(19) फिर इसका मतलब समझा देना भी हमारे ही ज़िम्मे है13—
13. इससे गुमान होता है, और क़ुरआन के कुछ बड़े आलिमों ने भी इस गुमान का इज़हार किया है कि शायद शुरुआती ज़माने में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) वह्य के उतरने के दौरान ही में क़ुरआन की किसी आयत या किसी लफ़्ज़ या किसी हुक्म का मतलब भी जिबरील (अलैहि०) से पूछ लेते थे, इसलिए नबी (सल्ल०) को न सिर्फ़ यह हिदायत की गई कि जब वह्य उतर रही हो उस वक़्त आप ख़ामोशी से उसको सुनें, और न सिर्फ़ यह इत्मीनान दिलाया गया कि उसका लफ़्ज़-लफ़्ज़ ठीक-ठीक आपकी याददाश्त में महफ़ूज़ कर दिया जाएगा और क़ुरआन को आप ठीक उसी तरह पढ़ सकेंगे जिस तरह वह उतरा है, बल्कि साथ-साथ यह वादा भी किया गया कि अल्लाह तआला के हर हुक्म और हर फ़रमान की मंशा और मक़सद भी पूरी तरह आपको समझा दिया जाए।
यह एक बड़ी अहम आयत है, जिससे कुछ ऐसी उसूली बातें साबित होती हैं, जिन्हें अगर आदमी अच्छी तरह समझ ले तो उन गुमराहियों से बच सकता है जो पहले भी कुछ लोग फैलाते रहे हैं और आज भी फैला रहे हैं।
सबसे पहले तो इससे यह साबित होता है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर सिर्फ़ वही वह्य नहीं उतरती थी जो क़ुरआन में दर्ज है, बल्कि उसके अलावा भी वह्य के ज़रीए से आप (सल्ल०) को ऐसा इल्म दिया जाता था जो क़ुरआन में दर्ज नहीं है। इसलिए कि क़ुरआन के हुक्मों, उसमें बयान हुई बातों, उसके अलफ़ाज़ और उसकी ख़ास इस्तिलाहों (शब्दावलियों) का मतलब और मक़सद नबी (सल्ल०) को समझाया जाता था। वह अगर क़ुरआन ही में दर्ज होता तो यह कहने की कोई ज़रूरत न थी कि इसका मतलब समझा देना या इसकी तशरीह कर देना भी हमारे ही ज़िम्मे है, क्योंकि वह तो फिर क़ुरआन ही में मिल जाता। लिहाज़ा यह मानना पड़ेगा कि क़ुरआन के मतलबों को समझाने और उसकी तशरीह का काम जो अल्लाह तआला की तरफ़ से किया जाते थे वह बहरहाल क़ुरआन के अलफ़ाज़ से अलग था। यह ‘वह्य-ए-ख़फ़ी’ (छिपी हुई वह्य) का एक और सुबूत है जो हमें क़ुरआन से मिलता है (क़ुरआन मजीद से इसके और ज़्यादा सुबूत हमने अपनी किताब ‘सुन्नत की आईनी हैसियत’ में पेज 94, 95 और 118 से 125 में पेश कर दिए हैं)।
दूसरे, क़ुरआन का मतलब और मक़सद और उसके हुक्मों की यह तशरीह जो अल्लाह तआला की तरफ़ से अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को बताई गई थी आख़िर इसी लिए तो बताई गई थी कि आप अपनी बातों और अपने अमल से उसके मुताबिक़ लोगों को क़ुरआन समझाएँ और उसके हुक्मों पर अमल करना सिखाएँ। अगर यह उसका मक़सद न था और यह तशरीह आपको सिर्फ़ इसलिए बताई गई थी कि आप (सल्ल०) अपने-आपकी हद तक इस इल्म को महदूद रखें तो यह एक बेकार काम था, क्योंकि पैग़म्बरी की ज़िम्मेदारियों के अदा करने में इससे कोई मदद नहीं मिल सकती थी। इसलिए सिर्फ़ एक बेवकू़फ़ आदमी ही यह कह सकता है कि तशरीह का यह इल्म सिरे से कोई शरई हैसियत न रखता था। अल्लाह तआला ने ख़ुद सूरा-16 नह्ल, आयत-44, में फ़रमाया है, “और ऐ नबी, यह ज़िक्र हमने तुमपर इसलिए उतारा है ताकि तुम लोगों के सामने उस तालीम को खोलकर साफ़-साफ़ बयान करते जाओ जो उनके लिए उतारी गई है।” (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-नह्ल, हाशिया-40।) और क़ुरआन में चार जगह अल्लाह तआला ने साफ़ तौर से कहा है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का काम सिर्फ़ अल्लाह की किताब की आयतें सुना देना ही न था, बल्कि इस किताब की तालीम देना भी था। (सूरा-2 बक़रा, आयतें—129, 151; सूरा-3 आले-इमरान, आयत-164; सूरा-62 जुमुआ, आयत-2। इन सब आयतों की तशरीह हम “सुन्नत की आईनी हैसियत” में पेज 74 से 77 तक तफ़सील के साथ कर चुके हैं।) इसके बाद कोई ऐसा आदमी जो क़ुरआन को मानता हो इस बात को मानने से कैसे इनकार कर सकता है कि क़ुरआन की सही और तसदीक़ की हुई, बल्कि हक़ीक़त में सरकारी तशरीह सिर्फ़ वह है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अपनी ज़बान और अमल से कर दी है, क्योंकि वह आपकी निजी तशरीह नहीं है, बल्कि ख़ुद क़ुरआन के उतारनेवाले अल्लाह की बताई हुई तशरीह है। उसको छोड़कर या उससे हटकर जो शख़्स भी क़ुरआन की किसी आयत या उसके किसी लफ़्ज़ का कोई मनमाना मतलब बयान करता है, वह ऐसी जसारत (दुस्साहस) करता है जिसको कोई ईमानवाला आदमी नहीं कर सकता।
तीसरे, क़ुरआन को सरसरी तौर पर भी अगर किसी शख़्स ने पढ़ा हो तो वह यह महसूस किए बिना नहीं रह सकता कि इसमें बहुत-सी बातें ऐसी हैं जिन्हें एक अरबी जाननेवाला आदमी सिर्फ़ क़ुरआन के अलफ़ाज़ पढ़कर यह नहीं जान सकता कि उनका हक़ीक़ी मतलब क्या है और उनमें जो हुक्म बयान किया गया है उसपर कैसे अमल किया जाए। मिसाल के तौर पर लफ़्ज़ ‘सलात’ (नमाज़) ही को लीजिए। क़ुरआन मजीद में ईमान के बाद अगर किसी अमल पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया गया है तो वह ‘सलात’ है। लेकिन सिर्फ़ अरबी लुग़त की मदद से कोई शख़्स उसका मतलब तक तय नहीं कर सकता। क़ुरआन में उसका ज़िक्र बार-बार देखकर ज़्यादा-से-ज़्यादा जो कुछ वह समझ सकता है वह यह है कि अरबी ज़बान के इस लफ़्ज़ को किसी ख़ास मानी में इस्तेमाल किया गया है, और इससे मुराद शायद कोई ख़ास काम है जिसे करने की ईमानवालों से माँग की जा रही है। लेकिन सिर्फ़ क़ुरआन को पढ़कर कोई अरबी जाननेवाला यह तय नहीं कर सकता कि वह ख़ास काम क्या है और किस तरह उसे किया जाए। सवाल यह है कि अगर क़ुरआन के भेजनेवाले ने अपनी तरफ़ से एक मुअल्लिम (शिक्षक) को मुक़र्रर करके अपने इस ख़ास लफ़्ज़ का मतलब उसे ठीक-ठीक न बताया होता और सलात के हुक्म पर अमल करने का तरीक़ा पूरी तरह साफ़-साफ़ उसे न सिखा दिया होता, तो क्या सिर्फ़ क़ुरआन को पढ़कर दुनिया में कोई दो मुसलमान भी ऐसे हो सकते थे जो ‘सलात’ के हुक्म पर अमल करने की किसी एक शक्ल पर एकराय हो जाते? आज डेढ़ हज़ार साल से मुसलमान नस्ल-दर-नस्ल एक ही तरह जो नमाज़ पढ़ते चले आ रहे हैं, और दुनिया के हर कोने में करोड़ों मुसलमान जिस तरह नमाज़ के हुक्म पर एक जैसा अमल कर रहे हैं, उसकी वजह यही तो है कि अल्लाह तआला ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर सिर्फ़ क़ुरआन के अलफ़ाज़ ही वह्य नहीं किए थे, बल्कि उन अलफ़ाज़ का मतलब भी आप (सल्ल०) को पूरी तरह समझा दिया था, और इसी मतलब की तालीम आप (सल्ल०) उन सब लोगों को देते चले गए जिन्होंने क़ुरआन को अल्लाह की किताब और आप (सल्ल०) को अल्लाह का रसूल मान लिया।
चौथे, क़ुरआन के अलफ़ाज़ की जो तशरीह अल्लाह ने अपने रसूल (सल्ल०) को बताई और रसूल (सल्ल०) ने अपनी ज़बान और अमल से उसकी जो तालीम उम्मत (पैरवी करनेवालों) को दी, उसको जानने का ज़रिआ हमारे पास हदीस और सुन्नत के सिवा और कोई नहीं है। हदीस से मुराद वे रिवायतें हैं जो नबी (सल्ल०) की कही हुई बातों और किए हुए कामों के बारे में सनद (प्रमाण) के साथ अगलों से पिछलों तक पहुँचीं। और सुन्नत से मुराद वह तरीक़ा है जो नबी (सल्ल०) की ज़बानी और अमली तालीम से मुस्लिम समाज की इन्फ़िरादी और इजतिमाई ज़िन्दगी में रिवाज पाया, जिसकी तफ़सीलात भरोसेमन्द रिवायतों से भी बाद की नस्लों को अगली नस्लों से मिली, और बाद की नस्लों ने अगली नस्लों में इसपर अमल होते भी देखा। इल्म के इस ज़रिए को क़ुबूल करने से जो शख़्स इनकार करता है वह मानो यह कहता है कि अल्लाह तआला ने ‘सुम-म इन-न अलै-ना बयानहू’ (फिर हमारे ज़िम्मे है उसे बयान करना) कहकर क़ुरआन का मतलब अपने रसूल को समझा देने की जो ज़िम्मेदारी ली थी उसे पूरा करने में, अल्लाह की पनाह, वह नाकाम हो गया, क्योंकि यह ज़िम्मेदारी सिर्फ़ रसूल को निजी हैसियत से मतलब समझाने के लिए नहीं ली गई थी, बल्कि इसलिए ली गई थी कि रसूल (सल्ल०) के ज़रिए से उम्मत को अल्लाह की किताब का मतलब समझाया जाए, और इस बात का इनकार करते ही कि हदीस और सुन्नत हमारे लिए क़ानून का दर्जा नहीं रखते आप-से-आप यह लाज़िम हो जाता है कि अल्लाह तआला इस ज़िम्मेदारी को पूरा नहीं कर सका है। हम इसके लिए अल्लाह की पनाह माँगते हैं। इसके जवाब में जो शख़्स यह कहता है कि बहुत-से लोगों ने हदीसें गढ़ भी तो ली थीं, उससे हम कहेंगे कि हदीसों का गढ़ा जाना ख़ुद इस बात का सबसे बड़ा सुबूत है कि शरू में पूरी उम्मत अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की फ़रमाई हुई बातों और किए हुए कामों को क़ानून का दर्जा देती थी, वरना आख़िर गुमराही फैलानेवालों को झूठी हदीसें गढ़ने की ज़रूरत ही क्यों पेश आई? जालसाज़ लोग वही सिक्के तो जाली बनाते हैं जिनका बाज़ार में चलन हो। जिन नोटों की बाज़ार में कोई क़ीमत न हो उन्हें कौन बेवक़ूफ़ जाली तौर पर छापेगा? फिर ऐसी बात कहनेवालों को शायद यह मालूम नहीं है कि इस उम्मत ने पहले दिन से इस बात का इन्तिज़ाम किया था कि जिस पाक हस्ती (सल्ल०) की बातें और काम क़ानून का दर्जा रखते हैं उसकी तरफ़ कोई ग़लत बात जोड़ी न जा सके, और जितना-जितना ग़लत बातों के उस हस्ती से जोड़े जाने का ख़तरा बढ़ता गया उतना ही इस उम्मत का भला चाहनेवाले इस बात का ज़्यादा-से-ज़्यादा एहतिमाम करते चले गए कि सही को ग़लत से अलग किया जाए। सही और ग़लत रिवायतों के पहचानने का यह इल्म एक बड़ा अहम और अज़ीमुश्शान इल्म है जो मुसलमानों के सिवा दुनिया की किसी क़ौम ने आज तक ईजाद नहीं किया है। सख़्त बदनसीब हैं वे लोग जो इस इल्म को हासिल किए बिना इस्लाम के मग़रिबी अंधे मुख़ालिफ़ों के बहकावे में आकर हदीस और सुन्नत को भरोसा न करने के क़ाबिल ठहराते हैं और नहीं जानते कि अपने इस जहालत भरी हरकत (दुस्साहस) से वे इस्लाम को कितना बड़ा नुक़सान पहुँचा रहे हैं।