यादा लम्बी ज़िन्दगी की ज़रूरत है, इसके बावजूद कि उस पचास साल की ज़िन्दगी के ख़त्म होते ही हमारी एक दूसरी और फिर तीसरी ज़िम्मेदाराना ज़िन्दगी इसी दुनिया में शुरू हो जाए और उन ज़िन्दगियों में भी हम कुछ और ऐसे काम करते चले जाएँ जिनका अच्छा या बुरा फल हमें मिलना ज़रूरी हो। इस तरह तो हिसाब चुकता होने के बजाय और ज़्यादा बढ़ता ही चला जाएगा और उसके चुकता होने की नौबत कभी आ ही न सकेगी।
وَقَالَتۡ أُولَىٰهُمۡ لِأُخۡرَىٰهُمۡ فَمَا كَانَ لَكُمۡ عَلَيۡنَا مِن فَضۡلٖ فَذُوقُواْ ٱلۡعَذَابَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡسِبُونَ ۝ 35
(39) और पहला गरोह दूसरे गरोह से कहेगा कि (अगर हम इलज़ाम के क़ाबिल थे) तो तुम्हीं को हम पर क़ौन-सी बड़ाई हासिल थी, अब अपनी कमाई के नतीजे में अज़ाब का मज़ा चखो।31
31. दोज़ख़वालों के इस आपसी झगड़े को क़ुरआन मजीद में कई जगह बयान किया गया है। मिसाल के तौर पर सूरा-34 सबा की 31 से 33वीं आयत में कहा गया है कि “काश तुम देख सको उस मौक़े को जब ये ज़ालिम अपने रब के सामने खड़े होंगे और एक-दूसरे पर बातें बना रहे होंगे। जो लोग दुनिया में कमज़ोर बनाकर रखे गए थे वे उन लोगों से जो बड़े बनकर रहे थे, कहेंगे कि अगर तुम न होते तो हम ईमानवाले होते।” वे बड़े बननेवाले उन कमज़ोर बनाए हुए लोगों को जवाब देंगे, “क्या हमने तुमको हिदायत से रोक दिया था जबकि वह तुम्हारे पास आई थी? नहीं, बल्कि तुम ख़ुद मुजरिम थे।” मतलब यह की तुम ख़ुद कब हिदायत चाहते थे? अगर हमने तुम्हें दुनिया के लालच देकर अपना बन्दा बनाया तो तुम लालची थे जब ही तो हमारे फंदे में फँसे। अगर हमने तुम्हें ख़रीदा तो तुम ख़ुद बिकने के लिए तैयार थे जब ही ती हम ख़रीद सके। अगर हमने तुम्हें, माद्दा-परस्ती (भौतिकवाद) और दुनिया-परस्ती और क़ौम-परस्ती और ऐसी ही दूसरी गुमराहियों और बदअमलियों में मुब्तला किया तो तुम ख़ुद ख़ुदा से बेज़ार और दुनिया के पुजारी थे, जब ही तो तुम ख़ुदा-परस्ती की तरफ़ बुलानेवालों को छोड़कर हमारी पुकार पर दौड़े चले आए। अगर हमने तुम्हें मजहबी क़िस्म के फरेब दिए, तो उन चीज़ों की माँग तो तुम्हारे ही अन्दर मौजूद थी जिन्हें हम पेश करते थे और तुम लपक लपककर लेते थे। तुम ख़ुदा के बजाय ऐसे हाजत-रवा (ज़रूरत पूरी करनेवाले) माँगते थे जो तुमसे किसी अख़लाक़ी क़ानून की पाबन्दी का मुतालबा न करें और बस तुम्हारे काम बनाते रहें। हमने वे ज़रूरत पूरी करनेवाले तुम्हें गढ़कर दे दिए। तुमको एसे सिफ़ारिशियों की तलाश थी कि तुम ख़ुदा से बेपरवाह होकर दुनिया के लालची बने रहो और ख़ुदा से तुम्हारे क़ुसूर बख़्शवाने का ज़िम्मा वे ले लें। हमने ये सिफ़ारिशी गढ़कर तुम्हें फ़राहम (उपलब्ध) कर दिए। तुम चाहते थे कि ख़ुश्क और बेमज़ा दीनदारी और परहेज़गारी और क़ुरबानी और कोशिश और अमल के बजाय नजात का कोई और रास्ता बताया जाये जिसमे नफ़्स के लिए लज़्ज़तें ही लज़्ज़तें हों और ख़ाहिशों पर पाबन्दी कोई न हो। हमने ऐसे ख़ुशनुमा मज़हब तुम्हारे लिए पैदा कर दिए। ग़रज़ यह कि ज़िम्मेदारी तनहा हमारे ही ऊपर नहीं है, तुम भी बराबर के ज़िम्मेदार हो। हम अगर गुमराही फ़राहम (उपलब्ध) करनेवाले थे तो तुम उसके ख़रीदार थे।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَٱسۡتَكۡبَرُواْ عَنۡهَا لَا تُفَتَّحُ لَهُمۡ أَبۡوَٰبُ ٱلسَّمَآءِ وَلَا يَدۡخُلُونَ ٱلۡجَنَّةَ حَتَّىٰ يَلِجَ ٱلۡجَمَلُ فِي سَمِّ ٱلۡخِيَاطِۚ وَكَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 36
(40) यक़ीन जानो, जिन लोगों ने हमारी आयतों को झुठलाया है और उनके मुक़ाबले में सरकाशी की है, उनके लिए, आसमान के दरवाज़े हरगिज़ न खोले जाएँगे। उनका जन्नत में जाना उतना ही नामुमकिन है जितना सुई के नाके से ऊँट का गुज़रना। मुजरिमों को हमारे यहाँ ऐसा ही बदला मिला करता है।
لَهُم مِّن جَهَنَّمَ مِهَادٞ وَمِن فَوۡقِهِمۡ غَوَاشٖۚ وَكَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 37
(41) उनके लिए तो जहन्नम का बिछौना होगा और जहन्नम ही का ओढ़ना। यह है वह बदला जो हम ज़ालिमों को दिया करते हैं।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَا نُكَلِّفُ نَفۡسًا إِلَّا وُسۡعَهَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 38
(42) इसके बरख़िलाफ़ जिन लोगों ने हमारी आयतों को मान लिया है, और अच्छे काम किये है — और इस बारे में हम हर एक को उसकी ताकत और क़ुदरत ही के मुताबिक़ ज़िम्मेदार ठहराते हैं — वे जन्नतवाले हैं, जहाँ वे हमेशा रहेंगे।
وَنَزَعۡنَا مَا فِي صُدُورِهِم مِّنۡ غِلّٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهِمُ ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ وَقَالُواْ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي هَدَىٰنَا لِهَٰذَا وَمَا كُنَّا لِنَهۡتَدِيَ لَوۡلَآ أَنۡ هَدَىٰنَا ٱللَّهُۖ لَقَدۡ جَآءَتۡ رُسُلُ رَبِّنَا بِٱلۡحَقِّۖ وَنُودُوٓاْ أَن تِلۡكُمُ ٱلۡجَنَّةُ أُورِثۡتُمُوهَا بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 39
(43) उनके दिलों में एक-दूसरे के ख़िलाफ़ जो कुछ कुदूरत (मलिनता) होगी, उसे हम निकाल देंगे।32 उनके नीचे नहरे बहती होंगी और वे कहेंगे कि “तारीफ़ अल्लाह ही के लिए है जिसने हमें यह रास्ता दिखाया। हम ख़ुद राह न पा सकते थे अगर अल्लाह हमारी रहनुमाई न करता। हमारे रब के भेजे हुए रसूल हक़ीक़त में हक़ ही लेकर आए थे। उस वक़्त आवाज़ आएगी कि “यह जन्नत, जिसके तुम वारिस बनाए गए हो, तुम्हें उन कामों के बदले में मिली है जो तुम करते रहे थे।33
32. यानी दुनिया की ज़िन्दगी में उन नेक लोगों के दरमियान अगर कुछ रंजिशें, कड़वाहटें और आपस की ग़लतफ़हमियाँ रही हों तो आख़िरत में वे सब दूर कर दी जाएँगी। उनके दिल एक-दूसरे से साफ़ हो जाएँगे। वे सच्चे दोस्तों की हैसियत से जन्नत में दाख़िल होंगे। उनमें से किसी को यह देखकर तकलीफ़ न होगी कि फ़ुलाँ जो मेरा मुख़ालिफ़ था और फ़ुलाँ जो मुझसे लड़ा था और फ़ुलाँ जिसने मुझपर तनक़ीद (आलोचना) की थी, आज वह भी इस ख़ातिरदारी में मेरे साथ शरीक है। इसी आयत को पढ़कर हज़रत अली (रज़ि०) ने कहा था, “मुझे उम्मीद है। कि अल्लाह मेरे और उसमान (रज़ि०) और तलहा (रज़ि०) और ज़ुबैर (रज़ि०) के बीच भी सफ़ाई करा देगा।” इस आयत को अगर हम ज़्यादा गहरी नज़र से देखें तो यह नतीजा निकाल सकते हैं कि नेक इनसानों के दामन पर इस दुनिया की ज़िन्दगी में जो दाग लग जाते हैं अल्लाह तआला उन दाग़ों के साथ उन्हें जन्नत में न ले जाएगा, बल्कि वहाँ दाख़िल करने से पहले अपनी मेहरबानी से उन्हें बिलकुल पाक-साफ़ कर देगा और वे बेदाग़ ज़िन्दगी लिए हुए वहाँ जाएँगे।
33. यह एक निहायत लतीफ़ (सूक्ष्म) मामला है जो वहाँ पेश आएगा। जन्नतवाले इस बात पर न फूलेंगे कि हमने काम ही ऐसे किए थे जिनपर हमें जन्नत मिलनी चाहिए थी, बल्कि वे ज़बान से ख़ुदा की हम्द व सना और शुक्र व एहसानमन्दी का इज़हार कर रहे होंगे और कहेंगे कि ये सब हमारे रब की मेहरबानी है, वरना हम किस लायक़ थे। दूसरी तरफ़ अल्लाह तआला उनपर अपना एहसान न जताएगा, बल्कि जवाब में कहेगा कि तुमने यह दरजा अपनी ख़िदमतों के बदले पाया है, यह तुम्हारी अपनी मेहनत की कमाई है जो तुम्हें दी जा रही है, ये भीख के टुकड़े नहीं हैं, बल्कि तुम्हारी कोशिश का बदला है, तुम्हारे काम की मज़दूरी है, और वह बाइज्ज़त रोज़ी है जिसके हक़दार तुम अपने हाथों की क़ुव्वत से बने हो। फिर यह मज़मून इस अन्दाज़े-बयान से और भी ज़्यादा लतीफ़ हो जाता है कि अल्लाह तआला अपने जवाब का ज़िक्र इस तरह साफ़-साफ़ अलफ़ाज़ में नहीं फ़रमाता कि “हम यूँ कहेंगे”, बल्कि इन्तिहाई शाने-करीमी के साथ फ़रमाता है कि “जवाब में यह आवाज़ आएगी।” हक़ीक़त में यही मामला दुनिया में भी ख़ुदा और उसके नेक बन्दों के दरमियान है। ज़ालिमों को जो नेमत दुनिया में मिलती है वे उसपर फ़ख़्र करते हैं, कहते हैं कि यह हमारी क़ाबिलियत और कोशिश का नतीजा है, और इसी बिना पर वे हर नेमत को पाकर और ज़्यादा घमण्डी और बिगाड़ फैलानेवाले बनते चले जाते हैं। उसके बरख़िलाफ़ नेक लोगों को जो नेमत भी मिलती है, वे उसे ख़ुदा की मेहरबानी समझते हैं, शुक्र अदा करते हैं, जितने ज़्यादा नवाज़े जाते हैं उतने ही ज़्यादा ख़ातिरदारी करनेवाले, रहमदिल, शफ़क़त करनेवाले और फ़ैयाज़ (दानशील) होते चले जाते हैं। फिर आख़िरत के बारे में भी वे अपने अच्छे कामों का घमण्ड नहीं करते कि हम तो यक़ीनन बख़्शे ही जाएँगे, बल्कि अपनी कोताहियों पर अल्लाह से माफ़ी माँगते हैं, अपने अमल के बजाय ख़ुदा के रहम व फ़ज़्ल से उम्मीदें लगाते हैं और हमेशा डरते ही रहते हैं कि कहीं हमारे हिसाब में लेने के बजाय कुछ देना ही न निकल आए। हदीस की मशहूर किताबें बुख़ारी व मुस्लिम दोनों में रिवायत मौजूद है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “ख़ूब जान लो कि तुम सिर्फ़ अपने अमल के बलबूते पर जन्नत में न पहुँच जाओगे। लोगों ने पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल! क्या आप भी?” फ़रमाया, “हाँ मैं भी, सिवाए यह कि अल्लाह मुझे अपनी रहमत और अपनी मेहरबानी से ढाँक ले।”
وَنَادَىٰٓ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِ أَصۡحَٰبَ ٱلنَّارِ أَن قَدۡ وَجَدۡنَا مَا وَعَدَنَا رَبُّنَا حَقّٗا فَهَلۡ وَجَدتُّم مَّا وَعَدَ رَبُّكُمۡ حَقّٗاۖ قَالُواْ نَعَمۡۚ فَأَذَّنَ مُؤَذِّنُۢ بَيۡنَهُمۡ أَن لَّعۡنَةُ ٱللَّهِ عَلَى ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 40
(44) फिर ये जन्नत के लोग दोज़ख़वालों से पुकारकर कहेंगे, “हमने उन सारे वादों को ठीक पा लिया जो हमारे रब ने हमसे किए थे, क्या तुमने भी उन वादों को ठीक पाया जो तुम्हारे रब ने किए थे?” वे जवाब में कहेंगे, “हाँ।” तब एक पुकारनेवाला उनके बीच पुकारेगा कि “अल्लाह की लानत उन ज़ालिमों पर,
ٱلَّذِينَ يَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَيَبۡغُونَهَا عِوَجٗا وَهُم بِٱلۡأٓخِرَةِ كَٰفِرُونَ ۝ 41
(45) जो अल्लाह के रास्ते से लोगों को रोकते और उसे टेढ़ा करना चाहते थे, और आख़िरत का इनकार करनेवाले थे।”
وَبَيۡنَهُمَا حِجَابٞۚ وَعَلَى ٱلۡأَعۡرَافِ رِجَالٞ يَعۡرِفُونَ كُلَّۢا بِسِيمَىٰهُمۡۚ وَنَادَوۡاْ أَصۡحَٰبَ ٱلۡجَنَّةِ أَن سَلَٰمٌ عَلَيۡكُمۡۚ لَمۡ يَدۡخُلُوهَا وَهُمۡ يَطۡمَعُونَ ۝ 42
(46) उन दोनों गरोहों के बीच एक ओट हाइल होगी जिसकी बुलन्दियों (आराफ़) पर कुछ और लोग होंगे। ये हर एक को उसकी अलामतों से पहचानेंगे, और जन्नतवालों से पुकारकर कहेंगे कि “सलामती हो तुमपर"। ये लोग जन्नत में दाख़िल तो नहीं हुए, मगर उसके उम्मीदवार होंगे।34
34. यानी ये असहाबुल-आराफ़ (आराफ़वाले) वे लोग होंगे जिनकी ज़िन्दगी का न तो मुसबत (सकारात्मक) पहलू ही इतना ताक़तवर होगा कि जन्नत में दाख़िल हो सकें और न मनफ़ी (नकारात्मक) पहलू ही इतना ख़राब होगा कि दोज़ख़ में झोंक दिए जाएँ। इसलिए ये जन्नत और दोज़ख के दरमियान एक सरहद पर रहेंगे।
۞وَإِذَا صُرِفَتۡ أَبۡصَٰرُهُمۡ تِلۡقَآءَ أَصۡحَٰبِ ٱلنَّارِ قَالُواْ رَبَّنَا لَا تَجۡعَلۡنَا مَعَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 43
(47) और जब उनकी निगाहें दोज़ख़वालों की तरफ़ फिरेंगी तो कहेंगे, “ऐ रब! हमें इन ज़ालिम लोगों में शामिल न करना।”
وَنَادَىٰٓ أَصۡحَٰبُ ٱلۡأَعۡرَافِ رِجَالٗا يَعۡرِفُونَهُم بِسِيمَىٰهُمۡ قَالُواْ مَآ أَغۡنَىٰ عَنكُمۡ جَمۡعُكُمۡ وَمَا كُنتُمۡ تَسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 44
(48) फिर ये बुलन्दियोंवाले (आराफ़) लोग दोज़ख़ के कुछ बड़े-बड़े लोगों को उनकी अलामतों से पहचानकर पुकारेंगे कि “देख लिया तुमने, आज न तुम्हारे जत्थे तुम्हारे किसी काम आए और न वे साज़ो-सामान जिनको तुम बड़ी चीज़ समझते थे।
أَهَٰٓؤُلَآءِ ٱلَّذِينَ أَقۡسَمۡتُمۡ لَا يَنَالُهُمُ ٱللَّهُ بِرَحۡمَةٍۚ ٱدۡخُلُواْ ٱلۡجَنَّةَ لَا خَوۡفٌ عَلَيۡكُمۡ وَلَآ أَنتُمۡ تَحۡزَنُونَ ۝ 45
(49) और क्या ये जन्नतवाले वही लोग नहीं हैं जिनके बारे में तुम क़समें खा-खाकर कहते थे कि इनको तो अल्लाह अपनी रहमत में से कुछ भी न देगा? आज उन्हीं से कहा गया कि दाख़िल हो जाओ जन्नत में, तुम्हारे लिए न डर है, न रंज।"
وَنَادَىٰٓ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِ أَصۡحَٰبَ ٱلۡجَنَّةِ أَنۡ أَفِيضُواْ عَلَيۡنَا مِنَ ٱلۡمَآءِ أَوۡ مِمَّا رَزَقَكُمُ ٱللَّهُۚ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ حَرَّمَهُمَا عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 46
(50) और दोज़ख़ के लोग जन्नतवालों को पुकारेंगे कि कुछ थोड़ा-सा पानी हमपर डाल दो या जो रोज़ी अल्लाह ने तुम्हें दी है, उसी में से कुछ फेंक दो। वे जवाब देंगे कि “अल्लाह ने ये दोनों चीज़ें हक़ के उन इनकारियों पर हराम कर दी हैं,
ٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ دِينَهُمۡ لَهۡوٗا وَلَعِبٗا وَغَرَّتۡهُمُ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَاۚ فَٱلۡيَوۡمَ نَنسَىٰهُمۡ كَمَا نَسُواْ لِقَآءَ يَوۡمِهِمۡ هَٰذَا وَمَا كَانُواْ بِـَٔايَٰتِنَا يَجۡحَدُونَ ۝ 47
(51) जिन्होंने अपने दीन को खेल और तमाशा बना लिया था और जिन्हें दुनिया की ज़िन्दगी ने धोखे में डाल रखा था। अल्लाह फ़रमाता है कि आज हम भी उन्हें उसी तरह भुला देंगे जिस तरह वे इस दिन की मुलाक़ात को भूले रहे और हमारी आयतों का इनकार करते रहे।35
35. जन्नतवालों और दोज़ख़वालों और आराफ़वालों की इस बातचीत से किसी हद तक अन्दाज़ा किया जा सकता है कि आख़िरत की दुनिया में इनसान की क़ुव्वतों का पैमाना कितना ज़्यादा फैल जाएगा, वहाँ आँखों से देखने की क़ुव्वत इतने बड़े पैमाने पर होगी कि जन्नत और दोज़ख़ और आराफ़ के लोग जब चाहेंगे एक-दूसरे को देख सकेंगे। वहाँ आवाज़ और सुनने की ताक़त भी इतने बड़े पैमाने पर होगी कि इन मुख़्तलिफ़ दुनियाओं के लोग एक-दूसरे से आसानी से सुन-बोल सकेंगे। ये और ऐसे ही दूसरे बयानात जो आख़िरत की दुनिया के बारे में हमें क़ुरआन में मिलते हैं, इस बात का तसव्वुर दिलाने के लिए काफ़ी हैं कि वहाँ ज़िन्दगी के क़ानून हमारी दुनिया के तबई क़ानूनों (भौतिक नियमों) से बिलकुल अलग होंगे, अगरचे हमारी शख़्सियतें यही रहेंगी जो यहाँ हैं। जिन लोगों के दिमाग़ इस तबई दुनिया की हदों में इतने ज़्यादा क़ैद हैं कि मौजूदा ज़िन्दगी और उसके मुख़्तसर पैमानों से ज़्यादा कुशादा किसी चीज़ का तसव्वुर उनमें नहीं समा सकता, वे क़ुरआन और हदीस के इन बयानात को बड़े अचम्भे की निगाह से देखते हैं और बहुत बार तो उनका मज़ाक़ उड़ाकर अपनी कमअक़्ली का और ज़्यादा सुबूत देने लगते हैं। मगर हक़ीक़त यह है कि उन बेचारों का दिमाग़ जितना तंग है, ज़िन्दगी के इमकानात उतने तंग नहीं हैं।
وَلَقَدۡ جِئۡنَٰهُم بِكِتَٰبٖ فَصَّلۡنَٰهُ عَلَىٰ عِلۡمٍ هُدٗى وَرَحۡمَةٗ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 48
(52) हम इन लोगों के पास एक ऐसी किताब ले आए हैं, जिसे हमने इल्म की बुनियाद पर तफ़सीली (विस्तृत) बनाया है36 और जो ईमान लानेवालों के लिए हिदायत और रहमत है।37
36. यानी इसमें पूरी तफ़सील के साथ बता दिया गया है कि हक़ीक़त क्या है और इनसान के लिए दुनिया की ज़िन्दगी में कौन-सा रवैया दुरुस्त है और ज़िन्दगी के सही ढंग के बुनियादी उसूल क्या हैं, फिर ये तफ़सीलात भी अटकल या गुमान या वहम की बुनियाद पर नहीं, बल्कि ख़ालिस इल्म की बुनियाद पर हैं।
37. मतलब यह है कि सबसे पहले तो इस किताब के मज़ामीन (विषय) और इसकी तालीमात ही अपने आप में इस क़द्र साफ़ हैं कि आदमी अगर इनपर ग़ौर करे तो उसके सामने राहे-हक़ वाज़ेह (स्पष्ट) हो सकती है। फिर इसपर एक और बात यह है कि जो लोग इस किताब को मानते हैं उनकी ज़िन्दगी में अमली तौर पर भी हक़ीक़त को देखा जा सकता है कि यह इनसान की कैसी सही रहनुमाई करती है और यह कितनी बड़ी रहमत है कि इसका असर क़ुबूल करते ही इनसान की ज़ेहनियत, उसके अख़लाक़ और उसकी सीरत (किरदार) में बेहतरीन इंक़िलाब शुरू हो जाता है। यह इशारा है उन हैरतअंगेज़ असरात की तरफ़ जो इस किताब पर ईमान लाने से सहाबा (नबी सल्ल० के साथियों) की ज़िन्दगी में ज़ाहिर हो रहे थे।
هَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّا تَأۡوِيلَهُۥۚ يَوۡمَ يَأۡتِي تَأۡوِيلُهُۥ يَقُولُ ٱلَّذِينَ نَسُوهُ مِن قَبۡلُ قَدۡ جَآءَتۡ رُسُلُ رَبِّنَا بِٱلۡحَقِّ فَهَل لَّنَا مِن شُفَعَآءَ فَيَشۡفَعُواْ لَنَآ أَوۡ نُرَدُّ فَنَعۡمَلَ غَيۡرَ ٱلَّذِي كُنَّا نَعۡمَلُۚ قَدۡ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ وَضَلَّ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 49
(53) अब क्या ये लोग इसके सिवा किसी और बात के इन्तिज़ार में हैं। कि वह अंजाम सामने आ जाए, जिसकी यह किताब ख़बर दे रही है?38 जिस दिन वह अंजाम सामने आ गया तो वही लोग, जिन्होंने पहले इसे नज़रअंदाज़ कर दिया था, कहेंगे कि “वाक़ई हमारे रब के रसूल हक़ लेकर आए थे, फिर क्या अब हमें कुछ सिफ़ारिशी मिलेंगे, जो हमारे हक़ में सिफ़ारिश करें? या हमें दोबारा वापस ही भेज दिया जाए, ताकि जो कुछ हम पहले करते थे उसके बाद अब दूसरे तरीक़े पर काम करके दिखाएँ?”39— उन्होंने अपने आपको घाटे में डाल दिया और वे सारे झूठ जो उन्होंने गढ़ रखे थे, आज उनसे गुम हो गए।
38. दूसरे लफ़्ज़ों में इस मज़मून को यूँ समझिए कि जिस शख़्स को सही और ग़लत का फ़र्क़ निहायत मुनासिब तरीक़े से साफ़-साफ़ बताया जाता है मगर वह नहीं मानता, फिर उसके सामने कुछ लोग सही रास्ते पर चलकर दिखा भी देते हैं कि ग़लत रास्ते पर चलने के ज़माने में वे जैसे कुछ थे उसके मुक़ाबले में सही रास्ता इख़्तियार करके उनकी ज़िन्दगी कितनी बेहतर हो गई है, मगर इससे भी वह कोई सबक़ नहीं लेता, तो इसके मानी ये हैं कि अब वह सिर्फ़ अपने ग़लत रवैये की सज़ा पाकर ही मानेगा कि हाँ यह ग़लत रास्ता था। जो शख़्स न हकीम के अक़्लमन्दी भरे मश्वरों को क़ुबूल करता है और न अपने जैसे बहुत-से बीमारों को हकीम की हिदायतों पर अमल करने की वजह से अच्छे होते देखकर ही कोई सबक़ लेता है, वह अब मौत के बिस्तर पर लेट जाने के बाद ही मानेगा कि वह जिन तरीक़ों पर ज़िन्दगी गुज़ार रहा था वे उसके लिए वाक़ई हलाक कर देनेवाले थे।
39. यानी वे दोबारा इस दुनिया में वापस आने की ख़ाहिश करेंगे और कहेंगे कि जिस हक़ीक़त की हमें ख़बर दी गई थी और उस वक़्त हमने न माना था, अब उसे देख लेने के बाद हम उससे वाक़िफ़ हो गए हैं, लिहाज़ा अगर हमें दुनिया में फिर भेज दिया जाए तो हमारा रवैया वह न होगा जो पहले था। इस दरख़ास्त और इसके जवाबों के लिए देखें— सूरा-6 अनआम, आयत-27-28; सूरा-14 इबराहीम की आयत 44, 45; सूरा-32 सजदा की आयत 12, 13; सूरा-35 फ़ातिर की आयत-37; सूरा-39 ज़ुमर की आयत-56-59; सूरा-40 मोमिन की आयत-11, 12
إِنَّ رَبَّكُمُ ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰ عَلَى ٱلۡعَرۡشِۖ يُغۡشِي ٱلَّيۡلَ ٱلنَّهَارَ يَطۡلُبُهُۥ حَثِيثٗا وَٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَ وَٱلنُّجُومَ مُسَخَّرَٰتِۭ بِأَمۡرِهِۦٓۗ أَلَا لَهُ ٱلۡخَلۡقُ وَٱلۡأَمۡرُۗ تَبَارَكَ ٱللَّهُ رَبُّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 50
(54) हक़ीक़त में तुम्हारा रब अल्लाह ही है जिसने आसमानों और ज़मीन को छः दिनों में पैदा किया,40 फिर अपने तख़्ते-सल्तनत (राजसिंहासन) पर जलवा फ़रमा हुआ,41 जो रात को दिन पर ढाँक देता है और फिर दिन रात के पीछे दौड़ा चला आता है, जिसने सूरज और चाँद और तारे पैदा किए। सब उसके हुक्म के पाबंद हैं। ख़बरदार रहो! उसी की ख़ल्क़ (सृष्टि) है और उसी का हुक्म है।42 बड़ी बरकतवाला है43 अल्लाह, सारे जहानों का मालिक और पालनहार।
40. यहाँ दिन का लफ़्ज़ या तो उसी चौबीस घण्टे के दिन का हम मानी (समानार्थक) है जिसे दुनिया के लोग दिन कहते हैं या फिर यह लफ़्ज़ दौर (Period) के मानी में इस्तेमाल हुआ है, जैसा कि सूरा-22 हज्ज की 47वीं आयत में फ़रमाया, “और हक़ीक़त यह है कि तेरे रब के यहाँ एक दिन हज़ार साल के बराबर है, उस हिसाब से जो तुम लोग लगाते हो।” और सूरा-70 मआरिज की आयत-4 में फ़रमाया कि “फ़रिश्ते और जिबरील उसकी तरफ़ एक दिन में चढ़ते हैं जो 50 हज़ार साल के बराबर है।” इसका सही मतलब अल्लाह तआला ही बेहतर जानता है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-41 हा॰ मीम सजदा, हाशिया-11 से 15)
41. ख़ुदा के तख़्ते-सल्तनत (राजसिंहासन) पर जलवा फ़रमा होने की तफ़सीली कैफ़ियत को समझना हमारे लिए मुश्किल है। बहुत मुमकिन है कि अल्लाह तआला ने कायनात को पैदा करने के बाद किसी जगह को अपनी इस लामहदूद सल्तनत (असीमित राज्य) का मर्कज़ ठहरा कर अपनी तजल्लियात (जलवों) को वहाँ केंद्रित कर दिया हो और उसी का नाम अर्श हो जहाँ से सारी दुनिया पर ज़िन्दगी और क़ुव्वत की बारिश भी हो रही है और मामलों का इन्तिज़ाम भी किया जा रहा है। और यह भी मुमकिन है कि तख़्त (अर्श) से मुराद हुकूमत, का इक़तिदार हो और उसपर जलवा फ़रमा होने से मुराद यह हो कि अल्लाह ने कायनात को पैदा करके उसकी बागडोर अपने हाथ में ले ली। बहरहाल अर्श पर जलवा फ़रमा होने का तफ़सीली मतलब चाहे जो भी हो, क़ुरआन में उसके ज़िक्र का अस्ल मक़सद यह ज़ेहन में बिठाना है कि अल्लाह तआला महज़ कायनात का पैदा करनेवाला ही नहीं है, बल्कि कायनात के निज़ाम को ठीक-ठीक चलानेवाला भी है। वह दुनिया को वुजूद में लाने के बाद उससे बेताल्लुक़ होकर कहीं बैठ नहीं गया है, बल्कि अमली तौर पर वही सारे जहान के छोटे-बड़े हिस्से पर हुकूमत कर रहा है। बादशाही व हुक्मरानी के तमाम इख़्तियारात अमली तौर पर उसके हाथ में हैं, हर चीज़ उसके हुक्म की पाबन्द है, ज़र्रा-ज़र्रा उसके हुक्म का ग़ुलाम है और तमाम मौजूद चीज़ों की क़िस्मतें हमेशा के लिए उसके हुक्म से जुड़ी हुई हैं। इस तरह क़ुरआन उस बुनियादी ग़लतफ़हमी की जड़ काटना चाहता है जिसकी वजह से इनसान कभी शिक्र की गुमराही में मुब्तला हुआ है और कभी ख़ुदमुख़्तारी और ख़ुदसरी व सरकशी की गुमराही में। ख़ुदा को कायनात के इन्तिज़ाम से अमली तौर पर बेताल्लुक़ समझ लेने का लाज़िमी नतीजा यह है कि आदमी या तो अपनी क़िस्मत को दूसरों के हाथ में समझे और उनके आगे सिर झुका दे, या फिर अपनी क़िस्मत का मालिक ख़ुद अपने आप को समझे और ख़ुदमुख़्तार बन बैठे। यहाँ एक बात और ध्यान देने के क़ाबिल है। क़ुरआन मजीद में ख़ुदा और उसकी मख़लूक़ (सृष्टि) के ताल्लुक़ को वाज़ेह करने के लिए इनसानी ज़बान में से ज़्यादा तर वे अलफ़ाज़, इस्तिलाहें (परिभाषाएँ), मिसालें और अन्दाज़े-बयान चुने गए हैं जो सल्तनत व बादशाही से ताल्लुक़ रखते हैं। बयान का यह अन्दाज़ क़ुरआन में इस कद्र नुमायाँ है कि कोई शख़्स जो समझकर क़ुरआन पढ़ता हो इसे महसूस किए बग़ैर नहीं रह सकता। कुछ कम समझ नाक़िदों (आलोचकों) के दूसरों से मुतास्सिर दिमाग़ों ने इससे यह नतीजा निकाला है कि यह किताब जिस ज़माने में तैयार की गई है उस ज़माने में इनसान के ज़ेहन पर शाही निज़ाम छाया हुआ था इसलिए तैयार करनेवाले ने (जिससे मुराद उन ज़ालिमों के नज़दीक मुहम्मद सल्ल० है) ख़ुदा को बादशाह के रंग में पेश किया। हालाँकि दर अस्ल क़ुरआन जिस दाइमी (शाश्वत) और हमेशा रहनेवाली हक़ीक़त को पेश कर रहा है वह इसके बरख़िलाफ़ है। वह हक़ीक़त यह है कि ज़मीन और आसमानों में बादशाही सिर्फ़ एक ज़ात की है, और हाकिमियत (Sovereignity) जिस चीज़ का नाम है वह उसी ज़ात के लिए ख़ास है और कायनात का यह निज़ाम एक मुकम्मल मर्कज़ी निज़ाम (केन्द्रीय व्यवस्था) है, जिसमें तमाम इख़्तियारात को वही एक ज़ात इस्तेमाल कर रही है। लिहाज़ा इस निज़ाम में जो शख़्स या गरोह अपनी या किसी और की जुज़्वी या कुल्ली (आंशिक या पूर्ण) हाकिमियत का दावेदार है, वह सिर्फ़ धोखे में पड़ा है। फिर यह बात भी है कि इस निज़ाम के अन्दर रहते हुए इनसान के लिए इसके सिवा कोई दूसरा रवैया सही नहीं हो उसी एक जात को मज़हबी मानी में अकेला माबूद भी माने और सियासी और समाजी मानी में अकेला बादशाह (Sovereign) भी तसलीम करे।
42. यह उसी मज़मून (विषय) की और ज़्यादा तशरीह है जो “इस्तिवा-अलल-अर्श” (अर्श पर जलवा फ़रमा होने) के अलफ़ाज़ में मुख़्तसर तौर पर बयान किया गया था। यानी यह कि ख़ुदा सिर्फ़ पैदा करनेवाला नहीं, हुक्म देनेवाला और हाकिम भी है। उसने अपनी मख़लूक़ (सृष्टि) को पैदा करके न तो दूसरों के हवाले कर दिया है कि वे उसमें हुक्म चलाएँ और न पूरी मख़लूक़ को या उसके किसी हिस्से को ख़ुदमुख़्तार बना दिया है कि जिस तरह चाहे ख़ुद काम करे, बल्कि अमली तौर पर तमाम कायनात का इन्तिज़ाम ख़ुदा के अपने हाथ में है। दिन और रात का आना और जाना आप-से-आप नहीं हो रहा है, बल्कि ख़ुदा के हुक्म से हो रहा है, जब चाहे उसे रोक दे और जब चाहे उसके निज़ाम को तब्दील कर दे। सूरज और चाँद और तारे ख़ुद किसी ताक़त के मालिक नहीं हैं, बल्कि उनकी लगाम पूरे तौर पर ख़ुदा के हाथ में है और वे मजबूर ग़ुलामों की तरह बस वही काम किए जा रहे हैं जो ख़ुदा उनसे ले रहा है।
43. बरकत के अस्ल मानी हैं बढ़ोतरी, पलने-बढ़ने और फैलने के और इसी के साथ इस लफ़्ज में बुलन्दी, अज़मत और बड़ाई के मानी भी पाए जाते हैं और मज़बूती और जमाव के भी। फिर इन सब मानी के साथ ख़ैर और भलाई का तसव्वुर लाज़िमन शामिल है। इसी लिए अल्लाह के निहायत बाबरकत होने का मतलब यह हुआ कि उसकी ख़ूबियों और भलाइयों की कोई हद नहीं है, बेहद व बेहिसाब भलाइयाँ उसकी ज़ात से फैल रही हैं, और वह बहुत बुलन्द व बरतर हस्ती है, कहीं जाकर उसकी बुलन्दी ख़त्म नहीं होती, और उसकी यह भलाई और बुलन्दी हमेशा बाक़ी रहनेवाली है, वक़्ती नहीं है कि कभी ख़त्म हो जाए, (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिये-1-19)
ٱدۡعُواْ رَبَّكُمۡ تَضَرُّعٗا وَخُفۡيَةًۚ إِنَّهُۥ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُعۡتَدِينَ ۝ 51
(55) अपने रब को पुकारो गिड़गिड़ाते हुए और चुपके-चुपके, यक़ीनन वह हद से गुज़रनेवालों को पसन्द नहीं करता।
وَلَا تُفۡسِدُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ بَعۡدَ إِصۡلَٰحِهَا وَٱدۡعُوهُ خَوۡفٗا وَطَمَعًاۚ إِنَّ رَحۡمَتَ ٱللَّهِ قَرِيبٞ مِّنَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 52
(56) ज़मीन में बिगाड़ न फैलाओ, जबकि उसका सुधार हो चुका है44 और अल्लाह ही को पुकारो डर के साथ और लालच के साथ,45 यक़ीनन अल्लाह की रहमत नेक किरदार लोगों से करीब है।
44. “ज़मीन में फ़साद (बिगाड़) न फैलाओ” यानी ज़मीन के इन्तिज़ाम को ख़राब न करो। इनसान का ख़ुदा की बन्दगी से निकलकर अपने नफ़्स की या दूसरों की बन्दगी इख़्तियार करना और ख़ुदा की हिदायत को छोड़कर अपने अख़लाक़़, रहन-सहन और समाज को ऐसे उसूलों व क़ानूनों पर क़ायम करना जो ख़ुदा के सिवा किसी और की रहनुमाई से लिए गए हों, यही वह बुनियादी फ़साद और बिगाड़ है जिससे ज़मीन के इन्तिज़ाम में ख़राबी की अनगिनत सूरतें पैदा होती हैं और इसी फ़साद को रोकना क़ुरआन का मक़सद है। फिर इसके साथ क़ुरआन इस हक़ीक़त पर भी ख़बरदार करता है कि ज़मीन के इन्तिज़ाम में अस्ल चीज़ फ़साद नहीं है जिसकी इस्लाह हुई, बल्कि अस्ल चीज़ “सलाह” (सुव्यवस्था) है जिसपर फ़साद महज़ इनसान की जहालत और सरकशी से पैदा होता रहा है। दूसरे लफ़्ज़ों में यहाँ इनसान की ज़िन्दगी की शुरुआत जहालत, वहशत और शिर्क व बग़ावत और अख़लाक़ी बिगाड़ से नहीं हुई है जिसको दूर करने के लिए बाद में दरजा-बदरजा सुधार किए गए हों, बल्कि हक़ीक़त में इनसानी ज़िन्दगी का आग़ाज़ “सलाह” (सुव्यवस्था) से हुआ है और बाद में उस दुरुस्त निज़ाम को ग़लतकार इनसान अपनी बेवक़ूफ़ियों और शरारतों से ख़राब करते रहे हैं। इसी फ़साद व बिगाड़ को मिटाने और ज़िन्दगी के निज़ाम को नए सिरे से दुरुस्त कर देने के लिए अल्लाह तआला समय-समय पर अपने पैग़म्बर भेजता रहा है और उन्होंने हर ज़माने में इनसान को यही दावत दी है कि ज़मीन का इन्तिज़ाम जिस ‘सलाह' (सुव्यवस्था) पर क़ायम किया गया था, उसमें बिगाड़ पैदा करने से रुक जाओ। इस मामले में क़ुरआन का नज़रिया उन लोगों के नज़रिए से बिलकुल अलग है जिन्होंने 'इरतिक़ा' (विकास) का एक ग़लत तसव्वुर (ख़याल) लेकर यह नज़रिया क़ायम किया है कि इनसान अंधेरे से निकलकर दरजा-ब-दरजा रौशनी में आया है और उसकी ज़िन्दगी बिगाड़ से शुरू होकर धीरे-धीरे बनी और बनती जा रही है। इसके बरख़िलाफ़ क़ुरआन कहता है कि ख़ुदा ने इनसान को पूरी रौशनी में ज़मीन पर बसाया था और एक सॉलेह निज़ाम (सुव्यवस्था) से उसकी ज़िन्दगी की शुरुआत की थी। फिर इनसान ख़ुद शैतानी रहनुमाई क़ुबूल करके बार-बार अंधेरे में जाता रहा और इस सॉलेह और अच्छे निज़ाम को बिगाड़ता रहा और ख़ुदा बार-बार अपने पैग़म्बरों को इस मक़सद के लिए भेजता रहा कि इसे अंधेरे से रौशनी की तरफ़ आने और बिगाड़ फैलाने से रुके रहने की दावत दें। (सूरा-2 बक़रा, हाशिया-250)
45. इस जुमले से वाज़ेह हो गया कि ऊपर के जुमले में जिस चीज़ को फ़साद कहा गया है वह अस्ल में यही है कि इनसान ख़ुदा के बजाय किसी और को अपना वली, सरपरस्त और कारसाज़ (कार्यसाधक) ठहराकर मदद के लिए पुकारे। और इस्लाह इसके सिवा किसी दूसरी चीज़ का नाम नहीं है कि इनसान अपनी मदद के लिए फिर से सिर्फ़ अल्लाह ही को पुकारने लगे। डर और लालच के साथ पुकारने का मतलब यह है कि तुम्हें डर भी हो तो अल्लाह से हो तुम्हारी उम्मीदें भी अगर किसी से बंधी हों तो सिर्फ़ अल्लाह से बंधी हों। अल्लाह को पुकारो तो इस एहसास के साथ पुकारो कि तुम्हारी क़िस्मत पूरी तरह उसकी मेहरबानी (कृपादृष्टि) पर टिकी है। कामयाबी और ख़ुशनसीबी पा सकते हो तो सिर्फ़ उसकी मदद और रहनुमाई से, वरना जहाँ तुम उसकी मदद से महरूम (वंचित) हुए फिर तुम्हारे लिए तबाही और नाकामी के सिवा कोई दूसरा अंजाम नहीं है।
وَهُوَ ٱلَّذِي يُرۡسِلُ ٱلرِّيَٰحَ بُشۡرَۢا بَيۡنَ يَدَيۡ رَحۡمَتِهِۦۖ حَتَّىٰٓ إِذَآ أَقَلَّتۡ سَحَابٗا ثِقَالٗا سُقۡنَٰهُ لِبَلَدٖ مَّيِّتٖ فَأَنزَلۡنَا بِهِ ٱلۡمَآءَ فَأَخۡرَجۡنَا بِهِۦ مِن كُلِّ ٱلثَّمَرَٰتِۚ كَذَٰلِكَ نُخۡرِجُ ٱلۡمَوۡتَىٰ لَعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ ۝ 53
(57) और वह अल्लाह ही है जो हवाओं को अपनी रहमत के आगे-आगे ख़ुश- ख़बरी लिए हुए भेजता है, फिर जब वे पानी से लदे हुए बादल उठा लेती हैं तो उन्हें किसी मुर्दा ज़मीन की तरफ़ चला देता है और वहाँ पानी बरसाकर (उसी मरी हुई ज़मीन से) तरह-तरह के फल निकाल लाता है। देखो, इस तरह हम मुर्दो को मौत की हालत से निकालते हैं, शायद कि तुम इस मुशाहदे से सबक़ लो।
وَٱلۡبَلَدُ ٱلطَّيِّبُ يَخۡرُجُ نَبَاتُهُۥ بِإِذۡنِ رَبِّهِۦۖ وَٱلَّذِي خَبُثَ لَا يَخۡرُجُ إِلَّا نَكِدٗاۚ كَذَٰلِكَ نُصَرِّفُ ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَشۡكُرُونَ ۝ 54
(58) जो ज़मीन अच्छी होती है, वह अपने रब के हुक्म से ख़ूब फल-फूल लाती है और जो ज़मीन ख़राब होती है, उससे ख़राब पैदावार के सिवा कुछ नहीं निकलता।46 इसी तरह हम निशानियों को बार-बार पेश करते हैं उन लोगों के लिए जो शुक्रगुज़ार होनेवाले हैं।
46. यहाँ एक लतीफ़ (सूक्ष्म) मज़मून बयान हुआ है जिसपर ख़बरदार हो जाना अस्ल मक़सद को समझने के लिए ज़रूरी है। बारिश और उसकी बरकतों के ज़िक्र से इस मक़ाम पर ख़ुदा की क़ुदरत का बयान और मरने के बाद ज़िन्दगी का साबित करना भी मक़सद है और इसके साथ-साथ मिसालों के अन्दाज़ में पैग़म्बरी और उसकी बरकतों का और उसके ज़रिए से अच्छे और बुरे में और पाक व नापाक में फ़र्क़ नुमायाँ हो जाने का नक़्शा दिखाना भी पेशे-नज़र है। रसूल के आने और ख़ुदाई तालीम व हिदायत के उतरने को बारिश की हवाओं के चलने और रहमत के बादल के छा जाने और अमृत भरी बूँदों के बरसने से तशबीह (उपमा) दी गई है। फिर बारिश के ज़रिए से मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन के यकायक जी उठने और उसके पेट से ज़िन्दगी के ख़ज़ाने उबल पड़ने को उस हालत के लिए बतौर मिसाल पेश किया गया है जो नबी की तालीम व तरबियत और रहनुमाई से मुर्दा पड़ी हुई इनसानियत के यकायक जाग उठने और उसके सीने से भलाइयों के ख़ज़ाने उबल पड़ने की सूरत में ज़ाहिर होती है। फिर यह बताया गया है कि जिस तरह बारिश के बरसने से ये सारी बरकतें सिर्फ़ उसी ज़मीन को हासिल होती हैं जो हक़ीक़त में ज़रख़ेज़ (उपजाऊ) होती है और महज़ पानी न मिलने की वजह से जिसकी सलाहियतें दबी रहती हैं, इसी तरह रिसालत की इन बरकतों से भी सिर्फ़ वही इनसान फ़ायदा उठाते हैं जो हक़ीक़त में सॉलेह (नेक और भले) होते हैं और जिनकी सलाहियतों को महज़ रहनुमाई न मिलने की वजह से नुमायाँ होने और काम करने का मौक़ा नहीं मिलता। रहे शरारत-पसन्द और बुरे इनसान तो जिस तरह बंजर ज़मीन बारिश से कोई फ़ायदा नहीं उठाती, बल्कि पानी पड़ते ही अपने पेट के छिपे हुए ज़हर को काँटों और झाड़ियों की शक्ल में उगल देती है, इसी तरह पैग़म्बरों के आने से उन्हें भी कोई फ़ायदा नहीं पहुँचता, बल्कि इसके बरख़िलाफ़ उनके अन्दर दबी हुई तमाम ख़बासतें और ख़राबियाँ उभरकर पूरी तरह काम करने लगती हैं। इसी मिसाल को बाद की बहुत-सी आयतों में लगातार तारीख़ी गवाहियाँ पेश करके वाज़ेह किया गया है कि हर ज़माने में नबी के भेजे जाने के बाद इनसानियत दो हिस्सों में बँटती रही है। एक अच्छा और पाकीज़ा हिस्सा जो पैग़म्बर की तालीम की बरकतों से फला और फूला और अच्छे फल-फूल लाया, दूसरा ख़राब और नापाक हिस्सा जिसने कसौटी के सामने आते ही अपनी सारी खोट नुमायाँ करके रख दी और आख़िरकार उसको ठीक उसी तरह छाँटकर फेंक दिया गया जिस तरह सुनार चाँदी-सोने के खोट को छाँट कर फेंकता है।
لَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا نُوحًا إِلَىٰ قَوۡمِهِۦ فَقَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥٓ إِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٖ ۝ 55
(59) हमने नूह को उसकी क़ौम की तरफ़ भेजा।47 उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के भाइयो! अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई ख़ुदा नहीं है।48 मैं तुम्हारे हक़ में एक हौलनाक दिन के अज़ाब से डरता हूँ।”
47. इस तारीख़ी बयान की शुरुआत हज़रत नूह (अलैहि०) और उनकी क़ौम से की गई है, क्योंकि क़ुरआन के मुताबिक़ जिस बेहतर निज़ामे-ज़िन्दगी पर हज़रत आदम (अलैहि०) अपनी औलाद को छोड़ गए थे उसमें सबसे पहला बिगाड़ हज़रत नूह के दौर में पैदा हुआ और उसके सुधार के लिए अल्लाह तआला ने उनको मुक़र्रर किया। क़ुरआन के इशारों और बाइबल के साफ़ बयानों से यह बात सही तौर से मालूम हो जाती है कि हज़रत नूह (अलैहि०) की क़ौम उस सरज़मीन (भूभाग) में रहती थी जिसको आज हम इराक़ के नाम से जानते हैं। बाबिल के आसारे-क़दीमा (प्राचीन अवशेषों) में बाइबल के ज़माने से भी पहले के जो कतबात (अभिलेख) मिले हैं उनसे भी इसकी तसदीक़ होती है, उनमें लगभग उसी तरह का एक क़िस्सा लिखा है जिसका ज़िक्र क़ुरआन और तौरात में बयान हुआ है और उसके वाक़ेअ (घटित) होने की जगह 'मौसिल' के आस-पास में बताई गई है। फिर जो रिवायतें कुर्दिस्तान और आरमीनिया में पुराने ज़माने से नस्ल-दर-नस्ल चली आ रही हैं उनसे भी मालूम होता है कि तूफ़ान के बाद हज़रत नूह (अलैहि०) की कश्ती इसी इलाक़े में किसी जगह पर ठहरी थी। मौसिल (AI-Mosul) के उत्तर में इब्ने-उमर नाम के जज़ीरे (द्वीप) के आसपास, आरमीनिया की सरहद पर अरारात पहाड़ के क़रीब में नूह (अलैहि०) के मुख़्तलिफ़ अवशेषों की निशानदेही अब भी की जाती है और नख़चीवान नगर के वासियों में आज तक मशहूर है कि यह शहर सबसे पहले नूह (अलैहि०) ने बसाया था। हज़रत नूह (अलैहि०) के इस क़िस्से से मिलती-जुलती रिवायतें यूनान, मिस्र, भारत और चीन के प्राचीन लिट्रेचर में भी मिलती हैं और इसके अलावा बर्मा, मलाया, पूर्वी द्वीप समूह, आस्ट्रेलिया, न्यूगिनी और अमेरिका व यूरोप के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में भी ऐसी ही रिवायतें क़दीम ज़माने से चली आ रही हैं। इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि यह किस्सा उस दौर से ताल्लुक़ रखता है जबकि तमाम इनसान किसी एक ही भू-भाग में रहते थे और फिर वहाँ से निकलकर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में फैले। इसी वजह से तमाम क़ौमें अपनी इब्तिदाई तारीख़ (आरंभिक इतिहास) में एक बहुत बड़े तूफ़ान की निशानदेही करती हैं, अगरचे वक़्त गुज़रने के साथ-साथ उसकी सही तफ़सीलात उन्होंने भुला दीं और अस्ल वाक़िए पर हर एक ने अपनी-अपनी सोच के मुताबिक़ अफ़सानों और कहानियों का एक भारी ख़ोल (आवरण) चढ़ा दिया।
48. यहाँ और दूसरी जगहों पर हज़रत नूह (अलैहि०) और उनकी क़ौम का जो हाल क़ुरआन मजीद में बयान किया गया है उससे यह बात साफ़ ज़ाहिर होती है कि यह क़ौम न तो अल्लाह के वुजूद का इनकार करती थी, न इससे अनजान थी, न उसे अल्लाह की इबादत से इनकार था, बल्कि अस्ल गुमराही जिसमें वह मुब्तला हो गई थी, शिर्क की गुमराही थी। यानी उसने अल्लाह के साथ दूसरी हस्तियों को ख़ुदाई में शरीक और इबादत के हक़ में हिस्सेदार ठहरा लिया था। फिर इस बुनियादी गुमराही से अनगिनत ख़राबियाँ इस क़ौम में पैदा हो गईं। जो ख़ुद गढ़े हुए माबूद ख़ुदाई में शरीक ठहरा लिए गए थे उनकी नुमाइन्दगी करने के लिए क़ौम में एक ख़ास तबक़ा (वर्ग) पैदा हो गया जो तमाम मज़हबी, सियासी और मआशी (आर्थिक) इख़्तियार का मालिक बन बैठा और उसने इनसानों को ऊँच और नीच तबक़ों में बाँट दिया, समाजी ज़िन्दगी को ज़ुल्म व फ़साद से भर दिया और अख़लाक़ी बुराइयों के ज़रिए से इनसानियत की जड़ें खोखली कर दीं। हज़रत नूह (अलैहि०) ने इस हालत को बदलने के लिए एक लम्बे समय तक बेहद सब्र और हिकमत के साथ कोशिश की, मगर आम लोगों को उन लोगों ने अपने फ़रेब के जाल में ऐसा फाँस रखा था कि इस्लाह और सुधार की कोई तदबीर असर न कर सकी। आख़िरकार हज़रत नूह (अलैहि०) ने ख़ुदा से दुआ की कि हक़ के इन इनकारियों में से एक को भी ज़मीन पर जिन्दा न छोड़, क्योंकि अगर तूने इनमें से किसी को भी छोड़ दिया तो ये तेरे बन्दों को गुमराह करेंगे और इनकी नस्ल से जो भी पैदा होगा बदकार और नमक हराम ही पैदा होगा। (तफ़सील के लिए देखें— सूरा-11 हूद, आयतें—25 से 48; सूरा-26 शुअरा, आयतें—105 से 122; और सूरा-71 नूह, आयतें—1 से 28)
قَالَ ٱلۡمَلَأُ مِن قَوۡمِهِۦٓ إِنَّا لَنَرَىٰكَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 56
(60) उसकी क़ौम के सरदारों ने जवाब दिया, “हमें तो यह दिखाई देता है कि तुम खुली गुमराही में पड़े हो।”
قَالَ يَٰقَوۡمِ لَيۡسَ بِي ضَلَٰلَةٞ وَلَٰكِنِّي رَسُولٞ مِّن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 57
(61) नूह ने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के भाइयो! मैं किसी गुमराही में नहीं पड़ा हूँ, बल्कि मैं सारे जहानों के रब का रसूल हूँ।
أُبَلِّغُكُمۡ رِسَٰلَٰتِ رَبِّي وَأَنصَحُ لَكُمۡ وَأَعۡلَمُ مِنَ ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 58
(62) तुम्हें अपने रब के पैग़ाम पहुँचाता हूँ, तुम्हारा ख़ैरख़ाह हूँ और मुझे अल्लाह की तरफ़ से वह कुछ मालूम है जो तुम्हें मालूम नहीं है।
أَوَعَجِبۡتُمۡ أَن جَآءَكُمۡ ذِكۡرٞ مِّن رَّبِّكُمۡ عَلَىٰ رَجُلٖ مِّنكُمۡ لِيُنذِرَكُمۡ وَلِتَتَّقُواْ وَلَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 59
(63) क्या तुम्हें इस बात पर ताज्जुब हुआ कि तुम्हारे पास ख़ुद तुम्हारी अपनी क़ौम के एक आदमी के ज़रिए से तुम्हारे रब की याददिहानी आई, ताकि तुम्हें ख़बरदार करे और तुम ग़लत रवैये से बच जाओ और तुमपर रहम किया जाए?49
49. यह मामला जो हज़रत नूह (अलैहि०) और उनकी क़ौम के दरमियान पेश आया था, बिलकुल ऐसा ही मामला मक्का में मुहम्मद (सल्ल०) और आप (सल्ल०) की क़ौम के दरमियान पेश आ रहा था। जो पैग़ाम हज़रत नूह (अलैहि०) का था वही हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) का था। जो शक और शुब्हाे मक्कावालों के सरदार और ज़िम्मेदार लोग हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के पैग़म्बर होने में ज़ाहिर करते थे, वही शुब्हााात हज़ारों साल पहले नूह (अलैहि०) की क़ौम के सरदारों ने हज़रत नूह (अलैहि०) के ख़ुदा का पैग़म्बर होने में ज़ाहिर किए थे। फिर उनके जवाब में जो बातें हज़रत नूह (अलैहि०) कहते थे, ठीक वही बातें मुहम्मद (सल्ल०) भी कहते थे। आगे चलकर दूसरे नबियों (अलैह०) और उनकी क़ौमों के जो क़िस्से मुसलसल बयान हो रहे हैं उनमें भी वही दिखाया गया है कि हर नबी की क़ौम का रवैया मक्कावालों के रवैये से और हर नबी की बात मुहम्मद (सल्ल०) की बात से बिलकुल मिलती-जुलती है। इससे क़ुरआन अपने मुख़ातबों को यह समझाना चाहता है कि इनसान की गुमराही हर ज़माने में बुनियादी तौर पर एक ही तरह की रही है, और ख़ुदा के भेजे हुए पैग़म्बरों की दावत भी हर दौर और हर सरज़मीन में एक जैसी रही है। और ठीक इसी तरह उन लोगों का अंजाम भी एक ही जैसा हुआ है और होगा जिन्होंने नबियों की दावत से मुँह मोड़ा और अपनी गुमराही पर अड़े रहे।
فَكَذَّبُوهُ فَأَنجَيۡنَٰهُ وَٱلَّذِينَ مَعَهُۥ فِي ٱلۡفُلۡكِ وَأَغۡرَقۡنَا ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمًا عَمِينَ ۝ 60
(64) मगर उन्होंने उसको झुठला दिया। आख़िरकार हमने उसे और उसके साथियों को एक कश्ती में नजात दी और उन लोगों को डुबो दिया, जिन्होंने हमारी आयतों को झुठलाया था।50 यक़ीनन वे अंधे लोग थे।
50. जो लोग क़ुरआन के अन्दाज़े-बयान से अच्छी तरह वाक़िफ़ नहीं होते, वे अकसर इस शुब्हाे में पड़ जाते हैं कि शायद यह सारा मामला बस एक-दो बार की बैठकों में ख़त्म हो गया होगा। नबी उठा और उसने अपना दावा पेश किया, लोगों ने एतिराज़ किए और नबी ने जवाब दिया, लोगों ने झुठलाया और अल्लाह ने अज़ाब भेज दिया। हालाँकि हक़ीक़त में जिन वाक्रिआत को यहाँ समेटकर कुछ लाइनों में बयान कर दिया गया है वे एक बहुत लम्बी मुदत में पेश आए थे। क़ुरआन का यह ख़ास अन्दाज़े-बयान है कि वह कोई भी वाक़िआ सिर्फ़ कहानी सुनाने के लिए बयान नहीं करता, बल्कि इसलिए करता है कि उससे सबक़ हासिल किया जाए। इसलिए हर जगह तारीख़ी वाक़िआत के बयान में वह क़िस्से के सिर्फ़ उन अहम हिस्सों को पेश करता है जो उसके मक़सद से कोई ताल्लुक़ रखते हैं, बाक़ी तमाम तफ़सीलात को नज़र-अन्दाज़ कर देता है। फिर अगर किसी क़िस्से को मुख़्तलिफ़ मौक़ों पर मुख़्तलिफ़ मक़सदों के लिए बयान करता है तो हर जगह मक़सद के हिसाब से तफ़सीलात भी मुख़्तलिफ़ तौर पर पेश करता है। मिसाल के तौर पर नूह (अलैहि०) के इसी क़िस्से को लीजिए, यहाँ उसके बयान का मक़सद यह बताना है कि पैग़म्बर की दावत को झुठलाने का क्या अंजाम होता है। लिहाज़ा इस मक़ाम पर यह ज़ाहिर करने की ज़रूरत नहीं थी कि पैग़म्बर कितनी लम्बी मुदत तक अपनी क़ौम को दावत देता रहा। लेकिन जहाँ यह क़िस्सा इस ग़रज़ के लिए बयान हुआ है कि मुहम्मद (सल्ल०) और आप (सल्ल०) के साथियों को सब्र की नसीहत की जाए, यहाँ ख़ास तौर पर नूह (अलैहि०) की दावत की लम्बी मुद्दत का ज़िक्र किया गया है ताकि हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) और आप (सल्ल०) के साथी अपनी चन्द साल की तबलीग़ी कोशिश और मेहनत का कोई नतीजा न निकलते देखकर बददिल न हों और हज़रत नूह (अलैहि०) के सब्र को देखें, जिन्होंने एक लम्बे समय तक बेहद दिलशिकन (निराशाजनक) हालात में हक़ की तरफ़ बुलाने का काम किया और जरा भी हिम्मत न हारी। (देखें— सूरा-29 अन्‌कबूत, आयत-14) इस मौक़े पर एक और शक भी लोगों के दिलों में खटकता है जिसे दूर कर देना ज़रूरी है। जब एक शख़्स क़ुरआन में बार-बार ऐसे वाक़िआत पढ़ता है कि फ़ुलाँ क़ौम ने नबी को झुठलाया और नबी ने उसे अज़ाब की ख़बर दी और अचानक उसपर अज़ाब आया और क़ौम तबाह हो गई, तो उसके दिल में यह सवाल पैदा होता है कि आख़िर इस तरह के वाक़िआत अब क्यों नहीं पेश आते? हालाँकि क़ौमें गिरती भी हैं और उठती भी हैं, लेकिन इस उठने और गिरने की नौइयत दूसरी होती है। यह तो नहीं होता कि एक नोटिस के बाद ज़लज़ला या तूफ़ान आ जाए या बिजली गिर पड़े और पूरी क़ौम को तबाह करके रख दे। इसका जवाब यह है कि हक़ीक़त में अख़लाक़ी और क़ानूनी एतिबार से उस क़ौम का मामला जिनसे कोई नबी सीधे तौर पर ख़िताब करे, दूसरी तमाम क़ौमों के मामले से बिलकुल अलग होता है। जिस क़ौम में नबी पैदा हुआ हो और वह बग़ैर किसी वास्ते के उसको ख़ुद उसी की अपनी ज़बान में ख़ुदा का पैग़ाम पहुँचाए और अपनी शख़्सियत के अन्दर अपनी सच्चाई का ज़िन्दा नमूना उसके सामने पेश कर दे, उसपर ख़ुदा की दलील और हुज्जत पूरी हो जाती है, उसके लिए बहाना पेश करने की कोई गुंजाइश बाक़ी नहीं रहती और अल्लाह के पैग़म्बर को आमने-सामने झुठला देने के बाद वह इसकी हक़दार हो जाती है कि उसका फ़ैसला उसी मौक़े पर चुका दिया जाए। मामले की यह नौइयत उन क़ौमों के मामले से बुनियादी तौर पर अलग है जिनके पास ख़ुदा का पैग़ाम सीधे तौर पर न आया हो, बल्कि मुख़्तलिफ़ वास्तों (माध्यमों) से पहुँचा हो। तो अगर अब इस तरह के वाक़िआत पेश नहीं आते जैसे नबियों (अलैहि०) के ज़माने में पेश आए हैं, तो इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं, इसलिए कि मुहम्मद (सल्ल०) के बाद पैग़म्बरी का सिलसिला बन्द हो चुका है। अलबत्ता ताज्जुब के क़ाबिल कोई बात हो सकती थी तो यह कि अब भी किसी क़ौम पर उसी तरह का अज़ाब आता जैसा नबियों को उनके सामने झुठलानेवाली क़ौमों पर आता था। मगर इसका यह मतलब भी नहीं है कि अब उन क़ौमों पर अज़ाब आने बन्द हो गए हैं जो ख़ुदा से मुँह मोड़े और फ़िकरी (वैचारिक) व अख़लाक़ी गुमराहियों में मुब्तला हैं। हक़ीक़त यह है कि अब भी ऐसी तमाम क़ौमों पर अज़ाब आते रहते हैं। छोटे-छोटे ख़बरदार करनेवाले अज़ाब भी और बड़े-बड़े फ़ैसला चुका देनेवाले अज़ाब भी। लेकिन कोई नहीं जो नबियों (अलैहि०) और आसमानी किताबों की तरह इन अज़ाबों के अख़लाक़ी मानी की तरफ़ इनसान को ध्यान दिलाए, बल्कि इसके बरख़िलाफ़ न सिर्फ़ ज़ाहिरी चीज़ों पर नज़र रखनेवाले साइंसदानों और हक़ीक़त से अनजान इतिहासकारों और फ़ल्सफ़ियों (दार्शनिकों) का एक बड़ा गरोह इनसानों पर हावी है जो इस क़िस्म के तमाम वाक़िआत की वजह माद्दी क़ानूनों (भौतिक नियमों) या तारीख़़ी असबाब (ऐतिहासिक कारणों) को बताकर उसको भुलावे में डालता रहता है और उसे कभी यह समझने का मौक़ा नहीं देता कि ऊपर कोई ख़ुदा भी मौजूद है जो ग़लतकार क़ौमों को पहले मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से उनकी ग़लतकारी पर ख़बरदार करता है और जब वे उसकी भेजी हुई चेतावनियों से आँखें बन्द करके अपने ग़लत रवैये पर जमी रहती हैं तो आख़िरकार उन्हें तबाही के गढ़े में फेंक देता है।
۞وَإِلَىٰ عَادٍ أَخَاهُمۡ هُودٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥٓۚ أَفَلَا تَتَّقُونَ ۝ 61
(65) और आद51 की तरफ़ हमने उनके भाई हूद को भेजा। उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के भाइयो! अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई ख़ुदा नहीं है। फिर क्या तुम ग़लत रविश से नहीं बचोगे?”
51. यह (आद) अरब की सबसे पुरानी क़ौम थी, जिसकी कहानियाँ अरब के लोगों में हर किसी की ज़बान पर थीं। बच्चा-बच्चा उनके नाम से वाक़िफ़ था। उनकी शानो-शौकत की लोग मिसालें देते थे। फिर दुनिया से उनका नामो-निशान तक मिट जाना भी मिसाल बनकर रह गया। इसी शोहरत की वजह से अरबी ज़बान में हर पुरानी चीज़ के लिए ‘आदी’ का लफ़्ज़ बोला जाता है। आसारे-क़दीमा (पुरातत्त्व) को ‘आदियात’ कहते हैं। जिस ज़मीन के मालिक बाक़ी न रहे हों और जो आबाद न होने की वजह से वीरान और ख़ाली पड़ी हो, उसे ‘आदियुल-अर्ज़’ (वह ज़मीन जो इस्तेमाल न की जाती हो) कहा जाता है। क़दीम अरबी शायरी में हमको बहुत ज़्यादा इस क़ौम का ज़िक्र मिलता है। अरब के माहिरीने-अनसाब (वंशावली विशेषज्ञ) भी अपने मुल्क की ख़त्म हो जानेवाली क़ौमों में सबसे पहले इसी क़ौम का नाम लेते हैं। हदीस में आता है कि एक बार नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में बनी-ज़ुहल-बिन-शैबान के एक साहब आए, जो आद के इलाक़े के रहनेवाले थे और उन्होंने वे क़िस्से नबी (सल्ल०) को सुनाए जो उस क़ौम के बारे में पुराने ज़माने से उनके इलाक़े के लोगों में नक़्ल होते चले आ रहे थे। क़ुरआन के मुताबिक़ इस क़ौम के बसने की अस्ल जगह अहक़ाफ़ का इलाक़ा था जो हिजाज़, यमन और यमामा के दरमियान ‘अर-रबउल-ख़ाली’ के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। यहीं से फैलकर उन लोगों ने यमन के पश्चिमी तटों और उम्मान व हज़रमौत से इराक़ तक अपनी ताक़त का सिक्का चला दिया था। तारीख़ी हैसियत से इस क़ौम के आसार दुनिया से तक़रीबन मिट चुके हैं, लेकिन दक्षिण अरब में कहीं-कहीं कुछ पुराने खण्डहर मौजूद हैं जिनका ताल्लुक़ आद से बतलाया जाता है। हज़रमौत में एक मक़ाम पर हज़रत हूद (अलैहि०) की क़ब्र भी मशहूर है। 1837 ई० में ब्रिटेन की नौसेना के एक अधिकारी (James R. Wellested) को 'हिस्ने-ग़ुराब’ में एक पुराना कतबा (आलेख) मिला था जिसमें हज़रत हूद (अलैहि०) का ज़िक्र मौजूद है और इबारत से साफ़ मालूम होता है कि ये उन लोगों की तहरीर (लिखावट) है जो हूद (अलैहि०) की शरीअत को माननेवाले थे। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-16 अहक़ाफ़, हाशिया-25)
قَالُوٓاْ أَجِئۡتَنَا لِنَعۡبُدَ ٱللَّهَ وَحۡدَهُۥ وَنَذَرَ مَا كَانَ يَعۡبُدُ ءَابَآؤُنَا فَأۡتِنَا بِمَا تَعِدُنَآ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 62
(70) उन्होंने जवाब दिया, “क्या तू हमारे पास इसलिए आया है कि हम अकेले अल्लाह ही की इबादत (बन्दगी) करें और उन्हें छोड़ दें जिनकी इबादत हमारे बाप-दादा करते आए हैं?53 अच्छा तो ले आ वह अज़ाब (यातना) जिसकी तू हमें धमकी देता है, अगर तू सच्चा है,”
53. यहाँ यह बात फिर नोट करने के क़ाबिल है कि यह क़ौम भी अल्लाह के वुजूद से अनजान या उसका इनकार करनेवाली न थी और न उसे अल्लाह की इबादत से इनकार था। अस्ल में वह हज़रत हूद (अलैहि०) की जिस बात को मानने से इनकार करती थी वह सिर्फ़ यह थी कि अकेले अल्लाह की बन्दगी की जाए, किसी दूसरे की बन्दगी उसके साथ शामिल न की जाए।
قَالَ قَدۡ وَقَعَ عَلَيۡكُم مِّن رَّبِّكُمۡ رِجۡسٞ وَغَضَبٌۖ أَتُجَٰدِلُونَنِي فِيٓ أَسۡمَآءٖ سَمَّيۡتُمُوهَآ أَنتُمۡ وَءَابَآؤُكُم مَّا نَزَّلَ ٱللَّهُ بِهَا مِن سُلۡطَٰنٖۚ فَٱنتَظِرُوٓاْ إِنِّي مَعَكُم مِّنَ ٱلۡمُنتَظِرِينَ ۝ 63
(71) उसने कहा, “तुम्हारे रब की फिटकार तुमपर पड़ गई और उसका ग़ज़ब टूट पड़ा। क्या तुम मुझसे उन नामों पर झगड़ते हो जो तुमने और तुम्हारे बाप-दादा ने रख लिए हैं,54 जिनके लिए अल्लाह ने कोई सनद नहीं उतारी है?55 अच्छा तो तुम भी इन्तिज़ार करो और मैं भी तुम्हारे साथ इन्तिज़ार करता हूँ।
54. यानी तुम किसी को बारिश का और किसी को हवा का और किसी को दौलत का और किसी को बीमारी का रब कहते हो, हालाँकि इनमें से कोई भी हक़ीक़त में किसी चीज़ का रब नहीं है। इसकी मिसालें मौजूदा ज़माने में भी हमें मिलती हैं। किसी इनसान को लोग 'मुश्किल-कुशा' (मुश्किलें दूर करनेवाला) कहते हैं, हालाँकि मुश्किल दूर करने की कोई ताक़त उसके पास नहीं है। किसी को 'गंज-बख़्श' के नाम से पुकारते हैं, हालाँकि उसके पास कोई 'गंज' (ख़ज़ाना) नहीं कि किसी को दे। किसी के लिए 'दाता' का लफ़्ज़ बोलते हैं, हालाँकि वह किसी चीज़ का मालिक ही नहीं कि 'दाता' बन सके। किसी को 'ग़रीब-नवाज़' का नाम दे दिया गया है, हालाँकि वह बेचारा उस इक़तिदार में कोई हिस्सा नहीं रखता जिसकी बिना पर वह किसी ग़रीब को कुछ दे सके। किसी को ‘ग़ौस' (फ़रियाद सुननेवाला) कहा जाता है, हालाँकि वह कोई ज़ोर नहीं रखता कि किसी की फ़रियाद को सुन सके। कहने का मतलब यह है कि हक़ीक़त में ऐसे सब नाम सिर्फ़ नाम ही हैं जिनके पीछे कोई इन नामों के मुताबिक़ ताक़त और सिफ़त रखनेवाला नहीं है। जो इनके लिए झगड़ता है वह अस्ल में चन्द नामों के लिए झगड़ता है, न कि किसी हक़ीक़त के लिए।
55. यानी अल्लाह, जिसको तुम ख़ुद भी सबसे बड़ा रब कहते हो, उसने कोई दलील इस बारे में नहीं दी है कि तुम्हारे ये बनावटी ख़ुदा, ख़ुदा और रब होने का हक़ रखते हैं। उसने कहीं यह नहीं फ़रमाया कि मैंने फ़ुलाँ-फ़ुलाँ को अपनी ख़ुदाई का इतना हिस्सा दे दिया है, कोई परवाना उसने किसी को 'मुश्किल दूर करने या ख़ज़ाने बख़्शने का नहीं दिया। तुमने आप ही अपनी अटकल और गुमान से उसकी ख़ुदाई का जितना हिस्सा जिसको चाहा है दे डाला है।
فَأَنجَيۡنَٰهُ وَٱلَّذِينَ مَعَهُۥ بِرَحۡمَةٖ مِّنَّا وَقَطَعۡنَا دَابِرَ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَاۖ وَمَا كَانُواْ مُؤۡمِنِينَ ۝ 64
(72) आख़िरकार हमने अपनी मेहरबानी से हूद और उसके साथियों को बचा लिया और उन लोगों की जड़ काट दी, जो हमारी आयतों को झुठला चुके थे और ईमान लानेवाले न थे।56
56. जड़ काट दी, यानी उनको जड़ से उखाड़ फेंका और उनका नामो-निशान तक दुनिया में बाक़ी न छोड़ा। यह बात ख़ुद अरबवालों की तारीख़ी रिवायतों से भी साबित है, और मौजूदा दौर में पुराने ज़माने से मुताल्लिक़ जो नई जानकारियाँ सामने आई हैं उनसे भी साबित होता है कि आदे-ऊला (प्रथम आद) बिलकुल तबाह हो गए और उनकी यादगारें तक दुनिया से मिट गईं। चुनाँचे अरब के इतिहासकार उन्हें अरब की ख़त्म हो जानेवाली क़ौमों में शुमार करते हैं। फिर यह बात भी अरब की तारीख़़ी तौर पर तस्लीमशुदा बातों में से है कि आद का सिर्फ़ वह हिस्सा बाक़ी रहा जो हज़रत हूद (अलैहि०) की पैरवी करनेवाला था। आद की इन ही बची हुई नस्लों का नाम तारीख़ में आदे-सानिया (द्वितीय आद) है और हिस्ने-ग़ुराब का वह कतबा (आलेख) जिसका हम अभी-अभी ज़िक्र कर चुके हैं इन ही की यादगारों में से है। इस कतबे में (जिसे लगभग 18 सौ वर्ष ई० पू० की तहरीर समझा जाता है) माहिरीने-आसार (पुरातत्त्व विशेषज्ञों) ने जो इबारत पढ़ी है उसके चन्द जुमले ये हैं— “हमने एक लम्बा समय इस क़िले में इस शान से गुज़ारा है कि हमारी ज़िन्दगी तंगी व बदहाली से दूर थी, हमारी नहरें नदी के पानी से भरी रहती थीं......और हमारे हुक्मराँ ऐसे बादशाह थे जो बुरे ख़यालात से पाक और बिगाड़ व बुराई फैलानेवालों पर सख़्त थे, वे हम पर हूद शरीअत के मुताबिक़ हुकूमत करते थे और बेहतरीन फ़ैसले एक किताब में लिख लिए जाते थे, और हम मोजिज़ात (चमत्कारों) और मौत के बाद दोबारा उठाए जाने पर ईमान रखते थे।” यह इबारत आज भी क़ुरआन के इस बयान की तसदीक़ कर रही है कि आद की क़दीम शानो-शौकत और ख़ुशहाली के वारिस आख़िरकार वही लोग हुए जो हज़रत हूद (अलैहि०) पर ईमान लाए थे।
وَإِلَىٰ ثَمُودَ أَخَاهُمۡ صَٰلِحٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥۖ قَدۡ جَآءَتۡكُم بَيِّنَةٞ مِّن رَّبِّكُمۡۖ هَٰذِهِۦ نَاقَةُ ٱللَّهِ لَكُمۡ ءَايَةٗۖ فَذَرُوهَا تَأۡكُلۡ فِيٓ أَرۡضِ ٱللَّهِۖ وَلَا تَمَسُّوهَا بِسُوٓءٖ فَيَأۡخُذَكُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 65
(73) और समूद 57 की तरफ़ हमने उनके भाई सॉलेह को भेजा। उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के भाइयो! अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई ख़ुदा नहीं है। तुम्हारे पास तुम्हारे रब की खुली दलील आ गई है। यह अल्लाह की ऊँटनी तुम्हारे लिए एक निशानी के तौर पर है,58 इसलिए इसे छोड़ दो कि अल्लाह की धरती में चरती फिरे। इसको किसी बुरे इरादे से हाथ न लगाना, वरना एक दर्दनाक अज़ाब तुम्हें आ लेगा।
57. यह अरब की सबसे पुरानी क़ौमों में से दूसरी क़ौम है जो आद के बाद सबसे ज़्यादा मशहूर व मारूफ़ है। क़ुरआन के उतरने से पहले इसके क़िस्से अरबवालों में हर किसी की ज़बान पर रहते थे। जाहिलियत के ज़माने की शेरो-शायरी और तक़रीरों में इसका ज़िक्र बहुत मिलता है। असीरिया के कतबात (आलेखों) और यूनान, स्कन्दरिया और रूम (रोम) के प्राचीन इतिहासकार और भूगोल-शास्त्री भी इसका ज़िक्र करते हैं। मसीह (अलैहि०) की पैदाइश से कुछ अर्से पहले तक इस क़ौम के कुछ बचे हुए लोग मौजूद थे, चुनाँचे रूम के इतिहासकारों का बयान है कि ये लोग रोमी फ़ौजों में भरती हुए और नब्तियों के ख़िलाफ़ लड़े जिनसे उनकी दुश्मनी थी। इस क़ौम के बसने की जगह उत्तर-पश्चिम अरब का वह इलाक़ा था जो आज भी 'अल-हिज्र' के नाम से जाना जाता है। मौजूदा ज़माने में मदीना और तबूक के दरमियान हिजाज़ रेलवे पर एक स्टेशन पड़ता है जिसे 'मदाइने-सॉलेह' कहते हैं। यही समूद की राजधानी थी और क़दीम (पुराने) ज़माने में 'हिज्र' कहलाता था। अब तक वहाँ हज़ारों एकड़ के इलाक़े में वे पत्थर की इमारतें मौजूद हैं जिनको समूद के लोगों ने पहाड़ों में तराश-तराश कर बनाया था। और उस वीरान शहर को देखकर अन्दाज़ा किया जाता है कि किसी वक़्त इस शहर की आबादी चार-पाँच लाख से कम न होगी। क़ुरआन के उतरने के ज़माने में हिजाज़ के तिजारती क़ाफ़िले इन आसारे-क़दीमा के दरमियान से गुज़रा करते थे। नबी (सल्ल०) तबूक की जंग के मौक़े पर जब इधर से गुज़रे तो आप (सल्ल०) ने मुसलमानों को ये इबरत की निशानियाँ दिखाईं और वह सबक़ दिया जो आसारे-क़दीमा (प्राचीन-अवशेषों) से हर समझदार इनसान को हासिल करना चाहिए। एक जगह आप (सल्ल०) ने एक कुएँ की निशानदेही करके बताया कि यही वह कुआँ है जिससे हज़रत सॉलेह (अलैहि०) की ऊँटनी पानी पीती थी और मुसलमानों को हिदायत की कि सिर्फ़ इसी कुएँ से पानी लेना, बाक़ी कुओं का पानी न पीना। एक पहाड़ी दर्रे को दिखाकर आप (सल्ल०) ने बताया कि इसी दर से वह ऊँटनी पानी पीने के लिए आती थी। चुनाँचे वह मक़ाम आज भी 'फ़ज्जुन-नाक़ा' (ऊँटनीवाला दर्रा) के नाम से मशहूर है। उनके खण्डहरों में जो मुसलमान सैर करते फिर रहे थे उनको आप (सल्ल०) ने जमा किया और उनके सामने एक ख़ुतबा दिया जिसमें समूद के अंजाम पर इबरत दिलाई और फ़रमाया कि यह उस क़ौम का इलाक़ा है जिसपर ख़ुदा का अज़ाब नाज़िल हुआ था। लिहाज़ा यहाँ से जल्दी गुज़र जाओ, यह सैर करने की जगह नहीं है, बल्कि रोने का मक़ाम है।
58. ज़ाहिर इबारत से साफ़ महसूस होता है कि पहले जुमले में अल्लाह की जिस खुली दलील का ज़िक्र किया गया है उससे मुराद यही ऊँटनी है जिसे इस दूसरे जुमले में लफ़्ज़ 'निशानी' कहा गया है। सूरा-26 शुअरा, आयत 154 से 158 में बताया गया है कि समूदवालों ने ख़ुद एक ऐसी निशानी का हज़रत सॉलेह (अलैहि०) से मुतालबा किया था, जो इस बात पर खुली दलील हो कि वे अल्लाह की तरफ़ से मुक़र्रर किए हुए हैं और उसी के जवाब में हज़रत सॉलेह (अलैहि०) ने ऊँटनी को पेश किया था। इससे यह बात तो पूरी तरह साबित हो जाती है कि ऊँटनी का ज़ाहिर होना मोजिज़े (चमत्कार) के तौर पर था और यह उसी तरह के मोजिज़ों में से था जो कुछ पैग़म्बरों ने अपनी पैग़म्बरी के सुबूत में इनकार करनेवालों की माँग पर पेश किए हैं। साथ ही यह बात भी उस ऊँटनी की, मोजिज़े के तौर पर, पैदाइश पर दलील है कि हज़रत सॉलेह (अलैहि०) ने उसे पेश करके इनकार करनेवालों को धमकी दी कि अब इस ऊँटनी की जान के साथ तुम्हारी ज़िन्दगी जुड़ी है। यह आज़ादी के साथ तुम्हारी ज़मीनों में चरती फिरेगी। एक दिन यह अकेली पानी पिएगी और दूसरे दिन पूरी क़ौम के जानवर पिएँगे। और अगर तुमने इसे हाथ लगाया तो अचानक तुमपर ख़ुदा का अज़ाब टूट पड़ेगा। ज़ाहिर है कि इस शान के साथ वही चीज़ पेश की जा सकती थी जिसका ग़ैर-मामूली होना लोगों ने अपनी आँखों से देख लिया हो। फिर यह बात कि एक लम्बे समय तक ये लोग उसके आज़ादी के साथ चरते-फिरने को और इस बात को कि एक दिन अकेली वह पानी पिए और दूसरे दिन उन सबके जानवर पिएँ, न चाहते हुए भी बरदाश्त करते रहे और आख़िर बड़े मश्वरों और साज़िशों के बाद उन्होंने उसे क़त्ल किया, जबकि हज़रत सॉलेह के पास कोई ताक़त न थी जिसका उन्हें कोई डर होता, इस हक़ीक़त पर एक और दलील है कि वे लोग उस ऊँटनी से डरे हुए थे और जानते थे कि उसके पीछे ज़रूर कोई ज़ोर है जिसके बल पर वह हमारे दरमियान दनदनाती फिरती है। मगर क़ुरआन इस बात की कोई तफ़सील बयान नहीं करता कि यह ऊँटनी कैसी थी और किस तरह वुजूद में आई। किसी सहीह हदीस में भी उसके मोजिज़े के तौर पर पैदा होने की कैफ़ियत बयान नहीं की गई है। इसलिए उन रिवायतों को तसलीम करना कुछ ज़रूरी नहीं जो तफ़सीर लिखनेवालों ने उसकी पैदाइश की कैफ़ियत के बारे में बयान की हैं। लेकिन यह बात कि वह किसी-न-किसी तौर पर मोजिज़े की हैसियत रखती थी, क़ुरआन से साबित है।
وَٱذۡكُرُوٓاْ إِذۡ جَعَلَكُمۡ خُلَفَآءَ مِنۢ بَعۡدِ عَادٖ وَبَوَّأَكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ تَتَّخِذُونَ مِن سُهُولِهَا قُصُورٗا وَتَنۡحِتُونَ ٱلۡجِبَالَ بُيُوتٗاۖ فَٱذۡكُرُوٓاْ ءَالَآءَ ٱللَّهِ وَلَا تَعۡثَوۡاْ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُفۡسِدِينَ ۝ 66
(74) याद करो वह वक़्त जब अल्लाह ने आद की क़ौम के बाद तुम्हें उसका जानशीन बनाया और तुमको ज़मीन में यह दरजा दिया कि आज तुम उसके हमवार (समतल) मैदानों में आलीशान महल बनाते और उसके पहाड़ों को मकानों की शक्ल में काटते-छाँटते हो।59 तो उसकी क़ुदरत के करिश्मों से ग़ाफ़िल न हो जाओ और ज़मीन में बिगाड़ न पैदा करो।60
59. समूद की यह कारीगरी वैसी ही थी जैसी भारत में अजन्ता, एलोरा और कुछ दूसरी जगहों पर पाई जाती है, यानी वे पहाड़ों को तराशकर उसके अन्दर बड़ी-बड़ी शानदार इमारतें बनाते थे, जैसा कि ऊपर बयान हुआ। मदाइने-सॉलेह में अब तक उनकी कुछ इमारतें ज्यों-की-त्यों मौजूद हैं और इनको देखकर अन्दाज़ा होता है कि इस क़ौम ने इंजीनियरी में कितनी हैरतअंगेज़ तरक़्क़ी की थी।
60. यानी आद के अंजाम से सबक़ लो। जिस ख़ुदा की क़ुदरत ने उस फ़सादी और बिगाड़ फैलानेवाली क़ौम को बरबाद करके तुम्हें उसकी जगह सरबुलन्द किया वही ख़ुदा तुम्हें बर्बाद करके तुम्हारी जगह दूसरों को ला सकता है, अगर तुम भी आद की तरह फ़साद व बिगाड़ फैलानेवाले बन जाओ। (तशरीह के लिए देखें, हाशिया-52)
قَالَ ٱلۡمَلَأُ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُواْ مِن قَوۡمِهِۦ لِلَّذِينَ ٱسۡتُضۡعِفُواْ لِمَنۡ ءَامَنَ مِنۡهُمۡ أَتَعۡلَمُونَ أَنَّ صَٰلِحٗا مُّرۡسَلٞ مِّن رَّبِّهِۦۚ قَالُوٓاْ إِنَّا بِمَآ أُرۡسِلَ بِهِۦ مُؤۡمِنُونَ ۝ 67
(75) उसकी क़ौम के सरदारों ने जो बड़े बने हुए थे, कमज़ोर तबके के उन लोगों से जो ईमान ले आए थे, कहा, “क्या तुम वाक़ई यह जानते हो कि सॉलेह अपने रब का पैग़म्बर है?” उन्होंने जवाब दिया, “बेशक जिस पैग़ाम के साथ वह भेजा गया है, उसे हम मानते हैं।”
قَالَ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُوٓاْ إِنَّا بِٱلَّذِيٓ ءَامَنتُم بِهِۦ كَٰفِرُونَ ۝ 68
(76) उन बड़ाई के दावेदारों ने कहा, “जिस चीज़ को तुमने माना है, हम उसके इनकारी हैं।"
فَعَقَرُواْ ٱلنَّاقَةَ وَعَتَوۡاْ عَنۡ أَمۡرِ رَبِّهِمۡ وَقَالُواْ يَٰصَٰلِحُ ٱئۡتِنَا بِمَا تَعِدُنَآ إِن كُنتَ مِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 69
(77) फिर उन्होंने उस ऊँटनी को मार डाला61 और पूरी ढिठाई के साथ अपने रब के हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी कर डाली और सॉलेह से कह दिया कि “ले आ वह अज़ाब जिसकी तू हमें धमकी देता है, अगर तू वाक़ई पैग़म्बरों में से है।”
61. हालाँकि ऊँटनी को मारा एक शख़्स ने था, जैसा कि सूरा-54 क़मर और सूरा-91 शम्स में बयान हुआ है, लेकिन चूँकि पूरी क़ौम उस मुजरिम के पीछे थी और वह दरअस्ल इस जुर्म में क़ौम जो चाहती थी उसका एक ज़रिआ था, इसलिए इलज़ाम पूरी क़ौम पर लगाया गया है। हर वह गुनाह जो क़ौम की ख़ाहिश के मुताबिक़ किया जाए, या जिसके करने को क़ौम की मरज़ी और पसन्दीदगी हासिल हो, एक क़ौमी गुनाह है, चाहे उसे करनेवाला अकेला एक शख़्स हो। सिर्फ़ यही नहीं, बल्कि क़ुरआन कहता है कि जो गुनाह क़ौम के दरमियान अलानिया किया जाए और क़ौम उसे गवारा करे वह भी क़ौमी गुनाह है।
فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلرَّجۡفَةُ فَأَصۡبَحُواْ فِي دَارِهِمۡ جَٰثِمِينَ ۝ 70
(78) आख़िरकार एक दहला देनेवाली आफ़त62 ने उन्हें आ लिया और वे अपने घरों में औंधे पड़े-के-पड़े रह गए।
62. इस आफ़त को यहाँ ‘रज्फ़ा' (बेचैन करने, हिला मारनेवाली) कहा गया है और दूसरी जगहों पर इसी के लिए 'सहा' (चीख़), 'साइक़ा' (बिजली का कड़ाका) और 'ताग़िया' (बहुत ज़ोर की आवाज़) के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं।
فَتَوَلَّىٰ عَنۡهُمۡ وَقَالَ يَٰقَوۡمِ لَقَدۡ أَبۡلَغۡتُكُمۡ رِسَالَةَ رَبِّي وَنَصَحۡتُ لَكُمۡ وَلَٰكِن لَّا تُحِبُّونَ ٱلنَّٰصِحِينَ ۝ 71
(79) और सॉलेह यह कहता हुआ उनकी बस्तियों से निकल गया कि “ऐ मेरी क़ौम? मैंने अपने रब का पैग़ाम तुझे पहुँचा दिया और मैंने तेरा बहुत भला चाहा, मगर मैं क्या करूँ कि तुझे अपना भलाई चाहनेवाला पसन्द ही नहीं है।”
وَلُوطًا إِذۡ قَالَ لِقَوۡمِهِۦٓ أَتَأۡتُونَ ٱلۡفَٰحِشَةَ مَا سَبَقَكُم بِهَا مِنۡ أَحَدٖ مِّنَ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 72
(80) और लूत को हमने पैग़म्बर बनाकर भेजा। फिर याद करो जब उसने अपनी क़ौम63 से कहा, “क्या तुम ऐसे बेशर्म हो गए हो कि वह गन्दा काम करते हो जो तुमसे पहले दुनिया में किसी ने नहीं किया?
63. यह क़ौम उस इलाक़े में रहती थी जिसे आजकल ट्रांस जार्डन (Trans Jordan) कहा जाता है और इराक़ व फ़िलस्तीन के बीच स्थित है। बाइबल में इस क़ौम की राजधानी का नाम 'सदूम' बताया गया है जो या तो मृतसागर (Dead Sea) के क़रीब किसी जगह स्थित था या अब मृतसागर में डूब चुका है। 'तलमूद' में लिखा है कि 'सदूम' के अलावा उनके चार बड़े-बड़े शहर और भी थे और उन शहरों के बीच का इलाक़ा ऐसा हरा-भरा था कि मीलों तक बस एक बाग़ ही बाग़ था जिसके जमाल (सौन्दर्य) को देखकर इनसान पर मस्ती छाने लगती थी। मगर आज उस क़ौम का नामो-निशान दुनिया से बिलकुल मिट चुका है और यह भी तय नहीं है कि इसकी बस्तियाँ ठीक किस जगह पर बसी हुई थीं। अब सिर्फ़ मृतसागर ही उसकी एक यादगार बाक़ी रह गई है जिसे आज तक 'बहरे-लूत' (लूत-समुद्र) कहा जाता है। हज़रत लूत (अलैहि०) हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के भतीजे थे। अपने चचा के साथ इराक़ से निकले और कुछ मुद्दत तक शाम (सीरिया) व फ़िलस्तीन और मिस्र में घूम-फिरकर दावत व तबलीग़ का तजरिबा हासिल करते रहे। फिर बाक़ायदा (स्थायी रूप से) पैग़म्बरी के मंसब पर मुक़र्रर होकर उस बिगड़ी हुई क़ौम की इस्लाह (सुधार) पर लग गए। सदूमवालों को उनकी क़ौम इस पहलू से कहा गया है कि शायद उनका रिश्तेदारी का ताल्लुक़ इस क़ौम से होगा। यहूदियों की फेर-बदल की हुई बाइबल में हज़रत लूत की सीरत (जीवनी) पर जहाँ और बहुत-से सियाह धब्बे लगाए गए हैं वहाँ एक धब्बा यह भी है कि वे हज़रत इबराहीम (अलैहि०) से लड़कर सुदूम के इलाक़े में चले गए थे (उत्पत्ति, 13/1-12), मगर क़ुरआन इस ग़लत बयानी को ग़लत ठहराता है। उसका बयान यह है कि अल्लाह ने उन्हें रसूल बनाकर उस क़ौम की तरफ़ भेजा था।
إِنَّكُمۡ لَتَأۡتُونَ ٱلرِّجَالَ شَهۡوَةٗ مِّن دُونِ ٱلنِّسَآءِۚ بَلۡ أَنتُمۡ قَوۡمٞ مُّسۡرِفُونَ ۝ 73
(81) तुम औरतों को छोड़कर मर्दो से अपनी ख़ाहिश पूरी करते हो।64 हक़ीक़त यह है कि तुम बिलकुल ही हद से गुज़र जानेवाले लोग हो।”
64. क़ुरआन में दूसरी जगहों पर इस क़ौम के कुछ और अख़लाक़ी जुर्मों का भी ज़िक्र आया है, मगर यहाँ उसके सबसे बड़े जुर्म के बयान पर बस किया गया है, जिसकी वजह से ख़ुदा का अज़ाब उसपर उतरा। यह काबिले-नफ़रत (धृणित) काम जिसकी वजह से यह क़ौम हमेशा के लिए मशहूर हो गई, इसे करने से तो बदकिरदार इनसान कभी न माने, लेकिन यह गर्व सिर्फ़ यूनान को हासिल है कि उसके फ़ल्सफ़ियों (दार्शनिकों) ने इस घिनौने जुर्म को अख़लाक़ी ख़ूबी के मर्तबे तक उठाने की कोशिश की और उसके बाद जो कसर बाक़ी रह गई थी उसे जदीद मग़रिबी तहज़ीब (आधुनिक पश्चिमी संस्कृति) ने पूरा किया कि खुल्लम-खुल्ला उसके हक़ में जबरदस्त प्रोपेगण्डा किया गया, यहाँ तक कि कुछ देशों की क़ानून बनानेवाली मजलिसों ने उसे बाक़ायदा जाइज़ ठहरा दिया। हालाँकि यह बिलकुल एक खुली हक़ीक़त है कि हमजिंसी ताल्लुक़ (समलैंगिकता) क़तई तौर पर फ़ितरत के ख़िलाफ़ है। अल्लाह तआला ने तमाम जानदारों में नर-मादा का फ़र्क़ सिर्फ़ नस्ल को बाक़ी रखने और उसे बढ़ाने के लिए रखा है और इनसानों के अन्दर इसका एक और मक़सद यह भी है कि दोनों सिनफ़ों के लोग (यानी मर्द-औरतें) मिलकर एक ख़ानदान वजूद में लाएँ और उससे तमदुन (सामाजिक जीवन) की बुनियाद पड़े। इसी मक़सद के लिए मर्द और औरत की दो अलग सिनफ़ें (जातियाँ) बनाई गई हैं, उनमें एक-दूसरे के लिए सिनफ़ी कशिश (यौन-आकर्षण) पैदा की गई है, उनकी जिस्मानी बनावट और नफ़सियाती तरकीब (मनोवैज्ञानिक संरचना) एक-दूसरे के जवाब में मक़ासिदे-ज़ौजियत (दाम्पत्य-उद्देश्यों) के लिए बिलकुल मुनासिब बनाई गई है और उनके एक-दूसरे के प्रति बाहम मिलाप और समरस होने में वह लज़्ज़त रखी गई है जो फ़ितरत के मक़सद को पूरा करने के लिए एक ही वक़्त में इनसान को उस काम पर उभारने और उसकी प्रेरणा देनेवाली भी है और उस ख़िदमत का बदला भी। मगर जो शख़्स फ़ितरत की इस स्कीम के ख़िलाफ़ अमल करके अपने हमजिंस (समलिंगी) से शहवानी लज़्ज़त हासिल करता है वह एक ही वक़्त में कई जुर्मों का करनेवाला होता है। सबसे पहला जुर्म यह है कि वह अपनी और उस शख़्स की जिसके साथ बदकारी (संभोग) करता है उसकी फ़ितरी बनावट और नफ़सियाती तरकीब से जंग करता है और उसमें एक बड़ा बिगाड़ पैदा कर देता है, जिससे दोनों के जिस्म, मन और अख़लाक़ पर बहुत बुरे असरात पड़ते हैं। दूसरा यह कि वह फ़ितरत (प्रकृति) के साथ ग़द्दारी और ख़ियानत करता है, क्योंकि फ़ितरत ने जिस लज़्ज़त को जाति और समाज की ख़िदमत का बदला बनाया था और जिसके हासिल करने को फ़र्ज़, ज़िम्मेदारियों, और हक़ों (अधिकारों) के साथ जोड़ दिया था वह उसे किसी ख़िदमत के करने और किसी फ़र्ज़ और हक़ को अदा करने और किसी ज़िम्मेदारी को निभाए बग़ैर चुरा लेता है। तीसरा यह कि वह इनसानी समाज के साथ खुली बेईमानी और बददियानती करता है कि समाज के क़ायम किए हुए तमदुनी इदारों (सामाजिक संस्थाओं) से फ़ायदा तो उठा लेता है। मगर जब उसकी अपनी बारी आती है तो हक़ों और फ़र्ज़ों और ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाने के बजाय अपनी क़ुव्वतों को पूरी ख़ुदग़रज़ी के साथ ऐसे तरीक़े पर इस्तेमाल करता है जो इज्तिमाई तमद्दुन (सामाजिक व्यवस्था) व अख़्लाक़ के लिए सिर्फ़ बे-फ़ायदा ही नहीं, बल्कि सीधे-सीधे नुक़सानदेह है। वह अपने आपको नस्ल और ख़ानदान की ख़िदमत के लिए निकम्मा बनाता है, अपने साथ कम-से-कम एक मर्द को ग़ैर-फ़ितरी ज़नानेपन में फँसा देता है और कम-से-कम दो औरतों के लिए भी जिंसी (यौन) भटकाव और अख़लाक़ी पस्ती का दरवाज़ा खोल देता है।
وَمَا كَانَ جَوَابَ قَوۡمِهِۦٓ إِلَّآ أَن قَالُوٓاْ أَخۡرِجُوهُم مِّن قَرۡيَتِكُمۡۖ إِنَّهُمۡ أُنَاسٞ يَتَطَهَّرُونَ ۝ 74
(82) मगर उसकी क़ौम का जवाब इसके सिवा कुछ न था कि “निकालो इन लोगों को अपनी बस्तियों से, बड़े पाक-साफ़ बनते हैं ये।65
65. इससे मालूम हुआ कि ये लोग सिर्फ़ बेशर्म और बदकिरदार और बद-अख़लाक़ ही न थे, बल्कि अख़लाक़ी पस्ती में इस हद तक गिर गए थे कि उन्हें अपने दरमियान कुछ नेक इनसानों और नेकी की तरफ़ बुलानेवालों और बुराई पर बोलनेवालों का वुजूद तक गवारा न था। वे बुराई में इतने डूब चुके थे कि सुधार के लिए उठनेवाली आवाज़ को भी बर्दाश्त न कर सकते थे और पाकी और अच्छाई के उस थोड़े से हिस्से को भी निकाल देना चाहते थे जो उनके घिनौने माहौल में बाक़ी रह गया था। इसी हद को पहुँचने के बाद अल्लाह तआला की तरफ़ से उन्हें जड़ से उखाड़ देने का फ़ैसला किया गया, क्योंकि जिस क़ौम की इज्तिमाई ज़िम्मेदारी में पाकीज़गी का ज़रा-सा हिस्सा भी बाक़ी न रह सके, फिर उसके ज़मीन पर ज़िन्दा रहने की कोई वजह नहीं रहती। सड़े हुए फलों के टोकरे में जब तक कुछ अच्छे फल मौजूद हों उस वक़्त तक तो टोकरे को रखा जा सकता है, मगर जब वे फल भी उसमें से निकल जाएँ तो फिर उस टोकरे का इस्तेमाल सिर्फ़ यह रह जाता है कि उसे किसी कूड़े के ढेर पर उलट दिया जाए।
فَأَنجَيۡنَٰهُ وَأَهۡلَهُۥٓ إِلَّا ٱمۡرَأَتَهُۥ كَانَتۡ مِنَ ٱلۡغَٰبِرِينَ ۝ 75
(83) आख़िरकार हमने लूत और उसके घरवालों को उसकी बीवी को छोड़कर, जो पीछे रह जानेवालों66 में थी, बचाकर निकाल दिया
66. क़ुरआन में दूसरी जगहों पर बताया गया है कि हज़रत लूत (अलैहि०) की यह बीवी, जो शायद उसी क़ौम की बेटी थी, अपने हक़ के न माननेवाले रिश्तेदारों की तरफ़दार रही और आख़िर वक़्त तक उसने उनका साथ न छोड़ा। इसलिए अज़ाब से पहले जब अल्लाह तआला ने हज़रत लूत और उनके ईमानदार साथियों को हिजरत कर जाने का हुक्म दिया तो हिदायत कर दी कि उस औरत को साथ न लिया जाए।
وَأَمۡطَرۡنَا عَلَيۡهِم مَّطَرٗاۖ فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 76
(84) और उस क़ौम पर बरसाई एक बारिश,67 फिर देखो कि उन मुजरिमों का क्या अंजाम हुआ।68
67. बारिश से मुराद यहाँ पानी की बारिश नहीं, बल्कि पत्थरों की बारिश है जैसा कि दूसरी जगहों पर क़ुरआन मजीद में बयान हुआ है। साथ ही यह भी क़ुरआन में बयान हुआ है कि उनकी बस्तियाँ उलट दी गई और उन्हें तलपट कर दिया गया।
68. यहाँ और दूसरे मक़ामात पर क़ुरआन मजीद में सिर्फ़ यह बताया गया है कि लूत (अलैहि०) की क़ौम जिस बुराई (समलैंगिकता) में मुब्तला थी, वह एक बदतरीन गुनाह है जिसपर एक क़ौम अल्लाह तआला के ग़ज़ब (प्रकोप) में गिरफ़्तार हुई। उसके बाद यह बात हमें नबी (सल्ल०) की रहनुमाई से मालूम हुई कि यह एक ऐसा जुर्म है जिससे समाज को पाक रखने की कोशिश करना इस्लामी हुकूमत की ज़िम्मेदारियों में से है और यह कि इस जुर्म के करनेवालों को सख़्त सज़ा दी जानी चाहिए। हदीस में मुख़्तलिफ़ रिवायतें नबी (सल्ल०) के हवाले से बयान की गई हैं, उनमें से किसी में हमको ये अलफ़ाज़ मिलते हैं, “(समलैंगिक काम) करनेवाले और जिसके साथ (यह कर्म) किया जाए, दोनों को क़त्ल की सज़ा दो।” किसी में इस हुक्म पर ये अलफ़ाज़ और हैं “.... शादीशुदा हों या ग़ैर-शादी-शुदा।” और किसी में है, “ऊपर और नीचेवाला, दोनों पत्थर मार-मारकर मार डाले जाएँ।” लेकिन चूँकि नबी (सल्ल०) के ज़माने में ऐसा कोई मुक़द्दमा पेश नहीं हुआ, इसलिए क़तई तौर पर यह बात तय न हो सकी कि इसकी सज़ा किस तरह दी जाए। सहाबा किराम (रज़ि०) में से हज़रत अली (रज़ि०) की राय यह है कि मुजरिम तलवार से क़त्ल किया जाए और दफ़्न करने के बजाय उसकी लाश जलाई जाए। यही राय हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) की भी है। हज़रत उमर (रज़ि०) और हज़रत उसमान (रज़ि०) की राय यह है कि किसी पुरानी इमारत के नीचे उन्हें खड़ा करके वह इमारत उनपर गिरा दी जाए। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) का फ़तवा यह है कि बस्ती की सबसे ऊँची इमारत पर से उनको सर के बल फेंक दिया जाए और ऊपर से पत्थर बरसाए जाएँ। फ़ुक़हा (इस्लामी धर्म-शास्त्रियों) में से इमाम शाफ़िई कहते हैं कि हमजिंसी के अमल (समलैंगिक क्रिया) के दोनों हिस्सेदारों को क़त्ल करना वाजिब है चाहे वे शादीशुदा हों या ग़ैर-शादीशुदा शअबी, ज़ुहरी, मालिक और अहमद (रह०) कहते हैं कि उनकी सज़ा ‘रज्म' (पत्थर मार-मारकर मार डालना) है। सईद-बिन-मुसय्यब, अता, हसन बसरी, इबराहीम नख़ई, सुफ़ियान सौरी और औज़ाई (रह०) की राय में इस जुर्म पर वही सज़ा दी जाएगी जो ज़िना (व्यभिचार) की सज़ा है, यानी ग़ैर-शादीशुदा को सौ कोड़े मारे जाएँगे और देश निकाला कर दिया जाएगा और शादीशुदा को 'रज्म' किया जाएगा। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) की राय में उसपर कोई 'हद' (क़ुरआन व हदीस के मुताबिक़ साफ़-साफ़ सज़ा) मुक़र्रर नहीं है बल्कि, यह घिनौना काम 'ताज़ीर' का हक़दार है, यानी जैसे हालात व ज़रूरतें हों उनके लिहाज़ से कोई इबरतनाक सज़ा दी जा सकती है। इसकी ताईद में इमाम शाफ़िई की भी एक राय किताबों में लिखी है। मालूम रहे कि आदमी के लिए यह बात बिलकुल हराम है कि वह ख़ुद अपनी बीवी के साथ क़ौमे-लूत का अमल (गुदा मैथुन) करे। अबू-दाऊद में नबी (सल्ल०) का यह इरशाद बयान हुआ है कि “औरत के साथ यह कर्म (गुदा मैथुन) करनेवाला लानती है।” इब्ने-माजा और मुसनद अहमद में नबी (सल्ल०) के ये अलफ़ाज़ लिखे हैं, “अल्लाह उस मर्द की तरफ़ हरगिज़ रहमत की नज़र से न देखेगा जो औरत के साथ ऐसा कर्म (गुदा मैथुन) करे।” तिरमिज़ी में नबी (सल्ल०) का यह फ़रमाना है कि “जिसने हैज़वाली औरत से हमबिस्तरी की, या औरत के साथ क़ौमे-लूत का अमल (गुदा मैथुन) किया, या काहिन (ज्योतिषी) के पास गया और उसकी पेशनगोइयों (भविष्यवाणियों) को सच समझा, उसने उस तालीम का इनकार किया जो मुहम्मद (सल्ल०) पर नाज़िल हुई है।”
وَإِلَىٰ مَدۡيَنَ أَخَاهُمۡ شُعَيۡبٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥۖ قَدۡ جَآءَتۡكُم بَيِّنَةٞ مِّن رَّبِّكُمۡۖ فَأَوۡفُواْ ٱلۡكَيۡلَ وَٱلۡمِيزَانَ وَلَا تَبۡخَسُواْ ٱلنَّاسَ أَشۡيَآءَهُمۡ وَلَا تُفۡسِدُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ بَعۡدَ إِصۡلَٰحِهَاۚ ذَٰلِكُمۡ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 77
(85) और मदयनवालों69 की तरफ़ हमने उनके भाई शुऐब को भेजा। उसने कहा, “ऐ क़ौम के भाइयो! अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई ख़ुदा नहीं है, तुम्हारे पास तुम्हारे रब की साफ़ रहनुमाई आ गई है, इसलिए नाप और तौल पूरे करो, लोगों को उनकी चीज़ों में घाटा न दो,70 और ज़मीन में बिगाड़ न पैदा करो जबकि उसका सुधार हो चुका है।71 इसी में तुम्हारी भलाई है अगर तुम वाक़ई ईमानवाले हो।72
69. मदयन का अस्त इलाक़ा हिजाज़ के उत्तर-पश्चिम और फ़िलस्तीन के दक्षिण में लाल सागर और अक़बा की खाड़ी के किनारे पर स्थित था, मगर प्रायद्वीप 'सीना' के पूर्वी तट पर भी उसका कुछ सिलसिला फैला हुआ था। यह एक बड़ी तिजारत पेशा क़ौम थी। पुराने ज़माने में जो तिजारती शाहराह (व्यापारिक राजमार्ग) लाल सागर के किनारे यमन से मक्का और 'यम्बू' होती हुई शाम (सीरिया) तक जाती थी, और एक दूसरी तिजारती शाहराह जो इराक़ से मिस्र की तरफ़ जाती थी, उसके ठीक चौराहे पर इस क़ौम की बस्तियाँ आबाद थीं। इसी वजह से अरब का बच्चा-बच्चा मदयन से वाक़िफ़ था और उसके मिट जाने के बाद भी अरब में उसकी शोहरत बरक़रार रही; क्योंकि अरबों के तिजारती काफ़िले मिस्र और सीरिया की तरफ़ जाते हुए रात-दिन उसके आसारे-क़दीमा (प्राचीन अवशेषों) के दरमियान से गुज़रते थे। मदयन के लोगों के बारे में एक और ज़रूरी बात, जिसको अच्छी तरह समझ लेना चाहिए, यह है कि इन लोगों का ताल्लुक़ अस्ल में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के बेटे 'मिदयान' से जोड़ा जाता है जो उनकी तीसरी बीवी 'क़तूरा' के पेट से थे। पुराने ज़माने के क़ायदे के मुताबिक़ जो लोग किसी बड़े आदमी के साथ जुड़ जाते थे वे धीरे-धीरे उसी की आल-औलाद में गिने जाते और बनी-फ़ुलाँ (यानी फ़ुलाँ की औलाद) कहलाने लगते थे। इसी क़ायदे पर अरब की आबादी का बड़ा हिस्सा बनी-इसमाईल (इसमाईल की औलाद) कहलाया। और याक़ूब (अलैहि०) की औलाद के ज़रिए इस्लाम क़ुबूल करनेवाले लोग सब के सब बनी-इसराईल (इसराईल की औलाद) के जामे (व्यापक) नाम के तहत खप गए। इसी तरह मदयन के इलाक़े की सारी आबादी भी जो इबराहीम (अलैहि०) के बेटे मिदयान के तहत आई बनी-मिदयान कहलाई और उनके मुल्क का नाम ही मदयन या मदयान मशहूर हो गया। इस तारीख़़ी (ऐतिहासिक) हक़ीक़त को जान लेने के बाद यह गुमान करने की कोई वजह बाक़ी नहीं रहती कि इस क़ौम को सच्चे दीन (सत्य-धर्म) की आवाज़ पहली बार हज़रत शुऐब (अलैहि०) के ज़रिए से पहुँची थी। हक़ीक़त में बनी-इसराईल की तरह शुरू में वे भी मुसलमान (यानी ख़ुदा के दीन को माननेवाले) ही थे और शुऐब (अलैहि०) के पैग़म्बर बनाए जाने के वक़्त उनकी हालत एक बिगड़ी हुई मुसलमान क़ौम की-सी थी जैसी मूसा (अलैहि०) के पैग़म्बर बनाए जाने के वक़्त बनी-इसराईल की हालत थी। हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के बाद छः-सात सौ बरस तक मुशरिक (अनेकेश्ववादी) और बदअख़लाक़ क़ौमों के दरमियान रहते-रहते ये लोग शिर्क भी सीख गए थे और बदअख़लाक़ियों में भी मुब्तला हो गए, मगर उसके बावजूद ईमान का दावा और उसपर फ़ख़्र (गर्व) बरक़रार था।
70. इससे मालूम हुआ कि इस क़ौम में दो बड़ी ख़राबियाँ पाई जाती थीं, एक शिर्क, दूसरे तिजारती मामलों में बेईमानी। और इन्हीं दोनों चीज़ों के सुधार के लिए हज़रत शुऐब (अलैहि०) पैग़म्बर बनाकर भेजे गए थे।
71. इस जुमले का वाज़ेह और साफ़ मतलब इसी सूरा आराफ़ के हाशिया नं॰ 44, 45 में गुज़र चुका है। यहाँ ख़ास तौर से हज़रत शुऐब (अलैहि०) की इस बात का इशारा इस तरफ़ है कि सच्चे दीन और अच्छे अख़लाक़ पर ज़िन्दगी का जो निज़ाम पिछले पैग़म्बरों की हिदायत व रहनुमाई में क़ायम हो चुका था, अब तुम उसे अपनी एतिक़ादी (आस्था सम्बन्धी) गुमराहियों और अख़लाक़ी बदकारियों से ख़राब न करो।
72. इस जुमले से साफ़ ज़ाहिर होता है कि ये लोग ख़ुद ईमान के दावेदार थे। जैसा कि ऊपर हम इशारा कर चुके हैं, ये अस्ल में बिगड़े हुए मुसलमान थे और एतिक़ादी व अख़लाक़ी बिगाड़ में मुब्तला हो जाने के बावजूद उनके अन्दर न सिर्फ़ ईमान का दावा बाक़ी था, बल्कि उसपर उन्हें फ़ख़्र भी था। इसी लिए हज़रत शुऐब (अलैहि०) ने फ़रमाया कि अगर तुम ईमानवाले हो तो तुम्हारे नज़दीक ख़ैर और भलाई इस बात में होनी चाहिए कि तुम सच्चाई और ईमानदारी को अपनाओ और भलाई और बुराई को जाँचने की तुम्हारी कसौटी उन दुनियापरस्तों से अलग होनी चाहिए जो ख़ुदा और आख़िरत को नहीं मानते।
وَلَا تَقۡعُدُواْ بِكُلِّ صِرَٰطٖ تُوعِدُونَ وَتَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ مَنۡ ءَامَنَ بِهِۦ وَتَبۡغُونَهَا عِوَجٗاۚ وَٱذۡكُرُوٓاْ إِذۡ كُنتُمۡ قَلِيلٗا فَكَثَّرَكُمۡۖ وَٱنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 78
(86) और (ज़िन्दगी के) हर रास्ते पर बटमार बनकर न बैठ जाओ कि लोगों को ख़ौफ़ज़दा करने और ईमान लानेवालों को अल्लाह के रास्ते से रोकने लगो और सीधी राह को टेढ़ा करने पर उतर आओ। याद करो वह ज़माना जबकि तुम थोड़े थे, फिर अल्लाह ने तुम्हें बहुत कर दिया, और आँखें खोलकर देखो कि दुनिया में बिगाड़ पैदा करनेवालों का क्या अंजाम हुआ है।
وَإِن كَانَ طَآئِفَةٞ مِّنكُمۡ ءَامَنُواْ بِٱلَّذِيٓ أُرۡسِلۡتُ بِهِۦ وَطَآئِفَةٞ لَّمۡ يُؤۡمِنُواْ فَٱصۡبِرُواْ حَتَّىٰ يَحۡكُمَ ٱللَّهُ بَيۡنَنَاۚ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلۡحَٰكِمِينَ ۝ 79
(87) अगर तुममें से एक गरोह उस तालीम पर, जिसके साथ मैं भेजा गया हूँ, ईमान लाता है और दूसरा ईमान नहीं लाता, तो सब्र (धैय) के साथ देखते रहो, यहाँ तक कि अल्लाह हमारे बीच फ़ैसला कर दे, और वही सबसे बेहतर फ़ैसला करनेवाला है।”
۞قَالَ ٱلۡمَلَأُ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُواْ مِن قَوۡمِهِۦ لَنُخۡرِجَنَّكَ يَٰشُعَيۡبُ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَكَ مِن قَرۡيَتِنَآ أَوۡ لَتَعُودُنَّ فِي مِلَّتِنَاۚ قَالَ أَوَلَوۡ كُنَّا كَٰرِهِينَ ۝ 80
(88) उसकी क़ौम के सरदारों ने, जो अपनी बड़ाई के घमंड में पड़े हुए थे, उससे कहा कि “ऐ शुऐब! हम तुझे और उन लोगों को जो तेरे साथ ईमान लाए हैं अपनी बस्ती से निकाल देंगे, वरना तुम लोगों को हमारी मिल्लत (पंथ) में वापस आना होगा।” शुऐब ने जवाब दिया, “क्या ज़बरदस्ती हमें फेरा जाएगा, चाहे हम राज़ी न हों?
قَدِ ٱفۡتَرَيۡنَا عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا إِنۡ عُدۡنَا فِي مِلَّتِكُم بَعۡدَ إِذۡ نَجَّىٰنَا ٱللَّهُ مِنۡهَاۚ وَمَا يَكُونُ لَنَآ أَن نَّعُودَ فِيهَآ إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُ رَبُّنَاۚ وَسِعَ رَبُّنَا كُلَّ شَيۡءٍ عِلۡمًاۚ عَلَى ٱللَّهِ تَوَكَّلۡنَاۚ رَبَّنَا ٱفۡتَحۡ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَ قَوۡمِنَا بِٱلۡحَقِّ وَأَنتَ خَيۡرُ ٱلۡفَٰتِحِينَ ۝ 81
(89) हम अल्लाह पर झूठ गढ़नेवाले होंगे अगर तुम्हारी मिल्लत (पंथ) में पलट आएँ, जबकि अल्लाह हमें उससे छुटकारा दे चुका है। हमारे लिए तो उसकी तरफ़ पलटना अब किसी तरह भी मुमकिन नहीं, सिवाय इसके कि अल्लाह, हमारा रब, ही ऐसा चाहे।73 हमारे रब का इल्म हर चीज़ पर हावी है। उसी पर हमने भरोसा कर लिया। ऐ रब! हमारे और हमारी क़ौम के बीच ठीक-ठीक फ़ैसला कर दे और तू सबसे अच्छा फ़ैसला करनेवाला है।”
73. यह जुमला उसी मानी में है जिसमें “इंशा-अल्लाह” (अगर अल्लाह ने चाहा) के अलफ़ाज़ बोले जाते हैं, और जिसके बारे में सूरा-18 कह्फ़ (आयत-23, 24) में कहा गया है कि किसी चीज़ के बारे में दावे के साथ यह न कह दिया करो कि में ऐसा करूँगा, बल्कि इस तरह कहा करो कि अगर अल्लाह चाहेगा तो ऐसा करूँगा। इसलिए कि ईमानवाला, जो अल्लाह तआला की सुल्तानी व बादशाही की और अपनी बन्दगी व ग़ुलामी की ठीक-ठीक समझ रखता है, कभी अपने बलबूते पर यह दावा नहीं कर सकता कि मैं फ़ुलाँ बात करके रहूँगा या फ़ुलाँ हरकत हरगिज़ न करूँगा, बल्कि वह जब कहेगा तो यूँ कहेगा कि मेरा इरादा ऐसा करने का या न करने का है, लेकिन मेरे इस इरादे के पूरा होने का दारोमदार मेरे मालिक की मरज़ी पर है, वह तौफ़ीक़ बख़्शेगा तो उसमें कामयाब हो जाऊँगा वरना नाकाम रह जाऊँगा।
وَقَالَ ٱلۡمَلَأُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن قَوۡمِهِۦ لَئِنِ ٱتَّبَعۡتُمۡ شُعَيۡبًا إِنَّكُمۡ إِذٗا لَّخَٰسِرُونَ ۝ 82
(90) उसकी क़ौम के सरदारों ने, जो उसकी बात मानने से इनकार कर चुके थे, आपस में कहा, “अगर तुमने शुऐब की पैरवी क़ुबूल कर ली, तो बर्बाद हो जाओगे।74
74. इस छोटे-से जुमले पर से सरसरी तौर पर न गुज़र जाइए। यह ठहरकर बहुत सोचने का मक़ाम है। मदयन के सरदार और लीडर अस्ल में यह कह रहे थे और इसी बात का अपनी क़ौम को भी यक़ीन दिला रहे थे कि शुऐब जिस ईमानदारी और सच्चाई की दावत दे रहा है और अख़लाक़ व ईमानदारी के जिन मुस्तक़िल (स्थायी) उसूलों की पाबन्दी कराना चाहता है, अगर उनको मान लिया जाए तो हम तबाह हो जाएँगे। हमारी तिजारत कैसे चल सकती है। अगर हम बिलकुल ही सच्चाई के पाबन्द हो जाएँ और खरे-खरे सौदे करने लगें। और हम जो दुनिया के दो बड़ी तिजारती शाहराहों (राजमार्गों) के चौराहे पर बसते हैं, और मिस्र व इराक़ की शानदार तहज़ीबवाली सल्तनतों की सरहद पर आबाद हैं, अगर हम क़ाफ़िलों को छेड़ना बन्द कर दें और किसी को नुक़सान न पहुँचानेवाले और अम्नपसन्द लोग ही बनकर रह जाएँ तो जो मआशी (आर्थिक) और सियासी फ़ायदे हमें अपनी मौजूदा जुग़राफ़ियाई (भौगोलिक) हैसियत से हासिल हो रहे हैं वे सब ख़त्म हो जाएँगे और आसपास की क़ौमों पर हमारी जो धौंस क़ायम है वह बाक़ी न रहेगी। यह बात सिर्फ़ हज़रत शुऐब (अलैहि०) की क़ौम के सरदारों तक ही महदूद नहीं है। हर ज़माने में बिगड़े हुए लोगों ने हक, सच्चाई और ईमानदारी की राह में ऐसे ही ख़तरे महसूस किए हैं। हर दौर के बिगाड़ और फ़साद के लानेवालों का यही ख़याल रहा है कि तिजारत और सियासत (राजनीति) और दूसरे बुनियादी मामले झूठ, बेईमानी और बदअख़लाक़ी के बिना नहीं चल सकते। हर जगह हक़ (सत्य) की दावत के मुक़ाबले में जो ज़बरदस्त बहाने पेश किए हैं, उनमें से एक यह भी रहा है कि अगर दुनिया की चलती हुई राहों से हटकर इस दावत की पैरवी की जाएगी तो क़ौम तबाह हो जाएगी।
فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلرَّجۡفَةُ فَأَصۡبَحُواْ فِي دَارِهِمۡ جَٰثِمِينَ ۝ 83
(91) मगर हुआ यह कि एक दहला देनेवाली आफ़त ने उनको आ लिया और वे अपने घरों में औंधे पड़े के पड़े रह गए।
ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ شُعَيۡبٗا كَأَن لَّمۡ يَغۡنَوۡاْ فِيهَاۚ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ شُعَيۡبٗا كَانُواْ هُمُ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 84
(92) जिन लोगों ने शुऐब को झुठलाया, वे ऐसे मिटे कि मानो कभी उन घरों में बसे ही न थे। शुऐब के झुठलानेवाले ही आख़िरकार बरबाद होकर रहे।75
75. मदयन की यह तबाही एक लम्बे समय से आसपास की क़ौमों में एक मिसाल बनी रही है। चुनाँचे दाऊद (अलैहि०) की ज़बूर में एक जगह आता है कि ऐ ख़ुदा, फ़ुलाँ-फ़ुलाँ क़ौमों ने तेरे ख़िलाफ़ अह्द बाँध लिया है। लिहाज़ा तू उनके साथ वही कर जो तूने मिदयान के साथ किया (83:5 से 9) और यसइयाह पैग़म्बर एक जगह बनी-इसराईल को तसल्ली देते हुए कहते हैं कि आशूरवालों से न डरो, अगरचे वे तुम्हारे लिए मिस्रवालों की तरह ज़ालिम बने जा रहे हैं, लेकिन कुछ देर न गुज़रेगी कि फ़ौजों का रब इनपर अपना कोड़ा बरसाएगा और इनका वही अंजाम होगा जो मिदयान का हुआ (यसइयाह, 10:21 से 26)।
فَتَوَلَّىٰ عَنۡهُمۡ وَقَالَ يَٰقَوۡمِ لَقَدۡ أَبۡلَغۡتُكُمۡ رِسَٰلَٰتِ رَبِّي وَنَصَحۡتُ لَكُمۡۖ فَكَيۡفَ ءَاسَىٰ عَلَىٰ قَوۡمٖ كَٰفِرِينَ ۝ 85
(93) और शुऐब यह कहकर उनकी बस्तियों से निकल गया कि “ऐ मेरे क़ौम के भाइयो! मैंने अपने रब के पैग़ाम तुम्हें पहुँचा दिए और तुम्हारी ख़ैरख़ाही का हक़ अदा कर दिया। अब मैं उस क़ौम पर कैसे अफ़सोस करूँ जो हक़ को क़ुबूल करने से इनकार करती है।76
76. ये जितने क़िस्से यहाँ बयान किए गए हैं उनका मक़सद दूसरों की कमियों और ख़राबियों का ज़िक्र करके अरबवालों को ख़ुद उनकी कमियों और ख़राबियों की ओर ध्यान दिलाना है। हर क़िस्सा उस मामले पर पूरा-पूरा उतरता है जो उस वक़्त मुहम्मद (सल्ल०) और आप (सल्ल०) की क़ौम के दरमियान पेश आ रहा था। हर क़िस्से में एक फ़रीक़ (पक्ष) नबी है जिसकी तालीम, जिसकी दावत, जिसकी नसीहत व ख़ैरख़ाही और जिसकी सारी बातें बिलकुल वही हैं जो मुहम्मद (सल्ल०) की थीं। और दूसरा फ़रीक़ हक़ से मुँह मोड़नेवाली क़ौम है जिसकी एतिक़ादी (आस्था सम्बन्धी) गुमराहियाँ, जिसकी अख़लाक़ी ख़राबियाँ, जिसकी जहालत भरी हठधर्मियाँ, जिसके सरदारों का घमण्ड, जिसके इनकारियों का अपनी गुमराही पर अड़े रहना, ग़रज़ सब कुछ वही है जो क़ुरैश में पाया जाता था। फिर हर क़िस्से में हक़ का इनकार करनेवाली क़ौम का जो अंजाम पेश किया गया है उससे अस्ल में क़ुरैश को इबरत दिलाई गई है कि अगर तुमने ख़ुदा के भेजे हुए पैग़म्बर की बात न मानी और अपना हाल सुधारने का जो मौक़ा तुम्हें दिया जा रहा है उसे अन्धी ज़िद में पड़कर खो दिया तो आख़िरकार तुम्हें भी उसी तबाही और बरबादी से दोचार होना होगा जो हमेशा से गुमराही व बिगाड़ पर खड़े रहनेवाली क़ौमों के हिस्से में आती रही है।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا فِي قَرۡيَةٖ مِّن نَّبِيٍّ إِلَّآ أَخَذۡنَآ أَهۡلَهَا بِٱلۡبَأۡسَآءِ وَٱلضَّرَّآءِ لَعَلَّهُمۡ يَضَّرَّعُونَ ۝ 86
(94) कभी ऐसा हुआ कि हमने किसी बस्ती में नबी भेजा हो और उस बस्ती के लोगों को पहले तंगी और सख़्ती में न डाला हो, इस ख़याल से कि शायद वे आजिज़ी (विनम्रता) पर उतर आएँ।
ثُمَّ بَدَّلۡنَا مَكَانَ ٱلسَّيِّئَةِ ٱلۡحَسَنَةَ حَتَّىٰ عَفَواْ وَّقَالُواْ قَدۡ مَسَّ ءَابَآءَنَا ٱلضَّرَّآءُ وَٱلسَّرَّآءُ فَأَخَذۡنَٰهُم بَغۡتَةٗ وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 87
(95) फिर हमने उनकी बदहाली को ख़ुशहाली में बदल दिया, यहाँ तक कि वे ख़ूब फले-फूले और कहने लगे कि “हमारे बुज़ुर्गों पर भी अच्छे और बुरे दिन आते ही रहे हैं।” आख़िरकार हमने उन्हें अचानक पकड़ लिया और उन्हें ख़बर तक न हुई।77
77. एक-एक नबी और एक-एक क़ौम का मामला अलग-अलग बयान करने के बाद अब वह आम उसूल बयान किया जा रहा है जो हर ज़माने में अल्लाह तआला ने नबियों (अलैहि०) को नबी बनाने के मौक़े पर अपनाया है। और वह यह है कि जब किसी क़ौम में कोई नबी भेजा गया तो पहले उस क़ौम के बाहरी माहौल को दावत क़ुबूल करने के लिए निहायत साज़गार बनाया गया, यानी उसको मुसीबतों और आफ़तों में डाला गया। अकाल, महामारी, कारोबारी घाटे, जंग में हार या इसी तरह की तकलीफ़ें उसपर डाली गईं, ताकि उसका दिल नर्म पड़े, उसकी शेख़ी और घमण्ड से अकड़ी हुई गर्दन ढीली हो, उसकी ताक़त का घमण्ड और दौलत का नशा टूट जाए, अपने असबाब (माल-औलाद) और अपनी क़ुव्वतों और क़ाबिलियतों पर उसका भरोसा कमज़ोर पड़ जाए, उसे महसूस हो कि ऊपर कोई और ताक़त भी है जिसके हाथ में उसकी क़िस्मत की लगाम है और इस तरह उसके कान नसीहत के लिए खुल जाएँ और वह अपने ख़ुदा के सामने आजिज़ी और नरमी के साथ झुक जाने पर आमादा हो जाए। फिर जब इस साज़गार (अनुकूल) माहौल में भी उसका दिल हक़ को क़ुबूल करने पर आमादा नहीं होता तो उसको ख़ुशहाली के फ़ितने (आज़माइश) में डाल दिया जाता है और यहाँ से उसकी बरबादी की शुरुआत हो जाती है। जब वह नेमतों से मालामाल होने लगती है तो अपने बुरे दिन भूल जाती है और उस क़ौम के टेढ़ी समझ रखनेवाले रहनुमा उसके ज़ेहन में तारीख़़ (इतिहास) का यह बेवक़ूफ़ी से भरा तसव्वुर बिठाते हैं कि हालात का उतार-चढ़ाव और क़िस्मत का बनाव और बिगाड़ किसी सूझ-बूझ और हिकमतवाले के इन्तिज़ाम में अख़लाक़ी बुनियादों पर नहीं हो रहा है, बल्कि एक अन्धी तबीअत बिलकुल ग़ैर-अख़लाक़ी वजहों से कभी अच्छे और कभी बुरे दिन लाती ही रहती है। लिहाज़ा मुसीबतों और आफ़तों के आने से कोई अख़लाक़ी सबक़ लेना और किसी नसीहत करनेवाले की नसीहत क़ुबूल करके ख़ुदा के आगे रोने और गिड़गिड़ाने लगना सिवाए एक तरह की नफ़्सी कमज़ोरी (मन की दुर्बलता) के और कुछ नहीं है। यही वह अहमक़ाना ज़ेहनियत है जिसका नक़्शा नबी (सल्ल०) ने इस हदीस में खींचा है, “मुसीबत ईमानवाले की तो इस्लाह करती चली जाती है, यहाँ तक कि जब वह इस भट्ठी से निकलता है तो सारी खोट से साफ़ होकर निकलता है; लेकिन मुनाफ़िक़ की हालत बिलकुल गधे की-सी होती है जो कुछ नहीं समझता कि उसके मालिक ने क्यों उसे बाँधा था और क्यों उसे छोड़ दिया।” तो जब किसी क़ौम का यह हाल होता है कि न मुसीबतों से उसका दिल ख़ुदा के आगे झुकता है, न नेमतों पर वह शुक्रगुज़ार होती है, और न किसी हाल में इस्लाह क़ुबूल करती है तो फिर उसकी बरबादी उसके सर पर मंडराने लगती है और किसी वक़्त भी वह बरबाद करके रख दी जाती है। यहाँ यह बात और जान लेनी चाहिए कि इन आयतों में अल्लाह तआला ने अपने जिस ज़ाब्ते का ज़िक्र किया है ठीक यही ज़ाबिता नबी (सल्ल०) के पैग़म्बर बनाए जाने के मौक़े पर भी बरता गया। और शामत की मारी क़ौमों के जिस रवैये की तरफ़ इशारा किया गया है, ठीक वही रवैया सूरा-7 आराफ़ के उतरने के ज़माने में क़ुरैशवालों से ज़ाहिर हो रहा था। हदीस में अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) और अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) दोनों से रिवायत है कि नबी (सल्ल०) को पैग़म्बर बनाए जाने के बाद जब क़ुरैश के लोगों ने आप (सल्ल०) की दावत के ख़िलाफ़ सख़्त रवैया अपनाना शुरू किया तो नबी (सल्ल०) ने दुआ की कि “ऐ अल्लाह, यूसुफ़ के ज़माने में जैसा सात साल अकाल पड़ा था वैसे ही अकाल से इन लोगों के मुक़ाबले में मेरी मदद कर।” चुनाँचे अल्लाह तआला ने उन्हें सख़्त अकाल में मुब्तला कर दिया और नौबत यहाँ तक पहुँच गई कि लोग मुरदार खाने लगे, चमड़े और हड्डियाँ और ऊन तक खा गए। आख़िरकार मक्का के लोगों ने, जिनमें अबू-सुफ़ियान आगे-आगे था, नबी (सल्ल०) से दरख़ास्त की कि हमारे लिए ख़ुदा से दुआ कीजिए, मगर जब आप (सल्ल०) की दुआ से अल्लाह ने वह बुरा वक़्त टाल दिया और भले दिन आए तो उन लोगों की गर्दनें पहले से ज़्यादा अकड़ गई, और जिनके दिल थोड़े बहुत पसीज गए थे उनको भी क़ौम के बुरे लोगों ने यह कह-कहकर ईमान से रोकना शुरू कर दिया कि “अरे भाई, यह तो ज़माने का उतार-चढ़ाव है। पहले भी आख़िर अकाल पड़ते ही रहे हैं, कोई नई बात तो नहीं है कि इस बार एक लम्बा अकाल पड़ गया। लिहाज़ा इन चीज़ों से धोखा खाकर मुहम्मद के फंदे में न फँस जाना।” (हदीस : बुख़ारी) ये बातें उस ज़माने में हो रही थीं जब यह सूरा-7 आराफ़ उतरी है। इसलिए क़ुरआन मजीद की ये आयतें ठीक अपने मौक़े पर चस्पाँ होती हैं और इसी पसमंज़र (पृष्टभूमि) को निगाह में रखने से इनका मक़सद और मतलब पूरी तरह समझ में आ सकता है। (तफ़सील के लिए देखें— सूरा-10 यूनूस, आयत-21; सूरा-16 नह्ल, आयत-112; सूरा-23 मोमिनून, आयत-5 और 76; सूरा-44 दुख़ान, आयत-9 से 16)
وَلَوۡ أَنَّ أَهۡلَ ٱلۡقُرَىٰٓ ءَامَنُواْ وَٱتَّقَوۡاْ لَفَتَحۡنَا عَلَيۡهِم بَرَكَٰتٖ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلَٰكِن كَذَّبُواْ فَأَخَذۡنَٰهُم بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 88
(96) अगर बस्तियों के लोग ईमान लाते और तक़वा (परहेज़गारी) की रविश अपनाते तो हम उनपर आसमान और ज़मीन से बरकतों के दरवाज़े खोल देते, मगर उन्होंने तो झुठलाया, इसलिए हमने उस बुरी कमाई के हिसाब में उन्हें पकड़ लिया जो वे समेट रहे थे।
أَفَأَمِنَ أَهۡلُ ٱلۡقُرَىٰٓ أَن يَأۡتِيَهُم بَأۡسُنَا بَيَٰتٗا وَهُمۡ نَآئِمُونَ ۝ 89
(97) फिर क्या बस्तियों के लोग अब उससे बेख़ौफ़ हो गए हैं कि हमारी पकड़ कभी अचानक उनपर रात के वक़्त न आ जाएगी, जबकि वे सोए पड़े हों? या
أَوَأَمِنَ أَهۡلُ ٱلۡقُرَىٰٓ أَن يَأۡتِيَهُم بَأۡسُنَا ضُحٗى وَهُمۡ يَلۡعَبُونَ ۝ 90
(98) उन्हें इत्मीनान हो गया है कि हमारा मज़बूत हाथ कभी यकायक उनपर दिन के वक़्त न पड़ेगा, जबकि वे खेल रहे हों?
أَفَأَمِنُواْ مَكۡرَ ٱللَّهِۚ فَلَا يَأۡمَنُ مَكۡرَ ٱللَّهِ إِلَّا ٱلۡقَوۡمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 91
(99) क्या ये लोग अल्लाह की चाल78 से निडर हैं? हालाँकि अल्लाह की चाल से वही क़ौम निडर होती है जो तबाह होनेवाली हो।
78. अस्ल में अरबी लफ़्ज़ 'मक्र' इस्तेमाल हुआ है जिसके मानी अरबी ज़बान में खुफिया तदबीर के हैं, यानी किसी शख़्स के ख़िलाफ़ ऐसी चाल चलना कि जब तक उसपर पूरी तरह चोट न पड़ जाए उस वक़्त तक उसे पता न चले कि उसकी शामत आनेवाली है, बल्कि ज़ाहिर हालात को देखते हुए वह यही समझता रहे कि सब अच्छा है।
أَوَلَمۡ يَهۡدِ لِلَّذِينَ يَرِثُونَ ٱلۡأَرۡضَ مِنۢ بَعۡدِ أَهۡلِهَآ أَن لَّوۡ نَشَآءُ أَصَبۡنَٰهُم بِذُنُوبِهِمۡۚ وَنَطۡبَعُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ فَهُمۡ لَا يَسۡمَعُونَ ۝ 92
(100) और क्या उन लोगों को, जो पिछले ज़मीनवालों के बाद ज़मीन के वारिस होते हैं, इस सच्ची बात ने कुछ सबक़ नहीं दिया कि अगर हम चाहें तो उनके गुनाहों पर उनको पकड़ सकते हैं?79 (मगर वे सबक़-आमोज़ सच्ची बातों से ग़फ़लत बरतते हैं) और हम उनके दिलों पर मुहर लगा देते हैं, फिर वे कुछ नहीं सुनते।80
79. यानी एक गिरनेवाली क़ौम की जगह जो दूसरी क़ौम उठती है उसके लिए अपने से पहलेवाली क़ौम की गिरावट और पतन में काफ़ी रहनुमाई मौजूद होती है। वह अगर अक़्ल से काम ले तो समझ सकती है कि कुछ समय पहले जो लोग इसी जगह सुख-चैन की ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे। और जिनकी बड़ाई का झण्डा यहाँ लहरा रहा था, उनको सोच और अमल की किन ग़लतियों ने बरबाद किया, और यह भी महसूस कर सकती है कि जिस बालातर इक़तिदार (सर्वोच्च सत्ता) ने कल उन्हें उनकी ग़लतियों पर पकड़ा था और उनसे यह जगह ख़ाली करा ली थी, वह आज कहीं चला नहीं गया है, न उससे किसी ने यह ताक़त छीन ली है कि इस जगह के मौजूदा बसनेवाले अगर वही ग़लतियाँ करें जो पहले के बसनेवाले कर रहे थे तो वह इनसे भी उसी तरह जगह ख़ाली न करा सकेगा जिस तरह उसने उनसे ख़ाली कराई थी।
80. यानी जब वे तारीख़ (इतिहास) से और इबरतनाक आसार (निशानियों) को देखकर भी सबक़ नहीं लेते और अपने आपको ख़ुद भुलावे में डालते हैं तो फिर ख़ुदा की तरफ़ से भी उन्हें सोचने-समझने और किसी नसीहत करनेवाले की बात सुनना नहीं होता, ख़ुदा का क़ानूने-फ़ितरत है कि जो अपनी आँखें बन्द कर लेता है उसकी आँखों तक चमकते हुए सूरज की कोई किरण नहीं पहुँच सकती और जो ख़ुद नहीं सुनना चाहता उसे फिर कोई कुछ नहीं सुना सकता।
تِلۡكَ ٱلۡقُرَىٰ نَقُصُّ عَلَيۡكَ مِنۡ أَنۢبَآئِهَاۚ وَلَقَدۡ جَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَمَا كَانُواْ لِيُؤۡمِنُواْ بِمَا كَذَّبُواْ مِن قَبۡلُۚ كَذَٰلِكَ يَطۡبَعُ ٱللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 93
(101) ये क़ौम जिनके क़िस्से हम तुम्हें सुना रहे हैं (तुम्हारे सामने मिसाल की शक्ल में मौजूद हैं) उनके रसूल उनके पास खुली-खुली निशानियाँ लेकर आए, मगर जिस चीज़ को वे एक बार झुठला चुके थे, फिर उसे वे माननेवाले न थे। देखो, इस तरह हम हक़ के इनकारियों के दिलों पर मुहर लगा देते हैं।81
81. पिछली आयतों में जो कहा गया था कि “हम उनके दिलों पर मुहर लगा देते हैं, फिर वे कुछ नहीं सुनते,” इसकी तशरीह अल्लाह तआला ने इस आयत में ख़ुद कर दी है। इस तशरीह से यह बात वाज़ेह हो जाती है कि दिलों पर मुहर लगाने से मुराद इनसानी ज़ेहन का उस नफ़्सियाती क़ानून (मनोवैज्ञानिक नियम) की चपेट में आ जाना है जिसके मुताबिक़ एक जाहिली तास्सुब (पक्षपात) या जाती ग़रज़ों की बिना पर हक़ से मुँह मोड़ लेने के बाद फिर इनसान अपनी ज़िद और हठधर्मी के उलझाव में उलझता ही चला जाता है और किसी दलील, किसी मुशाहदे (अवलोकन) और किसी तजरिबे से उसके दिल के दरवाज़े हक़ को क़ुबूल करने के लिए नहीं खुलते।
ثُمَّ بَعَثۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِم مُّوسَىٰ بِـَٔايَٰتِنَآ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِۦ فَظَلَمُواْ بِهَاۖ فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 94
(103) फिर उन क़ौमों के बाद (जिनका ज़िक्र ऊपर किया गया) हमने मूसा को अपनी निशानियों के साथ फ़िरऔन और उसकी क़ौम के सरदारों के पास भेजा,83 मगर उन्होंने भी हमारी निशानियों के साथ ज़ुल्म किया,84 तो देखो कि उन बिगाड़ पैदा करनेवालों का क्या अंजाम हुआ।
83. ऊपर जो क़िस्से बयान हुए हैं उनका मक़सद यह ज़ेहन में बिठाना था कि जो क़ौम ख़ुदा का पैग़ाम पाने के बाद उसे रद्द कर देती है उसे फिर हलाक किए बिना नहीं छोड़ा जाता। इसके बाद अब मूसा (अलैहि०) व फ़िरऔन और बनी-इसराईल का क़िस्सा कई आयतों तक मुसलसल चलता है, जिसमें इस मज़मून (विषय) के अलावा चन्द और अहम सबक़ भी क़ुरैश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों, यहूदियों और ईमान लानेवाले गरोह को दिए गए हैं। क़ुरैश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों को इस क़िस्से के ज़रिए यह समझाने की कोशिश की गई है कि हक़ की दावत के इब्तिदाई मरहलों में हक़ और बातिल (सत्य और असत्य) की क़ुव्वतों का जो तनासुब (अनुपात) बज़ाहिर नज़र आता है, उससे धोखा न खाना चाहिए। हक़ की तो पूरी तारीख़ (इतिहास) ही इस बात पर गवाह है कि वह क़ौम में एक बल्कि नई दुनिया की अक़ल्लियत (अल्पसंख्यक स्थिति) से शुरू होता है और बिना किसी सरो-सामान के उस बातिल के ख़िलाफ़ कशमकश शुरू कर देता है जिसके पीछे बड़ी-बड़ी क़ौमों और सल्तनतों की ताक़त होती है, फिर भी आख़िरकार वही ग़ालिब आकर रहता है। साथ ही इस क़िस्से में उनको यह भी बताया गया है कि हक़ की तरफ़ बुलानेवाले के मुक़ाबले में जो चालें चली जाती हैं और जिन तदबीरों से उसकी दावत को दबाने की कोशिश की जाती है वे किस तरह उलटी पड़ती हैं। और यह कि अल्लाह तआला हक़ का इनकार करनेवालों की हलाकत का आख़िरी फ़ैसला करने से पहले उनको कितनी-कितनी लम्बी मुद्दत तक संभलने और दुरुस्त होने के मौक़े देता चला जाता है और जब किसी डरावे, किसी सबक़आमोज़ वाक़िए, और किसी खुली निशानी से भी वे असर नहीं लेते तो फिर वह उन्हें कैसी इबरतनाक सज़ा देता है। जो लोग नबी (सल्ल०) पर ईमान ले आए थे उनको इस क़िस्से में दोहरा सबक़ दिया गया है। पहला सबक़ इस बात का कि अपनी कम तादाद व कमज़ोरी को और हक़ के मुख़ालिफ़ों की ज़्यादा तादाद और लाव-लश्कर को देखकर उनकी हिम्मत न टूटे और अल्लाह की मदद आने में देर होते देखकर वे मायूस न हों। दूसरा सबक़ इस बात का कि ईमान लाने के बाद जो गरोह यहूदियों का-सा तरीक़ा अपनाता है वह यहूदियों ही की तरह ख़ुदा की लानत में गिरफ़्तार भी होता है। बनी-इसराईल के सामने उनकी अपनी इबरतनाक तारीख़़ (इतिहास) पेश करके उन्हें बातिल परस्ती (असत्यवादिता) के बुरे नतीजों पर ख़बरदार किया गया है और उस पैग़म्बर पर ईमान लाने की दावत दी गई है जो पिछले पैग़म्बरों के लाए हुए दीन को तमाम मिलावटों से पाक करके फिर उसकी असली शक्ल में पेश कर रहा है।
84. निशानियों के साथ ज़ुल्म किया, यानी उनको न माना और उन्हें जादूगरी बताकर टालने की कोशिश की। जिस तरह किसी ऐसे शेअर को जो शेरियत (काव्य) का मुकम्मल नमूना हो, तुकबन्दी बताना और उसका मज़ाक़ उड़ाना न सिर्फ़ शेअर के साथ बल्कि ख़ुद शाइरी और ज़ौके-शेअरी (काव्य-रुचि) के साथ भी ज़ुल्म है, इसी तरह वे निशानियाँ जो अल्लाह की तरफ़ से होने पर खुली गवाही दे रही हों और जिनके बारे में कोई अक़्लमन्द आदमी यह गुमान तक न कर सकता हो कि जादू के ज़ोर से भी ऐसी निशानियाँ ज़ाहिर हो सकती हैं, बल्कि जिनके बारे में ख़ुद जादू की कला के माहिरों ने गवाही दे दी हो कि वे उनकी कला की पहुँच से दूर हैं, उनको जादू बताना न सिर्फ़ उन निशानियों के साथ, बल्कि अक़्ले-सलीम (सद्बुद्धि) और सच्चाई के साथ भी बहुत बड़ा ज़ुल्म है।
وَقَالَ مُوسَىٰ يَٰفِرۡعَوۡنُ إِنِّي رَسُولٞ مِّن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 95
(104) मूसा ने कहा, “ऐ फ़िरऔन85! मैं कायनात के मालिक की तरफ़ से भेजा हुआ आया हूँ,
85. लफ़्ज़ 'फ़िरऔन' का मतलब है 'सूरज देवता की औलाद' । क़दीम ज़माने के मिस्रवासी सूरज को, जो उनका महादेव या रब्बे-आला था, 'रअ' कहते थे और फ़िरऔन का ताल्लुक़ उसी से माना जाता था। मिसवालों के अक़ीदे (आस्था) के मुताबिक़ किसी हाकिम की हाकिमियत के लिए इसके सिवा कोई बुनियाद नहीं हो सकती थी कि वह 'रअ' का जिस्मानी मज़हर (शारीरिक प्रकटन) और ज़मीन पर उसका नुमाइन्दा हो, इसी लिए हर शाही ख़ानदान जो मिस्र में हुकूमत करता था, अपने आपको सूर्यवंशी बनाकर पेश करता, और हर हाकिम जो हुकूमत के तख़्त पर बैठता, ‘फ़िरऔन' का लक़ब (उपाधि) इख़्तियार करके मुल्क में बाशिन्दों को यक़ीन दिलाता कि तुम्हारा रब्बे-आला या महादेव मैं हूँ। यहाँ यह बात और जान लेनी चाहिए कि क़ुरआन में हज़रत मूसा (अलैहि०) के क़िस्से के सिलसिले में दो फ़िरऔनों का ज़िक्र आता है। एक वह जिसके ज़माने में मूसा (अलैहि०) पैदा हुए और जिसके घर में उन्होंने परवरिश पाई और दूसरा फ़िरऔन वह जिसके पास मूसा (अलैहि०) इस्लाम की दावत और बनी-इसराईल की रिहाई की माँग लेकर पहुँचे और जो आख़िरकार समुद्र में डूब गया। मौजूदा ज़माने के तहक़ीक़ करनेवालों (शोधकर्ताओं) का आम रुझान इस तरफ़ है कि पहला फ़िरऔन रअमसीस दोम (द्वितीय) था, जिसकी हुकूमत का ज़माना 1292 से 1225 ईसा पूर्व तक रहा है। और दूसरा फ़िरऔन जिसका यहाँ इन आयतों में ज़िक्र हो रहा है मुनफ़तह या मुनफ़ताह था जो अपने बाप रअमसीस दोम की ज़िन्दगी ही में हुकूमत में शरीक हो चुका था और उसके मरने के बाद सल्तनत का मालिक हुआ। यह गुमान बज़ाहिर इस लिहाज़ से मुश्तबह (सन्दिग्ध) मालूम होता है कि इसराईली तारीख़़ (इतिहास) के हिसाब से हज़रत मूसा (अलैहि०) के इन्तिक़ाल की तारीख़ 1272 ई० पू० है। लेकिन बहरहाल यह तारीख़ी अन्दाज़े ही हैं और मिस्री, इसराईली और ईसवी जंतरियों में तारीख़ को मिलाकर देखने से बिलकुल सही तारीख़़ का हिसाब लगाना मुश्किल है।
حَقِيقٌ عَلَىٰٓ أَن لَّآ أَقُولَ عَلَى ٱللَّهِ إِلَّا ٱلۡحَقَّۚ قَدۡ جِئۡتُكُم بِبَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّكُمۡ فَأَرۡسِلۡ مَعِيَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 96
(105) मेरा रुतबा (मंसब) यही है कि अल्लाह का नाम लेकर कोई बात हक़ के सिवा न कहूँ। मैं तुम लोगों के पास तुम्हारे रब की तरफ़ से तक़रुर (नियुक्ति) की खुली दलील लेकर आया हूँ, इसलिए तू बनी-इसराईल को मेरे साथ भेज दे।86
86. हज़रत मूसा (अलैहि०) दो चीज़ों की दावत लेकर फ़िरऔन के पास भेजे गए थे। एक यह कि वह अल्लाह की बन्दगी (इस्लाम) क़ुबूल करे, दूसरे यह कि बनी-इसराईल की क़ौम को, जो पहले से मुसलमान थी, अपने ज़ुल्म के पंजे से रिहा कर दे। क़ुरआन में इन दोनों दावतों का कहीं एक साथ ज़िक्र किया गया है और कहीं मौक़े के लिहाज़ से सिर्फ़ एक ही बयान को काफ़ी समझा गया है।
قَالَ إِن كُنتَ جِئۡتَ بِـَٔايَةٖ فَأۡتِ بِهَآ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 97
(106) फ़िरऔन ने कहा, “अगर तू कोई निशानी लाया है और अपने दावे में सच्चा है तो उसे पेश कर।”
فَأَلۡقَىٰ عَصَاهُ فَإِذَا هِيَ ثُعۡبَانٞ مُّبِينٞ ۝ 98
(107) मूसा ने अपनी लाठी फेंकी और यकायक वह एक जीता-जागता अजगर था।
وَنَزَعَ يَدَهُۥ فَإِذَا هِيَ بَيۡضَآءُ لِلنَّٰظِرِينَ ۝ 99
(108) उसने अपनी जेब से हाथ निकाला और सब देखनेवालों के सामने वह चमक रहा था।87
87. ये दो निशानियाँ हज़रत मूसा (अलैहि०) को इस बात के सुबूत में दी गई थीं कि वे उस ख़ुदा के नुमाइन्दे हैं जो कायनात का बनानेवाला और उसपर हुकूमत करनेवाला है। जैसा कि इससे पहले भी हम इशारा कर चुके हैं। पैग़म्बरों ने जब कभी अपने आपको रब्बुल-आलमीन की तरफ़ से भेजे गए शख़्स की हैसियत से पेश किया तो लोगों ने उनसे यही माँग की कि अगर तुम वाक़ई रब्बुल-आलमीन के नुमाइन्दे हो तो तुम्हारे हाथों से कोई ऐसा वाक़िआ सामने आना चाहिए जो फ़ितरत के उसूलों के आम क़ायदे से हटकर हो और जिससे साफ़ ज़ाहिर हो रहा हो कि सारे जहान के रब ने तुम्हारी सच्चाई साबित करने के लिए ख़ुद दख़ल देकर निशानी के तौर पर यह वाक़िआ कर दिखाया है। इसी माँग के जवाब में पैग़म्बरों (अलैहि०) ने वे निशानियाँ दिखाई हैं जिनको क़ुरआन की इस्तिलाह (परिभाषा) में 'आयात' और मज़हबी मामलों को अक़्ली दलीलों से साबित करनेवालों की इस्तिलाह में 'मोजिज़ात' कहा जाता है। ऐसी निशानियों या मोजिज़ों को जो लोग फ़ितरी क़ानूनों के तहत होनेवाले आम वाक़िआत ठहराने की कोशिश करते हैं वे हक़ीक़त में अल्लाह की किताब को मानने और न मानने के दरमियान एक ऐसी हालत इख़्तियार करते हैं जिसे किसी तरह मुनासिब और माक़ूल नहीं समझा जा सकता। इसलिए कि क़ुरआन जिस जगह साफ़ तौर पर ऐसे वाक़िए का ज़िक्र कर रहा है जो आम तौर पर पेश नहीं आते वहाँ मौक़ा और महल के बिलकुल ख़िलाफ़ एक आम वाक़िआ बनाने की कोशिश महज़ भौंडेपन से बात बताना है जिसकी ज़रूरत सिर्फ़ उन लोगों को पेश आती है जो एक तरफ़ तो किसी ऐसी किताब पर ईमान नहीं लाना चाहते जो आम क़ायदे से हटकर होनेवाले वाक़िआत का ज़िक्र करती हो और दूसरी तरफ़ पैदाइशी तौर पर बाप-दादा के मज़हब पर एतिक़ाद रखने की वजह से उस किताब का इनकार भी नहीं करना चाहते जो हक़ीक़त में आम क़ायदे से हटे हुए वाक़िआत का ज़िक्र करती है। मोजिज़ों (चमत्कारों) के सिलसिले में अस्ल बुनियादी सवाल सिर्फ़ यह है कि क्या अल्लाह तआला कायनात के निज़ाम को एक क़ानून पर चला देने के बाद अलग-थलग हो चुका है और अब इस चलते हुए निज़ाम में कभी किसी मौक़े पर दख़ल (हस्तक्षेप) नहीं दे सकता? या वह अमली तौर पर अपनी सल्तनत की दरबारी व इन्तिज़ाम की बागडोर अपने हाथ में रखता है। और हर पल उसके हुक्म इस सल्तनत में लागू होते रहते हैं और उसको हर वक़्त इख़्तियार हासिल है कि चीज़ों की शक्लों और वाक़िआत की आम रफ़्तार में थोड़ी या पूरे तौर पर जैसी चाहे और जब चाहे तबदीली कर दे? जो लोग इस सवाल के जवाब में पहली बात को मानते हैं। उनके लिए मोजिज़ों को मानना नामुमकिन है, क्योंकि मोजिज़ा न उनके ख़ुदा के तसव्वुर से मेल खाता है और न कायनात के तसव्वुर से। लेकिन ऐसे लोगों के लिए मुनासिब यही है कि वे क़ुरआन की तफ़सीर व तशरीह करने के बजाय उसका साफ़-साफ़ इनकार कर दें, क्योंकि क़ुरआन ने तो पुरज़ोर आवाज़ में ख़ुदा को किसी लगे बंधे क़ायदे का पाबन्द समझनेवाले तसव्वुर को ग़लत बताते हुए उसे तमाम इख़्तियारात का मालिक क़रार दिया है। इसके बरख़िलाफ़ जो शख़्स क़ुरआन की दलीलों से मुत्मइन होकर दूसरे तसव्वुर को क़ुबूल कर ले उसके लिए मोजिज़े को समझना और मान लेना कुछ मुश्किल नहीं रहता। ज़ाहिर है कि जब आपका अक़ीदा ही यह होगा कि अज़दहे (अजगर) जिस तरह पैदा हुआ करते हैं उसी तरह वे पैदा हो सकते हैं, उसके सिवा किसी दूसरे ढंग पर कोई अज़दहा पैदा कर देना ख़ुदा की क़ुदरत से बाहर है, तो आप मजबूर हैं कि ऐसे शख़्स के बयान को पूरी तरह झुठला दें जो आपको ख़बर दे रहा हो कि एक लाठी अज़दहे में तबदील हुई और फिर अज़दहे से लाठी बन गई। लेकिन इसके ख़िलाफ़ अगर आपका अक़ीदा यह हो कि बेजान माद्दे (तत्त्व) में ख़ुदा के हुक्म से ज़िन्दगी पैदा होती है और ख़ुदा जिस माद्दे को जैसी चाहे ज़िन्दगी दे सकता है, उसके लिए ख़ुदा के हुक्म से लाठी का अज़दहा बनना उतना ही हैरत में न डालनेवाला वाक़िआ है जितना उसी ख़ुदा के हुक्म से अण्डे के अन्दर भरे हुए चन्द बेजान माद्दों का अज़दहा बन जाना हैरत में न डालनेवाला वाक़िआ है। सिर्फ़ यह फ़र्क़ है कि एक वाक़िआ हमेशा पेश आता रहता है और दूसरा वाक़िआ सिर्फ़ तीन बार पेश आया, एक को हैरत में न आनेवाला वाक़िआ और दूसरे को हैरत में डाल देनेवाला वाक़िआ बना देने के लिए काफ़ी नहीं है।
قَالَ ٱلۡمَلَأُ مِن قَوۡمِ فِرۡعَوۡنَ إِنَّ هَٰذَا لَسَٰحِرٌ عَلِيمٞ ۝ 100
(109) इसपर फ़िरऔन की क़ौम के सरदारों ने आपस में कहा कि “यक़ीनन यह आदमी बड़ा माहिर जादूगर है,
يُرِيدُ أَن يُخۡرِجَكُم مِّنۡ أَرۡضِكُمۡۖ فَمَاذَا تَأۡمُرُونَ ۝ 101
(110) तुम्हें तुम्हारी ज़मीन से बे-दख़ल करना चाहता है,88 अब कहो, क्या कहते हो?”
88. यहाँ सवाल पैदा होता है कि अगर एक ग़ुलाम क़ौम का एक बे-सरो-सामान आदमी एकाएक उठकर फ़िरऔन जैसे बादशाह के दरबार में जा खड़ा होता है जो सीरिया से लेकर लीबिया तक और रोम (रूम) के समुद्रतटों से हब्शा तक के शानदार मुल्क का न सिर्फ़ बेलगाम बादशाह बल्कि माबूद (उपास्य) बना हुआ था, तो महज़ उसके इस काम से कि उसने एक लाठी को अज़दहा (अजगर) बना दिया इतनी बड़ी सल्तनत को यह ख़तरा कैसे पैदा हो जाता है कि यह अकेला इनसान मिस्र की हुकूमत का तख़्ता उलट देगा और शाही ख़ानदान को हुक्मराँ तबके (शासक वर्ग) समेत मुल्क की हुकूमत से बे-दख़ल कर देगा? फिर यह सियासी इंक़िलाब का ख़तरा आख़िर पैदा ही क्यों हुआ। जबकि उस शख़्स ने सिर्फ़ पैग़म्बरी का दावा और बनी-इसराईल की रिहाई की माँग ही पेश की थी, और किसी क़िस्म की सियासी बातचीत सिरे से छेड़ी ही न थी? इस सवाल का जवाब यह है कि मूसा (अलैहि०) का पैग़म्बरी का दावा अपने अन्दर ख़ुद ही यह मतलब रखता था कि वे अस्ल में ज़िन्दगी के पूरे निज़ाम को पूरी तरह बदलना चाहते हैं जिसमें यक़ीनन मुल्क का सियासी निज़ाम भी शामिल है। किसी शख़्स का अपने आपको रब्बुल-आलमीन के नुमाइन्दे की हैसियत से पेश करना लाज़िमी तौर पर इस बात की ज़मानत बन जाता है कि वह इनसानों से पूरी तरह अपने हुक्मों पर चलने की माँग करता है, क्योंकि रब्बुल-आलमीन का नुमाइन्दा कभी दूसरे की फ़रमाँबरदारी करने और उसकी प्रजा बनकर रहने के लिए नहीं आता, बल्कि दूसरों से इताअत कराने और उनका निगराँ बनने के लिए आया करता है और ख़ुदा के इनकारी व नाफ़रमान शख़्स की हुकूमत को मान लेना उसकी पैग़म्बरी की हैसियत के बिलकुल ख़िलाफ़ है। यही वजह है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की ज़बान से पैग़म्बरी का दावा सुनते ही फ़िरऔन और उसके दरबारियों के सामने सियासी, मआशी और तमद्दुनी इंक़िलाब का ख़तरा पैदा हो गया। रही यह बात कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के इस दावे को मिस्र के शाही दरबार में इतनी अहमियत ही क्यों दी गई, जबकि उनके साथ एक भाई के सिवा कोई सहायक और मददगार और सिर्फ़ एक साँप बन जानेवाली लाठी, और एक चमकनेवाले हाथ के सिवा नबी की हैसियत से भेजे जाने का कोई निशान न था? तो मेरे नज़दीक इसके दो बड़े सबब हैं। एक यह कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की शख़्सियत से फ़िरऔन और उसके दरबारी अच्छी तरह वाक़िफ़ थे, उनकी पाकीज़ा और मज़बूत सीरत, उनकी ग़ैर-मामूली क़ाबिलियत और रहनुमाई और हुकूमत करने की पैदाइशी सलाहियत के बारे में सब जानते थे। तलमूद और यूसीफ़ूस की रिवायतें अगर सही हैं तो हज़रत मूसा (अलैहि०) ने इन पैदाइशी क़ाबिलियतों के अलावा फ़िरऔन के यहाँ उलूम व फ़ुनून (ज्ञान-विज्ञान) और हुक्मरानी व सिपहसालारी की वह पूरी तालीम व तरबियत भी हासिल की थी जो शाही ख़ानदान के लोगों को दी जाती थी, और उस ज़माने में जबकि वे शहज़ादे की हैसियत से रह रहे थे, हब्शा की मुहिम (अभियान) पर जाकर वे अपने आपको एक बेहतरीन जनरल भी साबित कर चुके थे। फिर जो थोड़ी-बहुत कमज़ोरियाँ शाही महलों में परवरिश पाने और फ़िरऔनी निज़ाम के अन्दर हुकूमत के मनसबों पर रहने की वजह से उनमें पाई जाती थीं, वे भी आठ-दस साल मदयन के इलाक़े में रेगिस्तानी ज़िन्दगी गुज़ारने और बकरियाँ चराने की बदौलत दूर हो चुकी थीं और अब फ़िरऔनी दरबार के सामने ऐसा पुख़्ता उम्र का संजीदा और दुनिया से बेनियाज़ आदमी, जो दुनिया देखे हुए था, पैग़म्बरी का दावा लिए खड़ा था जिसकी बात को किसी भी हालत में हवा का झोंका समझकर उड़ाया न जा सकता था। दूसरी वजह यह थी कि लाठी और चमकते हुए हाथ की निशानियाँ देखकर फ़िरऔन और उसके दरबारी बुरी तरह रोब में आ चुके थे और उनको तक़रीबन यह यक़ीन हो गया था कि यह शख़्स हक़ीक़त में कोई फ़ौक़ुल-फ़ितरी क़ुव्वत (पराभौतिक शक्ति) अपने पीछे रखता है। उनका हज़रत मूसा (अलैहि०) को एक तरफ़ जादूगर भी कहना और फिर दूसरी तरफ़ यह अन्देशा भी ज़ाहिर करना कि यह हमको इस सरज़मीन की हुकूमत से बेदख़ल करना चाहता है, एक आपस में टकरानेवाला बयान था और उस बौखलाहट का सुबूत था जो उनपर पैग़म्बरी के इस सबसे पहले मुज़ाहरे (प्रदर्शन) से छा गई थी, अगर हक़ीक़त में वे हज़रत मूसा (अलैहि०) को जादूगर समझते तो हरगिज़ उनसे किसी सियासी इंक़िलाब का अन्देशा न करते; क्योंकि जादू के बलबूते पर कभी दुनिया में कोई सियासी इंक़िलाब नहीं हुआ है।
قَالُوٓاْ أَرۡجِهۡ وَأَخَاهُ وَأَرۡسِلۡ فِي ٱلۡمَدَآئِنِ حَٰشِرِينَ ۝ 102
(111) फिर उन सबने फ़िरऔन को सलाह दी कि इसे और इसके भाई को इन्तिज़ार में रखिए और तमाम शहरों में हरकारे भेज दीजिए
يَأۡتُوكَ بِكُلِّ سَٰحِرٍ عَلِيمٖ ۝ 103
(112) कि हर फ़न के माहिर जादूगर को आपके पास ले आएँ।89
89. फ़िरऔनी दरबारियों की इस बात से साफ़ मालूम होता है कि उनके ज़ेहन में ख़ुदाई निशान और जादू के नुमायाँ फ़र्क़ का तसव्वुर बिलकुल साफ़ तौर पर मौजूद था। वे जानते थे कि ख़ुदाई निशान से हक़ीक़ी तबदीली पैदा होती है और जादू महज़ नज़र और मन को मुतास्सिर (प्रभावित) करके चीज़ों में एक ख़ास तरह की तबदीली महसूस कराता है। इसी बिना पर उन्होंने हज़रत मूसा (अलैहि०) के पैग़म्बरी के दावे को रद्द करने के लिए कहा कि यह शख़्स जादूगर है, यानी लाठी हक़ीक़त में साँप नहीं बन गई कि उसे ख़ुदाई निशान माना जाए, बल्कि सिर्फ़ हमें ऐसा नज़र आया कि मानो साँप था, जैसा कि हर जादूगर कर लेता है। फिर उन्होंने मश्वरा दिया कि पूरे मुल्क के माहिर जादूगरों को बुलाया जाए और उनके ज़रिए से लाठियों और रस्सियों को साँपों में बदलकर लोगों को दिखाया जाए, ताकि आम लोगों के दिलों में इस पैग़म्बराना मोजिज़े से जो डर बैठ गया है वह अगर पूरे तौर पर दूर न हो तो कम-से-कम शक ही में बदल जाए।
وَجَآءَ ٱلسَّحَرَةُ فِرۡعَوۡنَ قَالُوٓاْ إِنَّ لَنَا لَأَجۡرًا إِن كُنَّا نَحۡنُ ٱلۡغَٰلِبِينَ ۝ 104
(113) चुनाँचे जादूगर फ़िरऔन के पास आ गए। उन्होंने कहा, “अगर हम ग़ालिब रहे तो हमें इसका इनाम तो ज़रूर मिलेगा?”
قَالَ نَعَمۡ وَإِنَّكُمۡ لَمِنَ ٱلۡمُقَرَّبِينَ ۝ 105
(114) फ़िरऔन ने जवाब दिया, “हाँ, और तुम राज-दरबार में क़रीबी होगे।”
قَالُواْ يَٰمُوسَىٰٓ إِمَّآ أَن تُلۡقِيَ وَإِمَّآ أَن نَّكُونَ نَحۡنُ ٱلۡمُلۡقِينَ ۝ 106
(115) फिर उन्होंने मूसा से कहा, “तुम फेंकते हो या हम फेंकें?”
قَالَ أَلۡقُواْۖ فَلَمَّآ أَلۡقَوۡاْ سَحَرُوٓاْ أَعۡيُنَ ٱلنَّاسِ وَٱسۡتَرۡهَبُوهُمۡ وَجَآءُو بِسِحۡرٍ عَظِيمٖ ۝ 107
(116) मूसा ने जवाब दिया, “तुम ही फेंको।” उन्होंने जो अपने अंछर फेंके तो निगाहों पर जादू और दिलों में डर पैदा कर दिया और बड़ा ही जबरदस्त जादू बना लाए।
۞وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَىٰٓ أَنۡ أَلۡقِ عَصَاكَۖ فَإِذَا هِيَ تَلۡقَفُ مَا يَأۡفِكُونَ ۝ 108
(117) हमने मूसा को इशारा किया कि फेंक अपनी लाठी। उसका फेंकना था कि देखते ही देखते वह उनके उस झूठे तिलिस्म (जादू) को निगलती चली गई।90
90. यह गुमान करना सही नहीं है कि असा (मूसा अलैहि० की लाठी) उन लाठियों और रस्सियों को निगल गया जो जादूगरों ने फेंकी थीं और साँप और अज़दहे (अजगर) बनी दिखाई दे रही थीं। क़ुरआन जो कुछ कह रहा है वह यह है कि असा ने साँप बनकर उनके उस फ़रेब में डालनेवाले जादू को निगलना शुरू कर दिया जो उन्होंने तैयार किया था। इसका साफ़ मतलब यह मालूम होता है कि यह साँप जिधर-जिधर गया वहाँ से जादू का वह असर ख़त्म होता चला गया जिसकी वजह से लाठियाँ और रस्सियाँ साँपों की तरह लहराती नज़र आती थीं, और उस (असा) के एक ही बार घूमने से जादूगरों की हर लाठी, लाठी और हर रस्सी, रस्सी बनकर रह गई। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-20 ताहा, हाशिया-42)
فَوَقَعَ ٱلۡحَقُّ وَبَطَلَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 109
(118) इस तरह जो हक़ था, वह हक़ साबित हुआ और जो कुछ उन्होंने बना रखा था, वह बातिल (असत्य) होकर रह गया।
فَغُلِبُواْ هُنَالِكَ وَٱنقَلَبُواْ صَٰغِرِينَ ۝ 110
(119) फ़िरऔन और उसके साथी मुक़ाबले के मैदान में हार गए और (कामयाब होने के बजाए) उलटे रुसवा हो गए।
وَأُلۡقِيَ ٱلسَّحَرَةُ سَٰجِدِينَ ۝ 111
(120) और जादूगरों का हाल यह हुआ कि मानो किसी चीज़ ने अन्दर से उन्हें सजदे में गिरा दिया।
قَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِرَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 112
(121) कहने लगे, “हमने मान लिया रब्बुल-आलमीन (सारे जहानों के रब) को,
رَبِّ مُوسَىٰ وَهَٰرُونَ ۝ 113
(122) उस रब को जिसे मूसा और हारून मानते हैं।91
91. इस तरह अल्लाह तआला ने फ़िरऔनियों की चाल को उलटकर उन्हीं पर पलट दिया। उन्होंने पूरे मुल्क के माहिर जादूगरों को बुलाकर सबके सामने इसलिए जादू का मुज़ाहरा (प्रदर्शन) कराया था कि आम लोगों को हज़रत मूसा (अलैहि०) के जादूगर होने का यक़ीन दिलाएँ या कम-से-कम शक ही में डाल दें। लेकिन इस मुक़ाबले में हार खा जाने के बाद ख़ुद उनके अपने बुलाए हुए माहिर जादूगरों ने एक आवाज़ में फ़ैसला कर दिया कि हज़रत मूसा (अलैहि०) जो चीज़ पेश कर रहे हैं वह हरगिज़ जादू नहीं है, बल्कि यक़ीनन सारे जहानों के रब की ताक़त का करिश्मा है जिसके आगे किसी जादू का ज़ोर नहीं चल सकता। ज़ाहिर है कि जादू को ख़ुद जादूगरों से बढ़कर और कौन जान सकता था। लिहाज़ा जब उन्होंने अमली तजरिबे और आज़माइश के बाद गवाही दे दी कि यह जादू नहीं है तो फिर फ़िरऔन और उसके दरबारियों के लिए मुल्क के आम लागों को यह यक़ीन दिलाना बिलकुल नामुमकिन हो गया कि मूसा (अलैहि०) सिर्फ़ एक जादूगर है।
قَالَ فِرۡعَوۡنُ ءَامَنتُم بِهِۦ قَبۡلَ أَنۡ ءَاذَنَ لَكُمۡۖ إِنَّ هَٰذَا لَمَكۡرٞ مَّكَرۡتُمُوهُ فِي ٱلۡمَدِينَةِ لِتُخۡرِجُواْ مِنۡهَآ أَهۡلَهَاۖ فَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ ۝ 114
(123) फ़िरऔन ने कहा, “तुम उसपर ईमान ले आए, इससे पहले कि मैं तुम्हें इजाज़त दूँ? यक़ीनन यह कोई ख़ुफ़िया साज़िश थी जो तुम लोगों ने इस राजधानी में की, ताकि इसके मालिकों को हुकूमत से बेदख़ल कर दो। अच्छा, तो इसका नतीजा अब तुम्हें मालूम हुआ जाता है।
لَأُقَطِّعَنَّ أَيۡدِيَكُمۡ وَأَرۡجُلَكُم مِّنۡ خِلَٰفٖ ثُمَّ لَأُصَلِّبَنَّكُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 115
(124) मैं तुम्हारे हाथ-पाँव उलटी दिशाओं से कटवा दूँगा और इसके बाद तुम सबको सूली पर चढ़ाऊँगा।”
قَالُوٓاْ إِنَّآ إِلَىٰ رَبِّنَا مُنقَلِبُونَ ۝ 116
(125) उन्होंने जवाब दिया, “बहरहाल हमें पलटना अपने रब ही की तरफ़ है।
وَمَا تَنقِمُ مِنَّآ إِلَّآ أَنۡ ءَامَنَّا بِـَٔايَٰتِ رَبِّنَا لَمَّا جَآءَتۡنَاۚ رَبَّنَآ أَفۡرِغۡ عَلَيۡنَا صَبۡرٗا وَتَوَفَّنَا مُسۡلِمِينَ ۝ 117
(126) तू जिस बात पर हमसे बदला लेना चाहता है, वह इसके सिवा कुछ नहीं कि हमारे रब की निशानियाँ जब हमारे सामने आ गईं तो हमने उन्हें मान लिया। ऐ रब! हमपर सब्र की बारिश कर और हमें दुनिया से उठा तो इस हाल में कि हम तेरे फ़रमाँबरदार हों।''92
92. फ़िरऔन ने पाँसा पलटते देखकर आख़िरी चाल चली थी कि इस सारे मामले को मूसा (अलैहि०) और जादूगरों की साज़िश ठहरा दे और जादूगरों को जिस्मानी अज़ाब (शारीरिक यातना) और क़त्ल की धमकी देकर उनसे अपने इस इलज़ाम को क़ुबूल करा ले। लेकिन यह चाल भी उलटी पड़ी। जादूगरों ने अपने आपको हर सज़ा के लिए पेश करके साबित कर दिया कि उनका मूसा (अलैहि०) की सच्चाई पर ईमान लाना किसी साज़िश का नहीं, बल्कि सच्चे दिल से हक़ को क़ुबूल करने का नतीजा था। अब उस (फ़िरऔन) के लिए इसके सिवा कोई रास्ता न बचा कि हक़ और इनसाफ़ का ढोंग जो वह रचाना चाहता था उसे छोड़कर साफ़-साफ़ ज़ुल्मो-सितम शुरू कर दे। इस मक़ाम पर यह बात भी देखने के क़ाबिल है कि चन्द लम्हों के अन्दर ईमान ने उन जादूगरों के किरदार में कितना बड़ा इंक़िलाब पैदा कर दिया। अभी थोड़ी देर पहले इन्हीं जादूगरों के घटियापन और पस्ती का यह हाल था कि अपने बाप-दादा के धर्म की मदद व हिमायत के लिए घरों से चलकर आए थे और फ़िरऔन से पूछ रहे थे कि अगर हमने अपने मज़हब को मूसा के हमले से बचा लिया तो सरकार से हमें इनाम तो मिलेगा ना? या अब जो ईमान की नेमत नसीब हुई तो उन्हीं की हक़ परस्ती और बुलन्द-हिम्मती इस हद को पहुँच गई कि थोड़ी देर पहले जिस बादशाह के आगे लालच के मारे बिछे जा रहे थे अब उसकी बड़ाई, ताक़त और जाहो-जलाल को ठोकर मार रहे हैं और उन बुरी-से-बुरी सज़ाओं को भुगतने के लिए तैयार हैं, जिनकी धमकी वह दे रहा है, मगर उस हक़ को छोड़ने को तैयार नहीं हैं जिसकी सच्चाई उनपर खुल चुकी है।
وَقَالَ ٱلۡمَلَأُ مِن قَوۡمِ فِرۡعَوۡنَ أَتَذَرُ مُوسَىٰ وَقَوۡمَهُۥ لِيُفۡسِدُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَيَذَرَكَ وَءَالِهَتَكَۚ قَالَ سَنُقَتِّلُ أَبۡنَآءَهُمۡ وَنَسۡتَحۡيِۦ نِسَآءَهُمۡ وَإِنَّا فَوۡقَهُمۡ قَٰهِرُونَ ۝ 118
(127) फ़िरऔन से उसकी क़ौम के सरदारों ने कहा, “क्या तू मूसा और उसकी क़ौम को यूँ ही छोड़ देगा कि देश में बिगाड़ फैलाएँ और वह तेरी और तेरे माबूदों की बन्दगी छोड़ बैठे?” फ़िरऔन ने जवाब दिया, “मैं उनके बेटों को क़त्ल कराऊँगा और उनकी औरतों को जीता रहने दूँगा93, हमारी हुकूमत की पकड़ उनपर मज़बूत है।”
93. वाज़ेह रहे की सितम का एक ज़माना वह था जो हज़रात मूसा (अलैहि०) की पैदाइश से पहले रअमसीस दोम के ज़माने में जारी हुआ था, और सितम का दूसरा दौर यह है जो हज़रत मूसा (अलैहि०) को पैग़म्बरी मिलने के बाद शुरू हुआ। दोनों में यह बात एक जैसी है कि बनी-इसराईल के बेटों को क़त्ल कराया गया और उनकी बेटियों को जीता छोड़ दिया गया ताकि धीरे-धीरे उनकी बेटियों का ख़ातिमा हो जाए और यह क़ौम दूसरी क़ौमों में गुम होकर रह जाए। ग़ालिबन (संभवतः) उसी दौर का है वह कतबा जो सन् 1896 ई० में क़दीम मिस्री आसार की खुदाई के दौरान मिला था और जिसमें यही फ़िरऔन मिनफ़ताह अपने कारनामों और फ़ुतूहात का ज़िक्र करने के बाद लिखता है कि “और इसराईल को मिटा दिया गया, उसका बीज तक बाक़ी नहीं।” (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखें— सूरा-40 मोमिन, आयत-25)
قَالَ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِ ٱسۡتَعِينُواْ بِٱللَّهِ وَٱصۡبِرُوٓاْۖ إِنَّ ٱلۡأَرۡضَ لِلَّهِ يُورِثُهَا مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦۖ وَٱلۡعَٰقِبَةُ لِلۡمُتَّقِينَ ۝ 119
(128) मूसा ने अपनी क़ौम से कहा, “अल्लाह से मदद माँगो और सब्र करो, ज़मीन अल्लाह की है, अपने बन्दों में से जिसको चाहता है उसका वारिस बना देता है, और आख़िरी कामयाबी उन्हीं के लिए है जो उससे डरते हुए काम करें।”
قَالُوٓاْ أُوذِينَا مِن قَبۡلِ أَن تَأۡتِيَنَا وَمِنۢ بَعۡدِ مَا جِئۡتَنَاۚ قَالَ عَسَىٰ رَبُّكُمۡ أَن يُهۡلِكَ عَدُوَّكُمۡ وَيَسۡتَخۡلِفَكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرَ كَيۡفَ تَعۡمَلُونَ ۝ 120
(129) उसकी क़ौम के लोगों ने कहा, “तेरे आने से पहले भी हम सताए जाते थे और अब तेरे आने पर भी सताए जा रहे हैं।” उसने जवाब दिया, “क़रीब है वह वक़्त कि तुम्हारा रब तुम्हारे दुश्मन को हलाक कर दे और तुमको ज़मीन में 'ख़लीफ़ा' बनाए, फिर देखे कि तुम कैसे अमल करते हो?"
وَلَقَدۡ أَخَذۡنَآ ءَالَ فِرۡعَوۡنَ بِٱلسِّنِينَ وَنَقۡصٖ مِّنَ ٱلثَّمَرَٰتِ لَعَلَّهُمۡ يَذَّكَّرُونَ ۝ 121
(130) हमने फ़िरऔन के लोगों को कई साल तक क़हत (अकाल) और पैदावार की कमी में डाले रखा कि शायद उनको होश आए।
فَإِذَا جَآءَتۡهُمُ ٱلۡحَسَنَةُ قَالُواْ لَنَا هَٰذِهِۦۖ وَإِن تُصِبۡهُمۡ سَيِّئَةٞ يَطَّيَّرُواْ بِمُوسَىٰ وَمَن مَّعَهُۥٓۗ أَلَآ إِنَّمَا طَٰٓئِرُهُمۡ عِندَ ٱللَّهِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 122
(131) मगर उनका हाल यह था कि जब अच्छा वक़्त आता तो कहते कि हम इसी के हक़दार हैं, और जब बुरा वक़्त आता तो मूसा और उसके साथियों को अपने लिए अपशकुन ठहराते, हालाँकि हक़ीक़त में उनका अपशकुन तो अल्लाह के पास था, मगर उनमें से ज़्यादातर नहीं जानते थे।
وَقَالُواْ مَهۡمَا تَأۡتِنَا بِهِۦ مِنۡ ءَايَةٖ لِّتَسۡحَرَنَا بِهَا فَمَا نَحۡنُ لَكَ بِمُؤۡمِنِينَ ۝ 123
(132) उन्होंने मूसा से कहा कि “तू हमपर जादू चलाने के लिए भले ही कोई निशानी ले आए, हम तो तेरी बात माननेवाले नहीं हैं।“94
94. यह इन्तिहाई हठधर्मी और बात बनाना था कि फ़िरऔन के दरबारी उस चीज़ को भी जादू ठहरा रहे थे जिसके बारे में वे ख़ुद भी यक़ीन के साथ जानते थे कि वह जादू का नतीजा नहीं हो सकती। शायद कोई बेवक़ूफ़ आदमी भी यह न मानेगा कि एक पूरे मुल्क में अकाल पड़ जाना और धरती की पैदावार में लगातार कमी होना किसी जादू का करिश्मा हो सकता है। इसी बिना पर क़ुरआन मजीद कहता है कि “जब हमारी निशानियाँ खुले तौर पर उनकी निगाहों के सामने आईं तो उन्होंने कहा कि यह तो खुला जादू है, हालाँकि उनके दिल अन्दर से मान चुके थे, मगर उन्होंने सिर्फ़ ज़ुल्म और सरकशी की राह से उनका इनकार किया।” (सूरा-27 नम्ल, आयत-13, 14)
فَأَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمُ ٱلطُّوفَانَ وَٱلۡجَرَادَ وَٱلۡقُمَّلَ وَٱلضَّفَادِعَ وَٱلدَّمَ ءَايَٰتٖ مُّفَصَّلَٰتٖ فَٱسۡتَكۡبَرُواْ وَكَانُواْ قَوۡمٗا مُّجۡرِمِينَ ۝ 124
(133) आख़िरकार हमने उनपर तूफान भेजा,95 टिड्डी दल छोड़े, सुरसुरियाँ96 फैलाईं, मेंढक निकाले और ख़ून बरसाया। ये सब निशानियाँ अलग-अलग करके दिखाईं, मगर वे सरकशी दिखाते चले गए और वे बड़े ही मुजरिम लोग थे।
95. शायद बारिश का तूफ़ान मुराद है जिसमें ओले भी बरसे थे। अगरचे तूफ़ान दूसरी चीज़ों का भी हो सकता है लेकिन बाइबल में ओलों की बारिश के तूफ़ान का ही ज़िक्र है, इसलिए हम इसी मानी व मतलब को अहमियत देते हैं।
96. अस्ल में अरबी लफ़्ज़ “क़ुम्मल” इस्तेमाल हुआ है जिसके कई मतलब हैं। छोटी मक्खी, छोटी टिड्डी, मच्छर, सुरसुरी वग़ैरा। शायद यह जामेअ (व्यापक) लफ़्ज़ इसलिए इस्तेमाल किया गया है कि एक साथ जुओं और मच्छरों ने आदमियों पर और सुरसुरियों (घुन के कीड़ों) ने अनाज के ढेरों पर हमला किया होगा। (तक़ाबुल के लिए देखें, बाइबल की किताब निष्कासन, अध्याय-7 से 121 इसके अलावा देखें— सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, हाशिया-43)
وَلَمَّا وَقَعَ عَلَيۡهِمُ ٱلرِّجۡزُ قَالُواْ يَٰمُوسَى ٱدۡعُ لَنَا رَبَّكَ بِمَا عَهِدَ عِندَكَۖ لَئِن كَشَفۡتَ عَنَّا ٱلرِّجۡزَ لَنُؤۡمِنَنَّ لَكَ وَلَنُرۡسِلَنَّ مَعَكَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 125
(134) जब कभी उनपर आफ़त आ पड़ती तो कहते, “ऐ मूसा! तुझे अपने रब की तरफ़ से जो मंसब हासिल है उसकी बिना पर हमारे लिए दुआ कर। अगर अब के तू हमपर से यह आफ़त टलवा दे तो हम तेरी बात मान लेंगे और बनी-इसराईल को तेरे साथ भेज देंगे।”
فَلَمَّا كَشَفۡنَا عَنۡهُمُ ٱلرِّجۡزَ إِلَىٰٓ أَجَلٍ هُم بَٰلِغُوهُ إِذَا هُمۡ يَنكُثُونَ ۝ 126
(135) मगर जब हम उनपर से अपना अज़ाब एक मुक़र्रर वक़्त के लिए, जिसको वे बहरहाल पहुँचनेवाले थे, हटा लेते तो वे यकायक अपने वादे से फिर जाते।
فَٱنتَقَمۡنَا مِنۡهُمۡ فَأَغۡرَقۡنَٰهُمۡ فِي ٱلۡيَمِّ بِأَنَّهُمۡ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَكَانُواْ عَنۡهَا غَٰفِلِينَ ۝ 127
(136) तब हमने उनसे बदला लिया और उन्हें समन्दर में डुबो दिया; क्योंकि उन्होंने हमारी निशानियों को झुठलाया था और उनसे बेपरवाह हो गए थे।
وَأَوۡرَثۡنَا ٱلۡقَوۡمَ ٱلَّذِينَ كَانُواْ يُسۡتَضۡعَفُونَ مَشَٰرِقَ ٱلۡأَرۡضِ وَمَغَٰرِبَهَا ٱلَّتِي بَٰرَكۡنَا فِيهَاۖ وَتَمَّتۡ كَلِمَتُ رَبِّكَ ٱلۡحُسۡنَىٰ عَلَىٰ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ بِمَا صَبَرُواْۖ وَدَمَّرۡنَا مَا كَانَ يَصۡنَعُ فِرۡعَوۡنُ وَقَوۡمُهُۥ وَمَا كَانُواْ يَعۡرِشُونَ ۝ 128
(137) और उनकी जगह हमने उन लोगों को जो कमज़ोर बनाकर रखे गए थे, उस सरज़मीन के पूरब व पश्चिम का वारिस बना दिया जिसे हमने बरकतों से मालामाल किया था।97 इस तरह बनी-इसराईल के हक़ में तेरे रब का भलाई का वादा पूरा हुआ; क्योंकि उन्होंने सब्र से काम लिया था और फ़िरऔन और उसकी क़ौम का वह सब कुछ बरबाद कर दिया जो वे बनाते और चढ़ाते थे।
97. यानी बनी-इसराईल को फ़िलस्तीन की सरज़मीन का वारिस बना दिया। कुछ लोगों ने इसका मतलब यह लिया है कि बनी-इसराईल ख़ुद मिस्र की सरज़मीन के मालिक बना दिए गए। लेकिन इस मतलब को मान लेने के लिए न तो क़ुरआन करीम के इशारे काफ़ी वाज़ेह (स्पष्ट) हैं और न तारीख़़ (इतिहास) व आसार (अवशेषों) ही से इसकी कोई गवाही मिलती है। इसलिए इस मतलब को मानने में हमें झिझक है। (देखें— सूरा-18 कहफ़, हाशिया-57; सूरा-26 शुअरा, हाशिया-45)
وَجَٰوَزۡنَا بِبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱلۡبَحۡرَ فَأَتَوۡاْ عَلَىٰ قَوۡمٖ يَعۡكُفُونَ عَلَىٰٓ أَصۡنَامٖ لَّهُمۡۚ قَالُواْ يَٰمُوسَى ٱجۡعَل لَّنَآ إِلَٰهٗا كَمَا لَهُمۡ ءَالِهَةٞۚ قَالَ إِنَّكُمۡ قَوۡمٞ تَجۡهَلُونَ ۝ 129
(138) बनी-इसराईल को हमने समन्दर से गुज़ार दिया, फिर वे चले और रास्ते में एक ऐसी क़ौम पर उनका गुज़र हुआ जो अपने कुछ बुतों की गिरवीदा (मोहित) बनी हुई थी। कहने लगे, “ऐ मूसा! हमारे लिए भी कोई ऐसा माबूद बना दे जैसे इन लोगों के माबूद हैं।98 मूसा ने कहा, “तुम लोग बड़ी नासमझी की बात करते हो।
98. बनी-इसराईल ने जिस जगह से लाल सागर को पार किया वह शायद मौजूदा स्वेज़ और इस्माईलिया के बीच कोई थी, जहाँ से गुज़रकर ये लोग प्रायद्वीप 'सीना' के दक्षिणी इलाक़े की तरफ़ समुद्र तट के किनारे-किनारे चले। उस ज़माने में प्रायद्वीप सीना का पश्चिमी और उत्तरी हिस्सा मिस्र की सल्तनत में शामिल था। दक्षिण के इलाक़े में मौजूदा शहर तूर और अबू-ज़नीमा के बीच तांबे और फ़िरोज़े (नीलमणि) की खदानें थीं, जिनसे मिस्र के लोग बहुत फ़ायदा उठाते थे और उन खदानों की हिफ़ाज़त के लिए मिस्रियों ने कुछ जगहों पर छावनियाँ क़ायम कर रखी थीं। इन ही छावनियों में से एक छावनी 'मफ्का' के मक़ाम पर थी जहाँ मिस्रियों का एक बहुत बड़ा बुतख़ाना था जिसके आसार अब भी प्रायद्वीप के दक्षिण-पश्चिमी इलाक़े में पाए जाते हैं। इसके क़रीब एक और मक़ाम भी था जहाँ क़दीम ज़माने से सामी क़ौमों की चाँद देवी का मन्दिर था। शायद इन्हीं मक़ामात में से किसी के पास से गुज़रते हुए बनी-इसराईल को, जिनपर मिस्रवालों की ग़ुलामी ने उनके असरात का अच्छा ख़ासा ठप्पा लगा रखा था, एक बनावटी ख़ुदा की ज़रूरत महसूस हुई होगी। बनी-इसराईल की ज़ेहनियत को मिस्रवालों की ग़ुलामी ने जैसा कुछ बिगाड़ दिया था, उसका अन्दाज़ा इस बात से आसानी से किया जा सकता है कि मिस्र से निकल आने के 70 वर्ष बाद हज़रत मूसा (अलैहि०) के पहले ख़लीफ़ा यूशअ-बिन-नून अपनी आख़िरी तक़रीर में बनी-इसराईल के आम लोगों से ख़िताब करते हुए फ़रमाते हैं— "तुम ख़ुदावन्द का डर रखो और नेक-नीयती और सच्चाई के साथ उसकी परस्तिश करो और उन देवताओं को दूर कर दो जिनकी परस्तिश तुम्हारे बाप-दादा बड़े दरिया के पार और मिस्र में करते थे और ख़ुदावन्द की परस्तिश करो। और अगर ख़ुदावन्द की परस्तिश तुमको बुरी मालूम होती हो तो आज ही तुम उसे जिसकी परस्तिश करोगे चुन लो..... अब रही मेरी और मेरे घराने की बात सो हम तो ख़ुदावन्द ही की परस्तिश करेंगे। (येशू, 24:14, 15) इससे अन्दाज़ा होता है कि 40 साल तक हज़रत मूसा (अलैहि०) की और 28 साल तक हज़रत यूशअ की तरबियत व रहनुमाई में ज़िन्दगी बसर कर लेने के बाद भी यह क़ौम अपने अन्दर से उन असरात को न निकाल सकी जो मिस्र के फ़िरऔनों की बन्दगी के दौर में उसकी नस-नस के अन्दर उतर गए थे। फिर भला यह कैसे मुमकिन था कि मिस्र से निकलने के बाद फ़ौरन ही जो बुतकदा (मूर्ति-स्थल) सामने आ गया था उसको देखकर इन बिगड़े हुए मुसलमानों में से बहुतों की पेशानियाँ (मस्तक) उस आस्ताने पर सजदा करने के लिए बेताब न हो जातीं जिसपर वे अपने पिछले आक़ाओं को माथा रगड़ते हुए देख चुके थे।
إِنَّ هَٰٓؤُلَآءِ مُتَبَّرٞ مَّا هُمۡ فِيهِ وَبَٰطِلٞ مَّا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 130
(139) ये लोग जिस तरीक़े की पैरवी कर रहे हैं, वह तो बरबाद होनेवाला है और जो अमल वे कर रहे हैं, वह सरासर बातिल है।”
قَالَ أَغَيۡرَ ٱللَّهِ أَبۡغِيكُمۡ إِلَٰهٗا وَهُوَ فَضَّلَكُمۡ عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 131
(140) फिर मूसा ने कहा, “क्या मैं अल्लाह के सिवा कोई और माबूद तुम्हारे लिए तलाश करूँ? हालाँकि वह अल्लाह ही है जिसने तुम्हें दुनिया भर की क़ौमों पर बड़ाई दी है।
وَإِذۡ أَنجَيۡنَٰكُم مِّنۡ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ يَسُومُونَكُمۡ سُوٓءَ ٱلۡعَذَابِ يُقَتِّلُونَ أَبۡنَآءَكُمۡ وَيَسۡتَحۡيُونَ نِسَآءَكُمۡۚ وَفِي ذَٰلِكُم بَلَآءٞ مِّن رَّبِّكُمۡ عَظِيمٞ ۝ 132
(141) और (अल्लाह फ़रमाता है) वह वक़्त याद करो जब हमने फ़िरऔनवालों से तुम्हें नजात दी, जिनका हाल यह था कि तुम्हें सख़्त अज़ाब में डाले रखते थे, तुम्हारे बेटों को क़त्ल करते और तुम्हारी औरतों को ज़िन्दा रहने देते थे, और इसमें तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम्हारी बड़ी आज़माइश थी।"
۞وَوَٰعَدۡنَا مُوسَىٰ ثَلَٰثِينَ لَيۡلَةٗ وَأَتۡمَمۡنَٰهَا بِعَشۡرٖ فَتَمَّ مِيقَٰتُ رَبِّهِۦٓ أَرۡبَعِينَ لَيۡلَةٗۚ وَقَالَ مُوسَىٰ لِأَخِيهِ هَٰرُونَ ٱخۡلُفۡنِي فِي قَوۡمِي وَأَصۡلِحۡ وَلَا تَتَّبِعۡ سَبِيلَ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 133
(142) हमने मूसा को तीस रात व दिन के लिए (सीना पहाड़ पर) तलब किया और बाद में दस दिन और बढ़ा दिए। इस तरह उसके रब की मुक़र्रर की हुई मुद्दत पूरे चालीस दिन हो गई।99 मूसा ने चलते हुए अपने भाई हारून से कहा कि “मेरे पीछे तुम मेरी क़ौम में मेरी जानशीनी करना और ठीक काम करते रहना और बिगाड़ पैदा करनेवालों के तरीक़े पर न चलना।100
99. मिस्र से निकलने के बाद जब बनी-इसराईल की ग़ुलामोंवाली पाबन्दियाँ ख़त्म हो गईं और उन्हें एक ख़ुदमुख़्तार क़ौम की हैसियत हासिल हो गई तो ख़ुदा के हुक्म के तहत हज़रत मूसा (अलैहि०) 'सीना' नाम के पहाड़ पर तलब किए गए, ताकि उन्हें बनी-इसराईल के लिए शरीअत (धर्म-विधान) दी जाए। चुनाँचे यह तलबी (बुलाया जाना), जिसका यहाँ ज़िक्र हो रहा है, इस सिलसिले की पहली तलबी थी और इसके लिए चालीस दिन की मुद्दत इसलिए मुक़र्रर की गई थी कि हज़रत मूसा (अलैहि०) एक पूरा चिल्ला (चालीस दिन) पहाड़ पर गुज़ारें और रोज़े रखकर, रात-दिन इबादत और ग़ौर व फ़िक्र करके और दिल व दिमाग़ को यकसू (एकाग्र) करके उस भारी बात को क़ुबूल करने और हासिल करने की ताक़त अपने अन्दर पैदा करें, जो उनपर ख़ुदा की तरफ़ से उतारी जानेवाली थी। हज़रत मूसा (अलैहि०) ने इस हुक्म को पूरा करने के लिए 'सीना' पहाड़ पर जाते वक़्त बनी-इसराईल को उस मक़ाम पर छोड़ा था, जो मौजूदा नक़्शे (मानचित्र) में बनी-सॉलेह और सीना पहाड़ के दरमियान 'वादियुश-शैख़' के नाम से जाना जाता है। इस वादी (घाटी) का वह हिस्सा जहाँ बनी-इसराईल ने पड़ाव किया था आजकल 'मैदानुर्राहा' कहलाता है। वादी के एक सिरे पर वह पहाड़ स्थित है जहाँ मक़ामी रिवायत के मुताबिक़ हज़रत सॉलेह (अलैहि०) समूद के इलाक़े से हिजरत करके तशरीफ़ ले आए थे। आज वहाँ उनकी यादगार में एक मस्जिद बनी हुई है। दूसरी तरफ़ एक और पहाड़ी ‘जबले-हारून' नाम की है, जहाँ कहा जाता है कि जब बनी-इसराईल ने बछड़े की पूजा की तो इससे नाराज़ होकर हज़रत हारून (अलैहि०) इसी पहाड़ी पर जा बैठे थे। तीसरी तरफ़ सीना का बुलन्द पहाड़ है जिसका ऊपरी हिस्सा अकसर बादलों से ढका रहता है और जिसकी बुलन्दी 7359 फ़ुट है, इस पहाड़ की चोटी पर आज तक वह गुफा आम लोगों के लिए देखने लायक़ मक़ाम बनी हुई है जहाँ हज़रत मूसा (अलैहि०) ने ख़ुदा के हुक्म से चालीस दिन गुज़ारे थे। उसके क़रीब मुसलमानों की एक मस्जिद और ईसाइयों का एक गिरजाघर मौजूद है और पहाड़ के दामन में रूमी बादशाह 'जस्टनीन' के ज़माने की एक ख़ानक़ाह आज तक मौजूद है। (तफ़सील के लिए देखें— सूरा-27 नम्ल, हाशिया 9 और 10)
100. हज़रत हारून (अलैहि०) अगरचे हज़रत मूसा (अलैहि०) से तीन साल बड़े थे, लेकिन पैग़म्बरी के काम में हज़रत मूसा के मातहत और मददगार थे। उनकी पैग़म्बरी मुस्तक़िल (स्थायी रूप से) न थी, बल्कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने अल्लाह तआला से दरख़ास्त करके उनको अपने वज़ीर की हैसियत से माँगा था जैसा कि आगे चलकर क़ुरआन मजीद में साफ़-साफ़ बयान हुआ है।
وَلَمَّا جَآءَ مُوسَىٰ لِمِيقَٰتِنَا وَكَلَّمَهُۥ رَبُّهُۥ قَالَ رَبِّ أَرِنِيٓ أَنظُرۡ إِلَيۡكَۚ قَالَ لَن تَرَىٰنِي وَلَٰكِنِ ٱنظُرۡ إِلَى ٱلۡجَبَلِ فَإِنِ ٱسۡتَقَرَّ مَكَانَهُۥ فَسَوۡفَ تَرَىٰنِيۚ فَلَمَّا تَجَلَّىٰ رَبُّهُۥ لِلۡجَبَلِ جَعَلَهُۥ دَكّٗا وَخَرَّ مُوسَىٰ صَعِقٗاۚ فَلَمَّآ أَفَاقَ قَالَ سُبۡحَٰنَكَ تُبۡتُ إِلَيۡكَ وَأَنَا۠ أَوَّلُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 134
(143) जब वह हमारे मुक़र्रर किए हुए वक़्त पर पहुँचा और उसके रब ने उससे बात की तो उसने दुआ की कि “ऐ रब! मुझे देखने की ताक़त दे कि मैं तुझे देखूँ।” फ़रमाया, “तू मुझे नहीं देख सकता। हाँ, ज़रा सामने के पहाड़ की तरफ़ देख, अगर वह अपनी जगह क़ायम रह जाए तो ज़रूर तू मुझे देख सकेगा।” चुनाँचे जब उसके रब ने पहाड़ पर तजल्ली की (आलोकित हुआ) तो उसे चकनाचूर कर दिया और मूसा ग़श खाकर गिर पड़ा। जब होश आया तो बोला, “पाक है तेरी ज़ात (सत्ता), मैं तेरे सामने तौबा करता हूँ और सबसे पहला ईमान लोनेवाला मैं हूँ।”
قَالَ يَٰمُوسَىٰٓ إِنِّي ٱصۡطَفَيۡتُكَ عَلَى ٱلنَّاسِ بِرِسَٰلَٰتِي وَبِكَلَٰمِي فَخُذۡ مَآ ءَاتَيۡتُكَ وَكُن مِّنَ ٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 135
(144) फ़रमाया, “ऐ मूसा! मैंने तमाम लोगों पर तरजीह देकर तुझे चुना कि मेरी पैग़म्बरी करे और मुझसे हमकलाम हो (यानी बातचीत करे) । तो जो कुछ मैं तुझे दूँ, उसे ले और शुक्र अदा कर।”
وَكَتَبۡنَا لَهُۥ فِي ٱلۡأَلۡوَاحِ مِن كُلِّ شَيۡءٖ مَّوۡعِظَةٗ وَتَفۡصِيلٗا لِّكُلِّ شَيۡءٖ فَخُذۡهَا بِقُوَّةٖ وَأۡمُرۡ قَوۡمَكَ يَأۡخُذُواْ بِأَحۡسَنِهَاۚ سَأُوْرِيكُمۡ دَارَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 136
(145) इसके बाद मूसा को ज़िन्दगी के हर शोबे (भाग) के बारे में नसीहत और हर पहलू के बारे में वाज़ेह हिदायत तख़्तियों पर लिखकर दे दी101 और उससे कहा, “इन हिदायतों को मज़बूत हाथों से संभाल और अपनी क़ौम को हुक्म दे कि इनके बेहतर मफ़हूम की पैरवी करे,102 बहुत जल्द मैं तुम्हें नाफ़रमानों के घर दिखाऊँगा।103
101. बाइबल में साफ़ तौर से बयान किया गया है कि ये दोनों तख़्तियाँ पत्थर की सिलें थी और उन तख़्तियों पर लिखने का काम बाइबल और क़ुरआन दोनों में अल्लाह तआला से जोड़ा गया है। हमारे पास कोई ऐसा ज़रिआ नहीं जिससे हम यह बात ठीक तौर से जान सकें कि क्या इन तख़्तियों पर लिखने का काम अल्लाह तआला ने सीधे तौर पर अपनी क़ुदरत से किया था, या किसी फ़रिश्ते से यह ख़िदमत ली थी या ख़ुद हज़रत मूसा का हाथ इस्तेमाल किया था। तक़ाबुल (तुलना) के लिए देखें, बाइबल, किताब निष्कासन, अध्याय-31, आयत-183; अध्याय-32, आयत-15, 16 और इस्तिस्ना, अध्याय-5, आयत-6-22)
102. यानी अल्लाह के हुक्मों का वह साफ़ और सीधा मतलब लें जो आसानी से हर वह शख़्स समझ लेगा जिसकी नीयत में बिगाड़ या जिसके दिल में टेढ़ न हो। यह पाबन्दी इसलिए लगाई गई कि जो लोग हुक्मों के सीधे-साधे अलफ़ाज़ में से क़ानूनी एँच-पेंच और हीलों के रास्ते और फ़ितनों की गुंजाइश निकालते हैं, कहीं उनके बाल की खाल निकालने को अल्लाह की किताब की पैरवी न समझ लिया जाए।
103. यानी आगे चलकर तुम लोग उन क़ौमों के आसारे-क़दीमा (पुरातत्त्व) पर से गुज़रोगे जिन्होंने ख़ुदा की बन्दगी व इताअत से मुँह मोड़ा और ग़लत रवैये पर जमे रहे। उन आसार को देखकर तुम्हें ख़ुद मालूम हो जाएगा कि ऐसा रवैया अपनाने का क्या अंजाम होता है।
سَأَصۡرِفُ عَنۡ ءَايَٰتِيَ ٱلَّذِينَ يَتَكَبَّرُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّ وَإِن يَرَوۡاْ كُلَّ ءَايَةٖ لَّا يُؤۡمِنُواْ بِهَا وَإِن يَرَوۡاْ سَبِيلَ ٱلرُّشۡدِ لَا يَتَّخِذُوهُ سَبِيلٗا وَإِن يَرَوۡاْ سَبِيلَ ٱلۡغَيِّ يَتَّخِذُوهُ سَبِيلٗاۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَكَانُواْ عَنۡهَا غَٰفِلِينَ ۝ 137
(146) मैं अपनी निशानियों से उन लोगों की निगाहें फेर दूँगा, जो नाहक़ ज़मीन में बड़े बनते हैं,104 वे भले ही कोई निशानी देख लें, कभी उसपर ईमान न लाएँगे। अगर सीधा रास्ता उनके सामने आए तो उसे न अपनाएँगे और अगर टेढ़ा रास्ता दिखाई दे तो उसपर चल पड़ेंगे, इसलिए कि उन्होंने हमारी निशानियों को झुठलाया और उनसे बेपरवाई करते रहे।
104. यानी मेरा क़ानूने-फ़ितरत (प्राकृतिक नियम) यही है कि ऐसे लोग किसी इबरतनाक चीज़ से इबरत और किसी सबक़आमोज़ (शिक्षाप्रद) चीज़ से सबक़ हासिल नहीं कर सकते। ‘बड़ा बनना’ या ‘तकब्बुर (घमण्ड) करना’ क़ुरआन मजीद इस मानी में इस्तेमाल करता है कि बन्दा अपने आपको बन्दगी के मक़ाम से बहुत ऊँचा समझने लगे और ख़ुदा के हुक्मों की कुछ परवाह न करे, और ऐसा रवैया अपनाए मानो कि वह न ख़ुदा का बन्दा है और न ख़ुदा उसका रब है। इस ख़ुदसरी और सरकशी की कोई हक़ीक़त एक ग़लत और नामुनासिब घमण्ड के सिवा कुछ नहीं है, क्योंकि ख़ुदा की ज़मीन में रहते हुए एक बन्दे को किसी तरह यह हक़ पहुँचता ही नहीं कि किसी और का बन्दा बनकर रहे, इसी लिए कहा कि, “वे बिना किसी हक़ के धरती में बड़े बनते हैं।"
وَٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَلِقَآءِ ٱلۡأٓخِرَةِ حَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡۚ هَلۡ يُجۡزَوۡنَ إِلَّا مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 138
(147) हमारी निशानियों को जिस किसी ने झुठलाया और आख़िरत की पेशी का इनकार किया, उसके सारे आमाल (कर्म) अकारथ हो गए।105 क्या लोग इसके सिवा कुछ और बदला पा सकते हैं कि जैसा करें वैसा भरें?"
105. बरबाद हो गए यानी फले-फूले नहीं, वेफ़ायदा और बेकार निकले। इसलिए कि ख़ुदा के यहाँ इनसानी कोशिश व अमल के कामयाब होने का दारोमदार बिलकुल दो बातों पर है। एक यह कि वह कोशिश व अमल ख़ुदा के शरई क़ानून की पाबन्दी में हो। दूसरी यह कि इस कोशिश व अमल में दुनिया के बजाय आख़िरत की कामयाबी मक़सद हो। ये दो शर्ते जहाँ पूरी न होंगी वहाँ लाज़िमी तौर पर किया-धरा अकारथ जाएगा। जिसने ख़ुदा से हिदायत लिए बग़ैर बल्कि उससे मुँह मोड़कर बग़ावती अंदाज़ मैं दुनिया में काम किया, ज़ाहिर है कि वह ख़ुदा से किसी अज्र की उम्मीद रखने का किसी तरह हक़दार नहीं हो सकता। और जिसने सब कुछ दुनिया ही के लिए किया, और आख़िरत के लिए कुछ न किया, खुली बात है कि आख़िरत में उसे कोई फल पाने की उम्मीद न रखनी चाहिए और कोई वजह नहीं कि वहाँ वह किसी तरह का फल पाए। अगर मेरी अपनी ज़मीन को (जिसका मैं मालिक हूँ) कोई शख़्स मेरी मरज़ी के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करता रहा है तो वह मुझसे सज़ा पाने के सिवा आख़िर और क्या पाने का हक़दार हो सकता है? और अगर उस ज़मीन पर अपने ग़ासिबाना (अनाधिकृत) क़ब्ज़े के ज़माने में उसने सारा काम ख़ुद ही इस इरादे से किया हो कि जब तक अस्ल मालिक उसकी बेजा जुर्रत और हरकत (दुस्साहस) की अनदेखी कर रहा है, उसी वक़्त तक वह उससे फ़ायदा उठाएगा और मालिक के क़ब्ज़े में ज़मीन वापस चली जाने के बाद वह ख़ुद भी किसी फ़ायदे की उम्मीद नहीं रखता है, तो आख़िर क्या वजह है कि मैं उस नाजाइज़ क़ब्ज़ा करनेवाले से अपनी ज़मीन वापस लेने के बाद ज़मीन की पैदावार में से कोई हिस्सा ख़ाहमख़ाह उसे दूँ?
وَٱتَّخَذَ قَوۡمُ مُوسَىٰ مِنۢ بَعۡدِهِۦ مِنۡ حُلِيِّهِمۡ عِجۡلٗا جَسَدٗا لَّهُۥ خُوَارٌۚ أَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّهُۥ لَا يُكَلِّمُهُمۡ وَلَا يَهۡدِيهِمۡ سَبِيلًاۘ ٱتَّخَذُوهُ وَكَانُواْ ظَٰلِمِينَ ۝ 139
(148) मूसा के पीछे106 उसकी क़ौम के लोगों ने अपने गहनों से एक बछड़े का पुतला बनाया, जिसमें से बैल की-सी आवाज़ निकलती थी। क्या उन्हें नज़र न आता था कि वह न उनसे बोलता है, न किसी मामले में उनकी रहनुमाई करता है? मगर फिर भी उन्होंने उसे माबूद बना लिया, और वे बड़े ज़ालिम107 थे।
106. यानी उन चालीस दिनों के दौरान में जबकि हज़रत मूसा (अलैहि०) अल्लाह तल्लाह के बुलाने पर बुलाने पर सीना पहाड़ पर गए हुए थे और यह क़ौम पहाड़ के नीचे मैदानुर्राहा में ठहरी हई थी।
107. बनी-इसराईल ने मिस्र में रहते हुए मिस्रवालों से जो बुरे असरात क़ुबूल किए थे, उनमें से यह दूसरी ख़राबी थी जो सामने आई कि मिस्र में गाय की पूजा और उसे मुक़द्दस समझने का जो रिवाज था उससे यह क़ौम इतनी ज़्यादा मुतास्सिर हो चुकी थी कि क़ुरआन कहता है, “उनके दिलों में बछड़ा बसकर रह गया था।” सबसे ज़्यादा हैरत की बात यह है कि अभी मिस्र से निकले हुए उनको सिर्फ़ तीन महीने ही गुज़रे थे। समुद्र का फटना, फ़िरऔन का डूबना, इन लोगों का ख़ैरियत के साथ उस ग़ुलामी के बन्धन से निकल आना जिसके टूटने की कोई उम्मीद न थी और इस सिलसिले के दूसरे वाक़िआत अभी बिलकुल ताज़ा थे, और उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि यह जो कुछ हुआ सिर्फ़ अल्लाह की क़ुदरत से हुआ है, किसी दूसरे की ताक़त और कोशिश का इसमें कुछ दख़ल न था। मगर इसपर भी उन्होंने पहले तो पैग़म्बर से एक बनावटी ख़ुदा की माँग की और फिर पैग़म्बर के पीठ मोड़ते ही ख़ुद एक बनावटी ख़ुदा बना डाला। यही वह हरकत है जिसपर बनी-इसराईल के कुछ नबियों ने अपनी क़ौम की मिसाल उस बदकार औरत से दी है जो अपने शौहर के सिवा हर दूसरे मर्द से दिल लगाती हो और जो पहली रात में भी बेवफ़ाई से न चूकी हो।
وَلَمَّا سُقِطَ فِيٓ أَيۡدِيهِمۡ وَرَأَوۡاْ أَنَّهُمۡ قَدۡ ضَلُّواْ قَالُواْ لَئِن لَّمۡ يَرۡحَمۡنَا رَبُّنَا وَيَغۡفِرۡ لَنَا لَنَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 140
(149) फिर जब उनके धोखा खाने का तिलिस्म (भ्रम) टूट गया और उन्होंने देख लिया कि हक़ीक़त में वे गुमराह हो गए हैं, तो कहने लगे कि “अगर हमारे रब ने हमपर रहम न किया और हमें माफ़ न किया तो हम बरबाद हो जाएँगे।”
وَلَمَّا رَجَعَ مُوسَىٰٓ إِلَىٰ قَوۡمِهِۦ غَضۡبَٰنَ أَسِفٗا قَالَ بِئۡسَمَا خَلَفۡتُمُونِي مِنۢ بَعۡدِيٓۖ أَعَجِلۡتُمۡ أَمۡرَ رَبِّكُمۡۖ وَأَلۡقَى ٱلۡأَلۡوَاحَ وَأَخَذَ بِرَأۡسِ أَخِيهِ يَجُرُّهُۥٓ إِلَيۡهِۚ قَالَ ٱبۡنَ أُمَّ إِنَّ ٱلۡقَوۡمَ ٱسۡتَضۡعَفُونِي وَكَادُواْ يَقۡتُلُونَنِي فَلَا تُشۡمِتۡ بِيَ ٱلۡأَعۡدَآءَ وَلَا تَجۡعَلۡنِي مَعَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 141
(150) उधर से मूसा ग़ुस्से और रंज में भरा हुआ अपनी क़ौम की तरफ़ पलटा। आते ही उसने कहा, “बहुत बुरी जानशीनी की तुम लोगों ने मेरे बाद! क्या तुमसे इतना सब्र न हो सका कि अपने रब के हुक्म का इन्तिज़ार कर लेते?” और तख़्तियाँ फेंक दीं और अपने भाई (हारून) के सर के बाल पकड़कर उसे खींचा। हारून ने कहा, “ऐ मेरी माँ के बेटे! इन लोगों ने मुझे दबा लिया और क़रीब था कि मुझे मार डालते, तो तू दुश्मनों को मुझपर हँसने का मौक़ा न दे और इस ज़ालिम गरोह के साथ मुझे शामिल न कर।”108
108. यहाँ क़ुरआन मजीद ने बहुत बड़े इलज़ाम से हज़रत हारून (अलैहि०) का बरी होना साबित किया है, जो यहूदियों ने ज़बरदस्ती उनपर थोप रखा था। बाइबल में बछड़े की परस्तिश और पूजा का क़िस्सा इस तरह बयान किया गया है कि जब हज़रत मूसा (अलैहि०) को पहाड़ से उतरने में देर लगी तो बनी-इसराईल ने बेसब्र होकर हज़रत हारून से कहा कि हमारे लिए एक माबूद बना दो, और हज़रत हारून ने उनकी माँग के मुताबिक़ सोने का एक बछड़ा बना दिया।
يَٰبَنِيٓ ءَادَمَ لَا يَفۡتِنَنَّكُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ كَمَآ أَخۡرَجَ أَبَوَيۡكُم مِّنَ ٱلۡجَنَّةِ يَنزِعُ عَنۡهُمَا لِبَاسَهُمَا لِيُرِيَهُمَا سَوۡءَٰتِهِمَآۚ إِنَّهُۥ يَرَىٰكُمۡ هُوَ وَقَبِيلُهُۥ مِنۡ حَيۡثُ لَا تَرَوۡنَهُمۡۗ إِنَّا جَعَلۡنَا ٱلشَّيَٰطِينَ أَوۡلِيَآءَ لِلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 142
(27) ऐ आदम की औलाद! ऐसा न हो कि शैतान तुम्हें फिर उसी तरह फ़ितने में डाल दे, जिस तरह उसने तुम्हारे माँ-बाप को जन्नत से निकलवाया था और उनके लिबास उनपर से उतरवा दिए थे; ताकि उनकी शर्मगाहें एक-दूसरे के सामने खोले। वह और उसके साथी तुम्हें ऐसी जगह से देखते हैं जहाँ से तुम उन्हें नहीं देख सकते। इन शैतानों को हमने उन लोगों का सरपरस्त बना दिया है जो ईमान नहीं लाते।16
16. इन आयतों में जो कुछ कहा गया है उससे कुछ अहम हक़ीक़तें निखरकर सामने आ जाती हैं— पहली यह कि लिबास इनसान के लिए बनावटी चीज़ नहीं, बल्कि इनसानी फ़ितरत की एक अहम माँग है। अल्लाह तआला ने इनसान के जिस्म पर जानवरों की तरह कोई परदा पैदाइशी तौर पर नहीं रखा, बल्कि हया व शर्म का एहसास उसकी फ़ितरत में रख दिया। उसने इनसान के लिए उसके आज़ाए-सिनफ़ी (यौनांगों) को सिर्फ़ यौन-अंग ही नहीं बनाया बल्कि 'सौअत' भी बनाया जिसके मानी अरबी ज़बान में ऐसी चीज़ के हैं जिसको ज़ाहिर करना आदमी नापसन्द करे। फिर इस फ़ितरी शर्म के तक़ाज़े को पूरा करने के लिए उसने कोई बना-बनाया लिबास इनसान को नहीं दे दिया, बल्कि उसकी फ़ितरत में लिबास की ज़रूरत डाल दी गई (हमने तुम पर लिबास उतारा— आयत-26) ताकि वह अपनी अक़्ल से काम लेकर अपनी फ़ितरत की इस माँग को समझे और फिर अल्लाह की पैदा की हुई चीज़ों से काम लेकर अपने लिए लिबास तैयार करे। दूसरी यह कि इस फ़ितरी माँग के मुताबिक़ इनसान के लिए लिबास की अख़लाक़ी ज़रूरत सबसे पहले है, यानी यह कि वह अपने जिस्म के छिपाने लायक़ हिस्सों को ढाँके। और उसकी तबई (फ़ितरी) ज़रूरत इसके बाद है यानी यह कि उसका लिबास उसके लिए ‘रीश' (जिस्म की आराइश और मौसम के असरात से बदन की हिफ़ाज़त का ज़रिआ) हो। इस मामले में भी फ़ितरी तौर पर इनसान का हाल जानवरों के बिलकुल उलट है। उनके लिए परदे की अस्ल ग़रज़ सिर्फ़ उसका ‘रीश' होना है। रहा उनका शर्मगाहों को ढाँकना तो उनके आज़ाए-जिंसी (यौनांग) सिरे से ‘सौअत' ही नहीं हैं कि उन्हें छिपाने के लिए जानवरों की फ़ितरत में कोई जज़्बा मौजूद होता और उसका तक़ाज़ा पूरा करने के लिए उनके जिस्मों पर कोई लिबास पैदा किया जाता। लेकिन जब इनसानों ने शैतान की रहनुमाई क़ुबूल की तो मामला फिर उलट गया। उसने अपने उन शागिर्दो को इस ग़लतफ़हमी में डाल दिया कि तुम्हारे लिए लिबास की ज़रूरत बिलकुल उसी तरह है जिस तरह जानवरों को मौसम के असर से बच्चने और ख़ूबसूरत दिखने के लिए 'रीश' (बालों) की ज़रूरत है, रहा उसका सौअत' (शर्मगाह) को छिपानेवाली चीज़ होना, तो यह बिलकुल कोई हैसियत नहीं रखता, बल्कि जिस तरह जानवरों के जिंसी हिस्से ‘सौअत' नहीं हैं उसी तरह तुम्हारे ये हिस्से भी ‘सौअत' नहीं, सिर्फ़ जिंसी हिस्से ही हैं। तीसरी यह कि इनसान के लिए लिबास का सिर्फ़ सतरपोशी का ज़रिआ होना और उसकी ख़ूबसूरती व हिफ़ाज़त का साधन होना ही काफ़ी नहीं है, बल्कि हक़ीक़त में इस मामले में जिस भलाई तक इनसान को पहुँचना चाहिए वह यह है कि उसका लिबास तक़्वा का लिबास हो, यानी पूरी तरह सतर को छिपानेवाला भी हो, ज़ीनत में भी हद से बढ़ा हुआ या आदमी की हैसियत से गिरा हुआ न हो, फ़ख़्र व ग़ुरूर और अपने को बड़ा ज़ाहिर करने और दिखावे की शान के लिए भी न हो, और फिर उन ज़ेहनी बीमारियों की नुमाइन्दगी भी न करता हो जिनकी बिना पर मर्द ज़नानापन इख़्तियार करते हैं। औरतें मर्दानापन की नुमाइश करने लगती हैं, और एक क़ौम दूसरी क़ौम के जैसी बनने की कोशिश करके ख़ुद अपनी रुसवाई का ज़िन्दा इश्तिहार बन जाती है। लिबास के मामले में उस भलाई तक पहुँचना जो कि इसका अस्ल मक़सद है, वह तो किसी तरह उन लोगों के बस में है ही नहीं जिन्होंने पैग़म्बरों (अलैहि०) पर ईमान लाकर अपने आपको बिलकुल ख़ुदा की रहनुमाई के हवाले नहीं कर दिया है। जब वे ख़ुदा की रहनुमाई क़ुबूल करने से इनकार कर देते हैं तो शैतान उनके सरपरस्त बना दिए जाते हैं, फिर ये शैतान उनको किसी न किसी ग़लती में मुब्तला करके ही छोड़ते हैं। चौथी यह कि लिबास का मामला भी अल्लाह की उन बेशुमार निशानियों में से एक है जो दुनिया में चारों तरफ़ फैली हुई हैं और हक़ीक़त तक पहुँचने में इनसान की मदद करती हैं, शर्त यह है कि इनसान उनसे ख़ुद सबक़ लेना चाहे। ऊपर जिन हक़ीक़तों की तरफ़ हमने इशारा किया है उन्हें अगर ग़ौर से देखा जाए तो यह बात आसानी से समझ में आ सकती है कि लिबास किस हैसियत से अल्लाह तआला का एक अहम् निशान है।
وَإِذَا فَعَلُواْ فَٰحِشَةٗ قَالُواْ وَجَدۡنَا عَلَيۡهَآ ءَابَآءَنَا وَٱللَّهُ أَمَرَنَا بِهَاۗ قُلۡ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَأۡمُرُ بِٱلۡفَحۡشَآءِۖ أَتَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 143
(28) ये लोग जब कोई शर्मनाक काम करते हैं तो कहते हैं, हमने अपने बाप-दादा को इसी तरीक़े पर पाया है और अल्लाह ही ने हमें ऐसा करने का हुक्म दिया है।17 इनसे कहो, अल्लाह बेशर्मी का हुक्म कभी नहीं दिया करता।18 क्या तुम अल्लाह का नाम लेकर वे बातें कहते हो जिनके बारे में तुम्हें जानकारी नहीं है (कि वे अल्लाह की तरफ़ से हैं?)
17. इशारा है अरबवालों के बेलिबास होकर (काबा का) तवाफ़ करने की तरफ़, जिसका हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं। वे लोग इसको एक मज़हबी काम समझकर करते थे और उनका ख़याल था की ख़ुदा ने यह हुक्म दिया है।
18. बज़ाहिर यह एक बहुत ही मुख़्तसर-सा जुमला है, मगर हक़ीक़त में इसमें क़ुरआन मजीद ने उन लोगों के जाहिलाना अक़ीदों के ख़िलाफ़ एक बहुत बड़ी दलील पेश की है। दलील के अन्दाज़ (तर्क-शैली) को समझने के लिए दो बातें पहले समझ लेनी चाहिएँ— एक यह कि अरब के लोग अगरचे अपनी कुछ मज़हबी रस्मों में बेलिबास हो जाते थे और इसे एक मुक़द्दस मज़हबी काम समझते थे, लेकिन नंगेपन का अपने में एक शर्मनाक काम होना ख़ुद वे भी मानते थे। चुनाँचे कोई शरीफ़ और इज़्ज़तदार अरब इस बात को पसन्द न करता था कि किसी मुहज़्ज़ब मजलिस में, या बाज़ार में, या अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के दरमियान बेलिबास हो। दूसरी यह कि वे लोग नंगेपन को शर्मनाक जानने के बावजूद एक मज़हबी रस्म की हैसियत से अपनी इबादत के मौक़े पर इख़्तियार करते थे और चूँकि अपने मज़हब को ख़ुदा की तरफ़ से समझते थे, इसलिए उनका दावा था कि यह रस्म भी ख़ुदा ही की तरफ़ से मुक़र्रर की हुई है। इसपर क़ुरआन मजीद यह दलील देता है कि जो काम बेशर्मी का है और जिसे तुम ख़ुद भी जानते और मानते हो कि बेशर्मी का काम है उसके बारे में तुम यह कैसे मान लेते हो कि ख़ुदा ने इसका हुक्म दिया होगा। किसी बेशर्मी के काम का हुक्म ख़ुदा की तरफ़ से हरगिज़ नहीं हो सकता, और अगर तुम्हारे मज़हब में ऐसा हुक्म पाया जाता है तो यह इस बात की खुली अलामत है कि तुम्हारा मज़हब ख़ुदा की तरफ़ से नहीं है।
قُلۡ أَمَرَ رَبِّي بِٱلۡقِسۡطِۖ وَأَقِيمُواْ وُجُوهَكُمۡ عِندَ كُلِّ مَسۡجِدٖ وَٱدۡعُوهُ مُخۡلِصِينَ لَهُ ٱلدِّينَۚ كَمَا بَدَأَكُمۡ تَعُودُونَ ۝ 144
(29) ऐ नबी! इनसे कहो, मेरे रब ने तो सच्चाई और इंसाफ़ का हुक्म दिया है, और उसका हुक्म तो यह है कि हर इबादत में अपना रुख़़ ठीक रखो और उसी को पुकारो अपने दीन (धर्म) को उसके लिए ख़ालिस रखकर। जिस तरह उसने तुम्हें अब पैदा किया है उसी तरह तुम फिर पैदा किए जाओगे।19
19. मतलब यह कि ख़ुदा के दीन को तुम्हारी इन बेहूदा रस्मों से क्या ताल्लुक़। उसने जिस दीन की तालीम दी है उसके बुनियादी उसूल तो ये हैं— (1) इनसान अपनी ज़िन्दगी को इनसाफ़ और सच्चाई की बुनियाद पर क़ायम करे। (2) इबादत में अपना रुख़ ठीक रखे, यानी ख़ुदा के सिवा किसी और की बन्दगी की ज़रा-सी मिलावट तक उसकी इबादत में न हो। हक़ीक़ी माबूद (अल्लाह) के सिवा किसी दूसरे की तरफ़ इताअत व ग़ुलामी और इज्ज़ व नियाज़ (विनम्रता) का रुख़ ज़रा न फिरने पाए। (3) रहनुमाई और मदद व हिमायत और निगहबानी व हिफ़ाज़त के लिए ख़ुदा ही से दुआ माँगे, मगर शर्त यह है कि इस चीज़ की दुआ माँगनेवाला आदमी पहले अपने दीन को ख़ुदा के लिए ख़ालिस कर चुका हो। यह न हो कि ज़िन्दगी का सारा निज़ाम तो कुफ़्र व शिर्क और बुराई और ग़ैरों की बन्दगी पर चलाया जा रहा हो और मदद ख़ुदा से माँगी जाए कि ‘ऐ ख़ुदा यह बग़ावत जो हम तुझसे कर रहे हैं इसमें हमारी मदद फ़रमा!’ (4) और इस बात पर यक़ीन रखे कि जिस तरह इस दुनिया में वह पैदा हुआ है उसी तरह एक-दूसरे आलम में भी उसको पैदा किया जाएगा और उसे अपने कामों का हिसाब ख़ुदा को देना होगा।
ٱلَّذِينَ يَتَّبِعُونَ ٱلرَّسُولَ ٱلنَّبِيَّ ٱلۡأُمِّيَّ ٱلَّذِي يَجِدُونَهُۥ مَكۡتُوبًا عِندَهُمۡ فِي ٱلتَّوۡرَىٰةِ وَٱلۡإِنجِيلِ يَأۡمُرُهُم بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَنۡهَىٰهُمۡ عَنِ ٱلۡمُنكَرِ وَيُحِلُّ لَهُمُ ٱلطَّيِّبَٰتِ وَيُحَرِّمُ عَلَيۡهِمُ ٱلۡخَبَٰٓئِثَ وَيَضَعُ عَنۡهُمۡ إِصۡرَهُمۡ وَٱلۡأَغۡلَٰلَ ٱلَّتِي كَانَتۡ عَلَيۡهِمۡۚ فَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِهِۦ وَعَزَّرُوهُ وَنَصَرُوهُ وَٱتَّبَعُواْ ٱلنُّورَ ٱلَّذِيٓ أُنزِلَ مَعَهُۥٓ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 145
(157) (तो आज यह रहमत उन लागों का हिस्सा है) जो इस पैग़म्बर, उम्मी नबी की पैरवी इख़्तियार करें112 जिसका ज़िक्र उन्हें अपने यहाँ तौरात और इंजील में लिखा हुआ मिलता है।113 वह उन्हें नेकी का हुक्म देता है, बुराई से रोकता है, उनके लिए पाक चीज़ें हलाल और नापाक चीज़ें हराम करता है,114 और उनपर से वह बोझ उतारता है जो उनपर लदे हुए थे और उन बन्धनों को खोलता है जिनमें वे जकड़े हुए थे,115 इसलिए जो लोग उसपर ईमान ले आएँ और उसकी हिमायत और मदद करें और उस रौशनी की पैरवी करें जो उसके साथ उतारी गई है, वही कामयाब होनेवाले हैं।
112. हज़रत मूसा (अलैहि०) की दुआ का जवाब ऊपर के जुमले पर ख़त्म हो गया था। उसके बाद अब मौक़े के लिहाज़ से फ़ौरन बनी-इसराईल को मुहम्मद (सल्ल०) की पैरवी की दावत दी गई। है। तक़रीर का मक़सद यह है कि तुमपर ख़ुदा की रहमत उतरने के लिए जो शर्तें मूसा (अलैहि०) के ज़माने में लगाई गई थीं वही आज तक क़ायम हैं और अस्ल में यह उन्हीं शर्तों का तक़ाज़ा है कि तुम इस पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान लाओ। तुमसे कहा गया था कि ख़ुदा की रहमत उन लोगों का हिस्सा है जो नाफ़रमानी से बचें तो आज सबसे बड़ी बुनियादी नाफ़रमानी यह है कि जिस पैग़म्बर को ख़ुदा ने भेजा है उसकी रहनुमाई तस्लीम करने से इनकार किया जाए। लिहाज़ा जब तक इस नाफ़रमानी से परहेज़ न करोगे तक़्वा (परहेज़गारी) की जड़ ही सिरे से क़ायम न होगी, चाहे छोटी-छोटी और ग़ैर-बुनियादी बातों में तुम कितना ही तक़्वा करते रहो। तुमसे कहा गया था कि अल्लाह की रहमत में से हिस्सा पाने के लिए ज़कात भी एक शर्त है। तो आज किसी माल के ख़र्च होने पर उस वक़्त तक उसे ज़कात नहीं कहा जा सकता जब तक सच्चे दीन को क़ायम करने की उस जिद्दो-जुहद का साथ न दिया जाए जो इस पैग़म्बर की रहनुमाई में हो रही है। लिहाज़ा जब तक इस राह में माल ख़र्च न करोगे ज़कात की बुनियाद ही ठीक न होगी चाहे, तुम कितनी ही ख़ैरात और नज्रो नियाज़ करते रहो। तुमसे कहा गया था कि अल्लाह ने अपनी रहमत सिर्फ़ उन लोगों के लिए लिखी है जो अल्लाह की आयतों पर ईमान लाएँ। तो आज जो आयतें इस पैग़म्बर पर उतर रही हैं उनका इनकार करके तुम किसी तरह भी अल्लाह की आयतों के माननेवाले नहीं कहला सकते। लिहाज़ा जब तक इनपर ईमान न लाओगे यह आख़िरी शर्त भी पूरी न होगी चाहे तौरात पर ईमान रखने का तुम कितना ही दावा करते रहो। यहाँ नबी (सल्ल०) के लिए ’उम्मी’ का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है जो अपने अन्दर ख़ास मानी रखता है। बनी-इसराईल अपने सिवा दूसरी क़ौमों को उम्मी (Gentiles) कहते थे और उनका क़ौमी फ़न व गुरूर किसी उम्मी की पेशवाई क़ुबूल करना तो दूर, इसपर भी तैयार न था कि उम्मियों के लिए अपने बराबर इनसानी हुक़ूक़ ही मान लें। चुनाँचे क़ुरआन ही में आता है कि वे कहते थे— “उम्मियों (ग़ैर-यहूदी लोगों) के मामले में हमारी कोई पकड़ नहीं है।” (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-75)। तो अल्लाह तआला उन्हीं की इस्तिलाह (परिभाषा) इस्तेमाल करके फ़रमाता है कि अब तो इसी उम्मी के साथ तुम्हारी क़िस्मत जुड़ी है, इसकी पैरवी क़ुबूल करोगे तो मेरी रहमत में से हिस्सा पाओगे वरना वही ग़ज़ब तुम्हारे लिए मुक़द्दर है जिसमें सदियों से गिरफ़्तार चले आ रहे हो।
113. मिसाल के तौर पर तौरात और इंजील के नीचे लिखे मक़ामात देखें, जहाँ मुहम्मद (सल्ल०) के आने के बारे में साफ़ इशारे मौजूद हैं : व्यवस्था विवरण, अध्याय-18, आयत-15 से 19; मत्ती, अध्याय-21, आयत-93 से 46; यूहन्ना, अध्याय-1, आयत-19 से 21; यूहन्ना, अध्याय-14, आयत-15 से 17 और 25 से 30; यूहन्ना, अध्याय-15, आयत-25, 26; यूहन्ना, अध्याय-16, आयत-7 से 15
114. यानी जिन पाक चीज़ों को उन्होंने हराम कर रखा है, वह उन्हें हलाल ठहराता है और जिन नापाक चीज़ों को ये लोग हलाल किए बैठे हैं उन्हें वह हराम ठहराता है।
115. यानी उनके फ़क़ीहों (धर्म-शास्त्रियों) ने क़ानून में बाल की खाल निकाल-निकालकर, उनके रूहानी पेशवाओं ने अपनी ख़ुद ओढ़ी हुई परहेज़गारी में हद से आगे बढ़ जाने से, और उनके जाहिल अवाम ने अपने अंधविश्वासों और ख़ुद गड़े हुए क़ायदे-क़ानूनों से उनकी ज़िन्दगी को जिन बोझों तले दबा रखा है और जिन जकड़बन्दियों में कस रखा है, यह पैग़म्बर वे सारे बोझ उतार देता है और वे तमाम बन्दिशें तोड़कर ज़िन्दगी को आज़ाद कर देता है।
قُلۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِنِّي رَسُولُ ٱللَّهِ إِلَيۡكُمۡ جَمِيعًا ٱلَّذِي لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ يُحۡيِۦ وَيُمِيتُۖ فَـَٔامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِ ٱلنَّبِيِّ ٱلۡأُمِّيِّ ٱلَّذِي يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَكَلِمَٰتِهِۦ وَٱتَّبِعُوهُ لَعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ ۝ 146
(158) ऐ नबी! कहो कि “ऐ इनसानो! मैं तुम सबकी तरफ़ उस ख़ुदा का पैग़म्बर हूँ जो ज़मीन और आसमानों की बादशाही का मालिक है, उसके सिवा कोई ख़ुदा नहीं है, वही ज़िन्दगी बख़्शता है और वही मौत देता है, तो ईमान लाओ अल्लाह पर और उसके भेजे हुए उम्मी नबी पर जो अल्लाह और उसके हुक्मों को मानता है, और पैरवी करो उसकी, उम्मीद है कि तुम सीधा रास्ता पा लोगे।"
وَمِن قَوۡمِ مُوسَىٰٓ أُمَّةٞ يَهۡدُونَ بِٱلۡحَقِّ وَبِهِۦ يَعۡدِلُونَ ۝ 147
(159) मूसा116 की क़ौम में एक गरोह ऐसा भी था जो हक़ के मुताबिक़ हिदायत करता और हक़ ही के मुताबिक़ इनसाफ़ करता था।117
116. बात का सिलसिला तो अस्ल में बनी-इसराईल के बारे में चल रहा था। बीच में मौत के लिहाज़ से मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी पर ईमान लाने की दावत अलग से एक बात के तौर पर आ गई। अब फिर तक़रीर का रुख़ उसी मज़मून (विषय) की तरफ़ फिर रहा है जो पिछली बहुत-सी आयतों से बयान हो रहा है।
117. ज़्यादातर तर्जमा करनेवालों ने इस आयत का तर्जमा यूँ किया है कि मूसा की क़ौम में एक गरोह ऐसा है जो हक़ के मुताबिक़ हिदायत और इनसाफ़ करता है, यानी उनके नज़दीक इस आयत में बनी-इसराईल की वह अख़लाक़ी व ज़ेहनी हालत बयान की गई है जो क़ुरआन उतरने के वक़्त थी। लेकिन मौक़ा व महल (सन्दर्भ) को देखते हुए हम इस बात को तरजीह (प्राथमिकता) देते हैं कि इस आयत में बनी-इसराईल का वह हाल बयान हुआ है जो हज़रत मूसा (अलैहि०) के ज़माने में था, और उसका मक़सद यह ज़ाहिर करना है कि जब इस क़ौम में बछड़े की पूजा का जुर्म किया गया और ख़ुदा की तरफ़ से इसपर पकड़ हुई तो उस वक़्त सारी क़ौम बिगड़ी हुई न थी, बल्कि उसमें एक अच्छी-ख़ासी तादाद नेक लोगों की मौजूद थी।
وَقَطَّعۡنَٰهُمُ ٱثۡنَتَيۡ عَشۡرَةَ أَسۡبَاطًا أُمَمٗاۚ وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَىٰٓ إِذِ ٱسۡتَسۡقَىٰهُ قَوۡمُهُۥٓ أَنِ ٱضۡرِب بِّعَصَاكَ ٱلۡحَجَرَۖ فَٱنۢبَجَسَتۡ مِنۡهُ ٱثۡنَتَا عَشۡرَةَ عَيۡنٗاۖ قَدۡ عَلِمَ كُلُّ أُنَاسٖ مَّشۡرَبَهُمۡۚ وَظَلَّلۡنَا عَلَيۡهِمُ ٱلۡغَمَٰمَ وَأَنزَلۡنَا عَلَيۡهِمُ ٱلۡمَنَّ وَٱلسَّلۡوَىٰۖ كُلُواْ مِن طَيِّبَٰتِ مَا رَزَقۡنَٰكُمۡۚ وَمَا ظَلَمُونَا وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 148
(160) और हमने उस क़ौम को बारह घरानों में बाँटकर उन्हें मुस्तक़िल गरोहों की शक्ल दे दी थी।118 और जब मूसा से उसकी क़ौम ने पानी माँगा तो हमने उसको इशारा किया कि फ़ुलाँ चट्टान पर अपनी लाठी मारो, चुनाँचे उस चट्टान से यकायक बारह सोते फूट निकले और हर गरोह ने अपने पानी लेने की जगह तय कर ली। हमने उनपर बादल का साया किया और उनपर मन्न व सलवा उतारा119 — खाओ वे पाक चीज़ें जो हमने तुमको दी हैं, मगर इसके बाद उन्होंने जो कुछ किया वह हमपर ज़ुल्म नहीं किया, बल्कि आप अपने ही ऊपर ज़ुल्म करते रहे।
118. इशारा है बनी-इसराईल की उस तंज़ीम (संगठन) की तरफ़ जो सूरा-5 माइदा, आयत-12 में बयान हुई है और जिसकी पूरी तफ़सील बाइबल की किताब 'गिनती' में मिलती है। इससे मालूम होता है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने अल्लाह तआला के हुक्म से सीना पहाड़ के जंगल (बयाबान) में बनी-इसराईल की मर्दुम-शुमारी (जनगणना) कराई, फिर उनके 12 घरानों को जो हज़रत याक़ूब के दस बेटों और हज़रत यूसूफ़ के दो बेटों की नस्ल से थे, अलग-अलग गरोहों की शक्ल में मुनज़्ज़म (संगठित) किया, और हर गरोह पर एक-एक सरदार मुक़र्रर किया; ताकि वह उनके अन्दर अख़लाक़ी, मज़हबी, सामाजिक और फ़ौजी हैसियत से नज़्म (अनुशासन) क़ायम रखे और शरीअत के हुक्मों को लागू करता रहे। और हज़रत याक़ूब के बारहवें बेटे लावी की औलाद को जिसकी नस्ल से हज़रत मूसा और हारून थे, एक अलग जमाअत की शक्ल में मुनज़्ज़म किया; ताकि वे उन सब क़बीलों के बीच हक़ (सत्य) का दीप जलाए रखने की ख़िदमत अंजाम देती रहे।
119. ऊपर जिस तनज़ीम (संगठन) का ज़िक्र किया गया है उसमें वह उन एहसानों में से एक थी जो अल्लाह ने बनी-इसराईल पर किए। इसके बाद अब और तीन एहसानों का ज़िक्र किया गया है। एक यह कि प्रायद्वीप सीना के रेगिस्तानी इलाक़े में उनके लिए पानी पहुँचाने का ग़ैर-मामूली इन्तिज़ाम किया गया। दूसरा यह कि उनको धूप की तपिश से बचाने के लिए आसमान पर बादल छा दिया गया। तीसरा यह कि उनके लिए ख़ुराक (खाद्य-सामग्री) पहुँचाने का ग़ैर-मामूली इन्तिज़ाम 'मन्न' व 'सलवा' उतारने की शक्ल में किया गया। ज़ाहिर है कि अगर ज़िन्दगी की इस तीन सबसे अहम ज़रूरतों का बन्दोबस्त न किया जाता तो यह क़ौम जिसकी तादाद कई लाख तक पहुँची हुई थी, उस इलाक़े में भूख-प्यास से बिलकुल ख़त्म हो जाती। आज भी कोई शख़्स वहाँ जाए तो यह देखकर हैरान रह जाएगा कि अगर यहाँ पन्द्रह-बीस लाख आदमियों का एक बड़ा ही शानदार काफ़िला अचानक आ ठहरे तो उसके लिए पानी, खाने और साए का आख़िर क्या इन्तिज़ाम हो सकता है। मौजूदा ज़माने में पूरे प्रायद्वीप की आबादी 55 हज़ार से ज़्यादा नहीं है और आज इस इक्कीसवीं सदी में भी अगर कोई हुकूमत वहाँ पाँच-छः लाख फ़ौज ले जाना चाहे तो उसका इन्तिज़ाम संभालनेवालों को खाने-पीने की चीज़ें मुहय्या कराने की फ़िक्र में सर में दर्द हो जाएगा। यही वजह है कि मौजूदा ज़माने के बहुत-से तहक़ीक़ात करनेवालों (शोधकर्ताओं) ने, जो न आसमानी किताब को मानते हैं और न मोजिज़ों को तस्लीम करते हैं, यह मानने से इनकार कर दिया है कि बनी-इसराईल सीना के प्रायद्वीप के उस हिस्से से गुज़रे होंगे जिसका ज़िक्र बाइबल और क़ुरआन में हुआ है। उनका गुमान है कि शायद ये वाक़िआत फ़िलस्तीन के दक्षिणी और अरब के उत्तरी हिस्से में पेश आए होंगे। प्रायद्वीप सीना के क़ुदरती और आर्थिक भौगोलिक हालात को देखते हुए वह इस बात को तसव्वुर से बिलकुल परे समझते हैं कि इतनी बड़ी क़ौम यहाँ सालों एक-एक जगह पड़ाव करती हुई गुज़र सकी थी, ख़ास तौर से जबकि मिस्र की तरफ़ से उसकी रसद (खाद्य सामग्री) के आने का रास्ता भी कटा हुआ था और दूसरी तरफ़ ख़ुद उस प्रायद्वीप के पूरब और उत्तर में 'अमालिक़ा' के क़बीले उसको रोकने पर आमादा थे। इन बातों को सामने रखने से सही तौर पर अन्दाज़ा किया जा सकता है कि इन कुछ मुख़्तसर (संक्षिप्त) आयतों में अल्लाह तआला ने बनी-इसराईल पर अपने जिन एहसानों का ज़िक्र किया है वे हक़ीक़त में कितने बड़े एहसान थे, और उसके बाद यह कितनी बड़ी एहसान-फ़रामोशी और नाशुक्री थी कि अल्लाह की मेहरबानियों की ऐसी खुली और साफ़ निशानियाँ देख लेने के बाद भी यह क़ौम लगातार उन नाफ़रमानियों और ग़द्दारियों को करती रही जिनसे उसकी तारीख़़ (इतिहास) भरी पड़ी है। (तक़ाबुल के लिए देखें— सूरा-2 बकरा, हाशिया-72, 73 और 76)
وَإِذۡ قِيلَ لَهُمُ ٱسۡكُنُواْ هَٰذِهِ ٱلۡقَرۡيَةَ وَكُلُواْ مِنۡهَا حَيۡثُ شِئۡتُمۡ وَقُولُواْ حِطَّةٞ وَٱدۡخُلُواْ ٱلۡبَابَ سُجَّدٗا نَّغۡفِرۡ لَكُمۡ خَطِيٓـَٰٔتِكُمۡۚ سَنَزِيدُ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 149
(161) याद करो120 वह वक़्त जब उनसे कहा गया था कि “इस बस्ती में जाकर बस जाओ और इसकी पैदावार से अपनी मरज़ी के मुताबिक़ रोज़ी हासिल करो और 'हित्ततुन-हित्ततुन' कहते जाओ और शहर के दरवाज़े में सजदा करते हुए दाख़िल हो, हम तुम्हारी ग़लतियाँ माफ़ करेंगे और नेक रवैया रखनेवालों पर और ज़्यादा मेहरबानी करेंगे।”
120. अब बनी-इसराईल की तारीख़ (इतिहास) के उन वाक़िआत की तरफ़ इशारा किया जा रहा है, जिनसे ज़ाहिर होता है कि ऊपर बयान किए गए अल्लाह तआला के एहसानों का जवाब ये लोग कैसी-कैसी मुजरिमाना बेबाकियों के साथ देते रहे और फिर किस तरह लगातार तबाही के गढ़े में गिरते चले गए।
فَبَدَّلَ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنۡهُمۡ قَوۡلًا غَيۡرَ ٱلَّذِي قِيلَ لَهُمۡ فَأَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمۡ رِجۡزٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ بِمَا كَانُواْ يَظۡلِمُونَ ۝ 150
(162) मगर जो लोग उनमें से ज़ालिम थे, उन्होंने उस बात को जो उनसे कही गई थी, बदल डाला, और नतीजा यह निकला कि हमने उनके ज़ुल्म के बदले में उनपर आसमान से अज़ाब भेज दिया।121
121. तशरीह के लिए देखें— सूरा-2 बक़रा, हाशिया-74,75
وَسۡـَٔلۡهُمۡ عَنِ ٱلۡقَرۡيَةِ ٱلَّتِي كَانَتۡ حَاضِرَةَ ٱلۡبَحۡرِ إِذۡ يَعۡدُونَ فِي ٱلسَّبۡتِ إِذۡ تَأۡتِيهِمۡ حِيتَانُهُمۡ يَوۡمَ سَبۡتِهِمۡ شُرَّعٗا وَيَوۡمَ لَا يَسۡبِتُونَ لَا تَأۡتِيهِمۡۚ كَذَٰلِكَ نَبۡلُوهُم بِمَا كَانُواْ يَفۡسُقُونَ ۝ 151
(163) और ज़रा इनसे उस बस्ती का हाल भी पूछो जो समन्दर के किनारे पर थी।122 इन्हें याद दिलाओ वह घटना कि वहाँ के लोग सब्त (सनीचर) के दिन अल्लाह के हुक्म के ख़िलाफ़ काम करते थे और यह कि मछलियाँ सब्त ही के दिन उभर-उभरकर सतह पर उनके सामने आती थीं।123 और सब्त के सिवा बाक़ी दिनों में नहीं आती थीं। यह इसलिए होता था कि हम उनकी नाफ़रमानियों के सबब उनको आज़माइश में डाल रहे थे।124
122. तहक़ीक़ करनेवालों का ज़्यादा रुझान इस तरफ़ है कि यह मक़ाम 'ऐला' या 'ऐलात' या 'ऐलवत' था जहाँ अब इसराईल की यहूदी रियासत (राज्य) ने इसी नाम की एक बन्दरगाह बनाई है और जिसके क़रीब ही उर्दुन (जार्डन) की मशहूर बन्दरगाह 'अक़बा' है। यह 'क़ुलज़ुम' नाम के समुद्र की उस शाख़ के आख़िरी सिरे पर क़ायम है जो प्रायद्वीप सीना के पूर्वी और अरब के पश्चिमी तट के बीच एक लम्बी खाड़ी की शक्ल में दिखाई देती है। बनी-इसराईल की तरक़्क़ी के ज़माने में यह बड़ा अहम तिजारती मर्कज़ (केन्द्र) था। हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने 'क़ुलज़ुम' समुद्र के अपने जंगी व तिजारती बेड़े का सद्र मक़ाम (मुख्यालय) इसी शहर को बनाया था। जिस वाक़िए की तरफ़ यहाँ इशारा किया गया है उसके बारे में यहूदियों की पाक किताबों में कोई ज़िक्र हमें नहीं मिलता और उनका इतिहास भी इस बारे में ख़ामोश है, मगर क़ुरआन मजीद में जिस अन्दाज़ से इस वाक़िए को यहाँ और सूरा-2 बक़रा में बयान किया गया है उससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि क़ुरआन उतरने के दौर में बनी-इसराईल आम तौर पर इस वाक़िए से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे, और यह हक़ीक़त है कि मदीना के यहूदियों ने, जो नबी (सल्ल०) की मुख़ालफ़त का कोई मौक़ा हाथ से जाने नहीं देते थे, क़ुरआन के इस बयान पर बिलकुल कोई एतिराज़ नहीं किया।
123. ‘सब्त’ हफ़्ता (शनिवार) के दिन को कहते हैं। यह दिन बनी-इसराईल के लिए मुक़द्दस (पाक और क़ाबिले-एहतिराम) ठहराया गया था और अल्लाह तआला ने उसे अपने और इसराईल की औलाद के दरमियान पीढ़ियों तक क़ायम रहनेवाले अह्द का निशान ठहराते हुए ताकीद की थी कि उस दिन कोई दुनियावी काम न किया जाए, घरों में आग तक न जलाई जाए, जानवरों और लौंडी, ग़ुलामों तक से कोई काम न लिया जाए और यह कि जो शख़्स इस ज़ाबिते की ख़िलाफ़वर्ज़ी करे उसे क़त्ल कर दिया जाए। लेकिन बनी-इसराईल ने आगे चलकर इस क़ानून की खुल्लम-खुल्ला ख़िलाफ़वर्जी शुरू कर दी। यर्मियाह नबी के ज़माने में (जो 628 और 586 ई० पू० के बीच गुज़रे हैं) ख़ास यरुशलम के फाटकों से लोग ‘सब्त' के दिन तिजारत का माल वग़ैरा ले-लेकर गुज़रते थे। इसपर यर्मियाह नबी ने ख़ुदा की तरफ़ से यहूदियों को धमकी दी कि अगर तुम लोगों ने शरीअत की इस खुल्लम-खुल्ला ख़िलाफ़वर्ज़ी को न छोड़ा तो यरुशलम को आग के हवाले कर दिया जाएगा। (यर्मियाह, 17:21 से 27) । इसी की शिकायत हिज्रक़ीएल नबी भी करते हैं जिनका दौर 595 और 536 ई० पू० के बीच गुज़रा है। चुनाँचे उनकी किताब में ‘सब्त’ की बेहुरमती (अनादर) को यहूदियों के क़ौमी जुर्मों में से एक बड़ा जुर्म क़रार दिया गया है। (हिज्रक़ीएल, 20:12 से 24) । इन हवालों से यह गुमान किया जा सकता है कि क़ुरआन मजीद यहाँ जिस वाक़िए का ज़िक्र कर रहा है वह भी शायद इसी दौर का वाक़िआ होगा।
124. अल्लाह तआला बन्दों की आज़माइश के लिए जो तरीक़े इख़्तियार करता है उनमें से एक तरीक़ा यह भी है कि जब किसी शख़्स या गरोह के अन्दर फ़रमाँबरदारी से मुहँ मोड़ने और नाफ़रमानी का रुझान बढ़ने लगता है तो उसके सामने नाफ़रमानी के मौक़ों का दरवाज़ा खोल दिया जाता है, ताकि उसके वे मैलान और रुझान जो अन्दर छिपे हुए हैं खुलकर पूरी तरह उजागर हो जाएँ और जिन जुर्मों से वह अपने दामन को ख़ुद दाग़दार करना चाहता है उनसे वह सिर्फ़ इसलिए बचा न रह जाए कि उन्हें करने के मौक़े उसे न मिल रहे हों।
وَإِذۡ قَالَتۡ أُمَّةٞ مِّنۡهُمۡ لِمَ تَعِظُونَ قَوۡمًا ٱللَّهُ مُهۡلِكُهُمۡ أَوۡ مُعَذِّبُهُمۡ عَذَابٗا شَدِيدٗاۖ قَالُواْ مَعۡذِرَةً إِلَىٰ رَبِّكُمۡ وَلَعَلَّهُمۡ يَتَّقُونَ ۝ 152
(164) और इन्हें यह भी याद दिलाओ कि जब उनमें से एक गरोह ने दूसरे गरोह से कहा था कि “तुम ऐसे लोगों को क्यों नसीहत करते हो जिन्हें अल्लाह हलाक करनेवाला या कड़ी सज़ा देनेवाला है” तो उन्होंने जवाब दिया था कि “हम यह सब कुछ तुम्हारे रब के सामने अपने को बेक़ुसूर साबित करने लिए करते हैं और इस उम्मीद पर करते हैं कि शायद ये लोग उसकी नाफ़रमानी से बचने लगें।”
فَلَمَّا نَسُواْ مَا ذُكِّرُواْ بِهِۦٓ أَنجَيۡنَا ٱلَّذِينَ يَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلسُّوٓءِ وَأَخَذۡنَا ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ بِعَذَابِۭ بَـِٔيسِۭ بِمَا كَانُواْ يَفۡسُقُونَ ۝ 153
(165) आख़िरकार जब वे उन हिदायतों को बिलकुल ही भुला बैठे, जो उन्हें याद कराई गई थीं, तो हमने उन लोगों को बचा लिया जो बुराई से रोकते थे और बाक़ी सब लोगों को, जो ज़ालिम थे, उनकी नाफ़रमानियों पर सख़्त अज़ाब में पकड़ लिया।125
125. इस बयान से मालूम हुआ कि उस बस्ती में तीन तरह के लोग मौजूद थे, एक वे जो धड़ल्ले से अल्लाह के हुक्मों की ख़िलाफ़वर्ज़ी कर रहे थे। दूसरे वे जो ख़ुद तो ख़िलाफ़वर्ज़ी नहीं करते थे, मगर इस ख़िलाफ़वर्ज़ी को ख़ामोशी के साथ बैठे देख रहे थे और नसीहत करनेवालों से कहते थे कि इन कमबख़्तों को नसीहत करने का क्या फ़ायदा। तीसरे वे जिनकी ईमानी ग़ैरत (स्वाभिमान) अल्लाह की हदों की इस खुल्लम-खुल्ला बेहुरमती को बरदाश्त न कर सकती थी और वे यह सोचकर नेकी का हुक्म देने और बुराई से रोकने में सरगर्म (सक्रिय) थे कि शायद वे मुजरिम लोग उनकी नसीहत से सीधे रास्ते पर आ जाएँ और अगर वे सीधे रास्ते पर न भी आएँ, तब भी हम अपनी हद तक तो अपना फ़र्ज़ अदा करके ख़ुदा के सामने बरी होने का सुबूत पेश कर ही दें। इस सूरते-हाल में जब उस बस्ती पर अल्लाह का अज़ाब आया तो क़ुरआन मजीद कहता है कि इन तीनों गरोहों में से सिर्फ़ तीसरा गरोह ही उससे बचाया गया; क्योंकि उसी ने ख़ुदा के सामने (लोगों को सुधार न पाने की) अपनी मजबूरी पेश करने की फ़िक्र की थी और वही था जिसने (दूसरों के जुर्मों से) ख़ुद के बरी होने का सूबूत जुटा रखा था। बाक़ी दोनों गरोहों की गिनती ज़ालिमों में हुई और वे अपने जुर्म की हद तक अज़ाब में मुब्तला हुए। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले कुछ मुफ़स्सिरों (टीकाकारों) ने यह ख़याल ज़ाहिर किया है कि अल्लाह तआला ने पहले गरोह के अज़ाब में डालने की और तीसरे गरोह के नजात पाने की बात साफ़ तौर से बयान की है, लेकिन दूसरे गरोह के बारे में ख़ामोशी इख़्तियार की है। लिहाज़ा उसके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वह नजात पानेवालों में से था या अज़ाब पानेवालों में से। फिर एक रिवायत इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से यह बयान हुई है कि वे पहले इस बात के क़ायल थे कि दूसरा गरोह अज़ाब में घिरनेवालों में से था, बाद में उनके शागिर्द इकरिमा ने उनको मुत्मइन कर दिया कि दूसरा गरोह नजात पानेवालों में शामिल था। लेकिन क़ुरआन के बयान पर जब हम ग़ौर करते हैं तो मालूम होता है कि हज़रत इब्ने-अब्बास का पहला ख़याल ही सही था। ज़ाहिर है कि किसी बस्ती पर ख़ुदा का अज़ाब आने की सूरत में पूरी बस्ती दो ही गरोहों में बँट सकती है, एक वह जो अज़ाब में मुब्तला हो और दूसरा वह जो बचा लिया जाए। अब अगर क़ुरआन के बताने के मुताबिक़ बचनेवाला गरोह सिर्फ़ तीसरा था, तो ज़रूर ही पहले और दूसरे दोनों गरोह न बचनेवालों में शामिल होंगे। इसी की ताईद “तुम्हारे रब के सामने अपनी मजबूरी पेश करने के लिए” (आयत-164) के जुमले से भी होती है, जिसकी तसदीक़ (पुष्टि) बाद के जुमले में ख़ुद अल्लाह तआला ने कर दी है। इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि जिस बस्ती में खुल्लम-खुल्ला अल्लाह के हुक्मों की ख़िलाफ़वर्ज़ी हो रही हो वह सारी की सारी क़ौम क़ाबिले-गिरफ़्त है और उसका कोई भी वासी सिर्फ़ इस बिना पर पकड़ से नहीं बच सकता कि उसने ख़ुद ख़िलाफ़वर्ज़ी नहीं की, बल्कि उसे ख़ुदा के सामने अपनी सफ़ाई पेश करने के लिए लाज़िमन इस बात का सुबूत पेश करना होगा कि वह अपनी ताक़त भर लोगों के सुधार और हक़ को क़ायम करने की कोशिश करता रहा था। फिर क़ुरआन और हदीस के दूसरे बयानों से भी हमको ऐसा ही मालूम होता है कि इज्तिमाई जराइम (सामाजिक अपराधों) के मामले में अल्लाह का क़ानून यही है। चुनाँचे क़ुरआन में फ़रमाया गया है, “डरो उस फ़ितने से जिसके वबाल में ख़ास तौर से सिर्फ़ वही लोग गिरफ़्तार नहीं होंगे जिन्होंने तुममें से ज़ुल्म किया हो।” (सूरा-8 अनफ़ाल, आयत-25) और इसकी तशरीह में नबी (सल्ल०) फ़रमाते हैं, “अल्लाह तआला ख़ास लोगों के जुर्मों पर आम लोगों को सज़ा नहीं देता जब तक आम लोगों की यह हालत न हो जाए कि वे अपनी आँखों के सामने बुरे काम होते देखें, और वे उन कामों के ख़िलाफ़ अपनी नाराज़ी ज़ाहिर करने की क़ुदरत (सामर्थ्य) रखते हों और फिर भी किसी नाराज़ी का इज़हार न करें। तो जब लोगों का यह हाल हो जाता है तो अल्लाह ख़ास व आम सबको अज़ाब में मुब्तला कर देता है।” (हदीस : मुसनद अहमद) इसके अलावा जो आयतें इस वक़्त हमारे पेशेनज़र हैं उनसे यह भी मालूम होता है कि उस बस्ती पर ख़ुदा का अज़ाब दो क़िस्तों में उतरा था। पहली क़िस्त वह जिसे 'अज़ाबे-बईस' (सख़्त अज़ाब) कहा गया है, और दूसरी क़िस्त वह जिसमें नाफ़रमानी पर अड़े रहनेवालों को बन्दर बना दिया गया। हम ऐसा समझते हैं कि पहली क़िस्त के अज़ाब में पहले दोनों गरोह शामिल थे, और दूसरी क़िस्त का अज़ाब सिर्फ़ पहले गरोह को दिया गया था, (अल्लाह ही बेहतर जानता है, अगर मेरा ख़याल सही है तो यह अल्लाह की तरफ़ से होगा और अगर मैं ग़लती पर हूँ तो यह मेरी अपनी ग़लती होगी। अल्लाह माफ़ करने और रहम करनेवाला है)।
فَلَمَّا عَتَوۡاْ عَن مَّا نُهُواْ عَنۡهُ قُلۡنَا لَهُمۡ كُونُواْ قِرَدَةً خَٰسِـِٔينَ ۝ 154
(166) फिर जब वे पूरी सरकशी के साथ वही काम किए चले गए जिससे उन्हें रोका गया था तो हमने कहा, “बन्दर हो जाओ रुसवा और बेइज़्ज़त।”126
126. तशरीह के लिए देखें— सूरा-2 बक़रा, हाशिया-83 ।
وَإِذۡ تَأَذَّنَ رَبُّكَ لَيَبۡعَثَنَّ عَلَيۡهِمۡ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ مَن يَسُومُهُمۡ سُوٓءَ ٱلۡعَذَابِۗ إِنَّ رَبَّكَ لَسَرِيعُ ٱلۡعِقَابِ وَإِنَّهُۥ لَغَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 155
(167) और याद करो जबकि तुम्हारे रब ने एलान कर दिया127 कि “वह क़ियामत तक बराबर ऐसे लोग बनी-इसराईल पर मुसल्लत करता रहेगा जो उनको सबसे बुरा अज़ाब देंगे।"128 यक़ीनन तुम्हारा रब सज़ा देने में तेज़ है और यक़ीनन वह माफ़ी और रहम से भी काम लेनेवाला है।
127. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'तअज़्ज़-न' इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब तक़रीबन वही है जो नोटिस देने या ख़बरदार कर देने का है।
128. इस बात से बनी-इसराईल को लगभग आठवीं सदी ई० पू० से बराबर ख़बरदार किया जा रहा था। चुनाँचे यहूदियों की मुक़द्दस किताबों के मजमूए (संग्रह) में यशायाह और यर्मियाह और उनके बाद आनेवाले नबियों की तमाम किताबों में इसी बात से ख़बरदार किया गया है। फिर इसी बात से ईसा (अलैहि०) ने उन्हें ख़बरदार किया जैसा कि इनजीलों में उनकी कई तक़रीरों से ज़ाहिर है। आख़िर में क़ुरआन ने इसकी तसदीक़ (पुष्टि) की। अब यह बात क़ुरआन और उससे पहले की आसमानी किताबों की सच्चाई पर एक खुली गवाही है कि उस वक़्त से लेकर आज तक तारीख़ (इतिहास) में कोई दौर ऐसा नहीं गुज़रा है, जिसमें यहूदी क़ौम दुनिया में कहीं न कहीं रौंदी और कुचली न जाती रही हो।
وَقَطَّعۡنَٰهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ أُمَمٗاۖ مِّنۡهُمُ ٱلصَّٰلِحُونَ وَمِنۡهُمۡ دُونَ ذَٰلِكَۖ وَبَلَوۡنَٰهُم بِٱلۡحَسَنَٰتِ وَٱلسَّيِّـَٔاتِ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 156
(168) हमने उनको ज़मीन में टुकड़े-टुकड़े करके बहुत सी क़ौमों में बाँट दिया। कुछ लोग उनमें नेक थे और कुछ उससे अलग। और हम उनको अच्छी और बुरी हालतों से आज़माइश में डालते रहे कि शायद ये पलट आएँ।
فَخَلَفَ مِنۢ بَعۡدِهِمۡ خَلۡفٞ وَرِثُواْ ٱلۡكِتَٰبَ يَأۡخُذُونَ عَرَضَ هَٰذَا ٱلۡأَدۡنَىٰ وَيَقُولُونَ سَيُغۡفَرُ لَنَا وَإِن يَأۡتِهِمۡ عَرَضٞ مِّثۡلُهُۥ يَأۡخُذُوهُۚ أَلَمۡ يُؤۡخَذۡ عَلَيۡهِم مِّيثَٰقُ ٱلۡكِتَٰبِ أَن لَّا يَقُولُواْ عَلَى ٱللَّهِ إِلَّا ٱلۡحَقَّ وَدَرَسُواْ مَا فِيهِۗ وَٱلدَّارُ ٱلۡأٓخِرَةُ خَيۡرٞ لِّلَّذِينَ يَتَّقُونَۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 157
(169) फिर अगली नस्लों के बाद ऐसे नालायक़ लोगों ने उनकी जगह ली जो अल्लाह की किताब के वारिस होकर इस हक़ीर (तुच्छ) दुनिया के फ़ायदे समेटते हैं और कह देते हैं कि उम्मीद है हमें माफ़ कर दिया जाएगा, और अगर दुनिया की वही दौलत सामने आती है तो फिर लपककर उसे ले लेते हैं।129 क्या इनसे किताब का अह्द नहीं लिया जा चुका है कि अल्लाह के नाम पर वही बात कहें जो हक़ हो? और ये ख़ुद पढ़ चुके हैं जो किताब में लिखा है।130 आख़िरत की क़ियामगाह (निवास-स्थान) तो अल्लाह से डरनेवालों के लिए ही बेहतर है।131 क्या तुम इतनी-सी बात नहीं समझते?
129. यानी गुनाह करते हैं और जानते हैं कि गुनाह है, मगर इस भरोसे पर गुनाह करते हैं कि हमारी किसी न किसी तरह बख़्शिश हो ही जाएगी; क्योंकि हम ख़ुदा के चहेते हैं और चाहे हम कुछ भी करें बहरहाल हमारी मग़फ़िरत होनी ज़रूरी है। इसी ग़लतफ़हमी का नतीजा है कि गुनाह करने के बाद न वे शर्मिन्दा होते हैं, न तौबा करते हैं; बल्कि जब फिर वैसे ही गुनाह का मौक़ा आता है तो फिर उसमें पड़ जाते हैं। बदनसीब लोग उस किताब के वारिस हुए जो उनको दुनिया का इमाम (पेशवा) बनानेवाली थी, मगर उनके मन की तंगी और घटिया सोच ने उस क़ीमती और कारगर नुस्ख़े को लेकर दुनिया की मामूली दौलत कमाने से ज़्यादा बुलन्द किसी चीज़ का हौसला न किया और बजाय इसके कि दुनिया में इनसाफ़ और सच्चाई के अलमबरदार और भलाई व सुधार के रहनुमा बनते, सिर्फ़ दुनिया के पुजारी बनकर रह गए।
130. यानी ये ख़ुद जानते हैं कि तौरात में कहीं भी इस बात का ज़िक्र नहीं है कि बनी-इसराईल को बग़ैर किसी शर्त और पूछ-गछ के नजात (मुक्ति) हासिल होगी। न ख़ुदा ने कभी उनसे यह कहा और न उनके पैग़म्बरों ने कभी उनको यह इत्मीनान दिलाया कि तुम जो चाहो करते फिरो, बहरहाल तुम्हारी मग़फ़िरत ज़रूर होगी। फिर आख़िर उन्हें क्या हक़ है कि ख़ुदा से वह बात जोड़ दें जो ख़ुद ख़ुदा ने कभी नहीं कही, हालाँकि उनसे यह अह्द लिया गया था कि ख़ुदा के नाम से हक़ के ख़िलाफ़ कोई बात न कहेंगे।
131. इस आयत के दो तर्जमे हो सकते हैं। एक वह जो हमने क़ुरआन के तर्जमे में इख़्तियार किया है। दूसरा यह कि “ख़ुदा से डरनेवाले लोगों के लिए तो आख़िरत का ठिकाना ही बेहतर है।” पहले तर्जमे के लिहाज़ से मतलब यह होगा कि मग़फ़िरत पर किसी की निजी या ख़ानदानी ठेकेदारी नहीं है, यह किसी तरह मुमकिन नहीं है कि तुम काम तो वे करो जो सज़ा देने के लायक़ हों, मगर तुम्हें आख़िरत में जगह मिल जाए अच्छी, सिर्फ़ इसलिए कि तुम यहूदी या इसराईली हो। अगर तुममें कुछ भी अक़्ल मौजूद हो तो तुम ख़ुद समझ सकते हो कि आख़िरत में अच्छा मक़ाम सिर्फ़ उन्हीं लोगों को मिल सकता है जो दुनिया में ख़ुदा से डरकर काम करें। रहा दूसरा तर्जमा तो उसके लिहाज़ से मतलब यह होगा कि दुनिया और उसके फ़ायदों को आख़िरत के मुक़ाबले ज़्यादा अहमियत देना तो सिर्फ़ उन लोगों का काम है जो ख़ुदा से न डरते हों। ख़ुदा से डरनेवाले लोग तो लाज़िमी तौर पर दुनिया के फ़ायदों के मुक़ाबले में आख़िरत के फ़ायदे को और दुनिया के ऐश के मुक़ाबले आख़िरत की भलाई को तरजीह देते हैं।
وَٱلَّذِينَ يُمَسِّكُونَ بِٱلۡكِتَٰبِ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ إِنَّا لَا نُضِيعُ أَجۡرَ ٱلۡمُصۡلِحِينَ ۝ 158
(170) जो लोग किताब की पाबन्दी करते हैं और जिन्होंने नमाज़ क़ायम कर रखी है, यक़ीनन ऐसे नेक किरदार लोगों का बदला हम बर्बाद नहीं करेंगे।
۞وَإِذۡ نَتَقۡنَا ٱلۡجَبَلَ فَوۡقَهُمۡ كَأَنَّهُۥ ظُلَّةٞ وَظَنُّوٓاْ أَنَّهُۥ وَاقِعُۢ بِهِمۡ خُذُواْ مَآ ءَاتَيۡنَٰكُم بِقُوَّةٖ وَٱذۡكُرُواْ مَا فِيهِ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُونَ ۝ 159
(171) इन्हें वह वक़्त भी कुछ याद है जबकि हमने पहाड़ को हिलाकर उनपर इस तरह छा दिया था कि मानो वह छतरी है और यह समझ रहे थे कि वह उनपर आ पड़ेगा और उस वक़्त हमने उनसे कहा था कि जो किताब हम तुम्हें दे रहे हैं उसे मज़बूती के साथ थामो और जो कुछ उसमें लिखा है, उसे याद रखो। उम्मीद है कि तुम ग़लत राह पर चलने से बचे रहोगे।132
132. इशारा है उस वाक़िए (घटना) की तरफ़ जो मूसा (अलैहि०) को गवाही-नामे की पत्थर की तख़्तियाँ दिए जाने के मौक़े पर सीना पहाड़ के दामन में पेश आया था। बाइबल में इस वाक़िए को इन अलफ़ाज़ में बयान किया गया है— "और मूसा लोगों को ख़ेमे की जगह से बाहर लाया कि ख़ुदा से मिलाया और ये पहाड़ के नीचे आ खड़े हुए और सीना पहाड़ ऊपर से नीचे तक धुएँ से भर गया, क्योंकि ख़ुदावन्द आग की लपट में होकर उसपर उतरा और धुआँ तन्दूर के धुएँ की तरह ऊपर को उठ रहा था और वह सारा पहाड़ ज़ोर से हिल रहा था।” (निष्कासन, 19:17, 18) इस तरह अल्लाह तआला ने बनी-इसराईल से किताब की पाबन्दी का अह्द लिया और अह्द लेते हुए ज़ाहिरी तौर से उनपर ऐसा माहौल बना दिया जिससे उन्हें ख़ुदा के जलाल (प्रताप) और उसकी अज़मत ब बरतरी और उसके अह्द की अहमियत का पूरा-पूरा एहसास हो और वे कायनात के उस बादशाह के साथ अह्द बाँधने को कोई मामूली बात न समझें। इससे यह गुमान न करना चाहिए कि वे ख़ुदा के साथ मीसाक़ (अहद) बाँधने पर आमादा न थे और उन्हें ज़बरदस्ती ख़ौफ़ज़दा करके इसपर आमादा किया गया। सच्चाई यह है कि वे सब के सब ईमानवाले थे और पहाड़ के दामन में अह्द बाँधने ही के लिए गए थे, मगर अल्लाह तआला ने मामूली तौर पर उनसे अह्द व इक़रार (वचन व स्वीकृति) लेने के बजाय मुनासिब जाना कि इस अह्द व इक़रार की अहमियत उनको अच्छी तरह महसूस करा दी जाए, ताकि इक़रार करते वक़्त उन्हें यह एहसास रहे कि वे किस क़ादिरे-मुतलक (सर्वशक्तिमान) हस्ती से इक़रार कर रहे हैं और उसके साथ अह्द की ख़िलाफ़वर्ज़ी करने का अंजाम क्या कुछ हो सकता है। यहाँ पहुँचकर बनी-इसराईल से ख़िताब ख़त्म हो जाता है और बाद की आयत में बात का रुख़ आम इनसानों की तरफ़ फिरता है जिनमें ख़ास तौर पर बात का रुख़ उन लोगों की तरफ़ है जिन्हें नबी (सल्ल०) ख़ुद सीधे तौर पर ख़िताब कर रहे थे।
وَإِذۡ أَخَذَ رَبُّكَ مِنۢ بَنِيٓ ءَادَمَ مِن ظُهُورِهِمۡ ذُرِّيَّتَهُمۡ وَأَشۡهَدَهُمۡ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡ أَلَسۡتُ بِرَبِّكُمۡۖ قَالُواْ بَلَىٰ شَهِدۡنَآۚ أَن تَقُولُواْ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ إِنَّا كُنَّا عَنۡ هَٰذَا غَٰفِلِينَ ۝ 160
(172) और133 ऐ नबी। लोगों को याद दिलाओ वह वक़्त जबकि तुम्हारे रब ने बनी-आदम की पीठों से उनकी नस्ल को निकाला था और उन्हें ख़ुद उनके ऊपर गवाह बनाते हुए पूछा था, “क्या मैं तुम्हारा रब नहीं हूँ?” उन्होंने कहा, “ज़रूर आप ही हमारे रब हैं, हम इसपर गवाही देते हैं।"134 यह हमने इसलिए किया कि कहीं तुम क़ियामत के दिन यह न कह दो कि “हम तो इस बात से बेख़बर थे।”
133. ऊपर के बयान का सिलसिला इस बात पर ख़त्म हुआ था कि अल्लाह तआला ने बनी-इसराईल से बन्दगी व इताअत का अह्द लिया था। अब आम इनसानों की तरफ़ ख़िताब करके उन्हें बताया जा रहा है कि बनी-इसराईल ही की कोई ख़ुसूसियत नहीं है, हक़ीक़त में तुम सब अपने ख़ालिक़ (पैदा करनेवाले) के साथ एक मीसाक़ (अह्द) में बंधे हुए हो और तुम्हें एक दिन जवाबदेही करनी है कि तुमने इस अह्द की कहाँ तक पाबन्दी की।
134. जैसा कि कई हदीसों से मालूम होता है यह मामला आदम को पैदा करने के मौक़े पर पेश आया था। उस वक़्त जिस तरह फ़रिश्तों को जमा करके पहले इनसान (आदम) को सजदा कराया गया था और ज़मीन पर इनसान को ख़लीफ़ा (प्रतिनिधि) बनाए जाने का एलान किया गया था, उसी तरह आदम की पूरी नस्ल को भी, जो क़ियामत तक पैदा हानेवाली थी अल्लाह तआला ने एक साथ वुजूद और शुऊर (समझ) देकर अपने सामने हाज़िर किया था और उनसे अपने रब होने की गवाही ली थी। इस आयत की तफ़सीर में हज़रत उबई-बिन-कअब (रज़ि०) ने शायद नबी (सल्ल०) से फ़ायदा उठाके जो कुछ बयान किया है वह इस बात की बेहतरीन तशरीह है। वे फ़रमाते हैं— "अल्लाह तआला ने सबको जमा किया और (एक-एक क़िस्म या एक-एक दौर के लोगों को अलग-अलग गरोहों की शक्ल में रखकर उन्हें इनसानी सूरत और बोलने की ताक़त दी, फिर उनसे अह्द लिया और उन्हें आप अपने आप पर गवाह बनाते हुए पूछा, 'क्या मैं तुम्हारा रब नहीं हूँ?' उन्होंने जवाब में कहा, 'ज़रूर! आप हमारे रब हैं!' तब अल्लाह ने फ़रमाया कि 'मैं तुमपर ज़मीन व आसमान सबको और ख़ुद तुम्हारे बाप आदम को गवाह ठहराता हूँ, ताकि तुम क़ियामत के दिन यह न कह सको कि हमको इसकी जानकारी न थी। ख़ूब जान लो कि मेरे सिवा कोई इबादत का हक़दार नहीं है और मेरे सिवा कोई रब नहीं है। तुम मेरे साथ किसी को शरीक न ठहराना। मैं तुम्हारे पास अपने पैग़म्बर भेजूँगा जो तुमको यह अह्द और मीसाक़, जो तुम मेरे साथ बाँध रहे हो, याद दिलाएँगे और तुमपर अपनी किताबें भी उतारूँगा।' इसपर सब इनसानों ने कहा कि हम गवाह हुए, आप ही हमारे रब और आप ही हमारे माबूद हैं, आप के सिवा न कोई हमारा रब, है न कोई माबूद।” (हदीस : मुसनद अहमद) कुछ लोग समझते हैं कि यहाँ मिसाल के अन्दाज़ में इस बात को पेश किया गया है। उनका ख़याल यह है कि अस्ल में यहा क़ुरआन मजीद सिर्फ़ यह बात ज़ेहन में बिठाना चाहता है कि अल्लाह के रब होने का इक़रार इनसानी फ़ितरत में मौजूद है, और इस बात को यहाँ ऐसे अन्दाज़ से बयान किया गया है कि मानो यह एक वाक़िआ था जो ज़ाहिरी दुनिया में पेश आया, लेकिन हम इस मतलब को सही नहीं समझते। क़ुरआन और हदीस दोनों में उसे बिलकुल एक वाक़िए के तौर पर बयान किया गया है और सिर्फ़ वाक़िआ बयान करने पर ही बस नहीं किया गया, बल्कि यह भी कहा गया है कि क़ियामत के दिन आदम की औलाद पर दलील क़ायम करते हुए इस अज़ली (आदि) अह्द व इक़रार को सनद (सुबूत) में पेश किया जाएगा। लिहाज़ा कोई वजह नहीं कि हम यह मान लें कि यह सिर्फ़ मिसाल का अन्दाज़ है। हमारे नज़दीक यह वाक़िआ बिलकुल उसी तरह पेश आया था जिस तरह ज़ाहिरी दुनिया में वाक़िआत पेश आया करते हैं। अल्लाह तआला ने हक़ीक़त में उन तमाम इनसानों को जिन्हें वह क़ियामत तक पैदा करने का इरादा रखता था, एक ही वक़्त में ज़िन्दगी और समझ और बोलने की ताक़त अता करके अपने सामने हाज़िर किया था, और हक़ीक़त में उन्हें इस हक़ीक़त से पूरी तरह आगाह कर दिया था कि उनका कोई रब और कोई माबूद उसकी पाक और आला हस्ती के सिवा नहीं है, और उनके लिए ज़िन्दगी का कोई सही तरीक़ा उसकी बन्दगी व फ़रमाँबरदारी (इस्लाम) के सिवा नहीं है। तमाम इनसानों के उस एक साथ जमा हो जाने को अगर कोई शख़्स नामुमकिन समझता है तो यह सिर्फ़ उसकी सोच के दायरे के तंग होने का नतीजा है, वरना हक़ीक़त में तो इनसानी नस्ल की मौजूदा तदरीजी (क्रमागत) पैदाइश जितनी मुमकिन नज़र आती है, उतनी ही अज़ल (इनसान की पैदाइश के दिन) में उनका एक साथ ज़ाहिर होना और क़ियामत के दिन उन सबका फिर इकट्ठा होना भी मुमकिन है। फिर यह बात पूरी तरह समझ में आनेवाली मालूम होती है कि इनसान जैसी अक़्ल व समझ रखनेवाली और (संसाधनों के) इस्तेमाल और इख़्तियार की मालिक मख़लूक़ को धरती का ख़लीफ़ा (ख़ुदा के प्रतिनिधि) की हैसियत से मुक़र्रर करते वक़्त अल्लाह तआला उसे हक़ीक़त से बाख़बर कर दे और उससे अपनी वफ़ादारी का इक़रार (oath of allegiance) ले। इस मामले का पेश आना ताज्जुब की बात नहीं, अलबत्ता अगर यह पेश न आता तो ज़रूर ताज्जुब की बात होती।
أَوۡ تَقُولُوٓاْ إِنَّمَآ أَشۡرَكَ ءَابَآؤُنَا مِن قَبۡلُ وَكُنَّا ذُرِّيَّةٗ مِّنۢ بَعۡدِهِمۡۖ أَفَتُهۡلِكُنَا بِمَا فَعَلَ ٱلۡمُبۡطِلُونَ ۝ 161
(173) या यह न कहने लगो कि “शिर्क की शुरुआत तो हमारे बाप-दादा ने हमसे पहले की थी और हम बाद को उसकी नस्ल से पैदा हुए। फिर क्या आप हमे उस ग़लती में पकड़ते जो ग़लत काम करनेवालों ने की थी?"135
135. इस आयत में वह मक़सद बयान किया गया है जिसके लिए अज़ल (आदिकाल) में आदम की पूरी नस्ल से इक़रार किया गया था। और वह यह है कि इनसानों में से जो लोग अपने ख़ुदा से बग़ावत (का रवैया) इख़्तियार करें, वे अपने इस जुर्म के पूरी तरह ज़िम्मेदार ठहरें। उन्हें अपनी सफ़ाई में न तो जानकारी न होने का बहाना पेश करने का मौक़ा मिले और न वे अपने से पहले गुज़री हुई नस्लों पर अपनी गुमराही की ज़िम्मेदारी डालकर ख़ुद जवाबदेही से बच सकें, मानो दूसरे अलफ़ाज़ में अल्लाह तआला इस अज़ली (आदिकालिक और पैदाइशी) अह्द को इस बात पर दलील ठहराता है कि इनसानों में से हर शख़्स इनफ़िरादी (व्यक्तिगत) तौर पर अल्लाह के एक अकेले माबूद और एक अकेले रब होने की गवाही अपने अन्दर लिए हुए है और इस बिना पर यह कहना ग़लत है कि कोई शख़्स पूरी तरह बेख़बर होने की वजह से एक गुमराह माहौल में परवरिश पाने की वजह से अपनी गुमराही की ज़िम्मेदारी से पूरी तरह बरी हो सकता है। अब सवाल पैदा होता है कि अगर यह अज़ली अह्द हक़ीक़त में अमल में आया भी था तो क्या उसकी याद हमारे शुऊर (चेतना) और याद्दाश्त में महफ़ूज़ है, क्या हममें से कोई शख़्स भी यह जानता है कि इनसानी नस्ल की शुरुआत में वह अपने ख़ुदा के सामने पेश किया गया था और उससे “अलस्तु बि रब्बिकुम” (क्या मैं तुम्हारा रब नहीं है) का सवाल हुआ था और उसने “बला” (क्यों नहीं) कहा था? अगर नहीं तो फिर इस इक़रार को जिसकी याद हमारे शुऊर (चेतना) और याद्दाश्त से मिट चुकी है, हमारे ख़िलाफ़ हुज्जत (दलील) कैसे क़रार दिया जा सकता है? उसका जवाब यह है कि अगर उस अह्द का नक़्श (छाप) इनसान के शुऊर और याद्दाश्त में ताज़ा रहने दिया जाता तो इनसान का दुनिया की मौजूदा इम्तिहानगाह (परीक्षा-स्थल) में भेजा जाना सिरे से बेकार हो जाता; क्योंकि उसके बाद तो आज़माइश व इम्तिहान के कोई मानी ही बाक़ी न रह जाते। लिहाज़ा इस नक़्श को शुऊर व याददाशत में तो ताज़ा नहीं रखा गया, लेकिन वह तहतश-शुऊर (अवचेतन-मन, Sub-concious mind) और विजदान (अन्तर्ज्ञान, Intuition) में यक़ीनन महफ़ूज़ है। इसका हाल वही है जो हमारे तमाम दूसरे तहतश-शुऊर और विजदान में छिपे इल्मों (ज्ञानों) का है। तहज़ीब व तमदुन और अख़लाक़ व मामलात के तमाम शोबों में इनसान की तरफ़ से आज तक जो कुछ भी सामने आया है, वह सब हक़ीक़त में इनसान के अन्दर इमकान की शक्ल में (Potentially) मौजूद था। बाहरी मुहर्रिकात (प्रेरकों) और नदाख़िली तहरीकात ने मिल-जुलकर अगर कुछ किया है तो सिर्फ़ इतना कि जो कुछ सिर्फ़ इमकान की शक्ल में था उसे अमली तौर पर ला दिया। यह एक हक़ीक़त है कि कोई तालीम, कोई तरबियत, कोई माहौली असर और कोई अन्दरूनी तहरीक इनसान के अन्दर कोई चीज़ भी, जो उसके अन्दर इमकान की शक्ल में मौजूद न हो, हरगिज़ पैदा नहीं कर सकती। और इसी तरह ये सब असर डालनेवाली चीज़ें अगर अपना तमाम ज़ोर भी लगा दें तो उनमें यह ताक़त नहीं है कि उन चीज़ों में से, जो इनसान के अन्दर इमकान की शक्ल में मौजूद हैं, किसी चीज़ को बिलकुल मिटा दें। ज़्यादा-से-ज़्यादा जो कुछ वे कर सकते हैं वह सिर्फ़ यह है कि उसे अस्ल फ़ितरत से हटा दें। लेकिन वह चीज़ हर तरह से बिगाड़ने और मिटाने के बावजूद अन्दर मौजूद रहेगी, बाहर आने के लिए ज़ोर लगाती रहेगी और बाहरी पुकार का जवाब देने के लिए तैयार रहेगी। यह मामला जैसा कि हमने अभी बयान किया, उन तमाम इल्मों के साथ आम है जो हमारे तमाम तहतश-शुऊर (अवचेतन) और विजदान (अन्तर्ज्ञान सम्बन्धी) में मौजूद होते हैं। वे सब हमारे अन्दर पूरी ताक़त के साथ मौजूद हैं, और उनके मौजूद होने का यकीनी सुबूत उन चीज़ों से हमें मिलता है, जो अमल की सूरत में हमसे ज़ाहिर होती हैं। इन सबके ज़ाहिर होने के लिए बाहरी बतौर तज़कीर (याददिहानी), तालीम, तरबियत और तशकील (स्वरूप देने) की ज़रूरत होती है, और जो कुछ हमसे ज़ाहिर होता है वह मानो अस्ल में बाहरी पुकार का वह जवाब है जो हमारे अन्दर की मौजूद कुव्वतों और ताक़तों की तरफ़ से मिलता है। इन सबको अन्दर की ग़लत ख़ाहिशें और बाहर के ग़लत असरात दबाकर, परदा डालकर दूसरी तरफ़ मोड़कर और कुचलकर के ऐसा तो कर सकते हैं कि वे महसूस न हों, मगर पूरी तरह मिटा नहीं सकते, और इसी लिए अन्दरूनी एहसास और बाहरी कोशिश दोनों से इस्लाह और तबदीली (Conversion) मुमकिन होती है। ठीक-ठीक यही कैफ़ियत उस विजदानी इल्म (अन्तर्ज्ञान) की भी है जो हमें कायनात में अपनी हक़ीक़ी हैसियत और कायनात बनानेवाले (ख़ुदा) के साथ अपने ताल्लुक़ के बारे में हासिल है। इस मौजूद होने का सुबूत यह है कि ये इनसानी ज़िन्दगी के हर दौर में, ज़मीन के हर ख़ित्ते (भू-भाग) में, हर बस्ती, हर पीढ़ी और हर नस्ल में उभरता रहा है और कभी दुनिया की कोई ताकत उसे मिटा देने में कामयाब नहीं हो सकी है। इसके हक़ीक़त के मुताबिक़ होने का सुबूत यह है कि जब भी वह उभरकर अमली तौर पर हमारी ज़िन्दगी में कारफ़रमा हुआ है उराने अच्छे और मुफ़ीद नतीजे ही पैदा किए हैं। इसको उभरने और ज़ाहिर होने और इसको सूरत इख़्तियार करने के लिए एक बाहरी पुकार की हमेशा ज़रूरत रही है। चुनाँचे पैग़म्बर (अलैहि०) और आसमानी किताबें और उनकी पैरवी करनेवाले और हक़ की तरफ़ बुलानेवाले सब के सब यही काम करते रहे हैं। इसी लिए उनको क़ुरआन में मुज़क्किर (याद दिलानेवाले), ज़िक्र (याद), तज़किरा (याददाशत) और उनके काम को तज़कीर (याददिहानी) के अलफ़ाज़ से बयान किया गया है, जिसके मानी ये हैं कि पैग़म्बर और किताबें और हक़ की दावत देनेवाले लोग इनसान के अन्दर कोई नई चीज़ पैदा नहीं करते, बल्कि उसी चीज़ को उभारते और ताज़ा करते हैं जो उनके अन्दर पहले से मौजूद थी। नफ़्से-इनसानी (मानव-मन) की तरफ़ से हर ज़माने में इस याददिहानी का जवाब उसे हाँ में मिलना इस बात का एक और सुबूत है कि अन्दर हक़ीक़त में कोई इल्म छिपा हुआ था जो अपने पुकारनेवाले की आवाज़ पहचानकर जवाब देने के लिए उभर आया। फिर इसे जहालत और जाहिलियत और मन की ख़ाहिशों और तास्सुबात (पक्षपाती) और जिन्नों और इनसानों की गुमराह करनेवाली तालीमात व तरग़ीबात (प्रेरणाओं) ने हमेशा दबाने और छिपाने और दूसरी ओर मोड़ने और कुचलने की कोशिश की है जिसके नतीजे में शिर्क, दहरियत (दुनिया-परस्ती), इलहाद (नास्तिकता), ज़न्दिक़ा (कुफ़्र का रवैया अपनाना) और अख़लाक़ी व अमली बिगाड़ पैदा होता रहा है। लेकिन गुमराही की इन सारी ताक़तों की एकजुट कोशिश के बावजूद इस इल्म का पैदाइशी नक़्शा इनसान के दिल की तख़्ती पर किसी-न-किसी हद तक मौजूद रहा है और इसी लिए तज़कीर (याददिहानी) व तजदीद (ताज़ा करने) की कोशिशें उसे उभारने में कामयाब होती रही हैं। इसमें शक नहीं कि दुनिया की मौजूदा ज़िन्दगी में जो लोग हक़ और हक़ीक़त के इनकार पर अड़े हैं वे अपनी हुज्जतबाज़ियों (कुतर्कों) से इस पैदाइशी नक़्श के वुजूद का इनकार कर सकते हैं या कम-से-कम उसे मुश्तबह (सन्दिग्ध) साबित कर सकते हैं। लेकिन जिस दिन 'यौमे-हिसाब' आएगा उस दिन उनका ख़ालिक़ उनके शुऊर (चेतना) व याददाश्त में अज़ल (पैदाइश) के दिन के उस इकट्ठे होने की याद ताज़ा कर देगा, जबकि उन्होंने उसको अपना एक अकेला माबूद और एक अकेला रब तस्लीम किया था। फिर वह इस बात का सुबूत भी उनके अपने मन में ही जुटा देगा कि इस अह्द का नक़्श उनके नफ़्स (मन) में बराबर मौजूद रहा और यह भी वह उनकी अपनी ज़िन्दगी ही के रिकार्ड से सुबूतों और गवाहियों की बुनियाद पर दिखा देगा कि उन्होंने किस-किस तरह इस नक़्श को दबाया, कब-कब और किन-किन मौक़ों पर उनके दिल से उसे सच कहने की आवाज़ें उठीं, अपनी और अपने आस-पास की गुमराहियों पर उनके विजदान (अन्तर्ज्ञान) ने कहाँ-कहाँ और किस-किस वक़्त इनकार की आवाज़ बुलन्द की, हक़ की तरण बुलानेवालों की दावत का जवाब देने के लिए उनके अन्दर का छिपा हुआ इल्म कितनी-कितनी बार और किस-किस जगह उभरने पर आमादा हुआ, और फिर वह अपने तास्सुबात (पक्षपात और अपने मन की ख़ाहिशों की बिना पर कैसे-कैसे हीलों और बहानों से उसको फ़रेब देते और ख़ामोश कर देते रहे। वह वक़्त, जबकि ये सारे राज़ खुलेंगे, हुज्जतबाज़ियों का न होगा, बल्टि साफ़-साफ़ जुर्म क़ुबूल करने का होगा। इसी लिए क़ुरआन मजीद कहता है कि उस वक़्त मुजरिम लोग यह नहीं कहेंगे कि हम जाहिल थे या ग़ाफ़िल थे, बल्कि यह कहने पर मजबूर हों कि हम काफ़िर थे, यानी हमने जान-बूझकर हक़ का इनकार किया। “उस वक़्त वे ख़ुद अपने ख़िलाफ़ गवाही देंगे कि वे इनकारी थे।” (सूरा-6 अनआम, आयत-130)
وَكَذَٰلِكَ نُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ وَلَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 162
(174) देखो इस तरह हम निशानियाँ वाज़ेह तौर पर पेश करते हैं।136 और इसलिए पेश करते हैं कि ये लोग पलट आएँ।137
136. यानी हक़ को अच्छी तरह पहचानने के जो निशानात इनसान के अपने वुजूद के अन्दर मौजूद हैं उनका साफ़-साफ़ पता देते हैं।
137. यानी बग़ावत और मुँह मोड़ने का रवैया छोड़कर बन्दगी और फ़रमाँबरदारी के रवैये की तरफ़ वापस हों।
وَٱتۡلُ عَلَيۡهِمۡ نَبَأَ ٱلَّذِيٓ ءَاتَيۡنَٰهُ ءَايَٰتِنَا فَٱنسَلَخَ مِنۡهَا فَأَتۡبَعَهُ ٱلشَّيۡطَٰنُ فَكَانَ مِنَ ٱلۡغَاوِينَ ۝ 163
(175) और ऐ नबी! इनके सामने उस शख़्स का हाल बयान करो जिसको हमने अपनी आयतों का इल्म दिया था,138 मगर वह उनकी पाबन्दियों से निकल भागा। आख़िरकार शैतान उसके पीछे पड़ गया, यहाँ तक कि वह भटकनेवालों में शामिल होकर रहा।
138. इन अलफ़ाज़ से ऐसा महसूस होता है कि वह ज़रूर कोई ख़ास शख़्स होगा जिसकी तरफ़ इशारा किया गया है। लेकिन अल्लाह और उसके रसूल की यह इन्तिहाई अख़लाक़ी बुलन्दी है कि वे जब कभी किसी की बुराई को मिसाल में पेश करते हैं तो आम तौर पर उसका नाम नहीं बताते, बल्कि उसकी शख़्सियत पर परदा डालकर सिर्फ़ उसकी बुरी मिसाल का ज़िक्र कर देते हैं, ताकि उसकी रुसवाई किए बिना अस्ल मक़सद हासिल हो जाए। इसी लिए न क़ुरआन में बताया गया है और न किसी सहीह हदीस में कि वह शख़्स, जिसकी मिसाल यहाँ दी गई है कौन था। क़ुरआन की तफ़सीर बयान करनेवालों ने पैग़म्बर के ज़माने और उससे पहले की तारीख़ (इतिहास) के मुख़्तलिफ़ लोगों पर इस मिसाल को चस्पाँ किया है। कोई बलअम-बिन-बाऊरा का नाम लेता है, कोई उमय्या-बिन-अबी-सलत का और कोई सैफ़ी-बिन-राहिब का। लेकिन हक़ीक़त यह है कि वह ख़ास शख़्स तो परदे में है जो इस मिसाल में सामने था, अलबत्ता यह मिसाल हर उस शख़्स पर चस्पाँ होती है जिसमें यह सिफ़त पाई जाती हो।
وَلَوۡ شِئۡنَا لَرَفَعۡنَٰهُ بِهَا وَلَٰكِنَّهُۥٓ أَخۡلَدَ إِلَى ٱلۡأَرۡضِ وَٱتَّبَعَ هَوَىٰهُۚ فَمَثَلُهُۥ كَمَثَلِ ٱلۡكَلۡبِ إِن تَحۡمِلۡ عَلَيۡهِ يَلۡهَثۡ أَوۡ تَتۡرُكۡهُ يَلۡهَثۚ ذَّٰلِكَ مَثَلُ ٱلۡقَوۡمِ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَاۚ فَٱقۡصُصِ ٱلۡقَصَصَ لَعَلَّهُمۡ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 164
(176) अगर हम चाहते तो उसे उन आयतों के ज़रिए से बुलन्दी अता करते, मगर वह तो ज़मीन ही की तरफ़ झुककर रह गया और अपने मन की ख़ाहिश ही के पीछे पड़ा रहा। इसलिए उसकी हालत कुत्ते की-सी हो गई कि तुम उसपर हमला करो तब भी ज़बान लटकाए रहे और उसे छोड़ दो तब भी ज़बान लटकाए रहे।139 यही मिसाल है उन लोगों की जो हमारी आयतों को झुठलाते हैं। तुम ये क़िस्से इनको सुनाते रहो, शायद कि ये कुछ ग़ौर-फ़िक्र करें।
139. इन दो मुख़्तसर से जुमलों में बड़ी अहम बात बयान हुई है जिसे ज़रा तफ़सील के साथ समझ लेना चाहिए। वह शख़्स जिसकी मिसाल यहाँ पेश की गई है, अल्लाह की आयतों का इल्म रखता था, यानी हक़ीक़त से वाक़िफ़ था। इस इल्म का नतीजा यह होना चाहिए था कि वह उस रवैए से बचता जिसको वह ग़लत जानता था और वह रवैया इख़्तियार करता जो उसे मालूम था कि सही है। इसी इल्म के मुताबिक़ अमल की बदौलत अल्लाह तआला उसको इनसानियत के बुलन्द दरजे पर तरक़्क़ी देता। लेकिन वह दुनिया के फ़ायदों और लज़्ज़तों और आराइशों की तरफ़ झुक पड़ा, मन की ख़ाहिशों की माँगों का मुक़ाबला करने के बजाय उसने उनके आगे हथियार डाल दिए, (आख़िरत की कामयाबी देनेवाले) आला दरजे के कामों की तलब में दुनिया के लोभ व लालच से ऊपर उठकर सोचने के बजाय वह इस लोभ व लालच से ऐसा मग़लूब (प्रभावित) हुआ कि अपने सब ऊँचे इरादों और अपनी अक़ली व अख़लाक़ी तरक़्क़ी के सारे इमकानात (संभावनाओं) को बिलकुल ही छोड़ बैठा और उन तमाम हदबन्दियों को तोड़कर निकल भागा जिनकी देखभाल का तक़ाज़ा ख़ुद उसका इल्म कर रहा था। फिर जब वह सिर्फ़ अपनी अख़लाक़ी कमज़ोरी की वजह से जानते-बूझते हक़ से मुँह मोड़कर भागा तो शैतान जो क़रीब ही उसकी घात में लगा हुआ था, उसके पीछे लग गया और बराबर उसे एक पस्ती (पतन) से दूसरी पस्ती की तरफ़ ले जाता रहा, यहाँ तक कि ज़ालिम ने उसे उन लोगों के गरोह में पहुँचाकर ही दम लिया जो उसके फंदे में फँसकर पूरी तरह अपनी अक़्ल व होश की दौलत गुम कर चुके हैं। इसके बाद अल्लाह तआला उस शख़्स की हालत को कुत्ते से तशबीह (उपमा) देता है जिसकी हर वक़्त लटकी हुई ज़बान और टपकती हुई राल लालच की एक न बुझनेवाली आग कभी न मुत्मइन होनेवाली नीयत का पता देती है। तशबीह (उपमा) की बुनियाद वही है जिसकी वजह से हम अपनी उर्दू-हिन्दी ज़बान में ऐसे शख़्स को जो दुनिया के लालच में अंधा हो रहा हो, दुनिया का कुत्ता कहते हैं। कुत्ते की फ़ितरत क्या है? हिर्स और लालच। चलते-फिरते उसकी नाक ज़मीन सूँघने ही में लगी रहती है कि शायद कहीं से खाने की ख़ुशबू आ जाए। उसे पत्थर मारिए तब भी उसकी यह उम्मीद दूर नहीं होती कि शायद यह चीज़ जो फेंकी गई है कोई हड्डी या रोटी का कोई टुकड़ा हो। पेट का बन्दा एक बार तो लपककर उसको भी दाँतों से पकड़ ही लेता है। उससे बेरुख़ी बरतिए तब भी वह लालच का मारा उम्मीदों की एक दुनिया दिल में लिए, ज़बान लटकाए, हाँपता-काँपता खड़ा ही रहेगा। सारी दुनिया को वह बस पेट ही की निगाह से देखता है। कहीं कोई बड़ी-सी लाश पड़ी हो, जो कई कुत्तों के खाने को काफ़ी हो, तो एक कुत्ता उसमें से सिर्फ़ अपना हिस्सा लेने पर बस न करेगा, बल्कि उसे सिर्फ़ अपने ही लिए ख़ास रखना चाहेगा और किसी दूसरे कुत्ते को उसके पास न फटकने देगा। पेट की इस भूख के बाद अगर कोई चीज़ उसपर छाई रहती है तो वह है जिंस की भूख (यौन-पिपासा)। अपने सारे जिस्म में से एक शर्मगाह (यौनांग) ही वह चीज़ है जिससे वह दिलचस्पी रखता है। और उसी को सूँघने और चाटने में लगा रहता है। लिहाज़ा तशबीह (उपमा) का मक़सद यह है कि दुनियापरस्त आदमी जब इल्म और ईमान की रस्सी तुड़ाकर भागता है और नफ़्स की अंधी ख़ाहिशों के हाथ में अपनी बागडोर दे देता है तो फिर कुत्ते की हालत को पहुँचे बिना नहीं रहता, यानी सिर्फ़ पेट और शर्मगाह के चक्कर में लगा रहनेवाला।
سَآءَ مَثَلًا ٱلۡقَوۡمُ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَأَنفُسَهُمۡ كَانُواْ يَظۡلِمُونَ ۝ 165
(177) बड़ी ही बुरी मिसाल है ऐसे लोगों की जिन्होंने हमारी आयतों को झुठलाया, और वे आप अपने ही ऊपर ज़ुल्म करते रहे हैं।
مَن يَهۡدِ ٱللَّهُ فَهُوَ ٱلۡمُهۡتَدِيۖ وَمَن يُضۡلِلۡ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 166
(178) जिसे अल्लाह रास्ता दिखाए, बस वही सीधा रास्ता पाता है और जिसको अल्लाह अपनी रहनुमाई से महरूम कर दे, वही नाकाम होकर रहता है।
وَلَقَدۡ ذَرَأۡنَا لِجَهَنَّمَ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِۖ لَهُمۡ قُلُوبٞ لَّا يَفۡقَهُونَ بِهَا وَلَهُمۡ أَعۡيُنٞ لَّا يُبۡصِرُونَ بِهَا وَلَهُمۡ ءَاذَانٞ لَّا يَسۡمَعُونَ بِهَآۚ أُوْلَٰٓئِكَ كَٱلۡأَنۡعَٰمِ بَلۡ هُمۡ أَضَلُّۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡغَٰفِلُونَ ۝ 167
(179) और यह हक़ीक़त है कि बहुत-से जिन्न और इनसान ऐसे हैं जिनको हमने जहन्नम ही के लिए पैदा किया है।140 उनके पास दिल हैं, मगर वे उनसे सोचते नहीं। उनके पास आँखें हैं, मगर वे उनसे देखते नहीं। उनके पास कान हैं, मगर वे उनसे सुनते नहीं। वे जानवरों की तरह हैं, बल्कि उनसे भी ज़्यादा गए गुज़रे ये वे लोग हैं जो गफ़लत में खोए गए हैं।
140. इसका यह मतलब नहीं है कि हमने उनको पैदा ही इस मक़सद के लिए किया था कि वे जहन्नम में जाएँ और उनको वुजूद में लाते वक़्त ही यह इरादा कर लिया था कि इन्हें दोज़ख़ का ईंधन बनाना है, बल्कि इसका सही मतलब यह है कि हमने तो इनको पैदा किया था दिल, दिमाग़, आँखें और कान देकर, मगर ज़ालिमों ने इनसे कोई काम न लिया और अपने ग़लत कामों की बदौलत आख़िरकार जहन्नम का ईंधन बनकर रहे। इस बात को कहने के लिए वह अन्दाज़े-बयान इख़्तियार किया गया है जो इनसानी ज़बान में इन्तिहाई अफ़सोस और हसरत के मौक़े पर इस्तेमाल किया जाता है। मिसाल के तौर पर अगर किसी माँ के कई एक जवान-जवान बेटे लड़ाई में जाकर मौत के मुँह में चले गए हों तो वह लोगों से कहती है कि मैंने उन्हें इसलिए पाल-पोसकर बड़ा किया था कि लोहे और आग के खेल में ख़त्म हो जाएँ। इस बात के कहने से उसका मक़सद यह नहीं होता कि वाक़ई उसके पालने-पोसने का मक़सद यही था, बल्कि इस हसरत भरे अन्दाज़ में दरअस्ल वह कहना यह चाहती है कि मैंने तो इतनी मेहनतों से अपना ख़ूने-जिगर पिला-पिलाकर इन बच्चों को पाला था, मगर ख़ुदा इन लड़नेवाले फ़सादियों से समझे कि मेरी मेहनत और क़ुरबानी के फल यूँ मिट्टी में मिल कर रहे।
وَلِلَّهِ ٱلۡأَسۡمَآءُ ٱلۡحُسۡنَىٰ فَٱدۡعُوهُ بِهَاۖ وَذَرُواْ ٱلَّذِينَ يُلۡحِدُونَ فِيٓ أَسۡمَٰٓئِهِۦۚ سَيُجۡزَوۡنَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 168
(180) अल्लाह अच्छे नामों141 का हक़दार है। उसको अच्छे ही नामों से पुकारो और उन लोगों को छोड़ दो जो उसके नाम रखने में सही रास्ते से हट जाते हैं। जो कुछ वे करते रहे हैं, उसका बदला वे पाकर रहेंगे।142
141. अब तकरीर ख़त्म होने के क़रीब है इसलिए बात ख़त्म करने पर नसीहत और मलामत के मिले-जुले अन्दाज़ में लोगों को उनकी कुछ खुली गुमराहियों पर ख़बरदार किया जा रहा है और साथ ही पैग़म्बर की दावत के मुक़ाबले में इनकार करने और मज़ाक़ उड़ाने का जो रवैया उन्होंने इख़्तियार कर रखा था, उसकी ग़लती समझाते हुए उसके बुरे अंजाम से उन्हें ख़बरदार किया जा रहा है।
142. इनसान अपनी ज़बान में चीज़ों के जो नाम रखता है वे दरअस्ल उस तसव्वुर (कल्पना) की बुनियाद पर होते हैं जो उसके ज़ेहन में उन चीज़ों के बारे में हुआ करता है। तसव्वुर की ख़राबी नाम की ख़राबी के रूप में ज़ाहिर होती है और नाम की ख़राबी तसव्वुर की ख़राबी की दलील होती है। फिर चीज़ों के साथ इनसान का ताल्लुक़ और मामला भी लाज़िमी तौर पर उस तसव्वुर ही के मुताबिक़ हुआ करता है जो वह अपने ज़ेहन में उनके बारे में रखता है। तसव्वुर की ख़राबी ताल्लुक़ की ख़राबी में ज़ाहिर होती है और तसव्वुर का सही और ठीक होना ताल्लुक़ के सही और ठीक होने में नुमायाँ होकर रहता है। यह हक़ीक़त जिस तरह दुनिया की तमाम चीज़ों के मामले में सही है, उसी तरह अल्लाह के मामले में भी सही है। अल्लाह के लिए नाम (चाहे वे नाम उसकी ज़ात के मुताल्लिक़ हों या उसकी सिफ़तों से मुताल्लिक़) रखने में इनसान जो ग़लती भी करता है वह अस्ल में अल्लाह की ज़ात व सिफ़ात के बारे में उसके अक़ीदे की ग़लती का नतीजा होती है। फिर ख़ुदा के बारे में अपने तसव्वुर और अक़ीदे में इनसान जितनी और जैसी ग़लती करता है, उतनी ही और वैसी ही ग़लती उससे अपनी ज़िन्दगी के पूरे अख़लाक़ी रवैये को ढालने में भी होती है; क्योंकि इनसान के अख़लाक़ी रवैये के सामने आने का पूरा दारोमदार उस तसव्वुर पर है जो उसने ख़ुदा के बारे में और ख़ुदा के साथ अपने और कायनात के ताल्लुक़ के बारे में क़ायम किया हो। इसी लिए फ़रमाया कि ख़ुदा के नाम रखने में ग़लती करने से बचो, ख़ुदा के लिए अच्छे नाम ही मुनासिब हैं और उसे उन्हीं नामों से याद करना चाहिए, उसके नाम रखने में 'इलहाद' का अंजाम बहुत बुरा है। ‘अच्छे नामों’ से मुराद वे नाम हैं जिनसे ख़ुदा की बड़ाई और बरतरी, उसके तक़द्दुस और पाकीज़गी और उसकी कमाल (पराकाष्ठा) के दरजे को पहुँची हुई सिफ़तों का इज़हार होता हो। 'इलहाद' के मानी हैं बीच से हट जाना, सीधे रुख़ से फिर जाना। तीर जब ठीक निशाने पर बैठने के बजाय किसी दूसरी तरफ़ जा लगता है तो अरबी में कहते हैं ‘अल-हदस-सहमुल- हदफ़’ यानी तीर ने निशाने से इलहाद किया। ख़ुदा के नाम रखने में इलहाद यह है कि ख़ुदा को ऐसे नाम दिए जाएँ जो उसके मर्तबे से कमतर हों, जो उसके अदब के ख़िलाफ़ हों, जिनसे ऐब और कमियाँ उससे जुड़ती हों, या जिनसे उसकी पाक व आला ज़ात के बारे में किसी ग़लत अक़ीदे का इज़हार होता हो। साथ ही यह भी इलहाद ही है कि मख़लूक़ात में से किसी के लिए ऐसा नाम रखा जाए जो सिर्फ़ ख़ुदा ही के लिए मुनासिब हो। फिर यह जो फ़रमाया कि अल्लाह के नाम रखने में जो लोग इलहाद करते हैं उनको छोड़ दो। तो इसका मतलब यह है कि अगर ये लोग सीधी तरह समझाने से नहीं समझते तो इनकी कजबहसियों (कुतर्को) में तुमको उलझने की कोई ज़रूरत नहीं, अपनी गुमराही का अंजाम वे ख़ुद देख लेंगे।
وَمِمَّنۡ خَلَقۡنَآ أُمَّةٞ يَهۡدُونَ بِٱلۡحَقِّ وَبِهِۦ يَعۡدِلُونَ ۝ 169
(181) हमारे पैदा किए हुओं में एक गरोह ऐसा भी है जो ठीक-ठीक हक़ के मुताबिक़ रास्ता दिखाता और हक़ के मुताबिक़ इनसाफ़ करता है। (
وَٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا سَنَسۡتَدۡرِجُهُم مِّنۡ حَيۡثُ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 170
(182) रहे वे लोग जिन्होंने हमारी आयतों को झुठला दिया है, तो उन्हें हम धीर-धीरे ऐसे तरीक़े से तबाही की तरफ़ ले जाएँगे कि उन्हें ख़बर तक न होगी।
وَأُمۡلِي لَهُمۡۚ إِنَّ كَيۡدِي مَتِينٌ ۝ 171
(183) मैं उनको ढील दे रहा हूँ, मेरी चाल का कोई तोड़ नहीं है।
أَوَلَمۡ يَتَفَكَّرُواْۗ مَا بِصَاحِبِهِم مِّن جِنَّةٍۚ إِنۡ هُوَ إِلَّا نَذِيرٞ مُّبِينٌ ۝ 172
(184) और क्या इन लोगों ने कभी सोचा नहीं? इनके साथी पर जुनून (उन्माद) का कोई असर नहीं है। वह तो एक ख़बरदार करनेवाला है जो (बुरा अंजाम सामने आने से पहले) साफ़-साफ़ ख़बरदार कर रहा है।
أَوَلَمۡ يَنظُرُواْ فِي مَلَكُوتِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا خَلَقَ ٱللَّهُ مِن شَيۡءٖ وَأَنۡ عَسَىٰٓ أَن يَكُونَ قَدِ ٱقۡتَرَبَ أَجَلُهُمۡۖ فَبِأَيِّ حَدِيثِۭ بَعۡدَهُۥ يُؤۡمِنُونَ ۝ 173
(185) क्या इन लोगों ने आसमानों और ज़मीन के इन्तिज़ाम पर कभी ध्यान नहीं दिया और किसी चीज़ को भी, जो अल्लाह ने पैदा की है, आँखें खोलकर नहीं देखा?143 और क्या यह भी उन्होंने नहीं सोचा कि शायद इनकी ज़िन्दगी की मुहलत पूरी होने का वक़्त क़रीब आ लगा हो?144 फिर आख़िर पैग़म्बर की इस चेतावनी के बाद और कौन-सी बात ऐसी हो सकती है जिसपर ये ईमान लाएँ?
143. साथी से मुराद मुहम्मद (सल्ल०) हैं। आप (सल्ल०) उन्हीं लागों में पैदा हुए, उन्हीं के दरमियान रहे-बसे, बच्चे से जवान और जवान से बूढ़े हुए। पैग़म्बरी से पहले सारी क़ौम आप (सल्ल०) को एक बेहद अच्छी फ़ितरत और सही दिमाग़वाले आदमी की हैसियत से जानती थी। पैग़म्बरी के बाद जब आप (सल्ल०) ने ख़ुदा का पैग़ाम पहुँचाना शुरू किया तो अचानक आपको मजनून और दीवाना कहने लगी। ज़ाहिर है कि आप (सल्ल०) को मजनून कहना उन बातों की बिना पर न था जो आप (सल्ल०) नबी होने से पहले करते थे, बल्कि सिर्फ़ उन्हीं बातों पर कहा जा रहा था जिनकी आप (सल्ल०) ने नबी होने के बाद तबलीग़ शुरू की। इसी वजह से फ़रमाया जा रहा है कि इन लोगों ने कभी सोचा भी है, आख़िर इन बातों में से कौन-सी बात जुनून की है? कौन-सी बात बेतुकी, बे-बुनियाद और अक़्ल में न आनेवाली है? अगर ये आसमान और ज़मीन के निज़ाम पर ग़ौर करते, या ख़ुदा की बनाई हुई किसी चीज़ को भी ठहरकर देखते तो इन्हें ख़ुद मालूम हो जाता कि शिर्क को ग़लत बताने, तौहीद को सही कहने, रब की बन्दगी की दावत देने और इनसान की ज़िम्मेदारी व जवाबदेही के बारे में जो कुछ उनका भाई उन्हें समझा रहा है, उसकी सच्चाई पर कायनात का यह पूरा निज़ाम और अल्लाह का बनाया हुआ ज़र्रा-ज़र्रा गवाही दे रहा है।
144. यानी नादान इतना भी नहीं सोचते कि मौत का वक़्त किसी को मालूम नहीं है, कुछ पता नहीं कि कब किसकी मुहलत पूरी हो जाए। फिर अगर इनमें से किसी का आख़िरी वक़्त आ गया और अपने रवैये में सुधार के लिए जो मुहलत उसे मिली हुई है वह इन्हीं गुमराहियों और बुरे कामों में बरबाद हो गई तो आख़िर उसका अंजाम क्या होगा!
مَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَلَا هَادِيَ لَهُۥۚ وَيَذَرُهُمۡ فِي طُغۡيَٰنِهِمۡ يَعۡمَهُونَ ۝ 174
(186)— जिसको अल्लाह रास्ता दिखाने से महरूम कर दे, उसके लिए फिर कोई रास्ता दिखानेवाला नहीं है, और अल्लाह उन्हें उनकी सरकशी ही में भटकता हुआ छोड़ देता है।
يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلسَّاعَةِ أَيَّانَ مُرۡسَىٰهَاۖ قُلۡ إِنَّمَا عِلۡمُهَا عِندَ رَبِّيۖ لَا يُجَلِّيهَا لِوَقۡتِهَآ إِلَّا هُوَۚ ثَقُلَتۡ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ لَا تَأۡتِيكُمۡ إِلَّا بَغۡتَةٗۗ يَسۡـَٔلُونَكَ كَأَنَّكَ حَفِيٌّ عَنۡهَاۖ قُلۡ إِنَّمَا عِلۡمُهَا عِندَ ٱللَّهِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 175
(187) ये लोग तुमसे पूछते हैं कि आख़िर वह क़ियामत की घड़ी कब आएगी? कहो, “इसका इल्म मेरे रब ही के पास है। उसे अपने वक़्त पर वही ज़ाहिर करेगा। आसमानों और ज़मीन में वह बड़ा सख़्त वक़्त होगा, वह तुमपर अचानक आ जाएगा। ये लोग उसके बारे में तुमसे इस तरह पूछते हैं मानो कि तुम उसकी खोज में लगे हुए हो। कहो, “इसका इल्म तो सिर्फ़ अल्लाह को है, मगर ज़्यादातर लोग इस हक़ीक़त को नहीं जानते।”
قُل لَّآ أَمۡلِكُ لِنَفۡسِي نَفۡعٗا وَلَا ضَرًّا إِلَّا مَا شَآءَ ٱللَّهُۚ وَلَوۡ كُنتُ أَعۡلَمُ ٱلۡغَيۡبَ لَٱسۡتَكۡثَرۡتُ مِنَ ٱلۡخَيۡرِ وَمَا مَسَّنِيَ ٱلسُّوٓءُۚ إِنۡ أَنَا۠ إِلَّا نَذِيرٞ وَبَشِيرٞ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 176
(188) ऐ नबी! इनसे कहो कि “मैं अपने आप के लिए किसी फ़ायदे और नुक़सान का इख़्तियार नहीं रखता। अल्लाह ही जो कुछ चाहता है वह होता है, और अगर मुझे ग़ैब (परोक्ष) का इल्म होता तो मैं बहुत-से फ़ायदे अपने लिए हासिल कर लेता और मुझे कभी कोई नुक़सान न पहुँचता।145 मैं तो सिर्फ़ ख़बरदार करनेवाला और ख़ुशख़बरी देनेवाला हूँ उन लोगों के लिए जो मेरी बात मानें।"
145. मतलब यह है कि क़ियामत की ठीक तारीख़ वही बता सकता है जिसे ग़ैब का इल्म हो, और मेरा हाल यह है कि मैं कल के बारे में भी नहीं जानता कि मेरे साथ या मेरे बाल-बच्चों के साथ क्या कुछ होनेवाला है। तुम ख़ुद समझ सकते हो कि अगर यह इल्म मुझे हासिल होता तो मैं कितने नुक़सानों से वक़्त से पहले ही आगाह होकर बच जाता और कितने फ़ायदे सिर्फ़ पहले से जान लेनेवाले इल्म की बदौलत अपनी ज़ात के लिए समेट लेता। फिर यह तुम्हारी कितनी बड़ी नादानी है कि तुम मुझसे पूछते हो कि क़ियामत कब आएगी?
۞هُوَ ٱلَّذِي خَلَقَكُم مِّن نَّفۡسٖ وَٰحِدَةٖ وَجَعَلَ مِنۡهَا زَوۡجَهَا لِيَسۡكُنَ إِلَيۡهَاۖ فَلَمَّا تَغَشَّىٰهَا حَمَلَتۡ حَمۡلًا خَفِيفٗا فَمَرَّتۡ بِهِۦۖ فَلَمَّآ أَثۡقَلَت دَّعَوَا ٱللَّهَ رَبَّهُمَا لَئِنۡ ءَاتَيۡتَنَا صَٰلِحٗا لَّنَكُونَنَّ مِنَ ٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 177
(189) वह अल्लाह ही है जिसने तुम्हें एक जान से पैदा किया और उसी की जिंस (जाति) से उसका जोड़ा बनाया, ताकि उसके पास सुकून हासिल करे। फिर जब मर्द ने औरत को ढाँक लिया, तो उसे एक हल्का-सा हमल (गर्भ) ठहर गया जिसे लिए-लिए वह चलती-फिरती रही। फिर जब वह बोझल हो गई तो दोनों ने मिलकर अल्लाह, अपने रब, की कि अगर तूने हमको अच्छा-सा बच्चा दिया, तो हम तेरे शुक्रगुज़ार होंगे।
فَلَمَّآ ءَاتَىٰهُمَا صَٰلِحٗا جَعَلَا لَهُۥ شُرَكَآءَ فِيمَآ ءَاتَىٰهُمَاۚ فَتَعَٰلَى ٱللَّهُ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 178
(190) मगर जब अल्लाह ने उनको एक भला-चंगा बच्चा दे दिया तो वे उसकी इस देन में दूसरों को उसका भागीदार ठहराने लगे। अल्लाह बहुत बुलन्द व बरतर है उन शिर्क (बहुदेववाद) की बातों से जो ये लोग करते हैं।146
146. यहाँ मुशरिकों की जाहिलाना गुमराहियों पर तनक़ीद (आलोचना) की गई है। तक़रीर का मक़सद यह है कि नौए-इनसानी (मानव-जाति) को सबसे पहले वुजूद में लानेवाला अल्लाह तआला है जिससे ख़ुद मुशरिक लोग भी इनकार नहीं करते। फिर हर इनसान को वुजूद में लानेवाला भी अल्लाह तआला ही है और इस बात को भी मुशरिक लोग जानते हैं। औरत के रहम (गर्भाशय) में वीर्य को ठहराना, फिर उस ज़रा से गर्भ को परवरिश करके एक ज़िन्दा बच्चे की सूरत देना, फिर उस बच्चे के अन्दर तरह-तरह की क़ुव्वतें और क़ाबिलियतें डालना और उसको सही-सलामत इनसान बनाकर पैदा करना, यह सब कुछ अल्लाह तआला के इख़्तियार में है। अगर अल्लाह औरत के पेट में बन्दर या साँप या कोई और अजीब शक्ल का हैवान पैदा कर दे, या बच्चे को पेट ही में अन्धा, बहरा, लंगड़ा, लूला बना दे या उसकी जिस्मानी व ज़ेहनी और नफ़सानी (मनोवृत्ति संबंधी) क़ुव्वतों में कोई कमी रख दे, तो किसी में यह ताक़त नहीं है कि अल्लाह की उस बनावट को बदल डाले। इस हक़ीक़त से मुशरिक लोग भी उसी तरह वाक़िफ़ हैं जिस तरह एक ख़ुदा के माननेवाले। चुनाँचे यही वजह है कि गर्भ के समय में सारी उम्मीदें अल्लाह ही से बंधी होती हैं कि वही सही-सलामत बच्चा पैदा करेगा। लेकिन उसपर भी जहालत व नादानी की इन्तिहा का यह हाल है कि जब उम्मीद पूरी होती है और चाँद-सा बच्चा मिल जाता है तो शुक्रिए के लिए नज़्रें और नियाज़ें किसी देवी, किसी अवतार, किसी वली और किसी हज़रत के नाम पर चढ़ाई जाती हैं और बच्चे को ऐसे नाम दिए जाते हैं कि मानो वह ख़ुदा के सिवा किसी और की मेहरबानी का नतीजा है। मिसाल के तौर पर हुसैन बख़्श, पीर बख़्श, अबदुर-रसूल, अब्दुल-उज़्ज़ा और अब्दे-शम्स वग़ैरा। इस तक़रीर को समझने में एक बड़ी ग़लतफ़हमी पैदा हुई है जिसे ज़ईफ़ (कमज़ोर) रिवायतों ने और ज़्यादा बढ़ाया है। चूँकि शुरू में नौए-इनसानी (मानव-जाति) की पैदाइश एक जान से होने का ज़िक्र आया है जिससे मुराद हज़रत आदम (अलैहि०) हैं, और फिर तुरन्त ही एक मर्द व औरत का ज़िक्र शुरू हो गया है जिन्होंने पहले तो अल्लाह से सही-सलामत बच्चे की पैदाइश के लिए दुआ की और जब बच्चा पैदा हो गया तो अल्लाह की देन में दूसरों को शरीक ठहरा लिया, इसलिए लोगों ने यह समझा कि ये शिर्क करनेवाले मियाँ-बीवी ज़रूर हज़रत आदम और हव्वा (अलैहि०) ही होंगे। इस ग़लतफ़हमी पर रिवायतों का एक ख़ोल (आवरण) चढ़ गया और एक पूरा क़िस्सा गढ़ दिया गया कि हज़रत हव्वा के बच्चे पैदा हो-होकर मर जाते थे, आख़िरकार एक बच्चे की पैदाइश के मौक़े पर शैतान ने उनको बहकाकर इस बात पर आमादा कर दिया कि उसका नाम अब्दुल-हारिस (शैतान का बन्दा) रख दें। ग़ज़ब यह है कि इन रिवायतों में से कुछ की सनद नबी (सल्ल०) तक भी पहुँचा दी गई है। लेकिन हक़ीक़त में ये तमाम रिवायतें ग़लत हैं और क़ुरआन की इबारत भी इनकी ताईद नहीं करती। क़ुरआन जो कुछ कह रहा है वह सिर्फ़ यह है कि इनसानों का पहला जोड़ा जिससे इनसानी पैदाइश की शुरुआत हुई, उसका पैदा करनेवाला भी अल्लाह ही था, कोई दूसरा उसके पैदा करने में शरीक न था, और फिर हर मर्द व औरत के मिलाप से जो औलाद पैदा होती है उसका पैदा करनेवाला भी अल्लाह ही है जिसका इक़रार तुम सब लोगों के दिलों में मौजूद है। चुनाँचे इसी इक़रार को बदौलत तुम उम्मीद व नाउम्मीदी की हालत में जब दुआ माँगते हो तो अल्लह ही से माँगते हो, लेकिन बाद में जब उम्मीदें पूरी हो जाती हैं तो तुम्हें शिर्क की सूझती है। इस तक़रीर में किसी ख़ास मर्द और ख़ास औरत का ज़िक्र नहीं है, बल्कि मुशरिकों में से हर मर्द और हर औरत का हाल बयान किया गया है। इस मक़ाम पर एक और बात भी बयान कर देने के क़ाबिल है। इन आयतों में अल्लाह तआला ने जिन लोगों को बुरा कहा है वे अरब के मुशरिक लोग थे और उनका क़ुसूर यह था कि वे सही-सलामत औलाद पैदा होने के लिए तो ख़ुदा ही से दुआ माँगते थे, मगर जब बच्चा पैदा हो जाता था तो अल्लाह की इस देन में दूसरों को शुक्रिए का हिस्सेदार ठहरा लेते थे। इसमें शक नहीं कि यह हालत भी बहुत ही बुरी थी, लेकिन अब जो शिर्क हम तौहीद के दावेदारों में पा रहे हैं वह इससे भी बदतर है। ये ज़ालिम तो औलाद भी ग़ैरों से ही माँगते हैं, हमल (गर्भ) के ज़माने में मन्नतें भी ग़ैरों के नाम ही की मानते हैं और बच्चा पैदा होने के बाद नियाज़ (भेंट) भी उन्हीं के आस्तानों पर चढ़ाते हैं। इसपर भी जाहिलियत के ज़माने के अरबवासी और ये मुवह्हिद (एक ख़ुदा को माननेवाले) हैं, उनके लिए जहन्नम वाजिब थी और इनके लिए नजात की गारंटी है, उनकी गुमराहियों पर तनक़ीद (आलोचना) की ज़बानें तेज़ हैं, मगर इनकी गुमराहियों पर कोई तनक़ीद कर बैठे तो मज़हबी दरबारों में बेचैनी की लहर दौड़ जाती है। इसी हालत पर मौलाना अलताफ़ हुसैन हाली' (रह०) ने अपनी मुसद्दस में अफ़सोस का इज़हार किया है— करे ग़ैर गर बुत की पूजा तो काफ़िर जो ठहराए बेटा ख़ुदा का तो काफ़िर झुके आग पर बहरे-सजदा तो काफ़िर कवाकिब में माने करिशमा तो काफ़िर मगर मोमिनों पर कुशादा हैं राहें परस्तिश करें शौक़ से जिसकी चाहें नबी को जो चाहें ख़ुदा कर दिखाएँ इमामों का रुत्बा नबी से बढ़ाएँ मज़ारों पे जा-जा के नज़्रें चढ़ाएँ शहीदों से जा-जा के माँगें दुआएँ न तौहीद में कुछ ख़लल इससे आए न इस्लाम बिगड़े न ईमान जाए।
أَيُشۡرِكُونَ مَا لَا يَخۡلُقُ شَيۡـٔٗا وَهُمۡ يُخۡلَقُونَ ۝ 179
(191) कैसे नासमझ हैं ये लोग कि उनको अल्लाह का शरीक ठहराते हैं जो किसी चीज़ को पैदा नहीं करते, बल्कि ख़ुद पैदा किए जाते हैं,
وَلَا يَسۡتَطِيعُونَ لَهُمۡ نَصۡرٗا وَلَآ أَنفُسَهُمۡ يَنصُرُونَ ۝ 180
(192) जो न उनकी मदद कर सकते हैं और न आप अपनी मदद ही पर क़ुदरत रखते हैं।
وَإِن تَدۡعُوهُمۡ إِلَى ٱلۡهُدَىٰ لَا يَتَّبِعُوكُمۡۚ سَوَآءٌ عَلَيۡكُمۡ أَدَعَوۡتُمُوهُمۡ أَمۡ أَنتُمۡ صَٰمِتُونَ ۝ 181
(193) अगर तुम उन्हें सीधी राह पर आने की दावत दो तो वे तुम्हारे पीछे न आएँ। तुम चाहे उन्हें पुकारो या चुप रहो, दोनों शक्लों में तुम्हारे लिए बराबर ही रहे।147
147. यानी इन मुशरिकों के झूठे माबूदों का हाल यह है कि सीधी राह दिखाना और अपने माननेवालों की रहनुमाई करना तो अलग रहा, वे बेचारे तो किसी रहनुमा की पैरवी करने के क़ाबिल भी नहीं, यहाँ तक कि किसी पुकारनेवाले की पुकार का जवाब तक नहीं दे सकते।
إِنَّ ٱلَّذِينَ تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ عِبَادٌ أَمۡثَالُكُمۡۖ فَٱدۡعُوهُمۡ فَلۡيَسۡتَجِيبُواْ لَكُمۡ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 182
(194) तुम लोग अल्लाह को छोड़कर जिन्हें पुकारते हो वे तो सिर्फ़ बन्दे हैं, जैसे तुम बन्दे हो। इनसे दुआएँ माँग देखो, ये तुम्हारी दुआओं का जवाब दें अगर इनके बारे में तुम्हारे ख़याल सही हैं।
أَلَهُمۡ أَرۡجُلٞ يَمۡشُونَ بِهَآۖ أَمۡ لَهُمۡ أَيۡدٖ يَبۡطِشُونَ بِهَآۖ أَمۡ لَهُمۡ أَعۡيُنٞ يُبۡصِرُونَ بِهَآۖ أَمۡ لَهُمۡ ءَاذَانٞ يَسۡمَعُونَ بِهَاۗ قُلِ ٱدۡعُواْ شُرَكَآءَكُمۡ ثُمَّ كِيدُونِ فَلَا تُنظِرُونِ ۝ 183
(195) क्या ये पाँव रखते हैं कि उनसे चलें? क्या ये हाथ रखते हैं कि उनसे पकड़ें? क्या ये आँखें रखते हैं कि उनसे देखें? क्या ये कान रखते हैं। कि उनसे सुनें?148 ऐ नबी! इनसे कहो कि “बुला लो अपने ठहराए हुए साझीदारों को, फिर तुम सब मिलकर मेरे ख़िलाफ़ तदबीरें करो और मुझे हरगिज़ मुहलत न दो,
148. यहाँ एक बात साफ़ तौर पर समझ लेनी चाहिए। मुशरिकाना मज़हबों में तीन चीज़ें अलग-अलग पाई जाती हैं— एक तो वे बुत, तस्वीरें या अलामतें (पूजा के प्रतीक) जो पूजा के केन्द्र (objects of worship) होती हैं। दूसरे वे लोग या रूहें या अलामतें जो दर अस्ल माबूद क़रार दी जाती हैं और जिनकी नुमाइन्दगी बुतों और तस्वीरें वग़ैरा की शक्ल में की जाती हैं। तीसरे वे अक़ीदे (अवधारणाएँ) जो इन मुशरिकाना इबादतों व कामों की तह में काम कर रहे होते हैं। क़ुरआन मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से इन तीनों चीज़ों पर चोट करता है। इस मक़ाम पर उसकी तनक़ीद का रुख़ पहली चीज़ की तरफ़ है यानी उन बुतों पर एतिराज़ किया गया है। जिनके सामने मुशरिक लोग अपनी इबादत की रस्में अदा करते और अपनी अरज़ियाँ और नियाज़े (भेटें) पेश करते थे।
قَالَ ٱلۡمَلَأُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن قَوۡمِهِۦٓ إِنَّا لَنَرَىٰكَ فِي سَفَاهَةٖ وَإِنَّا لَنَظُنُّكَ مِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 184
(66) उसकी क़ौम के सरदारों ने, जो उसकी बात मानने से इनकार कर रहे थे, जवाब में कहा, “हम तो तुम्हें बेअक़्ली में गिरफ़्तार समझते हैं और हमें गुमान है कि तुम झूठे हो।
قَالَ يَٰقَوۡمِ لَيۡسَ بِي سَفَاهَةٞ وَلَٰكِنِّي رَسُولٞ مِّن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 185
(67) उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के भाइयो! मैं बेअक़्ली में पड़ा हुआ नहीं हूँ, बल्कि मैं सारे जहानों के रब का रसूल (सन्देशवाहक) हूँ,
أُبَلِّغُكُمۡ رِسَٰلَٰتِ رَبِّي وَأَنَا۠ لَكُمۡ نَاصِحٌ أَمِينٌ ۝ 186
(68) तुमको अपने रब के पैग़ाम पहुँचाता हूँ और तुम्हारा ऐसा ख़ैरख़ाह हूँ जिसपर भरोसा किया जा सकता है।
أَوَعَجِبۡتُمۡ أَن جَآءَكُمۡ ذِكۡرٞ مِّن رَّبِّكُمۡ عَلَىٰ رَجُلٖ مِّنكُمۡ لِيُنذِرَكُمۡۚ وَٱذۡكُرُوٓاْ إِذۡ جَعَلَكُمۡ خُلَفَآءَ مِنۢ بَعۡدِ قَوۡمِ نُوحٖ وَزَادَكُمۡ فِي ٱلۡخَلۡقِ بَصۜۡطَةٗۖ فَٱذۡكُرُوٓاْ ءَالَآءَ ٱللَّهِ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 187
(69) क्या तुम्हें इस बात पर ताज्जुब हुआ कि तुम्हारे पास ख़ुद तुम्हारी अपनी क़ौम के एक आदमी के ज़रिए से तुम्हारे रब की याददिहानी आई, ताकि वह तुम्हें ख़बरदार करे? भूल न जाओ कि तुम्हारे रब ने नूह की क़ौम के बाद तुमको उसका जानशीन बनाया और तुम्हें ख़ूब हट्टा-कट्टा किया, तो अल्लाह की क़ुदरत के करिश्मों को याद रखो,52 उम्मीद है कि कामयाब होगे।”
52. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘आला' इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब नेमतें भी हैं और क़ुदरत के करिश्मे (चमत्कार) भी और (ख़ुदा की) बेहतरीन सिफ़तें और ख़ूबियाँ भी। आयत का पूरा मतलब यह है कि ख़ुदा की नेमतों और उसके एहसानों को भी याद रखो और यह भी न भूलो कि वह तुमसे ये नेमतें छीन लेने की ताक़त भी रखता है।
وَإِن تَدۡعُوهُمۡ إِلَى ٱلۡهُدَىٰ لَا يَسۡمَعُواْۖ وَتَرَىٰهُمۡ يَنظُرُونَ إِلَيۡكَ وَهُمۡ لَا يُبۡصِرُونَ ۝ 188
(198) बल्कि अगर तुम उन्हें सीधी राह पर आने के लिए कहो तो वे तुम्हारी बात सुन भी नहीं सकते। देखने में तुमको ऐसा नज़र आता है कि वे तुम्हारी तरफ़ देख रहे हैं, मगर हक़ीक़त में वे कुछ भी नहीं देखते।"
خُذِ ٱلۡعَفۡوَ وَأۡمُرۡ بِٱلۡعُرۡفِ وَأَعۡرِضۡ عَنِ ٱلۡجَٰهِلِينَ ۝ 189
(199) ऐ नबी! नर्मी और माफ़ी का तरीक़ा अपनाओ, भलाई के लिए कहते जाओ और जाहिलों से न उलझो।
وَإِمَّا يَنزَغَنَّكَ مِنَ ٱلشَّيۡطَٰنِ نَزۡغٞ فَٱسۡتَعِذۡ بِٱللَّهِۚ إِنَّهُۥ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ۝ 190
(200) अगर कभी शैतान तुम्हें उकसाए तो अल्लाह की पनाह माँगो, वह सब कुछ सुननेवाला और जाननेवाला है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ إِذَا مَسَّهُمۡ طَٰٓئِفٞ مِّنَ ٱلشَّيۡطَٰنِ تَذَكَّرُواْ فَإِذَا هُم مُّبۡصِرُونَ ۝ 191
(201) हक़ीक़त में जो लोग (अल्लाह से) डरनेवाले हैं, उनका हाल तो यह होता है कि कभी शैतान के असर से कोई बुरा ख़याल अगर उन्हें छू भी जाता है तो फ़ौरन चौकन्ने हो जाते हैं और फिर उन्हें साफ़ नज़र आने लगता है कि उनके लिए काम का सही तरीक़ा क्या है।
وَإِخۡوَٰنُهُمۡ يَمُدُّونَهُمۡ فِي ٱلۡغَيِّ ثُمَّ لَا يُقۡصِرُونَ ۝ 192
(202) रहे उनके (यानी शैतानों के) भाई-बन्द, तो वे उन्हें उनके टेढ़पन में खींचे लिए चले जाते हैं और उन्हें भटकाने में कोई कमी नहीं करते।150
150. इन आयतों में नबी (सल्ल०) को दावत व तबलीग़ और हिदायत व इस्लाह की हिकमत के कुछ अहम नुक्ते बताए गए हैं और मक़सूद सिर्फ़ नबी (सल्ल०) ही को तालीम देना नहीं है, बल्कि आप (सल्ल०) के ज़रिए से उन सब लोगों को यही हिकमत सिखाना है जो नबी (सल्ल०) के बाद उनके नुमाइन्दे बनकर दुनिया को सीधी राह दिखाने के लिए उठे। इन बातों को सिलसिलावार देखना चाहिए— (1) हक़ की तरफ़ बुलानेवाले के लिए जो सिफ़तें (ख़ूबियाँ) सबसे ज़्यादा ज़रूरी हैं उनमें से एक यह है कि उसे नर्ममिज़ाज, बरदाशत करनेवाला और बड़े दिल का होना चाहिए। उसको अपने साथियों के लिए शफ़ीक़ (स्नेही), आम लोगों के लिए रहीम (रहम करनेवाला) और अपने मुख़ालिफ़ों के लिए हलीम (सहनशील) होना चाहिए। उसको अपने साथियों की कमज़ोरियों को भी बरदाशत करना चाहिए और अपने मुख़ालिफ़ों की सख़्तियों को भी। उसे सख़्त-से-सख़्त ग़ुस्सा दिलानेवाले मौक़ों पर भी अपने मिज़ाज को ठण्डा रखना चाहिए। निहायत नागवार बातों को भी कुशादा दिल के साथ टाल देना चाहिए, मुख़ालिफ़ों की तरफ़ से कैसी ही सख़्त बातें की जाएँ, बुहतान लगाए जाएँ, तकलीफ़ें दी जाएँ और शरारत भरी रुकावटें खड़ी की जाएँ, उसको दरगुज़र ही से काम लेना चाहिए। सख़्त रवैया, रूखापन, कड़वी बात बोलना और ग़ुस्से में बदला लेने की सोचना इस काम के लिए ज़हर के बराबर है और इससे काम बिगड़ता है, बनता नहीं है। इसी चीज़ को नबी (सल्ल०) ने यूँ बयान किया है कि मेरे रब ने मुझे हुक्म दिया है कि “ग़ुस्से और ख़ुशी दोनों हालतों में इनसाफ़ की बात कहूँ, जो मुझसे रूठे मैं उससे जुडूँ, जो मुझे मेरे हक़ से महरूम करे मैं उसे उसका हक़ दूँ, जो मेरे साथ ज़ुल्म करे मैं उसको माफ़ कर दूँ और इसी चीज़ की हिदायत नबी (सल्ल०) उन लोगों को करते थे जिन्हें आप (सल्ल०) दीन के काम पर अपनी तरफ़ से भेजते थे। आप (सल्ल०) कहते थे, “ख़ुशख़बरी सुनाओ, नफ़रत न दिलाओ, और आसानी पैदा करो और तंगी में न डालो।” (हदीस : मुस्लिम) और इसी चीज़ की तारीफ़ अल्लाह तआला ने नबी (सल्ल०) के हक़ में की है, “यह अल्लाह की रहमत है कि तुम इन लोगों के लिए नर्म हो, वरना अगर तुम सख़्तमिज़ाज और संगदिल होते तो ये सब लोग तुम्हारे आस-पास से छंट जाते।” (क़ुरआन; सूरा-3 आले-इमरान, आयत-159) (2) हक़ की दावत की कामयाबी का गुर यह है कि आदमी फ़ल्सफ़ियों की तरह पेचीदा बातें करने और बारीक नुक्तों पर बहस करने के बजाय लोगों को मारूफ़ यानी उन सीधी और साफ़ भलाइयों की नसीहत करे जिन्हें आम तौर से सारे ही इनसान भला जानते हैं या जिनकी भलाई को समझने के लिए वह आम अक़्ल (Common Sense) काफ़ी होती है जो हर इनसान को हासिल है। इस तरह हक़ की तरफ़ बुलानेवाले की पुकार आम और ख़ास सब लागों को मुतास्सिर करती है और हर सुननेवाले के कान से दिल तक पहुँचने की राह ख़ुद निकाल लेती है। ऐसी जानी-पहचानी भलाइयों की दावत के ख़िलाफ़ जो लोग शोर व हंगामा करते हैं वे ख़ुद अपनी नाकामी और उस दावत की कामयाबी का सामान जुटाते हैं; क्योंकि आम इनसान, चाहे वे कितने ही तास्सुबात (पक्षपात) में मुब्तला हों, जब यह देखते हैं कि एक तरफ़ एक शरीफ़ मिज़ाज और बुलन्द अख़लाक़वाला इनसान है जो सीधी-सीधी भलाइयों की दावत दे रहा है और दूसरी तरफ़ बहुत-से लोग उसकी मुख़ालफ़त में हर क़िस्म की अख़लाक़ व इनसानियत से गिरी हुई तदबीरें इस्तेमाल कर रहे हैं तो धीरे-धीरे उनके दिल ख़ुद-ब-ख़ुद हक़ की मुख़ालफ़त करनेवालों की तरफ़ से फिरते और हक़ की तरफ़ बुलानेवाले की तरफ़ खिंचते चले जाते हैं, यहाँ तक कि आख़िरकार मुक़ाबले के मैदान में सिर्फ़ वे रह जाते हैं जिनके ज़ाती फ़ायदे बातिल निज़ाम के क़ायम रहने ही से जुड़े हों, या फिर जिनके दिलों में बुज़ुर्गों की तक़लीद और जाहिलाना तास्सुबात ने किसी रौशनी के क़ुबूल करने की सलाहियत बाक़ी ही न छोड़ी हो। यही वह हिकमत थी जिसकी बदौलत नबी (सल्ल०) को अरब में कामयाबी हासिल हुई और फिर आप (सल्ल०) के बाद थोड़ी ही मुद्दत में इस्लाम का सैलाब क़रीब के मुल्कों पर इस तरह फैल गया कि कहीं सौ फ़ीसद और कहीं 80 और 90 फ़ीसद लोग मुसलमान हो गए। (3) इस दावत के काम में जहाँ यह बात ज़रूरी है कि भलाई के चाहनेवालों को भलाइयों की नसीहत की जाए वहाँ यह बात भी उतनी ही जरूरी है कि जाहिलों से न उलझा जाए, चाहे वे उलझने और उलझाने की कितनी ही कोशिशें करें। हक़ की दावत देनेवाले को इस मामले में बहुत सावधानी से काम लेना चाहिए कि उसे सिर्फ़ उन लोगों से बात करनी चाहिए जो सही ढंग से उसकी बात को समझने के लिए तैयार हों। और जब कोई शख़्स जहालत पर उतर आए और हुज्जतबाज़ी, झगड़ालूपन और लानत-मलामत शुरू कर दे तो हक़ की दावत देनेवाले को उसके सामने आने से इनकार कर देना चाहिए। इसलिए कि इस झगड़े में उलझने से कुछ मिलनेवाला नहीं है, और नुक़सान यह है कि दावत व तबलीग़ का काम करनेवाले को जिस कुव्वत को दावत के फैलाने और लोगों के सुधार में लगना चाहिए वह इस फ़ुज़ूल काम में लगकर बरबाद हो जाती है। (4) नम्बर 3 में जो हिदायत की गई है उसी के सिलसिले में एक और हिदायत यह है कि जब कभी हक़ की दावत देनेवाला मुख़ालफ़त करनेवालों के ज़ुल्म और उनकी शरारतों और उनके जाहिलाना एतिराज़ों और इलज़ामों पर अपनी तबीअत में ग़ुस्सा (उत्तेजना) महसूस करे तो उसे फ़ौरन समझ लेना चाहिए कि यह शैतान की उकसाहट है, और उसी वक़्त ख़ुदा से पनाह माँगनी चाहिए कि अपने बन्दे को इस जोश में बह निकलने से बचाए और ऐसा बेक़ाबू न होने दे कि वह इस्लाम की दावत को नुक़सान पहुँचानेवाली कोई हरकत कर बैठे। हक़ की तरफ़ बुलाने का काम बहरहाल ठण्डे दिल से ही हो सकता है और वही क़दम सही उठ सकता है जो जज़बात में बहकर नहीं, बल्कि मौक़ा और जगह देखकर, ख़ूब सोच-समझकर उठाया जाए। लेकिन शैतान, जो इस काम को बढ़ते और फैलते हुए कभी नहीं देख सकता, हमेशा इस कोशिश में लगा रहता है कि अपने भाई-बन्धुओं से हक़ की दावत देनेवाले पर तरह-तरह के हमले कराए और फिर हर हमले पर हक़ की ओर बुलानेवाले को उकसाए कि इस हमले का जवाब तो ज़रूर होना चाहिए। यह अपील जो शैतान हक़ की ओर बुलानेवाले के मन से करता है अकसर बड़ी-बड़ी धोखा देनेवाली बहानेबाज़ियों और मज़हबी सुधारों के ख़ोल में लिपटी हुई होती है। लेकिन इसकी तह में सिवाए नफ़सानियत (आत्म-तुष्टि) के और कोई चीज़ नहीं होती। इसी लिए आख़िरी दो आयतों में फ़रमाया कि जो लोग मुत्तक़ी (यानी ख़ुदा से डरनेवाले और बुराई से बचने के ख़ाहिशमन्द) हैं वे तो अपने मन में शैतान की किसी उकसाहट का असर और किसी बुरे ख़याल की खटक महसूस करते ही फ़ौरन चौकन्ने हो जाते हैं और फिर उन्हें साफ़ नज़र आ जाता है कि इस मौक़े पर इस्लाम की दावत की भलाई किस रवैये के अपनाने में है। और हक़परस्ती का तक़ाज़ा क्या है। रहे वे लोग जिनके काम में नफ़सानियत पाई जाती है और इस वजह से जिनका शैतानों के साथ भाईचारे का ताल्लुक़ है, तो वे शैतान की उकसाहटों के मुक़ाबले में नहीं ठहर सकते और उसके बहकावे में आकर ग़लत राह पर चल निकलते हैं। फिर जिस-जिस घाटी में शैतान चाहता है उन्हें लिए फिरता और कहीं जाकर उनके क़दम नहीं रुकते। मुख़ालिफ़ की हर गाली के जवाब में उनके पास गाली और हर चाल के जवाब में उससे बढ़कर चाल मौजूद होती है। इस बात के कहने का एक आम मौक़ा भी है और वह यह कि तक़वावाले लोगों का तरीक़ा आमतौर पर अपनी ज़िन्दगी में उन लोगों से अलग होता है जो तक़वा की सिफ़त से ख़ाली है। जो लोग हक़ीक़त में ख़ुदा से डरनेवाले हैं और दिल से चाहते हैं कि बुराई से बचें, उनका हाल यह होता है कि बुरे ख़याल का एक ज़रा-सा ग़ुबार भी अगर उनके दिल को छू जाता है तो उन्हें वैसी ही खटक महसूस होने लगती हैं जैसी खटक उंगली में फाँस चुभ जाने या आँख में किसी ज़रें (कण) के गिर जाने से महसूस होती है। चूँकि वे बुरे ख़यालात, बुरी ख़ाहिशें और बुरी नीयतों के आदी नहीं होते इस वजह से ये चीज़ें उनके लिए उसी तरह उनके मिज़ाज के ख़िलाफ़ होती हैं जिस तरह उंगली के लिए फाँस या आँख के लिए ज़र्रा (कण) या एक अच्छे मिज़ाज और सफ़ाई-पसन्द आदमी के लिए कपड़ों पर स्याही का एक दाग़ या गन्दगी की एक छींट। फिर जब ये खटक उन्हें महसूस हो जाती है तो उनकी आँखें खुल जाती हैं और उनका ज़मीर जागकर बुराई के इस ग़ुबार को अपने ऊपर से झाड़ देने में लग जाता है। इसके बरख़िलाफ़ जो लोग न ख़ुदा से डरते हैं, न बुरे कामों से बचना चाहते हैं और जिनका ताल्लुक़ शैतान से जुड़ा हुआ है, उनके मन में बुरे ख़यालात, बुरे इरादे, बुरे मक़सद पकते रहते हैं और वे इन गंदी चीज़ों से कोई बेचैनी अपने अन्दर महसूस नहीं करते।
وَإِذَا لَمۡ تَأۡتِهِم بِـَٔايَةٖ قَالُواْ لَوۡلَا ٱجۡتَبَيۡتَهَاۚ قُلۡ إِنَّمَآ أَتَّبِعُ مَا يُوحَىٰٓ إِلَيَّ مِن رَّبِّيۚ هَٰذَا بَصَآئِرُ مِن رَّبِّكُمۡ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٞ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 193
(203) ऐ नबी! जब तुम इन लोगों के सामने कोई निशानी (यानी मोजिज़ा) पेश नहीं करते तो ये कहते हैं कि तुमने अपने लिए कोई निशानी क्यों न चुन ली?151 इनसे कहो, “मैं तो सिर्फ़ उस वह्य की पैरवी करता हूँ जो मेरे रब ने मेरी तरफ़ भेजी है। ये बसीरत की रौशनियाँ (आँखें खोल देनेवाली दलीलें) हैं तुम्हारे रब की तरफ़ से और हिदायत और रहमत है उन लोगों के लिए जो इसे अपनाएँ।"152
151. हक़ के इनकारियों के इस सवाल में एक खुले ताने का अन्दाज़ पाया जाता था। यानी उनके कहने का मतलब यह था कि जिस तरह तुम नबी बन बैठे हो उसी तरह कोई मोजिज़ा (चमत्कार) भी छाँटकर अपने लिए बना लाए होते। लेकिन आगे देखिए कि इस ताने का जवाब किस शान से दिया जाता है।
152. यानी मेरा मंसब यह नहीं है कि जिस चीज़ की माँग हो या जिस की मैं ख़ुद ज़रूरत महसूस करूँ उसे ख़ुद ईजाद या गढ़कर पेश कर दूँ। मैं तो एक रसूल हूँ और मेरा मंसब सिर्फ़ यह है। कि जिसने भेजा है उसकी हिदायत पर अमल करूँ। मोजिज़े के बजाय मेरे भेजनेवाले ने जो चीज़ मेरे पास भेजी है वह यह क़ुरआन है। इसके अन्दर सीधी राह दिखाने और हिदायत देनेवाली रौशनियाँ मौजूद हैं और इसकी सबसे नुमायाँ ख़ूबी यह है कि जो लोग इसको मान लेते हैं उनको ज़िन्दगी का सीधा रास्ता मिल जाता है और उनके अच्छे अख़लाक़ में अल्लाह की रहमत के आसार साफ़ ज़ाहिर होने लगते हैं।
وَإِذَا قُرِئَ ٱلۡقُرۡءَانُ فَٱسۡتَمِعُواْ لَهُۥ وَأَنصِتُواْ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 194
(204) जब क़ुरआन तुम्हारे सामने पढ़ा जाए तो उसे ध्यान से सुनो और चुप रहो, शायद कि तुमपर भी रहमत हो जाए।153
153. यानी यह जो तास्सुब और हठधर्मी की वजह से तुम लोग क़ुरआन की आवाज़ सुनते ही कानों में उंगलियाँ ठूँस लेते हो और शोर-ग़ुल मचाते हो, ताकि न ख़ुद सुनो और न कोई दूसरा सुन सके, इस रवैये को छोड़ दो और ग़ौर से सुनो तो सही की इसमें तालीम क्या दी गई है। क्या अजब कि इस तालीम से वाक़िफ़ हो जाने के बाद तुम ख़ुद भी उसी रहमत के हिस्सेदार बन जाओ जो ईमान लानेवालों को हासिल हो चुकी है। मुख़ालफ़त करनेवालों की ताने भरी बात के जवाब में यह ऐसा लतीफ़ (कोमल) और मीठा और ऐसा दिलों को जीत लेनेवाला अन्दाज़े-तबलीग़ है कि इसकी ख़ूबी को किसी भी तरह बयान नहीं किया जा सकता। जो शख़्स लबलीग़ की हिकमत सीखना चाहता हो वह अगर ग़ौर करे तो इस जवाब में बड़े सबक़ पा सकता है। इस अयात का अस्ल मक़सद तो वही है जो हमने ऊपर बयान किया है, लेकिन अस्ल मक़सद के साथ-साथ इससे यह हुक्म भी निकलता है कि जब ख़ुदा का कलाम (क़ुरआन) पढ़ा जा रहा हो तो लोगों को अदब से ख़ामोश हो जाना चाहिए और ध्यान से उसे सुनना चाहिए। इसी से यह बात भी निकलती है कि इमाम जब नमाज़ में क़ुरआन की तिलावत कर रहा हो तो उसके पीछे नमाज़ पढ़नेवालों को ख़ामोशी के साथ उसको सुनना चाहिए। लेकिन इस मसले में इमामों (फ़ुक़हा और आलिमों) के दरमियान इख़्तिलाफ़ (मतभेद) पाया जाता है। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और उनके साथियों का मसलक (मत) यह है कि इमाम की क़िरअत (क़ुरआन पढ़ना) चाहे जहरी (आवाज़ के साथ) हो या सिर्री (बिना आवाज़ के), मुक्तदियों को ख़ामोश ही रहना चाहिए। इमाम मालिक (रह०) और इमाम अहमद (रह०) की राय यह है कि सिर्फ़ जहरी क़िरअत की सूरत में नमाज़ियों को ख़ामोश रहना चाहिए। लेकिन इमाम शाफ़िई (रह०) इस तरफ़ गए हैं कि जहरी और सिरी दोनों सूरतों में मुक़्तदी को क़िरअत करनी चाहिए, क्योंकि कुछ हदीसों की बिना पर वे समझे हैं कि जो शख़्स नमाज़ में सूरा फ़ातिहा न पढ़े उसकी नमाज़ नहीं होती।
وَٱذۡكُر رَّبَّكَ فِي نَفۡسِكَ تَضَرُّعٗا وَخِيفَةٗ وَدُونَ ٱلۡجَهۡرِ مِنَ ٱلۡقَوۡلِ بِٱلۡغُدُوِّ وَٱلۡأٓصَالِ وَلَا تَكُن مِّنَ ٱلۡغَٰفِلِينَ ۝ 195
(205) ऐ नबी! अपने रब को सुबह व शाम याद किया करो मन ही मन में गिड़गिड़ाते और डरते हुए, और ज़बान से भी हल्की आवाज़ के साथ। तुम उन लोगों में से न हो जाओ जो ग़फ़लत में पड़े हुए हैं।154
154. याद करने से मुराद नमाज़ भी है और दूसरी क़िस्म की याद भी, चाहे वह ज़बान से हो या ख़याल से। सुबह व शाम से मुराद यही दोनों वक़्त भी हैं और इन वक़्तों में अल्लाह की याद का मक़सद नमाज़ है, और सुबह-शाम का लफ़्ज़ ‘हर वक़्त’ और हमेशा के मानी में भी इस्तेमाल होता है और इसका मक़सद हमेशा ख़ुदा की याद में मशग़ूल रहना है। यह आख़िरी नसीहत है जो ख़ुतबे को ख़त्म करते हुए की गई है और इसकी ग़रज़ यह बयान की गई है कि तुम्हारा हाल कहीं ग़ाफ़िलों और बेपरवाहों का-सा न हो जाए। दुनिया में जो कुछ गुमराही फैली है और इनसान के अख़लाक़ और कामों में जो बिगाड़ भी पैदा हुआ है उसका सबब सिर्फ़ यह है कि इनसान इस बात को भूल जाता है कि ख़ुदा उसका रब है और वह ख़ुदा का बन्दा है और दुनिया में उसको आज़माइश के लिए भेजा गया है और दुनिया की ज़िन्दगी ख़त्म होने के बाद उसे अपने रब को हिसाब देना होगा। तो जो शख़्स सीधी राह पर चलना और दुनिया को उसपर चलाना चाहता हो उसको इस बात का बहुत ज़्यादा ध्यान रखना चाहिए कि इस भूल में कहीं वह ख़ुद न पड़ जाए। इसी लिए नमाज़ और अल्लाह का ज़िक्र (याद) और हर वक़्त अल्लाह की तरफ़ ध्यान लगाए रखने की बार-बार ताकीद की गई है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ عِندَ رَبِّكَ لَا يَسۡتَكۡبِرُونَ عَنۡ عِبَادَتِهِۦ وَيُسَبِّحُونَهُۥ وَلَهُۥ يَسۡجُدُونَۤ۩ ۝ 196
(206) जिन फ़रिश्तों को तुम्हारे रब के यहाँ क़ुरबत (सान्निध्य) का मक़ाम हासिल है वे कभी अपनी बड़ाई के घमंड में आकर उसकी इबादत से मुँह नहीं मोड़ते,155 और उसकी तसबीह (महिमागान) करते हैं,156 उसके आगे झुके रहते हैं।157
155. मतलब यह है कि बड़ाई का घमण्ड और बन्दगी से मुँह मोड़ना शैतानों का काम है और इसका नतीजा नीचे गिरना और बेइज़्ज़त होना है। इसके बरख़िलाफ़ ख़ुदा के आगे झुकना और बन्दगी में जमे रहना फ़रिश्तोंवाला काम है और इसका नतीजा तरक़्क़ी व बुलन्दी और ख़ुदा से क़रीब होना है। अगर तुम यह तरक़्क़ी चाहते हो तो अपने रवैये को शैतानों के बजाय फ़रिश्तों के रवैये के मुताबिक़ बनाओ।
156. तसबीह करते हैं, यानी वे अल्लाह तआला का बे-ऐब और बे-नक़्स (त्रुटिरहित) और बे-ख़ता होना, हर क़िस्म की कमज़ोरियों से उसका पाक होना मानते हैं और दिल से यह भी मानते हैं कि कोई भी उसका शरीक, उसके बराबर और उसके जैसा नहीं है। हमेशा इन बातों के एलान व इज़हार में मशग़ूल रहते हैं।
157. इस मक़ाम पर हुक्म है कि जो शख़्स इस आयत को पढ़े या सुने वह सजदा करे, ताकि उसका हाल अल्लाह के प्यारे फ़रिश्तों जैसा हो जाए और सारी कायनात का इन्तिज़ाम चलानेवाले कारकुन (फ़रिश्ते) जिस ख़ुदा के आगे झुके हुए हैं उसी के आगे वह भी उन सबके साथ झुक जाए और अपने अमल से फ़ौरन यह साबित कर दे कि वह न तो किसी घमण्ड में मुब्तला है और न ख़ुदा की बन्दगी से मुँह मोड़नेवाला है। क़ुरआन मजीद में ऐसी 14 जगहें हैं जहाँ सजदे की आयतें आई हैं। इन आयतों पर सजदा करने के बारे में तो तमाम फ़क़ीह और उलमा एक राय हैं, मगर इसके वाजिब होने में इख़्तिलाफ़ (मतभेद) है। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) सजदा-ए-तिलावत को वाजिब कहते हैं और दूसरे आलिमों ने इसको सुन्नत क़रार दिया है। नबी (सल्ल०), कभी एक बड़े मजमे (भीड़) में क़ुरआन पढ़ते और उसमें जब सजदे की आयत आती तो आप (सल्ल०) ख़ुद भी सजदे में गिर जाते थे और जो शख़्स जहाँ होता वहीं सजदे में गिर जाता था, यहाँ तक कि किसी को सजदा करने के लिए जगह न मिलती तो वह अपने आगेवाले शख़्स की पीठ पर सर रख देता। यह भी रिवायतों में आया है कि नबी (सल्ल०) ने फ़तहे-मक्का के मौक़े पर क़ुरआन पढ़ा और उसमें जब सजदे की आयत आई तो जो लोग ज़मीन पर खड़े थे उन्होंने ज़मीन पर सजदा किया और जो घोड़ों और ऊँटों पर सवार थे वे अपनी सवारियों पर ही झुक गए। कभी नबी (सल्ल०) ने ख़ुतबे के दौरान में सजदे की आयत पढ़ी है तो मिंबर से उतरकर सजदा किया है और फिर ऊपर जाकर ख़ुतबा शुरू कर दिया है। इस सजदे के लिए आम उलमा वही शर्ते लगाते हैं जो नमाज़ की शर्त है, यानी वुज़ू किए हुए होना, काबा की तरफ़ मुँह होना और नमाज़ की तरह सजदे में ज़मीन पर सर रखना। लेकिन जितनी हदीसें क़ुरआन की तिलावत के सिलसिले में सजदों के बारे में हमको मिली हैं उनमें कहीं इन शर्तों के लिए कोई दलील मौजूद नहीं है। उनसे तो यही मालूम होता है कि सजदे की आयत सुनकर जो शख़्स जहाँ, जिस हाल में है झुक जाए, चाहे वुज़ू किए हुए हो या न हो, चाहे काबा की तरफ़ मुँह करना मुमकिन हो या न हो, चाहे ज़मीन पर सर रखने का मौक़ा हो या न हो। गुज़रे हुए बुज़ुर्ग आलिमों में भी हमको ऐसी शख़्सियतें मिलती हैं जिनका अमल इस तरीक़े पर था। चुनाँचे इमाम बुख़ारी (रह०) ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) के बारे में लिखा है कि वे वुज़ू के बिना तिलावत का सजदा करते थे। और अबू-अब्दुर्रहमान सुलमी के बारे में फ़तहुल-बारी में लिखा है कि वे रास्ते में चलते हुए क़ुरआन मजीद पढ़ते जाते थे और अगर कहीं सजदे की आयत आ जाती तो बस सर झुका लेते थे, चाहे वुज़ू से हों या न हों, और चाहे उनका मुँह काबा की तरफ़ हो या न हो। इन वजहों से हम समझते हैं कि अगरचे ज़्यादा एहतियात का मसलक आम आलिमों ही का है, लेकिन अगर कोई शख़्स जमहूर के मसलक के ख़िलाफ़ अमल करे तो उसे मलामत भी नहीं की जा सकती, क्योंकि जमहूर की राय की ताईद में नबी (सल्ल०) से साबित कोई सुन्नत मौजूद नहीं है, जिससे यह बात साबित हो और गुज़रे हुए बुज़ुर्ग आलिमों में ऐसे लोग पाए गए हैं जिनका अमल जमहूर के मसलक से अलग था।
قَالَ رَبِّ ٱغۡفِرۡ لِي وَلِأَخِي وَأَدۡخِلۡنَا فِي رَحۡمَتِكَۖ وَأَنتَ أَرۡحَمُ ٱلرَّٰحِمِينَ ۝ 197
(151) तब मूसा ने कहा, “ऐ रब! मुझे और मेरे भाई को माफ़ कर और हमें अपनी रहमत में दाख़िल कर, तू सबसे बढ़कर रहम करनेवाला है।”
إِنَّ ٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ ٱلۡعِجۡلَ سَيَنَالُهُمۡ غَضَبٞ مِّن رَّبِّهِمۡ وَذِلَّةٞ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۚ وَكَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُفۡتَرِينَ ۝ 198
(152) (जवाब में कहा गया कि) “जिन लोगों ने बछड़े को माबूद बनाया, वे ज़रूर ही अपने रब के ग़ज़ब के शिकार होकर रहेंगे और दुनिया की ज़िन्दगी में रुसवा होंगे। झूठ गढ़नेवालों को हम ऐसी ही सज़ा देते हैं।
وَٱلَّذِينَ عَمِلُواْ ٱلسَّيِّـَٔاتِ ثُمَّ تَابُواْ مِنۢ بَعۡدِهَا وَءَامَنُوٓاْ إِنَّ رَبَّكَ مِنۢ بَعۡدِهَا لَغَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 199
(153) और जो लोग बुरे अमल करें, फिर तौबा कर लें और ईमान ले आएँ, तो यक़ीनन इस तौबा और ईमान के बाद तेरा रब माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।”
وَلَمَّا سَكَتَ عَن مُّوسَى ٱلۡغَضَبُ أَخَذَ ٱلۡأَلۡوَاحَۖ وَفِي نُسۡخَتِهَا هُدٗى وَرَحۡمَةٞ لِّلَّذِينَ هُمۡ لِرَبِّهِمۡ يَرۡهَبُونَ ۝ 200
(154) फिर जब मूसा का ग़ुस्सा ठंडा हुआ तो उसने वे तख़्तियाँ उठा लीं जिनके लेख में हिदायत और रहमत थी उन लोगों के लिए जो अपने रब से डरते हैं,
وَٱخۡتَارَ مُوسَىٰ قَوۡمَهُۥ سَبۡعِينَ رَجُلٗا لِّمِيقَٰتِنَاۖ فَلَمَّآ أَخَذَتۡهُمُ ٱلرَّجۡفَةُ قَالَ رَبِّ لَوۡ شِئۡتَ أَهۡلَكۡتَهُم مِّن قَبۡلُ وَإِيَّٰيَۖ أَتُهۡلِكُنَا بِمَا فَعَلَ ٱلسُّفَهَآءُ مِنَّآۖ إِنۡ هِيَ إِلَّا فِتۡنَتُكَ تُضِلُّ بِهَا مَن تَشَآءُ وَتَهۡدِي مَن تَشَآءُۖ أَنتَ وَلِيُّنَا فَٱغۡفِرۡ لَنَا وَٱرۡحَمۡنَاۖ وَأَنتَ خَيۡرُ ٱلۡغَٰفِرِينَ ۝ 201
(155) और उसने अपनी क़ौम के सत्तर आदमियों को चुना, ताकि वे (उसके साथ) हमारे मुक़र्रर किए वक़्त पर हाज़िर हों।109 जब उन लोगों को एक भारी ज़लज़ले (भूकम्प) ने आ पकड़ा तो मूसा ने कहा, “ऐ मेरे सरकार! आप चाहते तो पहले ही इनको और मुझे हलाक कर सकते थे। क्या आप उस क़ुसूर में, जो हममें से कुछ नासमझों ने किया था, हम सबको हलाक कर देंगे? यह तो आप की डाली हुई एक आज़माइश थी जिसके ज़रिए से आप जिसे चाहते हैं गुमराही में डाल देते हैं और जिसे चाहते हैं हिदायत दे देते हैं।110 हमारे सरपरस्त तो आप ही हैं, तो हमें माफ़ कर दीजिए और हमपर रहम कीजिए, आप सबसे बढ़कर माफ़ करनेवाले हैं।
109. यह तलबी इस मक़सद के लिए हुई थी कि क़ौम के 70 नुमाइन्दे सीना पहाड़ पर ख़ुदा के सामने हाज़िर होकर क़ौम की तरफ़ से बछड़े की पूजा के जुर्म की माफ़ी माँगें और नए सिरे से इताअत और फ़रमाँबरदारी करने का अह्द करें। बाइबल और तलमूद में इस बात का ज़िक्र नहीं है। अलबत्ता यह ज़िक्र है कि जो तख़्तियाँ हज़रत मूसा (अलैहि०) ने फेंककर तोड़ दी थीं उनके बदले दूसरी तख़्तियाँ देने के लिए उनको सीना पर बुलाया गया था। (निष्कासन, अध्याय-34)
110. मतलब यह है कि हर आज़माइश का मौक़ा इनसानों के दरमियान फ़ैसला करनेवाला होता है। वह छाज की तरह मिले-जुले लोगों के एक गरोह में से काम के आदमियों और नाकारा आदमियों को फटककर अलग कर देता है। यह अल्लाह तआला की हिकमत का ही तक़ाज़ा है कि ऐसे मौक़े वक़्त-वक़्त पर आते रहें। इन मौक़ों पर जो कामयाबी की राह पाता है वह अल्लाह ही की मेहरबानी व रहनुमाई से पाता है और जो नाकाम होता है वह उसकी मेहरबानी और रहनुमाई से महरूम होने की बदौलत नाकाम होता है। अगरचे अल्लाह की तरफ़ से मेहरबानी और रहनुमाई मिलने और न मिलने के लिए भी एक ज़ाबिता (नियम) है जो सरासर हिकमत और इनसाफ़ पर बना है, लेकिन बहरहाल यह हक़ीक़त अपनी जगह साबित है कि आदमी का आज़माइश के मौक़ों पर कामयाबी की राह पाने, या न पाने का दारोमदार अल्लाह की तौफ़ीक़ व हिदायत पर है।
۞وَٱكۡتُبۡ لَنَا فِي هَٰذِهِ ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٗ وَفِي ٱلۡأٓخِرَةِ إِنَّا هُدۡنَآ إِلَيۡكَۚ قَالَ عَذَابِيٓ أُصِيبُ بِهِۦ مَنۡ أَشَآءُۖ وَرَحۡمَتِي وَسِعَتۡ كُلَّ شَيۡءٖۚ فَسَأَكۡتُبُهَا لِلَّذِينَ يَتَّقُونَ وَيُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَٱلَّذِينَ هُم بِـَٔايَٰتِنَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 202
(156) और हमारे लिए इस दुनिया की भलाई भी लिख दीजिए और आख़िरत की भी। हम आपकी तरफ़ पलट आए।” जवाब में कहा गया, “सज़ा तो मैं जिसे चाहता हूँ देता हूँ, मगर मेरी रहमत हर चीज़ पर छाई हुई है।111 और उसे मैं उन लोगों के हक़ में लिखूँगा जो नाफ़रमानी से बचेंगे, ज़कात देंगे और मेरी आयतों पर ईमान लाएँगे।”
111. यानी अल्लाह तआला जिस तरीक़े पर ख़ुदाई कर रहा है उसमें अस्ल चीज़ ग़ज़ब (प्रकोप) नहीं है जिसमें कभी-कभी रहम और मेहरबानी की शान भी दिखाई दे जाती हो, बल्कि अस्ल चीज़ रहम (दया) है जिसपर सारी कायनात का निज़ाम क़ायम है और इसमें ग़ज़ब सिर्फ़ उस वक़्त ज़ाहिर होता है जब बन्दों की सरकशी हद से बढ़ जाती है।
وَمَا وَجَدۡنَا لِأَكۡثَرِهِم مِّنۡ عَهۡدٖۖ وَإِن وَجَدۡنَآ أَكۡثَرَهُمۡ لَفَٰسِقِينَ ۝ 203
(102) हमने उनमें से ज़्यादातर में अह्द की कोई पाबन्दी न पाई, बल्कि ज़्यादातर को नाफ़रमान ही पाया।82
82. “अहद (वचन और वादे) की कोई पाबन्दी न पाई” यानी किसी भी क़िस्म के अह्द का पूरा करनेवाला न पाया, न उस फ़ितरी अह्द का जिसमें पैदाइशी तौर पर हर इनसान ख़ुदा का बन्दा और उसी का परवरिश किया हुआ होने की हैसियत से बँधा हुआ है, न उस इज्तिमाई अह्द का पाबन्द पाया जिसमें हर इनसान इनसानी बिरादरी का एक मेम्बर (सदस्य) होने की हैसियत से बंधा हुआ है, और न उस ज़ाती अह्द को पूरा करनेवाला पाया जो आदमी अपनी मुसीबत और परेशानी के लम्हों में या किसी नेक जज़्बे के मौक़े पर ख़ुदा से अपने आप बाँधा करता है। इन ही तीनों अहदों के तोड़ने को यहाँ नाफ़रमानी (फ़िस्क़) कहा गया है।
إِنَّ وَلِـِّۧيَ ٱللَّهُ ٱلَّذِي نَزَّلَ ٱلۡكِتَٰبَۖ وَهُوَ يَتَوَلَّى ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 204
(196) मेरा हिमायती व मददगार वह अल्लाह है जिसने यह किताब उतारी है, और वह नेक आदमियों की हिमायत करता है।149
149. यह जवाब है मुशरिकों की उन धमकियों का जो वे नबी (सल्ल०) को देते थे। वे कहते थे कि अगर तुम हमारे इन माबूदों की मुख़ालफ़त करने से न रुके और उनकी तरफ़ से लोगों के अक्रीदे इसी तरह ख़राब करते रहे तो तुमपर उनका गज़ब (प्रकोप) टूट पड़ेगा और वे तुम्हें उलटकर रख देंगे।
وَٱلَّذِينَ تَدۡعُونَ مِن دُونِهِۦ لَا يَسۡتَطِيعُونَ نَصۡرَكُمۡ وَلَآ أَنفُسَهُمۡ يَنصُرُونَ ۝ 205
(197) इसके बरख़िलाफ़ तुम जिन्हें अल्लाह को छोड़कर पुकारते हो, वे न तुम्हारी मदद कर सकते हैं और न ख़ुद अपनी मदद ही करने के क़ाबिल हैं,