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سُورَةُ المُدَّثِّرِ

74. अल-मुद्दस्सिर

(मक्का में उतरी, आयतें 56)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द 'अल-मुद्दस्सिर' (ओढ़-लपेटकर लेटनेवाले) को इस सूरा का नाम दिया गया है। यह भी केवल नाम है, विषय-वस्तु की दृष्टि से वार्ताओं का शीर्षक नहीं।

उतरने का समय

इसकी पहली सात आयतें मक्का मुअज़्ज़मा के बिलकुल आरम्भिक काल में अवतरित हुई हैं। पहली वह्य' (प्रकाशना) जो नबी (सल्ल०) पर अवतरित हुई वह "पढ़ो (ऐ नबी), अपने रब के नाम के साथ जिसने पैदा किया” से लेकर “जिसे वह न जानता था” (सूरा-96 अल-अलक़) तक है। इस पहली वह्य के बाद कुछ समय तक नबी (सल्ल०) पर कोई वह्य अवतरित नहीं हुई। [इस] फ़तरतुल वह्य (वह्य के बन्द रहने की अवधि) का उल्लेख करते हुए [अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने स्वयं कहा है कि] “एक दिन मैं रास्ते से गुज़र रहा था। अचानक मैंने आसमान से एक आवाज़ सुनी। सिर उठाया तो वही फ़रिश्ता जो हिरा की गुफा में मेरे पास आया था, आकाश और धरती के मध्य एक कुर्सी पर बैठा हुआ है । मैं यह देखकर अत्यन्त भयभीत हो गया और घर पहुँचकर मैंने कहा, 'मुझे ओढ़ाओ, मुझे ओढ़ाओ।' अतएव घरवालों ने मुझपर लिहाफ़ (या कम्बल) ओढ़ा दिया। उस समय अल्लाह ने वह्य अवतरित की, 'ऐ ओढ़-लपेटकर लेटनेवाले...।' फिर निरन्तर मुझपर वह्य अवतरित होनी प्रारम्भ हो गई" (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, मुस्नदे-अहमद, इब्ने-जरीर)। सूरा का शेष भाग आयत 8 से अन्त तक उस समय अवतरित हुआ जब इस्लाम का खुल्लम-खुल्ला प्रचार हो जाने के पश्चात् मक्का में पहली बार हज का अवसर आया।

विषय और वार्ता

पहली वह्य (प्रकाशना) में जो सूरा-96 (अलक़) की आरम्भिक 5 आयतों पर आधारित थी, आप (सल्ल०) को यह नहीं बताया गया था कि आप (सल्ल०) किस महान् कार्य पर नियुक्त हुए हैं और आगे क्या कुछ आप (सल्ल०) को करना है, बल्कि केवल एक प्रारम्भिक परिचय कराकर आप (सल्ल.) को कुछ समय के लिए छोड़ दिया गया था ताकि आपके मन पर जो बड़ा बोझ इस पहले अनुभव से पड़ा है उसका प्रभाव दूर हो जाए और आप मानसिक रूप से आगे वह्य प्राप्त करने और नुबूवत के कर्तव्यों के सम्भालने के लिए तैयार हो जाएँ। इस अन्तराल के पश्चात् जब पुन: वह्य के अवतरण का सिलसिला शुरू हुआ तो इस सूरा की आरम्भिक 7 आयतें अवतरित की गई और इनमें पहली बार आप (सल्ल०) को यह आदेश दिया गया कि आप उठें और ईश्वर के पैदा किए हुए लोगों को उस नीति के परिणाम से डराएँ जिसपर वे चल रहे हैं और इस दुनिया में ईश्वर की महानता की उद्घोषणा करें। इसके साथ आप (सल्ल०) को आदेश दिया गया है कि अब जो कार्य आप (सल्ल०) को करना है उसे यह अपेक्षित है कि आप (सल्ल०) का जीवन हर दृष्टि से [अत्यन्त पवित्र, पूर्ण निष्ठा और पूर्ण धैर्य और ईश्वरीय निर्णय पर राज़ी रहने का नमूना हो।] इस ईश्वरीय आदेश के अनुपालन स्वरूप जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इस्लाम का प्रचार आरम्भ किया तो मक्का में खलबली मच गई और विरोधों का एक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ। कुछ महीने इसी दशा में व्यतीत हुए थे कि हज का समय आ गया। क़ुरैश के सरदारों ने [इस भय से कि कहीं बाहर से आनेवाले हाजी इस्लाम के प्रचार से प्रभावित न हो जाएँ] एक सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें यह निश्चय किया कि हाजियों के आते ही उनमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के विरुद्ध प्रोपगंडा शुरू कर दिया जाए। इसपर सहमति के पश्चात् वलीद-बिन-मुग़ीरा ने उपस्थित लोगों से कहा कि यदि आप लोगों ने मुहम्मद (सल्ल०) के सम्बन्ध में विभिन्न बातें लोगों से कहीं तो हम सबका विश्वास जाता रहेगा। इसलिए कोई एक बात निर्धारित कर लीजिए जिसे सब एकमत होकर कहें। [इसपर किसी ने आप (सल्ल०) को काहिन, किसी ने दीवाना और उन्मादी, किसी ने कवि और किसी ने जादूगर कहने का प्रस्ताव रखा। लेकिन वलीद इनमें से हर प्रस्ताव को रद्द करता गया। फिर उस] ने कहा कि इन बातों में से जो बात भी तुम करोगे, लोग उसे अनुचित आरोप समझेंगे। अल्लाह की क़सम! उस वाणी में बड़ा माधुर्य है; उसकी जड़ बड़ी गहरी और उसकी डालियाँ फलदार हैं। [अन्त में अबू जहल के आग्रह पर वह स्वयं] सोचकर बोला, "सर्वाधिक अनुकूल बात जो कही जा सकती है वह यह कि तुम अरब के लोगों से कहो कि यह व्यक्ति जादूगर है, यह ऐसी वाणी प्रस्तुत कर रहा है जो आदमी को उसके बाप, भाई, पत्नी, बच्चों और सारे परिवार से जुदा कर देती है।" वलीद की इस बात को सबने स्वीकार कर लिया। [और हज के अवसर पर इसके अनुसार भरपूर प्रोपगंडा किया गया।] किन्तु उसका परिणाम यह हुआ कि कुरैश ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का नाम स्वयं ही सम्पूर्ण अरब में प्रसिद्ध कर दिया, (सीरत इब्ने-हिशाम, प्रथम भाग, पृ० 288-289) । यही घटना है जिसकी इस सूरा के दूसरे भाग में समीक्षा की गई है। इसकी वार्ताओं का क्रम यह है—

आयत 8 से 10 तक सत्य का इनकार करनेवालों को [उनके बुरे परिणाम से] सावधान किया गया है। आयत 11 से 26 तक वलीद-बिन-मुग़ीरा का नाम लिए बिना यह बताया गया है कि अल्लाह ने इस व्यक्ति को क्या कुछ सुख-सामग्रियाँ प्रदान की थीं और उनका प्रत्युत्तर उसने सत्य के विरोध के रूप में दिया है। अपनी इस करतूत के पश्चात् भी यह व्यक्ति चाहता है कि इसे इनाम दिया जाए, जबकि अब यह इनाम का नहीं बल्कि नरक का भागी हो चुका है। इसके बाद आयत 27 से 48 तक नरक की भयावहताओं का उल्लेख किया गया है और यह बताया गया है कि किस नैतिक आधार और चरित्र के लोग उसके भागी हैं। फिर आयत 49 से 53 में इस्लाम-विरोधियों के रोष की अस्ल जड़ बता दी गई है कि वे चूँकि परलोक से निर्भय हैं इसलिए वे कुरआन से भागते हैं और ईमान के लिए तरह-तरह की अनुचित शर्ते पेश करते हैं । अन्त में साफ़-साफ़ कह दिया गया है कि ख़ुदा को किसी के ईमान की कोई आवश्यकता नहीं पड़ गई है कि वह उसकी शर्ते पूरी करता फिरे। क़ुरआन सामान्य जन के लिए एक उपदेश है जो सबके समक्ष प्रस्तुत कर दिया गया है। अब जिसका जी चाहे उसको स्वीकार कर ले।

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سُورَةُ المُدَّثِّرِ
74. अल-मुद्दस्सिर
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡمُدَّثِّرُ
(1) ऐ ओढ़-लपेटकर लेटनेवाले1!
1. ऊपर परिचय में हम इन आयतों के उतरने का जो पसमंज़र (पृष्ठभूमि) बयान कर आए हैं उसपर ग़ौर करने से यह बात अच्छी तरह समझ में आ सकती है कि इस मौक़े पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को ‘या अय्युहर-रसूलु’ (ऐ रसूल) या ‘या अय्युहन-नबिय्यु’ (ऐ नबी) कहकर पुकारने के बजाय ‘या अय्युहल-मुद्दस्सिरु’ (ऐ ओढ़ लपेटकर लेटनेवाले) कहकर क्यों पुकारा गया है। चूँकि नबी (सल्ल०) यकायक जिबरील (अलैहि०) को आसमान और ज़मीन के बीच एक कुर्सी पर बैठे देखकर डर गए थे और उसी हालत में घर पहुँचकर आपने अपने घरवालों से कहा था कि “मुझे ओढ़ाओ, मुझे ओढ़ाओ,” इसलिए अल्लाह तआला ने आप (सल्ल०) को ‘या अय्युहल-मुद्दस्सिरु’ कहकर मुख़ातब किया। पुकारने के इस दिलचस्प अन्दाज़ से ख़ुद-ब-ख़ुद यह मतलब निकलता है कि ऐ मेरे प्यारे बन्दे, तुम ओढ़-लपेटकर लेट कहाँ गए, तुमपर तो एक बड़े काम का बोझ डाला गया है, जिसे अंजाम देने के लिए तुम्हें पुख़्ता इरादे के साथ उठ खड़ा होना चाहिए।
قُمۡ فَأَنذِرۡ ۝ 1
(2) उठो और ख़बरदार करो।2
2. यह उसी तरह का हुक्म है जो हज़रत नूह (अलैहि०) को पैग़म्बरी के मंसब पर मुक़र्रर करते हुए दिया गया था कि “अपनी क़ौम के लोगों को डराओ, इससे पहले कि उनपर एक दर्दनाक अज़ाब आ जाए।” (सूरा-71 नूह, आयत-1)। आयत का मतलब यह है कि ‘ऐ ओढ़ लपेटकर लेटनेवाले, उठो और तुम्हारे आसपास ख़ुदा के जो बन्दे ग़फ़लत की नींद में पड़े हुए हैं उनको चैंका दो। उन्हें उस अंजाम से डराओ जिससे यक़ीनन वे दोचार होंगे, अगर इसी हालत में मुब्तला रहे। उन्हें ख़बरदार कर दो कि वे किसी अन्धेर नगरी में नहीं रहते हैं, जिसमें वे अपनी मर्ज़ी से जो कुछ चाहें करते रहें और उनके किसी अमल की कोई पूछ-गच्छ न हो।
وَرَبَّكَ فَكَبِّرۡ ۝ 2
(3) और अपने रब की बड़ाई का एलान करो।3
3. यह एक नबी का सबसे पहला काम है जिसे इस दुनिया में उसे अंजाम देना होता है। उसका पहला काम ही यह है कि जाहिल इनसान यहाँ जिन-जिन की बड़ाई मान रहे हैं उन सबका इनकार कर दे और हाँके-पुकारे दुनिया-भर में यह एलान कर दे कि इस कायनात (सृष्टि) में बड़ाई एक ख़ुदा के सिवा और किसी की नहीं है। यही वजह है कि इस्लाम में कलिमा ‘अल्लाहु अकबर’ को सबसे ज़्यादा अहमियत दी गई है। अज़ान की शुरुआत ही ‘अल्लाहु अकबर’ के एलान से होती है। नमाज़ में भी मुसलमान ‘अल्लाहु अकबर’ के अलफ़ाज़ कहकर दाख़िल होता है और बार-बार ‘अल्लाहु अकबर’ कहकर उठता और बैठता है। जानवर के गले पर छुरी भी फेरता है तो ‘बिस्मिल्लाहि अल्लाहु अकबर’ कहकर फेरता है। ‘नारए-तकबीर’ (अल्लाहु अकबर) आज सारी दुनिया में मुसलमान की सबसे ज़्यादा नुमायाँ पहचान है, क्योंकि इस उम्मत के नबी (सल्ल०) ने अपना काम ही अल्लाह की बड़ाई बयान करने से शुरू किया था। इस जगह पर एक और बारीक पहलू भी है जिसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। जैसा कि इन आयतों के उतरने के मौक़ा-महल से मालूम हो चुका है, यह पहला मौक़ा था जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को पैग़म्बरी का अज़ीमुश्शान फ़र्ज़ अंजाम देने के लिए उठ खड़े होने का हुक्म दिया गया था। और यह बात ज़ाहिर थी कि जिस शहर और समाज में यह मिशन लेकर उठने का आप (सल्ल०) को हुक्म दिया जा रहा था वह शिर्क (अनेकेश्वरवाद) का गढ़ था। बात सिर्फ़ इतनी ही न थी कि वहाँ के लोग आम अरबों की तरह मुशरिक थे, बल्कि इससे भी बढ़कर बात यह थी कि मक्का अरब के मुशरिकों का सबसे बड़ा तीर्थ बना हुआ था और क़ुरैश के लोग उसके पुरोहित थे। ऐसी जगह किसी शख़्स का बिलकुल अकेले उठना और शिर्क के मुक़ाबले में तौहीद (एकेश्वरवाद) का अलम (झण्डा) बुलन्द कर देना बड़े जान-जोखिम का काम था। इसी लिए “उठो और ख़बरदार करो” के बाद फ़ौरन ही यह फ़रमाना कि “अपने रब की बड़ाई का एलान करो” अपने अन्दर यह मतलब भी रखता है कि जो बड़ी-बड़ी हौलनाक ताक़तें इस काम में तुम्हें रुकावट नज़र आती हैं उनकी ज़रा परवाह न करो और साफ़-साफ़ कह दो कि मेरा रब उन सबसे ज़्यादा बड़ा है जो मेरी इस दावत का रास्ता रोकने के लिए खड़े हो सकते हैं। यह बड़ी-से-बड़ी हिम्मत अफ़ज़ाई (प्रोत्साहन) है जो अल्लाह का काम शुरू करनेवाले किसी शख़्स की की जा सकती है। अल्लाह की बड़ाई का नक़्श जिस आदमी के दिल पर गहरा जमा हुआ हो वह अल्लाह की ख़ातिर अकेला सारी दुनिया से लड़ जाने में भी ज़र्रा बराबर हिचकिचाहट महसूस न करेगा।
وَثِيَابَكَ فَطَهِّرۡ ۝ 3
(4) और अपने कपड़े पाक रखो।4
4. ये बड़े जामेअ् (व्यापक) अलफ़ाज़ हैं, जिनमें बहुत-से मतलब समाए हुए हैं। इनका एक मतलब यह है कि अपने लिबास को गन्दगी से पाक रखो, क्योंकि जिस्म और लिबास की पाकीज़गी और रूह की पाकीज़गी दोनों एक-दूसरे के लिए ज़रूरी हैं। एक पाकीज़ा रूह गन्दे जिस्म और नापाक लिबास में नहीं रह सकती। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) जिस समाज में इस्लाम का पैग़ाम लेकर उठे थे वह सिर्फ़ अक़ीदों और अख़लाक़ की ख़राबियों ही में मुब्तला न था, बल्कि पाकी और सफ़ाई की भी बुनियादी बातों तक से ख़ाली था, और नबी (सल्ल०) का काम उन लोगों को हर लिहाज़ से पाकीज़गी का सबक़ सिखाना था। इसलिए आप (सल्ल०) को हिदायत की गई कि आप (सल्ल०) अपनी ज़ाहिरी ज़िन्दगी में भी पाकी का एक बुलन्द मेआर क़ायम करें। चुनाँचे यह इसी हिदायत का नतीजा है कि नबी (सल्ल०) ने इनसानों को जिस्म और लिबास की पाकी की वह तफ़सीली तालीम दी है जो जाहिलियत के ज़माने के अरबवाले तो एक तरफ़, आज इस ज़माने की बहुत ही तहज़ीब-याफ़्ता (सभ्य) क़ौमों को भी नसीब नहीं है। यहाँ तक कि दुनिया की ज़्यादातर ज़बानों में ऐसा कोई लफ़्ज़ तक नहीं पाया जाता जो तहारत (पाकी और पवित्राता) के लिए बोला जाता हो। इसके बरख़िलाफ़ इस्लाम का हाल यह है कि हदीस और फ़िक़्ह की किताबों में इस्लामी अहकाम की शुरुआत ही किताबुत-तहारत (पाकी या पवित्राता के अध्याय) से होती है जिसमें पाकी और नापाकी के फ़र्क़ और पाकीज़गी के तरीक़ों को बहुत ही तफ़सील के साथ बयान किया गया है। दूसरा मतलब इन अलफ़ाज़ का यह है कि अपना लिबास साफ़-सुथरा रखो। राहिबों (संन्यासियों) के जैसे ख़यालात ने दुनिया में मज़हबियत (धार्मिकता) का मेयार यह बना रखा था कि आदमी जितना ज़्यादा मैला-कुचैला हो उतना ही ज़्यादा मुक़द्दस (धार्मिक, पवित्र) होता है। अगर कोई ज़रा उजले कपड़े ही पहन लेता तो समझा जाता था कि वह दुनियादार इनसान है। हालाँकि इनसानी फ़ितरत मैल-कुचैल से नफ़रत करती है और शराफ़त का मामूली-सा एहसास भी जिसके अन्दर मौजूद हो वह साफ़-सुथरे इनसान ही को पसन्द करता है। इसी वजह से अल्लाह के रास्ते की तरफ़ बुलानेवाले के लिए यह बात ज़रूरी ठहराई गई कि उसकी ज़ाहिरी हालत भी ऐसी पाकीज़ा और बेहतर होनी चाहिए कि लोग उसे इज़्ज़त की निगाह से देखें और उसकी शख़्सियत में कोई ऐसा मैलापन न पाया जाए जो तबीअतों को उससे नफ़रत दिलानेवाला हो। तीसरा मतलब इस बात का यह है कि अपने लिबास को अख़लाक़ी ख़राबियों से पाक रखो। तुम्हारा लिबास साफ़-सुथरा और पाकीज़ा तो ज़रूर हो, मगर उसमें फ़ख़्र और घमण्ड, दिखावा, ठाठ-बाठ और शानो-शौकत का हलका-सा असर तक न होना चाहिए। लिबास वह सबसे पहली चीज़ है जो आदमी की शख़्सियत का परिचय लोगों से कराती है। जिस तरह का लिबास कोई शख़्स पहनता है उसको देखकर लोग पहली निगाह में यह अन्दाज़ा कर लेते हैं कि वह किस तरह का आदमी है। रईसों और नवाबों के लिबास, मज़हबी पेशावरों के लिबास, घमण्डी और ग़लत फ़ितरत के लोगों के लिबास, छिछोरे और घटिया लोगों के लिबास, बदमाश और आवारा तबीअत लोगों के लिबास, सब अपने पहननेवालों के मिज़ाज की नुमाइन्दगी करते हैं। अल्लाह की तरफ़ बुलानेवाले का मिज़ाज ऐसे सब लोगों से फ़ितरी तौर पर अलग होता है, इसलिए उसका लिबास भी उन सबसे ज़रूर ही अलग होना चाहिए। उसको ऐसा लिबास पहनना चाहिए जिसे देखकर हर शख़्स यह महसूस कर ले कि वह एक शरीफ़ और सलीक़ेवाला (सभ्य) इनसान है जो मन की किसी बुराई में मुब्तला नहीं है। चौथा मतलब इसका यह है कि अपना दामन पाक रखो। उर्दू (और हिन्दी) ज़बान की तरह अरबी ज़बान में भी पाकदामनी (सतीत्व) के हममानी अलफ़ाज़ अख़लाक़ी बुराइयों से पाक होने और उम्दा अख़लाक़ से सजे होने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। इब्ने-अब्बास (रज़ि०), इबराहीम नख़ई शअ्बी, अता, मुजाहिद, क़तादा, सईद-बिन-जुबैर, हसन बसरी और क़ुरआन के दूसरे बड़े आलिमों ने इस आयत का यही मतलब बयान किया है कि अपने अख़लाक़ पाकीज़ा रखो और हर तरह की बुराइयों से बचो। अरबी मुहावरे में कहते हैं कि “फ़ुलाँ शख़्स के कपड़े पाक हैं या उसका दामन पाक है।” और इससे मुराद यह होती है कि उसके अख़लाक़ अच्छे हैं। इसके बरख़िलाफ़ कहते हैं कि “फ़ुलाँ शख़्स के कपड़े गन्दे हैं।” और मतलब यह होता है कि वह मामलात का एक ख़राब आदमी है, उसकी बात का कोई भरोसा नहीं।
وَٱلرُّجۡزَ فَٱهۡجُرۡ ۝ 4
(5) और गन्दगी से दूर रहो।5
5. गन्दगी से मुराद हर तरह की गन्दगी है, चाहे वह अक़ीदों और ख़यालात की हो, या अख़लाक़ और आमाल की, या जिस्म, लिबास और रहन-सहन की। मतलब यह है कि तुम्हारे आसपास सारे समाज में तरह-तरह की जो गन्दगियाँ फैली हुई हैं उन सबसे अपना दामन बचाकर रखो। कोई शख़्स कभी तुमपर यह इलज़ाम न रख सके कि जिन बुराइयों से तुम लोगों को रोक रहे हो उनमें से किसी का कोई हलका-सा असर भी तुम्हारी अपनी ज़िन्दगी में पाया जाता है।
وَلَا تَمۡنُن تَسۡتَكۡثِرُ ۝ 5
(6) और एहसान न करो ज़्यादा हासिल करने के लिए।6
6. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘वला तम्नुन तस्तकसिर’। इनके मतलब इतने फैले हुए हैं कि किसी एक जुमले में इनका तर्जमा करके पूरा मतलब अदा नहीं किया जा सकता। इनका एक मतलब यह है कि जिसपर भी एहसान करो बेग़रज़ होकर करो। तुम्हारा देना और बख़शिश और सख़ावत (दानशीलता) और अच्छा सुलूक सिर्फ़ अल्लाह के लिए हो, इसमें कोई असर इस ख़ाहिश का न हो कि एहसान के बदले में तुम्हें किसी तरह के दुनियावी फ़ायदे हासिल हों। दूसरे अलफ़ाज़ में अल्लाह के लिए एहसान करो, फ़ायदा हासिल करने के लिए कोई एहसान न करो। दूसरा मतलब यह है कि पैग़म्बरी का जो काम तुम कर रहे हो यह अगरचे अपनी जगह एक बहुत बड़ा एहसान है कि तुम्हारी बदौलत ख़ुदा के बन्दों को हिदायत मिल रही है, मगर इसका कोई एहसान लोगों पर न जताओ और इसका कोई फ़ायदा अपनी ज़ात के लिए हासिल न करो। तीसरा मतलब यह है कि तुम अगरचे एक बहुत बड़ी ख़िदमत कर रहे हो, मगर अपनी निगाह में अपने इस अमल को कभी बड़ा अमल न समझो और कभी यह ख़याल तुम्हारे दिल में न आए कि पैग़म्बरी का यह फ़र्ज़ अदा करके, और इस काम में जान लड़ाकर तुम अपने रब पर कोई एहसान कर रहे हो।
وَلِرَبِّكَ فَٱصۡبِرۡ ۝ 6
(7) और अपने रब की ख़ातिर सब्र करो।7
7. यानी यह काम जो तुम्हारे सिपुर्द किया जा रहा है, बड़े जान-जोखिम का काम है। इसमें सख़्त मुसीबतों और मुश्किलों और तकलीफ़ों से तुम्हारा सामना होगा। तुम्हारी अपनी क़ौम तुम्हारी दुश्मन हो जाएगी। सारा अरब तुम्हारे ख़िलाफ़ लामबन्द हो जाएगा। मगर जो कुछ भी इस राह में पेश आए, अपने रब की ख़ातिर उसपर सब्र करना और अपने फ़र्ज़ (ज़िम्मेदारी) को पूरी मज़बूती और मन के ठहराव के साथ पूरा करना। इससे दूर रखने के लिए डर, लोभ-लाचल, दोस्ती-दुश्मनी, मुहब्बत हर चीज़ तुम्हारे रास्ते में रुकावट बन जाएगी। इन सबके मुक़ाबले में मज़बूती के साथ अपनी बात पर क़ायम रहना। ये थीं वे सबसे पहली हिदायतें जो अल्लाह तआला ने अपने रसूल को उस वक़्त दी थीं जब उसने आप (सल्ल०) को यह हुक्म दिया था कि आप उठकर पैग़म्बरी के काम की शुरुआत कर दें। कोई शख़्स अगर इन छोटे-छोटे जुमलों पर और इनके मतलबों पर ग़ौर करे तो उसका दिल गवाही देगा कि एक नबी को पैग़म्बरी का काम शुरू करते वक़्त इससे बेहतर कोई हिदायतें नहीं दी जा सकती थीं। इनमें यह भी बता दिया गया कि आप (सल्ल०) को काम क्या करना है, और यह भी समझा दिया गया कि इस काम के लिए आप (सल्ल०) की ज़िन्दगी और आप (सल्ल०) का अख़लाक़ और सुलूक कैसा होना चाहिए, और यह तालीम भी दे दी गई कि यह काम आप (सल्ल०) किस ज़ेहनियत (मानसिकता) और किस सोच के साथ अंजाम दें, और इस बात से भी ख़बरदार कर दिया गया कि इस काम में आप (सल्ल०) को किन हालात का सामना पड़ेगा और उनका मुक़ाबला आप (सल्ल०) को किस तरह करना होगा। आज जो लोग तास्सुब (दुराग्रह) में अन्धे होकर यह कहते हैं कि अल्लाह की पनाह, मिरगी के दौरों में यह कलाम अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की ज़बान पर जारी हो जाया करता था वे ज़रा आँखें खोलकर इन जुमलों को देखें और ख़ुद सोचें कि ये मिरगी के दौरे में निकले हुए अलफ़ाज़ हैं या एक ख़ुदा की हिदायतें हैं जो पैग़म्बरी के काम पर मुक़र्रर करते हुए वह अपने बन्दे को दे रहा है?
فَإِذَا نُقِرَ فِي ٱلنَّاقُورِ ۝ 7
(8) अच्छा, जब सूर में फूँक मारी जाएगी,
فَذَٰلِكَ يَوۡمَئِذٖ يَوۡمٌ عَسِيرٌ ۝ 8
(9) वह दिन बड़ा ही सख़्त दिन होगा,8
8. जैसा कि हम परिचय में बयान कर आए हैं, इस सूरा का यह हिस्सा शुरुआती आयतों के कुछ महीने बाद उस वक़्त उतरा था जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की तरफ़ से खुल्लम-खुल्ला इस्लाम की तबलीग़ (प्रचार-प्रसार) शुरू हो जाने के बाद पहली बार हज का ज़माना आया और क़ुरैश के सरदारों ने एक कॉन्फ़्रेंस करके यह तय किया कि बाहर से आनेवाले हाजियों को क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) से बदगुमान करने के लिए प्रोपगण्डे की एक ज़बरदस्त मुहिम चलाई जाए। इन आयतों में इस्लाम-मुख़ालिफ़ों की इसी कार्रवाई पर तबसिरा (टिप्पणी) किया गया है और इस तबसिरे की शुरुआत इन अलफ़ाज़ से की गई है जिनका मतलब यह है कि अच्छा, यह हरकतें जो तुम करना चाहते हो कर लो, दुनिया में इनसे कोई मक़सद हासिल तुमने कर भी लिया तो उस दिन अपने बुरे अंजाम से कैसे बच निकलोगे जब सूर (नरसिंघा) में फूँक मारी जाएगी और क़ियामत बरपा होगी। (सूर की तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, हाशिया-47; सूरा-14 इबराहीम, हाशिया-57; सूरा-20 ता-हा, हाशिया-78; सूरा-22 हज, हाशिया-1; सूरा-36 या-सीन, हाशिए—46, 47; सूरा-39 ज़ुमर, हाशिया-79; सूरा-50 क़ाफ़, हाशिया-52)
عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ غَيۡرُ يَسِيرٖ ۝ 9
(10) इनकारियों के लिए हलका न होगा।9
9. इस बात से ख़ुद-ब-ख़ुद यह नतीजा निकलता है कि वह दिन ईमान लानेवालों के लिए हलका होगा और उसकी सख़्ती सिर्फ़ हक़ का इनकार करनेवालों के लिए ख़ास होगी। इसके अलावा यह कहना अपने अन्दर यह मतलब भी रखता है कि उस दिन की सख़्ती हक़ का इनकार करनेवालों के लिए हमेशा रहनेवाली सख़्ती होगी, वह ऐसी सख़्ती न होगी जिसके बाद कभी उसके नर्मी में बदल जाने की उम्मीद की जा सकती हो।
ذَرۡنِي وَمَنۡ خَلَقۡتُ وَحِيدٗا ۝ 10
(11) छोड़ दो मुझे और उस शख़्स को10 जिसे मैंने अकेला पैदा किया,11
10. यह बात नबी (सल्ल०) से कही जा रही है और इसका मतलब यह है कि ऐ नबी, हक़ के दुश्मनों की इस कॉन्फ़्रेंस में जिस शख़्स (वलीद-बिन-मुग़ीरा) ने तुम्हें बदनाम करने के लिए यह मश्वरा दिया है कि तमाम अरब से आनेवाले हाजियों में तुम्हें जादूगर मशहूर किया जाए, उसका मामला तुम ख़ुदा पर छोड़ दो। उससे निबटना अब ख़ुदा का काम है, तुम्हें इसकी फ़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं है।
11. इस जुमले के दो मतलब हो सकते हैं और दोनों ही सही हैं। एक यह कि जब ख़ुदा ने उसे पैदा किया था उस वक़्त यह कोई माल और औलाद और हैसियत और हुकूमत लेकर पैदा नहीं हुआ था। दूसरा यह कि उसका पैदा करनेवाला अकेला ख़ुदा ही था, वे दूसरे माबूद, जिनकी ख़ुदाई क़ायम रखने के लिए यह तुम्हारी तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत की मुख़ालफ़त में इतना ज़्यादा सरगर्म हैं, उसको पैदा करने में ख़ुदा के साथ शरीक न थे।
وَجَعَلۡتُ لَهُۥ مَالٗا مَّمۡدُودٗا ۝ 11
(12) बहुत-सा माल उसको दिया,
وَبَنِينَ شُهُودٗا ۝ 12
(13) उसके साथ हाज़िर रहनेवाले बेटे दिए,12
12. वलीद-बिन-मुग़ीरा के दस-बारह लड़के थे, जिनमें से हज़रत ख़ालिद-बिन-वलीद (रज़ि०) इस्लामी इतिहास में सबसे ज़्यादा मशहूर हैं। इन बेटों के लिए ‘शुहूद’ का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है, जिसके कई मतलब हो सकते हैं। एक यह कि उनको कहीं अपनी रोज़ी की दौड़-धूप और सफ़र करने की ज़रूरत पेश नहीं आती, उनके घर खाने को इतना मौजूद है कि हर वक़्त अपने बाप के पास मौजूद और उसकी मदद के लिए हाज़िर रहते हैं। दूसरा यह कि उसके सब बेटे नामवर और असरवाले हैं, मजलिसों और महफ़िलों में उसके साथ शरीक होते हैं। तीसरा यह कि वे इस मर्तबे के लोग हैं कि मामलों में उनकी गवाही क़ुबूल की जाती है।
وَمَهَّدتُّ لَهُۥ تَمۡهِيدٗا ۝ 13
(14) और उसके लिए रियासत का रास्ता आसान किया,
ثُمَّ يَطۡمَعُ أَنۡ أَزِيدَ ۝ 14
(15) फिर वह लालच रखता है कि मैं उसे और ज़्यादा दूँ।13
13. इसका एक मतलब तो यह है कि इसपर भी उसका लालच ख़त्म न हुआ। इतना कुछ पाने के बाद भी वह बस इसी धुन में लगा हुआ है कि उसे दुनिया-भर की नेमतें मिल जाएँ। दूसरा मतलब हज़रत हसन बसरी (रह०) और कुछ दूसरे बुज़ुर्गों ने यह बयान किया है कि वह कहा करता था कि अगर सचमुच मुहम्मद (सल्ल०) का यह बयान सच्चा है कि मरने के बाद कोई दूसरी ज़िन्दगी है और उसमें कोई जन्नत भी होगी तो वह जन्नत मेरे लिए ही बनाई गई है।
كَلَّآۖ إِنَّهُۥ كَانَ لِأٓيَٰتِنَا عَنِيدٗا ۝ 15
(16) हरगिज़ नहीं, वह हमारी आयतों से दुश्मनी रखता है।
سَأُرۡهِقُهُۥ صَعُودًا ۝ 16
(17) मैं तो उसे बहुत जल्द एक कठिन चढ़ाई चढ़वाऊँगा।
إِنَّهُۥ فَكَّرَ وَقَدَّرَ ۝ 17
(18) उसने सोचा और कुछ बात बनाने की कोशिश की,
فَقُتِلَ كَيۡفَ قَدَّرَ ۝ 18
(19) तो ख़ुदा की मार उसपर, कैसी बात बनाने की कोशिश की।
ثُمَّ قُتِلَ كَيۡفَ قَدَّرَ ۝ 19
(20) हाँ, ख़ुदा की मार उसपर, कैसी बात बनाने की कोशिश की।
ثُمَّ نَظَرَ ۝ 20
(21) फिर (लोगों की तरफ़) देखा।
ثُمَّ عَبَسَ وَبَسَرَ ۝ 21
(22) फिर माथा सिकोड़ा और मुँह बनाया।
ثُمَّ أَدۡبَرَ وَٱسۡتَكۡبَرَ ۝ 22
(23) फिर पलटा और घमण्ड में पड़ गया।
فَقَالَ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ يُؤۡثَرُ ۝ 23
(24) आख़िरकार बोला कि यह कुछ नहीं है, मगर एक जादू जो पहले से चला आ रहा है,
إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا قَوۡلُ ٱلۡبَشَرِ ۝ 24
(25) यह तो एक इनसानी कलाम है।14
14. यह उस वाक़िए का ज़िक्र है जो मक्का के इस्लाम-दुश्मनों की ऊपर बयान की गई कॉन्फ़्रेंस में पेश आया था। इसकी जो तफ़सीलात हम परिचय में नक़्ल कर चुके हैं उनसे यह बात साफ़ हो जाती है कि यह शख़्स दिल में क़ुरआन के अल्लाह का कलाम होने को मान चुका था। लेकिन अपनी क़ौम में सिर्फ़ अपना असर और दबदबा बनाए रखने के लिए ईमान लाने पर तैयार न था। जब इस्लाम-दुश्मनों की उस कॉन्फ़्रेंस में पहले उसने ख़ुद उन तमाम इलज़ामों को रद्द कर दिया जो क़ुरैश के सरदार अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर लगा रहे थे तो उसे मजबूर किया गया कि वह ख़ुद कोई ऐसा इलज़ाम तराशे जिसे अरब के लोगों में फैलाकर नबी (सल्ल०) को बदनाम किया जा सकता हो। इस मौक़े पर जिस तरह वह अपने ज़मीर (अन्तरात्मा) से लड़ा है और जिस सख़्त ज़ेहनी कशमकश में काफ़ी देर मुब्तला रहकर आख़िरकार उसने एक इलज़ाम घड़ा है उसकी पूरी तस्वीर यहाँ खींच दी गई है।
سَأُصۡلِيهِ سَقَرَ ۝ 25
(26) बहुत जल्द मैं उसे जहन्नम में झोंक दूँगा।
وَمَآ أَدۡرَىٰكَ مَا سَقَرُ ۝ 26
(27) और तुम क्या जानो कि क्या है वह जहन्नम?
لَا تُبۡقِي وَلَا تَذَرُ ۝ 27
(28) न बाक़ी रखे न छोड़े।15
15. इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि जो शख़्स भी उसमें डाला जाएगा उसे वह जलाकर राख कर देगी, मगर मरकर भी उसका पीछा न छूटेगा, बल्कि वह फिर ज़िन्दा किया जाएगा और फिर जलाया जाएगा। इसी बात को दूसरी जगह इस तरह अदा किया गया है कि ‘ला यमूतु फ़ीहा वला यह्या’ यानी “वह न उसमें मरेगा न जिएगा“। (सूरा-87 आला, आयत-13)। दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि वह अज़ाब के हक़दारों में से किसी को बाक़ी न रहने देगी जो उसकी पकड़ में आए बिना रह जाए, और जो भी उसकी पकड़ में आएगा उसे अज़ाब दिए बिना न छोड़ेगी।
لَوَّاحَةٞ لِّلۡبَشَرِ ۝ 28
(29) खाल झुलस देनेवाली16,
16. यह कहने के बाद कि वह जिस्म में से कुछ जलाए बिना न छोड़ेगी, खाल झुलस देने का अलग से ज़िक्र करना बज़ाहिर कुछ ग़ैर-ज़रूरी-सा महसूस होता है। लेकिन अज़ाब की इस शक्ल को ख़ास तौर पर अलग इसलिए बयान किया गया है कि आदमी की शख़सियत को नुमायाँ करनेवाली चीज़ अस्ल में उसके चेहरे और जिस्म की खाल ही होती है, जिसकी बदनुमाई उसे सबसे ज़्यादा खलती है। अन्दरूनी हिस्सों में चाहे उसे कितनी ही तकलीफ़ हो, वह उसपर इतना ज़्यादा दुखी नहीं होता जितना इस बात पर दुखी होता है कि उसका चेहरा बदनुमा हो जाए, या उसके जिस्म के खुले हिस्सों की खाल पर ऐसे दाग़ पड़ जाएँ जिन्हें देखकर हर शख़्स उससे घिन खाने लगे। इसी लिए फ़रमाया गया कि ये हसीन चेहरे और बड़े-बड़े शानदार जिस्म लिए हुए जो लोग आज दुनिया में अपनी शख़सियत पर फूले फिर रहे हैं, ये अगर अल्लाह की तालीम के साथ दुश्मनी का वह रवैया अपनाएँगे जो वलीद-बिन-मुग़ीरा अपना रहा है तो इनके मुँह झुलस दिए जाएँगे और इनकी खाल जलाकर कोयले की तरह काली कर दी जाएगी।
عَلَيۡهَا تِسۡعَةَ عَشَرَ ۝ 29
(30) उन्नीस कारकुन (कार्यकर्ता) उसपर मुक़र्रर हैं —
وَمَا جَعَلۡنَآ أَصۡحَٰبَ ٱلنَّارِ إِلَّا مَلَٰٓئِكَةٗۖ وَمَا جَعَلۡنَا عِدَّتَهُمۡ إِلَّا فِتۡنَةٗ لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ لِيَسۡتَيۡقِنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ وَيَزۡدَادَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِيمَٰنٗا وَلَا يَرۡتَابَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ وَلِيَقُولَ ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ وَٱلۡكَٰفِرُونَ مَاذَآ أَرَادَ ٱللَّهُ بِهَٰذَا مَثَلٗاۚ كَذَٰلِكَ يُضِلُّ ٱللَّهُ مَن يَشَآءُ وَيَهۡدِي مَن يَشَآءُۚ وَمَا يَعۡلَمُ جُنُودَ رَبِّكَ إِلَّا هُوَۚ وَمَا هِيَ إِلَّا ذِكۡرَىٰ لِلۡبَشَرِ ۝ 30
(31) हमने17 जहन्नम के ये कारकुन फ़रिश्ते बनाए हैं,18 और उनकी तादाद को इनकारियों के लिए आज़माइश बना दिया है,19 ताकि अहले-किताब को यक़ीन आ जाए20 और ईमान लानेवालों का ईमान बढ़े,21 और अहले-किताब और ईमानवाले किसी शक में न रहें, और दिल के बीमार22 इनकारी यह कहें कि भला अल्लाह का इस अजीब बात से क्या मतलब हो सकता है।23 इस तरह अल्लाह जिसे चाहता है गुमराह कर देता है और जिसे चाहता है हिदायत दे देता है।24 और तेरे रब के लश्करों को ख़ुद उसके सिवा कोई नहीं जानता25 — और उस जहन्नम का ज़िक्र इसके सिवा किसी ग़रज़ के लिए नहीं किया गया है कि लोगों को इससे नसीहत हो।26
17. यहाँ से लेकर “तेरे रब के लश्करों को ख़ुद उसके सिवा कोई नहीं जानता” तक की पूरी इबारत एक ऐसी बात है जो ऊपर से चली आ रही बात के बीच उन एतिराज़ करनेवालों के जवाब में कही गई है जिन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की ज़बान से यह सुनकर कि जहन्नम के कारकुनों (कर्मचारियों) की तादाद सिर्फ़ 19 होगी, उसका मज़ाक़ उड़ाना शुरू कर दिया था। उनको यह बात अजीब मालूम हुई कि एक तरफ़ तो हमसे यह कहा जा रहा है कि आदम (अलैहि०) के वक़्त से लेकर क़ियामत तक दुनिया में जितने इनसानों ने भी कुफ़्र (इनकार) और बड़े गुनाह किए हैं वे जहन्नम में डाले जाएँगे, और दूसरी तरफ़ हमें यह ख़बर दी जा रही है कि इतनी बड़ी जहन्नम में इतने अनगिनत इनसानों को अज़ाब देने के लिए सिर्फ़ 19 कारकुन (कर्मचारी) मुक़र्रर होंगे। इसपर क़ुरैश के सरदारों ने बड़े ज़ोर का ठहाका लगाया। अबू-जह्ल बोला, “भाइयो, क्या तुम इतने गए-गुज़रे हो कि तुममें से दस-दस आदमी मिलकर भी जहन्नम के एक-एक सिपाही से निपट न लेंगे?” बनी-जुम्ह के एक पहलवान साहब कहने लगे, “17 से तो मैं अकेला निबट लूँगा, बाक़ी दो को तुम सब मिलकर सँभाल लेना।” इन्हीं सब बातों के जवाब में ये जुमले ऊपर से चली आ रही बात के तौर पर कहे गए हैं।
18. यानी उनकी क़ुव्वतों को इनसानी क़ुव्वतों के जैसा समझ लेना तुम्हारी बेवक़ूफ़ी है। वे आदमी नहीं, फ़रिश्ते होंगे और तुम अन्दाज़ा नहीं कर सकते कि अल्लाह ने कैसी-कैसी ज़बरदस्त ताक़तों के फ़रिश्ते पैदा किए हैं।
19. यानी बज़ाहिर तो इस बात की कोई ज़रूरत न थी कि जहन्नम के कारकुनों (कर्मचारियों) की तादाद बयान की जाती, लेकिन ख़ुदा ने उनकी यह तादाद इसलिए बयान कर दी है कि यह हर उस शख़्स के लिए आज़माइश बन जाए जो अपने अन्दर कोई कुफ़्र (इनकार व अधर्म) छिपाए बैठा हो। ऐसा आदमी चाहे ईमान की कितनी ही नुमाइश कर रहा हो, अगर वह ख़ुदा की ख़ुदाई और उसकी अज़ीम क़ुदरतों के बारे में, या वह्य और पैग़म्बरी के बारे में शक का कोई हलका-सा असर भी अपने दिल में लिए बैठा हो तो यह सुनते ही कि ख़ुदा की इतनी बड़ी जेल में बेहद और बेहिसाब मुजरिम जिन्नों और इनसानों को सिर्फ़ 19 सिपाही क़ाबू में भी रखेंगे और अलग-अलग एक-एक शख़्स को अज़ाब भी देंगे, तो उसका कुफ़्र (इनकार) फ़ौरन खुलकर बाहर आ जाएगा।
20. क़ुरआन के कुछ आलिमों ने इसका यह मतलब बयान किया है कि अहले-किताब (यहूदियों और ईसाइयों) के यहाँ चूँकि उनकी अपनी किताबों में भी जहन्नम के फ़रिश्तों की यही तादाद बयान की गई है, इसलिए यह बात सुनकर उनको यक़ीन आ जाएगा कि यह बात सचमुच अल्लाह तआला ही की फ़रमाई हुई है। लेकिन यह तफ़सीर हमारे नज़दीक दो वजहों से सही नहीं है। पहली यह कि यहूदियों और ईसाइयों की जो मज़हबी किताबें दुनिया में पाई जाती हैं उनमें तलाश के बावजूद हमें यह बात कहीं नहीं मिली कि जहन्नम के फ़रिश्तों की तादाद 19 है। दूसरी, क़ुरआन मजीद में बहुत-सी बातें ऐसी हैं जो अहले-किताब के यहाँ उनकी मज़हबी किताबों में भी बयान की गई हैं, लेकिन इसके बावुजूद वे उसकी वजह यह बयान करते हैं कि मुहम्मद (सल्ल०) ने ये बातें उनकी किताबों से नक़्ल कर ली हैं। इन वजहों से हमारे नज़दीक इस बात का सही मतलब यह है कि मुहम्मद (सल्ल०) को अच्छी तरह मालूम था कि मेरी ज़बान से जहन्नम के 19 फ़रिश्तों का ज़िक्र सुनकर मेरा ख़ूब मज़ाक़ उड़ाया जाएगा, लेकिन इसके बावजूद जो बात अल्लाह तआला की तरफ़ से आनेवाली वह्य में बयान हुई थी उसे उन्होंने किसी डर और झिझक के बिना खुल्लम-खुल्ला लोगों के सामने पेश कर दिया और किसी मज़ाक़ और ठिठोली की ज़र्रा बराबर परवाह न की। अरब के जाहिल लोग तो नबियों की हैसियत और शान से अनजान थे, मगर अहले-किताब ख़ूब जानते थे कि नबियों का हर ज़माने में यही तरीक़ा रहा है कि जो कुछ ख़ुदा की तरफ़ से आता था उसे वे ज्यों-का-त्यों लोगों तक पहुँचा देते थे, चाहे वह लोगों को पसन्द हो या नापसन्द। इस बुनियाद पर अहले-किताब से इस बात की ज़्यादा उम्मीद थी कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के इस रवैये को देखकर उन्हें यक़ीन आ जाएगा कि ऐसे सख़्त मुख़ालिफ़ माहौल में ऐसी बज़ाहिर इन्तिहाई अजीब बात को किसी झिझक के बिना पेश कर देना एक नबी ही का काम हो सकता है। यह बात भी मालूम रहे कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की तरफ़ से यह रवैया बहुत बार ज़ाहिर हुआ है। इसकी सबसे ज़्यादा नुमायाँ मिसाल मेराज का वाक़िआ है जिसे आप (सल्ल०) ने ग़ैर-मुस्लिमों की आम भीड़ में बिना झिझक बयान कर दिया और इस बात की ज़र्रा बराबर परवाह न की कि इस हैरत-अंगेज़ क़िस्से को सुनकर आप (सल्ल०) की मुख़ालफ़त करनेवाले कैसी-कैसी बातें बनाएँगे।
21. यह बात इससे पहले क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर बयान हो चुकी है कि हर आज़माइश के मौक़े पर जब एक ईमानवाला अपने ईमान पर जमा रहता है और शक और इनकार या फ़रमाँबरदारी से भागने या दीन से बेवफ़ाई की राह छोड़कर यक़ीन और भरोसे और फ़रमाँबरदारी और दीन से वफ़ादारी की राह अपनाता है तो उसके ईमान को तरक़्क़ी नसीब होती है। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, आयत-173; सूरा-8 अनफ़ाल, आयत-2, हाशिया-2; सूरा-9 तौबा, आयतें—124, 125, हाशिया-125; सूरा-33 अहज़ाब, आयत-22, हाशिया-38; सूरा-48 फ़तह, आयत-4, हाशिया-7)
22. क़ुरआन मजीद में चूँकि आम तौर से “दिल की बीमारी” से मुराद मुनाफ़क़त (कपटाचार) ली जाती है, इसलिए यहाँ इस लफ़्ज़ को देखकर क़ुरआन के कुछ आलिमों ने यह समझा है कि यह आयत मदीना में उतरी है, क्योंकि मुनाफ़िक़ मदीना ही में सामने आए हैं। लेकिन यह ख़याल कई वजहों से सही नहीं है। पहले तो यह दावा ही ग़लत है कि मक्का में मुनाफ़िक़ मौजूद न थे, और इसकी ग़लती हम तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-29 अन्‌कबूत के परिचय और आयतें—10, 11 हाशियों के साथ, में बयान कर चुके हैं। दूसरे तफ़सीर का यह अन्दाज़ हमारे नज़दीक दुरुस्त नहीं है कि बात का एक सिलसिला जो एक ख़ास मौक़े पर ख़ास हालात में बयान हुआ हो, उसके अन्दर यकायक किसी एक जुमले के बारे में यह कह दिया जाए कि वह किसी दूसरे मौक़े पर उतरा था और यहाँ लाकर किसी जोड़ के बिना शामिल कर दिया गया। सूरा-74 मुद्दस्सिर के इस हिस्से का ऐतिहासिक पसमंज़र हमें भरोसेमन्द रिवायतों से मालूम होता है। ये इबतिदाई मक्की दौर के एक ख़ास वाक़िए के बारे में उतरा है। उसकी बात का पूरा सिलसिला इस वाक़िए के साथ साफ़-साफ़ मेल खाता है। इस बात में आख़िर कौन-सा मौक़ा था कि इस एक जुमले को, अगर वह कई साल बाद मदीना में उतरा था, इस जगह लाकर चस्पाँ कर दिया जाता? अब रहा यह सवाल कि यहाँ दिल की बीमारी से मुराद क्या है, तो इसका जवाब यह है कि इससे मुराद शक की बीमारी है। मक्का ही में नहीं, दुनिया-भर में पहले भी और आज भी कम लोग ऐसे थे और हैं जो पक्के यक़ीन के साथ ख़ुदा, आख़िरत, वह्य, पैग़म्बरी, जन्नत, जहन्नम वग़ैरा का इनकार करते हों। ज़्यादा तादाद हर ज़माने में उन्हीं लोगों की रही है जो इस शक में पड़े रहे हैं कि पता नहीं ख़ुदा है भी या नहीं, आख़िरत होगी भी या नहीं, फ़रिश्तों और जन्नत-जहन्नम का सचमुच कोई वुजूद है भी या ये सिर्फ़ कहानियाँ हैं, और रसूल सचमुच रसूल थे और उनपर वह्य आती थी या नहीं। यही शक अकसर लोगों को कुफ़्र (इनकार) के मक़ाम पर खींच ले गया है, वरना ऐसे बेवक़ूफ़ दुनिया में कभी ज़्यादा नहीं रहे जिन्होंने बिलकुल यक़ीनी तौर पर इन सच्चाइयों का इनकार कर दिया हो, क्योंकि जिस आदमी में ज़र्रा बराबर भी अक़्ल का माद्दा (तत्त्व) मौजूद है वह यह जानता है कि इन बातों के सही होने का इमकान बिलकुल रद्द कर देने और इन्हें नामुमकिन क़रार देने के लिए हरगिज़ कोई बुनियाद मौजूद नहीं है।
23. इसका मतलब यह नहीं है कि वे इसे अल्लाह का कलाम तो मान रहे थे, मगर ताज्जुब इस बात पर ज़ाहिर कर रहे थे कि अल्लाह ने यह बात क्यों फ़रमाई। बल्कि अस्ल में वे यह कहना चाहते थे कि जिस कलाम में ऐसी अक़्ल से परे बात कही गई है वह भला अल्लाह का कलाम कैसे हो सकता है।
24. यानी इस तरह अल्लाह तआला अपने कलाम और अपने हुक्मों में वक़्त-वक़्त पर ऐसी बातें फ़रमा देता है जो लोगों के लिए इम्तिहान और आज़माइश का ज़रिआ बन जाती हैं। एक ही बात होती है जिसे एक सच्चाई पसन्द, सुलझे हुए मिज़ाज का और सही सोच रखनेवाला आदमी सुनता है और सीधे तरीक़े से उसका सीधा मतलब समझकर सीधी राह अपना लेता है। उसी बात को एक हठधर्म, टेढ़ी समझ रखनेवाला और सच्चाई से बचनेवाला आदमी सुनता है और उसका टेढ़ा मतलब निकालकर उसे हक़ से दूर भाग जाने के लिए एक नया बहाना बना लेता है। पहला आदमी चूँकि ख़ुद हक़पसन्द होता है इसलिए अल्लाह तआला उसे सीधा रास्ता दिखा देता है, क्योंकि अल्लाह का यह तरीक़ा नहीं है कि वह हिदायत (सही रास्ता) चाहनेवाले को ज़बरदस्ती गुमराह करे। और दूसरा आदमी चूँकि ख़ुद हिदायत नहीं चाहता, बल्कि गुमराही को ही अपने लिए पसन्द करता है इसलिए अल्लाह उसे गुमराही ही के रास्तों पर धकेल देता है, क्योंकि अल्लाह का यह तरीक़ा भी नहीं है कि जो हक़ से नफ़रत रखता हो वह उसे ज़बरदस्ती खींचकर सच्चाई की राह पर लाए। (अल्लाह के हिदायत देने और गुमराह करने के मसले पर तफ़हीमुल-क़ुरआन में बहुत-सी जगहों पर साफ़ तौर पर रौशनी डाली जा चुकी है। मिसाल के तौर पर इन जगहों को देखिए— सूरा-2 बक़रा, हाशिए—10, 16, 19, 20; सूरा-4 निसा, हाशिया-173; सूरा-6 अनआम, हाशिए—17, 28, 90; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-13, सूरा-18 कह्फ़, हाशिया-54; सूरा-28 क़सस, हाशिया-71)
25. यानी अल्लाह तआला ने अपनी इस कायनात में कैसी-कैसी और कितनी जानदार और बेजान चीज़ें पैदा कर रखी हैं, और उनको क्या-क्या ताक़तें उसने दी हैं, और उनसे क्या-क्या काम वह ले रहा है, इन बातों को अल्लाह के सिवा कोई भी नहीं जानता। ज़मीन के एक छोटे-से गोले पर रहनेवाला इनसान अपनी महदूद (सीमित) नज़र से अपने आस-पास की छोटी-सी दुनिया को देखकर अगर इस ग़लतफ़हमी में मुब्तला हो जाए कि ख़ुदा की ख़ुदाई में बस वही कुछ है जो उसे अपने हवास (इन्द्रियों) या अपने औज़ारों की मदद से महसूस होता है, तो यह उसकी अपनी ही नादानी है। वरना यह ख़ुदा का कारख़ाना इतना फैला हुआ और बड़ा है कि इसकी किसी एक चीज़ का भी पूरा इल्म हासिल कर लेना इनसान के बस में नहीं है, कहाँ यह कि उसकी सारी कुशादगियों और फैलाव का तसव्वुर उसके छोटे-से दिमाग़ में समा सके।
26. यानी लोग अपने आपको उस दोज़ख़ का हक़दार बनाने और उसके अज़ाब का मज़ा चखने से पहले होश में आ जाएँ और अपने आपको उससे बचाने की फ़िक्र करें।
كَلَّا وَٱلۡقَمَرِ ۝ 31
(32) हरगिज़ नहीं,27 क़सम है चाँद की,
27. यानी यह कोई हवाई बात नहीं है जिसका इस तरह मज़ाक़ उड़ाया जाए।
وَٱلَّيۡلِ إِذۡ أَدۡبَرَ ۝ 32
(33) और रात की जबकि वह पलटती है,
وَٱلصُّبۡحِ إِذَآ أَسۡفَرَ ۝ 33
(34) और सुबह की जबकि वह रौशन होती है,
إِنَّهَا لَإِحۡدَى ٱلۡكُبَرِ ۝ 34
(35) यह जहन्नम भी बड़ी चीज़ों में से एक है,28
28. यानी जिस तरह चाँद, और रात और दिन अल्लाह तआला की क़ुदरत की बड़ी-बड़ी निशानियाँ हैं उसी तरह जहन्नम भी क़ुदरत की बड़ी निशानियों में से एक चीज़ है। अगर चाँद का वुजूद ग़ैर-मुमकिन न था, अगर रात और दिन का इस बाक़ायदगी के साथ आना नामुमकिन न था, तो जहन्नम का वुजूद आख़िर क्यों तुम्हारे ख़याल में नामुमकिन हो गया? इन चीज़ों को चूँकि तुम रात-दिन देख रहे हो इसलिए तुम्हें इनपर कोई हैरत नहीं होती, वरना अपने आपमें ये भी अल्लाह की क़ुदरत के बहुत ही हैरत-अंगेज़ मोजिज़े (चमत्कार) हैं, जो अगर तुम्हारे देखने में न आए होते, और कोई तुम्हें ख़बर देता कि चाँद जैसी एक चीज़ भी दुनिया में मौजूद है, या सूरज एक चीज़ है जिसके छिपने से दुनिया में अंधेरा हो जाता है, और जिसके निकल आने से दुनिया चमक उठती है, तो तुम जैसे लोग इस बात को सुनकर भी उसी तरह ठहाके लगाते जिस तरह जहन्नम का ज़िक्र सुनकर ठहाके लगा रहे हो।
نَذِيرٗا لِّلۡبَشَرِ ۝ 35
(36) इंसानों के लिए डरावा,
لِمَن شَآءَ مِنكُمۡ أَن يَتَقَدَّمَ أَوۡ يَتَأَخَّرَ ۝ 36
(37) तुममें से हर उस शख़्स के लिए डरावा जो आगे बढ़ना चाहे या पीछे रह जाना चाहे।29
29. मतलब यह है कि इस चीज़ से लोगों को डरा दिया गया है। अब जिसका जी चाहे इससे डरकर भलाई के रास्ते पर आगे बढ़े और जिसका जी चाहे पीछे हट जाए।
كُلُّ نَفۡسِۭ بِمَا كَسَبَتۡ رَهِينَةٌ ۝ 37
(38) हर आदमी अपनी कमाई के बदले रेहन है30,
30. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-52 तूर, हाशिया-16।
إِلَّآ أَصۡحَٰبَ ٱلۡيَمِينِ ۝ 38
(39) दाएँ बाजूवालों के सिवा31,
31. दूसरे अलफ़ाज़ में बाएँ बाज़ूवाले तो अपनी कमाई के बदले में पकड़ लिए जाएँगे, लेकिन दाएँ बाज़ूवाले अपना रेहन छुड़ा लेंगे। (दाएँ बाज़ू और बाएँ बाज़ू की तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-56 वाक़िआ, हाशिए—5, 6)।
فِي جَنَّٰتٖ يَتَسَآءَلُونَ ۝ 39
(40) जो जन्नतों में होंगे।
عَنِ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 40
(41) वहाँ वे मुजरिमों से पूछेंगे,32
32. इससे पहले कई जगहों पर क़ुरआन मजीद में यह बात गुज़र चुकी है कि जन्नतवाले और जहन्नमवाले एक-दूसरे से हज़ारों-लाखों मील दूर होने के बावजूद जब चाहेंगे एक-दूसरे को किसी आले (यंत्र) की मदद के बिना देख सकेंगे और एक-दूसरे से सीधे तौर पर बात कर सकेंगे। मिसाल के तौर पर देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयतें—44 से 50, हाशिया-35; सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयतें—50 से 57, हाशिया-32।
مَا سَلَكَكُمۡ فِي سَقَرَ ۝ 41
(42) “तुम्हें क्या चीज़ जहन्नम में ले गई?”
قَالُواْ لَمۡ نَكُ مِنَ ٱلۡمُصَلِّينَ ۝ 42
(43) वे कहेंगे, “हम नमाज़ पढ़नेवालों में से न थे33,
33. मतलब यह है कि हम उन लोगों में से न थे जिन्होंने अल्लाह और उसके रसूल और उसकी किताब को मानकर अल्लाह का वह सबसे पहला हक़ अदा किया हो जो एक ख़ुदा-परस्त इनसान पर लागू होता है, यानी नमाज़। इस जगह पर यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि नमाज़ कोई शख़्स उस वक़्त तक पढ़ ही नहीं सकता जब तक वह ईमान न लाया हो। इसलिए नमाज़ियों में से होना आप-से-आप ईमान लानेवालों में से होने को लाज़िम कर देता है। लेकिन नमाज़ियों में से न होने को जहन्नम में जाने का सबब क़रार देकर यह बात साफ़ बयान कर दी गई कि ईमान लाकर भी आदमी जहन्नम से नहीं बच सकता, अगर वह नमाज़ का छोड़नेवाला हो।
وَلَمۡ نَكُ نُطۡعِمُ ٱلۡمِسۡكِينَ ۝ 43
(44) और मिसकीन को खाना नहीं खिलाते थे,34
34. इससे मालूम होता है कि किसी इनसान को भूख में मुब्तला देखना और क़ुदरत रखने के बावजूद उसको खाना न खिलाना इस्लाम की निगाह में कितना बड़ा गुनाह है कि आदमी के जहन्नमी होने की वजहों में ख़ास तौर पर इसका ज़िक्र किया गया है।
وَكُنَّا نَخُوضُ مَعَ ٱلۡخَآئِضِينَ ۝ 44
(45) और हक़ (सच) के ख़िलाफ़ बातें बनानेवालों के साथ मिलकर हम भी बातें बनाने लगते थे,
وَكُنَّا نُكَذِّبُ بِيَوۡمِ ٱلدِّينِ ۝ 45
(46) और बदले के दिन को झूठ क़रार देते थे,
حَتَّىٰٓ أَتَىٰنَا ٱلۡيَقِينُ ۝ 46
(47) यहाँ तक कि हमें उस यक़ीनी चीज़ का सामना करना पड़ गया।”35
35. यानी मरते दम तक हम इसी डगर पर चलते रहे, यहाँ तक कि वह यक़ीनी चीज़ हमारे सामने आ गई जिससे हम बेपरवाह थे। यक़ीनी चीज़ से मुराद मौत भी है और आख़िरत भी।
فَمَا تَنفَعُهُمۡ شَفَٰعَةُ ٱلشَّٰفِعِينَ ۝ 47
(48) उस वक़्त सिफ़ारिश करनेवालों की सिफ़ारिश उनके किसी काम न आएगी।36
36. यानी ऐसे लोग जिन्होंने मरते दम तक यह रवैया अपना रखा हो उनके हक़ में अगर कोई सिफ़ारिश करनेवाला सिफ़ारिश करे भी तो उसे माफ़ी नहीं मिल सकती। सिफ़ारिश (शफ़ाअत) के मसले को क़ुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर इतना साफ़-साफ़ बयान कर दिया गया है कि किसी शख़्स को यह जानने में कोई मुश्किल पेश नहीं आ सकती कि सिफ़ारिश कौन कर सकता है और कौन नहीं कर सकता, किस हालत में की जा सकती है और किस हालत में नहीं की जा सकती, किसके लिए की जा सकती है और किसके लिए नहीं की जा सकती, और किसके लिए फ़ायदेमन्द है और किसके लिए फ़ायदेमन्द नहीं है। दुनिया में चूँकि लोगों की गुमराही के बड़ी वजहों में से एक वजह शफ़ाअत (सिफ़ारिश) के बारे में ग़लत अक़ीदे भी हैं, इसलिए क़ुरआन ने इस मसले को इतना खोलकर बयान कर दिया है कि इसमें किसी तरह के शक की गुंजाइश बाक़ी नहीं छोड़ी। मिसाल के तौर पर नीचे दी गई आयतें देखिए— सूरा-बक़रा, आयत-255; सूरा-6 अनआम, आयत-94, सूरा-7 आराफ़, आयत-53; सूरा-10 यूनुस, आयतें 3, 18; मरयम, आयत-87; सूरा-20 ता-हा, आयत-109, सूरा-21 अम्बिया, आयत-28; सूरा-34 सबा, आयत-23; सूरा-39 ज़ुमर, आयतें—43; 44, सूरा-40 मोमिन, आयत-18; सूरा-44 दुख़ान, आयत-86; सूरा-53 नज्म, आयत-26; सूरा-78 नबा, आयतें—37, 38, तफ़हीमुल-क़ुरआन में जहाँ-जहाँ ये आयतें आई हैं हमने उनकी अच्छी तरह तशरीह कर दी है।
فَمَا لَهُمۡ عَنِ ٱلتَّذۡكِرَةِ مُعۡرِضِينَ ۝ 48
(49) आख़िर इन लोगों को क्या हो गया है कि ये इस नसीहत से मुँह मोड़ रहे हैं
كَأَنَّهُمۡ حُمُرٞ مُّسۡتَنفِرَةٞ ۝ 49
(50) मानो ये जंगली गधे हैं
37. यह एक अरबी मुहावरा है। जंगली गधों की यह ख़ासियत होती है कि ख़तरा भाँपते ही वे इतने बौखलाकर भागते हैं कि कोई दूसरा जानवर इस तरह नहीं भागता। इसलिए अरब के लोग ग़ैर-मामूली तौर पर बौखलाकर भागनेवाले को उन जंगली गधों से मिसाल देते हैं जो शेर की बू (महक) या शिकारियों की आहट पाते ही भाग पड़े हों।
فَرَّتۡ مِن قَسۡوَرَةِۭ ۝ 50
(51) जो शेर से डरकर भाग पड़े हैं।37
بَلۡ يُرِيدُ كُلُّ ٱمۡرِيٕٖ مِّنۡهُمۡ أَن يُؤۡتَىٰ صُحُفٗا مُّنَشَّرَةٗ ۝ 51
(52) बल्कि इनमें से तो हर एक यह चाहता है कि उसके नाम खुले ख़त भेजे जाएँ।38
38. यानी ये चाहते हैं कि अल्लाह तआला ने अगर सचमुच मुहम्मद (सल्ल०) को नबी मुक़र्रर किया है तो वह मक्का के एक-एक सरदार और एक-एक मुखिया के नाम एक ख़त लिखकर भेजे कि मुहम्मद (सल्ल०) हमारे नबी हैं, तुम उनकी पैरवी क़ुबूल करो। और ये ख़त ऐसे हों जिन्हें देखकर उन्हें यक़ीन आ जाए कि अल्लाह तआला ही ने ये लिखकर भेजे हैं। एक और जगह पर क़ुरआन मजीद में मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों की कही हुई यह बात नक़्ल की गई है कि “हम न मानेंगे जब तक वह चीज़ ख़ुद हम को न दी जाए जो अल्लाह के रसूल को दी गई है” (सूरा-6 अनआम, आयत-124)। एक दूसरी जगह उनकी यह माँग नक़्ल की गई है कि आप हमारे सामने आसमान पर चढ़ें और वहाँ से एक लिखी-लिखाई किताब लाकर हमें दें, जिसे हम पढ़ें। (सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-93)
كَلَّاۖ بَل لَّا يَخَافُونَ ٱلۡأٓخِرَةَ ۝ 52
(53) हरगिज़ नहीं, अस्ल बात यह है कि यह आख़िरत का डर नहीं रखते।39
39. यानी इनके ईमान न लाने की अस्ल वजह यह नहीं है कि इनकी ये माँगें पूरी नहीं की जातीं, बल्कि अस्ल वजह यह है कि ये आख़िरत से निडर हैं। इन्होंने सब कुछ इसी दुनिया को समझ रखा है और इन्हें यह ख़याल नहीं है कि इस दुनिया की ज़िन्दगी के बाद कोई और ज़िन्दगी भी है, जिसमें इनको अपने आमाल का हिसाब देना होगा। इसी चीज़ ने इनको दुनिया में बेफ़िक्र और ग़ैर-ज़िम्मेदार बना दिया है। यह हक़ और बातिल (सत्य-असत्य) के सवाल को सिरे से बेमतलब समझते हैं, क्योंकि इन्हें दुनिया में कोई हक़ ऐसा नज़र नहीं आता जिसकी पैरवी का नतीजा ज़रूर अच्छा ही निकलता हो, और न कोई बातिल (असत्य) ऐसा नज़र आता है जिसका नतीजा दुनिया में ज़रूर बुरा ही निकला करता हो। इसलिए ये इस मसले पर ग़ौर करना बेकार समझते हैं कि हक़ीक़त में हक़ क्या है और बातिल (असत्य) क्या। यह मसला संजीदगी के साथ क़ाबिले-ग़ौर अगर हो सकता है तो सिर्फ़ उस शख़्स के लिए जो दुनिया की मौजूदा ज़िन्दगी को थोड़े दिनों की ज़िन्दगी समझता हो और यह मानता हो कि असली और हमेशा रहनेवाली ज़िन्दगी आख़िरत की ज़िन्दगी है, जहाँ हक़ का अंजाम ज़रूर ही अच्छा और बातिल का अंजाम लाज़िमी तौर से बुरा होगा। ऐसा शख़्स तो उन समझ में आनेवाली दलीलों और उन पाकीज़ा तालीमात को देखकर ईमान लाएगा जो क़ुरआन में पेश की गई हैं और अपनी अक़्ल से काम लेकर यह समझने की कोशिश करेगा कि क़ुरआन जिन अक़ीदों और आमाल को ग़लत कह रहा है उनमें हक़ीक़त में क्या ग़लती है। लेकिन आख़िरत का इनकार करनेवाला जो सिरे से सच्चाई की तलाश में संजीदा (गंभीर) ही नहीं है वह ईमान न लाने के लिए आए दिन नित नई माँगें पेश करेगा, हालाँकि उसकी चाहे कोई माँग भी पूरी कर दी जाए, वह इनकार करने के लिए कोई दूसरा बहाना ढूँढ़ निकालेगा। यही बात है जो सूरा-6 अनआम में कही गई है— “ऐ नबी, अगर हम तुम्हारे ऊपर काग़ज़ में लिखी-लिखाई कोई किताब भी उतार देते और लोग उसे अपने हाथों से छूकर भी देख लेते तो जिन्होंने हक़ का इनकार किया है वे यही कहते कि यह तो खुला जादू है।” (सूरा-6 अनआम, आयत-7)
كَلَّآ إِنَّهُۥ تَذۡكِرَةٞ ۝ 53
(54) हरगिज़ नहीं,40 यह तो एक नसीहत है,
40. यानी उनकी ऐसी कोई माँग हरगिज़ पूरी न की जाएगी।
فَمَن شَآءَ ذَكَرَهُۥ ۝ 54
(55) अब जिसका जी चाहे इससे सबक़ हासिल कर ले।
وَمَا يَذۡكُرُونَ إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُۚ هُوَ أَهۡلُ ٱلتَّقۡوَىٰ وَأَهۡلُ ٱلۡمَغۡفِرَةِ ۝ 55
(56) और ये कोई सबक़ हासिल न करेंगे सिवाय यह कि अल्लाह ही ऐसा चाहे।41 वह इसका हक़दार है कि उसका डर रखा जाए42 और वह इस क़ाबिल है कि (डर रखनेवालों को) माफ़ कर दे।43
41. यानी किसी शख़्स के नसीहत हासिल करने का दारोमदार बिलकुल उसकी अपनी मर्ज़ी पर ही नहीं है, बल्कि उसे नसीहत उसी वक़्त मिलती है जबकि अल्लाह की मर्ज़ी भी यह हो कि वह उसे नसीहत हासिल करने की ख़ुशनसीबी दे। दूसरे अलफ़ाज़ में यहाँ इस हक़ीक़त का इज़हार किया गया है कि बन्दे का कोई काम भी तन्हा बन्दे की अपनी मर्ज़ी से पूरा नहीं होता, बल्कि हर काम उसी वक़्त पूरा होता है जब ख़ुदा की मर्ज़ी बन्दे की मर्ज़ी से मिल जाए। यह एक बहुत ही नाज़ुक मसला है, जिसे न समझने से इनसानी सोच बहुत ठोकरें खाती है। थोड़े-से अलफ़ाज़ में इसको यूँ समझा जा सकता है कि अगर इस दुनिया में हर इनसान को यह क़ुदरत (क्षमता) हासिल होती कि जो कुछ वह करना चाहे कर गुज़रे तो सारी दुनिया का निज़ाम (व्यवस्था) छिन्न-भिन्न हो जाता। जो निज़ाम इस जहान में क़ायम है वह इसी वजह से है कि अल्लाह की मर्ज़ी सारी मर्ज़ियों पर हावी है। इनसान जो कुछ भी करना चाहे वह उसी वक़्त कर सकता है जबकि अल्लाह भी यह चाहे कि इनसान को वह काम करने दिया जाए। यही मामला हिदायत और गुमराही का भी है। इनसान का सिर्फ़ ख़ुद हिदायत चाहना इसके लिए काफ़ी नहीं है कि उसे हिदायत मिल जाए, बल्कि उसे हिदायत उस वक़्त मिलती है जब अल्लाह उसकी इस ख़ाहिश को पूरा करने का फ़ैसला कर देता है। इसी तरह गुमराही का चाहना भी बन्दे की तरफ़ से होना काफ़ी नहीं है, बल्कि जब अल्लाह उसके अन्दर गुमराही की तलब पाकर यह फ़ैसला कर देता है कि उसे ग़लत रास्तों में भटकने दिया जाए तब वह उन राहों में भटक निकलता है जिनपर अल्लाह उसे जाने का मौक़ा दे देता है। मिसाल के तौर पर अगर कोई चोर बनना चाहे तो सिर्फ़ उसकी यह ख़ाहिश इसके लिए काफ़ी नहीं है कि जहाँ जिसके घर में घुसकर वह जो कुछ चाहे चुरा ले जाए, बल्कि अल्लाह अपनी बड़ी हिकमतों और मस्लहतों के मुताबिक़ उसकी इस ख़ाहिश को जब और जितना और जिस शक्ल में पूरा करने का मौक़ा देता है उसी हद तक वह उसे पूरा कर सकता है।
42. यानी तुम्हें अल्लाह की नाराज़ी से बचने की जो नसीहत की जा रही है वह इसलिए नहीं है कि अल्लाह को इसकी ज़रूरत है और अगर तुम ऐसा न करो तो उससे अल्लाह का कोई नुक़सान होता है, बल्कि यह नसीहत इस बुनियाद पर की जा रही है कि अल्लाह का यह हक़ है कि उसके बन्दे उसकी रज़ा (ख़ुशनूदी) चाहें और उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ न चलें।
43. यानी यह अल्लाह ही को ज़ेब (शोभा) देता है कि किसी ने चाहे उसकी कितनी ही नाफ़रमानियाँ की हों, जिस वक़्त भी वह अपने इस रवैये से बाज़ आ जाए अल्लाह अपनी रहमत का दामन उसके लिए फैला देता है। अपने बन्दों के लिए कोई बदले का जज़्बा वह अपने अन्दर नहीं रखता कि उनके क़ुसूरों को वह किसी हाल में माफ़ ही न करे और उन्हें सज़ा दिए बिना न छोड़े।