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سَبِّحِ ٱسۡمَ رَبِّكَ ٱلۡأَعۡلَى

87. अल-आला

(मक्का में उतरी, आयतें 19)

परिचय

नाम

पहली ही आयत 'सब्बिहिस-म रब्बिकल आला' (अपने सर्वोच्च रब के नाम की तसबीह करो) के शब्द 'अल-आला' (सर्वोच्च) को इस सूरा का नाम दिया गया।

उतरने का समय

इसके विषय से भी मालूम होता है कि यह बिल्कुल आरम्भिक काल की अवतरित सूरतों में से है और आयत 6 के ये शब्द भी कि 'हम तुम्हें पढ़वा देंगे, फिर तुम नहीं भूलोगे' यह बताते हैं कि यह सूरा उस काल में उतरी थी जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को अभी वह्य (प्रकाशना) ग्रहण करने का अच्छी तरह अभ्यास नहीं हुआ था और वह्य उतरते समय आपको आशंका होती थी कि कहीं मैं उसके शब्द भूल न जाऊँ।

विषय और वार्ता

इस छोटी-सी सूरा के तीन विषय हैं—

1. तौहीद (एकेश्वरवाद), 2. नबी (सल्ल०) को हिदायत, और 3. आख़िरत। पहली आयत में तौहीद की शिक्षा को इस एक वाक्य में समेट दिया गया है कि अल्लाह के नाम की तसबीह (गुणगान) की जाए, अर्थात् उसको किसी ऐसे नाम से याद न किया जाए जो अपने भीतर किसी प्रकार की कमी, कमज़ोरी, दोष या सृष्ट प्राणियों के समरूप होने का कोई पहलू रखता हो, क्योंकि दुनिया में जितने भी ग़लत और बिगड़े हुए अक़ीदे (धारणाएँ) पैदा हुए हैं, उन सबकी मूल में अल्लाह के बारे में कोई न कोई ग़लत धारणा मौजूद है, जिसने उस पवित्र सत्ता के लिए किसी ग़लत नाम का रूप ले लिया है। इसलिए अक़ीदे को सही करने के लिए सबसे पहली बात यह है कि प्रतापवान अल्लाह को सिर्फ़ उन अच्छे नामों ही से याद किया जाए जो उसके लिए उचित और उपयुक्त हैं। इसके बाद तीन आयतों में बताया गया है कि तुम्हारा रब, जिसके नाम की तसबीह का आदेश दिया जा रहा है, वह है जिसने सृष्टि की हर चीज़ को पैदा किया, उसका सन्तुलन स्थापित किया, उसका भाग्य बनाया, उसे उस काम को अंजाम देने की राह बताई, जिसके लिए वह पैदा की गई है। फिर दो आयतों में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को आदेश दिया गया है कि आप इस चिन्ता में न पड़ें कि यह क़ुरआन शब्दश: आपको कैसे याद रहेगा। इसको आपके हाफ़िज़े (स्मृति) में सुरक्षित कर देना हमारा काम है और इसका सुरक्षित रहना आपकी किसी निजी योग्यता का नतीजा नहीं, बल्कि हमारी उदार कृपा का नतीजा है, वरना हम चाहें तो इसे भुलवा दें। इसके बाद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से कहा गया है कि हर एक को सीधे रास्ते पर ले आने का काम आपके सिपुर्द नहीं किया गया है, बल्कि आपका काम बस सत्य का प्रचार कर देना है, और प्रचार का सीधा-साधा तरीक़ा यह है कि जो उपदेश सुनने और अपनाने के लिए तैयार हो उसे उपदेश दिया जाए, जो उसके लिए तैयार न हो उसके पीछे न पड़ा जाए। अन्त में वार्ता को इस बात पर समाप्त किया गया है कि सफलता सिर्फ़ उन लोगों के लिए है जो अक़ीदे, अख़्लाक़ और अमल की पाकीज़गी अपनाएँ और अपने रब का नाम याद करके नमाज़ पढ़ें। लेकिन लोगों का हाल यह है कि उन्हें सारी चिन्ता बस इसी दुनिया की है, हालाँकि वास्तविक चिन्ता आख़िरत की होनी चाहिए।

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سَبِّحِ ٱسۡمَ رَبِّكَ ٱلۡأَعۡلَى
(1) (ऐ नबी!) अपने आला (सर्वोच्च) रब के नाम की तसबीह (महिमागान) करो1
1. लफ़ज़ी तर्जमा होगा, “अपने आला (सर्वोच्च) रब के नाम की तसबीह (महिमागान) करो।” इसके कई मतलब हो सकते हैं और वे सब ही मुराद हैं। (1) अल्लाह तआला को उन नामों से याद किया जाए जो उसके लायक़ हैं और ऐसे नाम उसकी बरतर हस्ती के लिए इस्तेमाल न किए जाएँ जो अपने मानी और मतलब के लिहाज़ से उसके लिए मुनासिब नहीं हैं, या जिनमें उसके लिए ख़राबी या गुस्ताख़ी या शिर्क का कोई पहलू पाया जाता है या जिनमें उसकी हस्ती या सिफ़ात (गुणों) या कामों के बारे में कोई ग़लत अक़ीदा पाया जाता है। इस ग़रज़ के लिए सबसे महफ़ूज़ तरीक़ा यह है कि अल्लाह तआला के लिए वही नाम इस्तेमाल किए जाएँ जो उसने ख़ुद क़ुरआन मजीद में बयान किए हैं, या जो दूसरी ज़बान में उनका सही तर्जमा हों। (2) अल्लाह के लिए उसकी पैदा की हुई चीज़ों के जैसे नाम, या पैदा की हुई चीज़ों के लिए अल्लाह के नामों जैसे नाम इस्तेमाल न किए जाएँ। अगर कुछ ख़ूबियों से जुड़े नाम ऐसे हों जो अल्लाह तआला के लिए ख़ास नहीं हैं, बल्कि बन्दों के लिए भी उनका इस्तेमाल जाइज़ है, मसलन रऊफ़, रहीम, करीम, समीअ, बसीर वग़ैरा, तो इनमें यह एहतियात (सावधानी) रहनी चाहिए कि बन्दे के लिए उनका इस्तेमाल उस तरीक़े पर न हो जिस तरह अल्लाह के लिए होता है। (3) अल्लाह का नाम अदब और एहतिराम के साथ लिया जाए, किसी ऐसे तरीक़े पर या ऐसी हालत में न लिया जाए जो उसके एहतिराम के ख़िलाफ़ हो, मसलन हँसी-मज़ाक़ में या वाशरूम (शौचालय) में या कोई गुनाह करते हुए उसका नाम लेना, या ऐसे लोगों के सामने उसका ज़िक्र करना जो उसे सुनकर गुस्ताख़ी पर उतर आएँ, या ऐसी मजलिसों में उसका नाम लेना जहाँ लोग बेहूदगियों में लगे हों और उसका ज़िक्र सुनकर मज़ाक़ में उड़ा दें, या ऐसे मौक़े पर उसका पाक नाम ज़बान पर लाना जहाँ अन्देशा हो कि सुननेवाला उसे नागवारी के साथ सुनेगा। इमाम मालिक (रह०) के हालात में लिखा है कि जब कोई माँगनेवाला उनसे कुछ माँगता और वह उस वक़्त उसे कुछ न दे सकते तो आम लोगों की तरह “अल्लाह देगा” न कहते, बल्कि किसी और तरह मजबूरी ज़ाहिर कर देते थे। लोगों ने इसकी वजह पूछी तो उन्होंने कहा कि माँगनेवाले को जब कुछ न दिया जाए और उससे मजबूरी ज़ाहिर कर दी जाए तो यक़ीनन ही उसे नागवार होता है। ऐसे मौक़े पर मैं अल्लाह का नाम लेना मुनासिब नहीं समझता कि कोई शख़्स उसे नागवारी के साथ सुने। हदीसों में हज़रत उक़बा-बिन-आमिर जुहनी से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने सजदे में ‘सुब्हा-न रब्बfयल-आला’ (पाक है मेरा बड़ाईवाला रब) पढ़ने का हुक्म इसी आयत की बुनियाद पर दिया था, और रुकू में ‘सुब्हा-न रब्बियल-अज़ीम’ (पाक है मेरा अज़मतवाला रब) पढ़ने का जो तरीक़ा नबी (सल्ल०) ने मुक़र्रर किया था वह सूरा वाक़िआ की आख़िरी आयत ‘फ़सब्बिह बिस्मि रब्बिकल-अज़ीम’ (पाकी बयान करो अपने अज़मतवाले रब के नाम की) की बुनियाद पर था। (हदीस : मुसनद अहमद, अबू-दाऊद, इब्ने-माजा, इब्ने-हिब्बान, हाकिम, इब्नुल-मुंज़िर)।
ٱلَّذِي خَلَقَ فَسَوَّىٰ ۝ 1
(2) जिसने पैदा किया और तनासुब (सन्तुलन) क़ायम किया,2
2. यानी ज़मीन से आसमानों तक कायनात की हर चीज़ को पैदा किया, और जो चीज़ भी पैदा की उसे बिलकुल सही और दुरुस्त बनाया, उसका तवाज़ुन और तनासुब (सन्तुलन और अनुपात) ठीक-ठीक क़ायम किया, उसको ऐसी सूरत पर पैदा किया कि उस जैसी चीज़ के लिए उससे बेहतर सूरत के बारे में सोचा नहीं जा सकता। यही बात है जो सूरा-32 सजदा, आयत-7 में यूँ कही गई है कि “जो चीज़ भी उसने बनाई क्या ख़ूब ही बनाई”। इस तरह दुनिया की तमाम चीज़ों का सही और मुनासिब पैदा होना ख़ुद इस बात की खुली निशानी है कि कोई हिकमतवाला कारीगर इन सबका पैदा करनेवाला है। किसी इत्तिफ़ाक़ी हादिसे, या बहुत-से पैदा करनेवालों के अमल से कायनात के इन अनगिनत हिस्सों की पैदाइश में यह सलीक़ा, और कुल मिलाकर इन सब हिस्सों (अंशों) के मिलने से कायनात में यह ख़ूबसूरती पैदा न हो सकती थी।
وَٱلَّذِي قَدَّرَ فَهَدَىٰ ۝ 2
(3) जिसने तक़दीर बनाई3 फिर राह दिखाई,4
3. यानी हर चीज़ के पैदा करने से पहले यह तय कर दिया कि उसे दुनिया में क्या काम करना है और उस काम के लिए उसकी मिक़दार (मात्रा) क्या हो, उसकी शक्ल क्या हो, उसकी सिफ़ात (गुण) क्या हों, उसका मक़ाम किस जगह हो, उसके लिए बाक़ी रहने, ठहरने और काम करने के लिए क्या मौक़े और ज़रिए जुटाए जाएँ, किस वक़्त वह वुजूद में आए, कब तक अपने हिस्से का काम करे और कब किस तरह ख़त्म हो जाए। इस पूरी स्कीम का मजमूई नाम उसकी ‘तक़दीर’ है, और यह तक़दीर अल्लाह तआला ने कायनात की हर चीज़ के लिए और कुल मिलाकर पूरी कायनात (सृष्टि) के लिए बनाई है। इसका मतलब यह है कि पैदाइश किसी पेशगी स्कीम के बिना कुछ यूँ ही अलल-टप्प नहीं हो गई है, बल्कि उसके लिए एक पूरी स्कीम पैदा करनेवाले (सृष्टा) के सामने थी और सब कुछ उस स्कीम के मुताबिक़ हो रहा है (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-15 हिज्र, हाशिए—13, 14; सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिया-8; सूरा-54 क़मर, हाशिया-25; सूरा-86 अ-ब-स, हाशिया-12)।
4. यानी किसी चीज़ को भी सिर्फ़ पैदा करके नहीं छोड़ दिया, बल्कि जो चीज़ भी जिस काम के लिए पैदा की उस काम को करने का तरीक़ा भी बताया। दूसरे अलफ़ाज़ में वह सिर्फ़ पैदा करनेवाला ही नहीं है, सीधी राह दिखानेवाला (हादी व मार्गदर्शक) भी है। उसने यह ज़िम्मा लिया है कि जो चीज़ जिस हैसियत में उसने पैदा की है उसको वैसी ही हिदायत दे जिसके वह लायक़ है और उसी तरीक़े से हिदायत दे जो उसके लिए मुनासिब है। एक तरह की हिदायत ज़मीन, चाँद, सूरज, तारों और सय्यारों (ग्रहों) के लिए है, जिसपर वे सब चल रहे हैं और अपने हिस्से का काम अंजाम दे रहे हैं। एक और क़िस्म की हिदायत पानी, हवा, रौशनी और जमादात (जड़ वस्तुएँ) और खनिज पदार्थों के लिए है, जिसके मुताबिक़ वे ठीक-ठीक वही काम कर रहे हैं जिनके लिए उन्हें पैदा किया गया है। एक और तरह की हिदायत पेड़-पौधों के लिए है, जिसकी पैरवी में वे ज़मीन के अन्दर अपनी जड़ें निकालते और फैलाते हैं, उसकी तहों से फूटकर निकलते हैं, जहाँ-जहाँ अल्लाह ने उनके लिए ग़िज़ा (भोजन) पैदा की है वहाँ से उसको हासिल करते हैं, तने, शाखाएँ और पत्तियाँ, फल-फूल लाते हैं और वे काम पूरा करते हैं जो इनमें से हर एक के लिए मुक़र्रर कर दिया गया है। एक और तरह की हिदायत ज़मीन, पानी और हवा में रहनेवाले जानदारों की अनगिनत जातियों और उनके हर फ़र्द के लिए है जिसकी हैरत-अंगेज़ निशानियाँ जानवरों की ज़िन्दगी और उनके कामों में खुल्लम-खुल्ला नज़र आती हैं, यहाँ तक कि एक नास्तिक भी यह मानने पर मजबूर हो जाता है कि अलग-अलग तरह के जानवरों को कोई ऐसा क़ुदरती इल्म हासिल है जो इनसान को अपने हवास (इन्द्रियाँ) तो एक तरफ़, अपनी मशीनों के ज़रिए से भी हासिल नहीं होता। फिर इनसान के लिए दो अलग-अलग तरह की हिदायतें हैं, जो उसकी दो अलग-अलग हैसियतों से मेल खाती हैं। एक वह हिदायत जो उसकी हैवानी ज़िन्दगी के लिए है, जिसकी बदौलत हर बच्चा पैदा होते ही दूध पीना सीख लेता है, जिसके मुताबिक़ इनसान की आँख, नाक, कान, दिल, दिमाग़, फेफड़े, गुर्दे, जिगर, मेदा, आँतें, पट्ठे, रगें (शिराएँ) और शिरयानें (धमनियाँ), सब अपना-अपना काम किए जा रहे हैं, बिना इसके कि इनसान को उसका एहसास हो या उसके इरादे का इन आज़ा (अंगों) के कामों में कोई दख़ल हो। यही हिदायत है जिसके तहत इनसान के अन्दर बचपन, बालिग़ होने, जवानी, कुहूलत (अधेड़ावस्था) और बुढ़ापे के वे सब जिस्मानी और ज़ेहनी बदलाव होते चले जाते हैं जो उसके इरादे और मरज़ी, बल्कि शुऊर (एहसास) के भी मुहताज नहीं हैं। दूसरी हिदायत इनसान की अक़्ली और शुऊरी ज़िन्दगी के लिए है जिसका हाल ग़ैर-शुऊरी ज़िन्दगी की हिदायत से बिलकुल अलग है, क्योंकि ज़िन्दगी के इस हिस्से में इनसान को एक तरह का इख़्तियार दे दिया गया है, जिसके लिए हिदायत का वह तरीक़ा मुनासिब नहीं है जो उस ज़िन्दगी के लिए मुनासिब है जो इख़्तियार नहीं रखती। इनसान इस आख़िरी क़िस्म की हिदायत से मुँह मोड़ने के लिए चाहे कितनी ही हुज्जतबाज़ियाँ करे, लेकिन यह बात मानने के लायक़ नहीं है कि जिस पैदा करनेवाले (स्रष्टा) ने इस सारी कायनात में हर चीज़ के लिए उसकी बनावट और हैसियत के मुताबिक़ हिदायत का इन्तिज़ाम किया है उसने इनसान के लिए यह तक़दीर तो बना दी होगी कि वह उसकी दुनिया में अपने इख़्तियार इस्तेमाल करे, मगर उसको यह बताने का कोई इन्तिज़ाम न किया होगा कि इस इख़्तियार के इस्तेमाल की सही शक्ल क्या है और ग़लत शक्ल क्या (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, हाशिए—9, 10, 14, 56; सूरा-20 ता-हा, हाशिया-23; सूरा-55 रहमान, हाशिए—2, 3, सूरा-76 दह्‍र, हाशिया-5)।
وَٱلَّذِيٓ أَخۡرَجَ ٱلۡمَرۡعَىٰ ۝ 3
(4) जिसने पेड़-पौधे उगाए5
5. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘मरआ’ इस्तेमाल हुआ है जो जानवरों के चारे के लिए बोला जाता है, लेकिन जुमले के मौक़ा-महल से ज़ाहिर होता है कि यहाँ सिर्फ़ चारा मुराद नहीं है, बल्कि हर तरह के पेड़-पौधे मुराद हैं जो ज़मीन से उगते हैं।
فَجَعَلَهُۥ غُثَآءً أَحۡوَىٰ ۝ 4
(5) फिर उनको काला कूड़ा-करकट बना दिया।6
6. यानी वह सिर्फ़ बहार ही लानेवाला नहीं है, पतझड़ भी लानेवाला है। तुम्हारी आँखें उसकी क़ुदरत के दोनों करिश्मे देख रही हैं। एक तरफ़ वह ऐसी हरी-भरी सब्ज़ियाँ और पेड़-पौधे उगाता है जिनकी ताज़गी और हरियाली देखकर दिल ख़ुश हो जाते हैं, और दूसरी तरफ़ उन्हीं पेड़-पौधों को वह पीली, सूखी और काली करके ऐसा कूड़ा-करकट बना देता है जिसे हवाएँ उड़ाती फिरती हैं और सैलाब घास-फूस और कूड़ा-करकट की सूरत में बहा ले जाते हैं। इसलिए किसी को भी यहाँ इस ग़लतफ़हमी में न रहना चाहिए कि वह दुनिया में सिर्फ़ बहार ही देखेगा, पतझड़ से उसका सामना नहीं होगा। यही बात क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर दूसरे अन्दाज़ में बयान हुई है। मिसाल के तौर पर देखिए— सूरा-10 यूनुस, आयत-24; सूरा-18 कह्फ़, आयत-45; सूरा-57 हदीद, आयत-20।
سَنُقۡرِئُكَ فَلَا تَنسَىٰٓ ۝ 5
(6) हम तुम्हें पढ़वा देंगे, फिर तुम नहीं भूलोगे7
7. हाकिम ने हज़रत सअ्द-बिन-अबी-वक़्क़ास (रज़ि०) से और इब्ने-मरदुवैह ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से रिवायत नक़्ल की है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) क़ुरआन के अलफ़ाज़ को इस डर से दोहराते जाते थे कि कहीं भूल न जाएँ। मुजाहिद और कल्बी कहते हैं कि जिबरील (अलैहि०) वह्य सुनाकर फ़ारिग़ न होते थे कि नबी (सल्ल०) भूल जाने के अन्देशे से शुरुआती हिस्सा दोहराने लगते थे। इसी वजह से अल्लाह तआला ने नबी (सल्ल०) को यह इत्मीनान दिलाया कि वह्य के उतरने के वक़्त आप चुपचाप सुनते रहें, हम आपको उसे पढ़वा देंगे और वह हमेशा के लिए आपको याद हो जाएगी, इस बात का कोई अन्देशा आप न करें कि इसका कोई लफ़्ज़ भी आप भूल जाएँगे। यह तीसरा मौक़ा है जहाँ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को वह्य हासिल करने का तरीक़ा सिखाया गया है। इससे पहले के दौ मौक़े सूरा-20 ता-हा, आयत 114 और सूरा-75 क़ियामा, आयतें—16 से 19 में गुज़र चुके हैं। इस आयत से यह बात साबित होती है कि क़ुरआन जिस तरह मोजिज़े (चमत्कार) के तौर पर नबी (सल्ल०) पर उतारा गया था उसी तरह मोजिज़े के तौर पर ही उसका लफ़्ज़-लफ़्ज़ आप (सल्ल०) की याददाश्त (हाफ़िज़े) में महफू़ज़ भी कर दिया गया था और इस बात का कोई इमकान बाक़ी नहीं रहने दिया गया था कि आप (सल्ल०) उसमें से कोई चीज़ भूल जाएँ, या उसके किसी लफ़्ज़ की जगह उसी जैसे मानी रखनेवाला कोई दूसरा लफ़्ज़ आप (सल्ल०) की मुबारक ज़बान से अदा हो जाए।
إِلَّا مَا شَآءَ ٱللَّهُۚ إِنَّهُۥ يَعۡلَمُ ٱلۡجَهۡرَ وَمَا يَخۡفَىٰ ۝ 6
(7) सिवाय उसके जो अल्लाह चाहे,8 वह ज़ाहिर को भी जानता है और जो कुछ छिपा हुआ है उसको भी।9
8. इस जुमले के दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि पूरे क़ुरआन का लफ़्ज़-लफ़्ज़ आपकी याददाश्त (हाफ़िज़े) में महफू़ज़ हो जाना आप (सल्ल०) की क़ुव्वत का करिश्मा नहीं है, बल्कि अल्लाह की मेहरबानी और उसकी तौफ़ीक़ (देन) का नतीजा है, वरना अल्लाह चाहे तो उसे भुला सकता है। यह वही बात है जो दूसरी जगह क़ुरआन मजीद में यूँ बयान की गई है, “अगर हम चाहें तो वह सब कुछ तुमसे छीन लें जो हमने वह्य के ज़रिए से तुम्हें दिया है।” (सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-86) दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि कभी वक़्ती तौर पर आपकी याददाश्त कमज़ोर हो जाना और आपका किसी आयत या लफ़्ज़ को किसी वक़्त भूल जाना इस वादे से अलग है। वादा जिस बात का किया गया है वह यह है कि आप (सल्ल०) पूरी तरह क़ुरआन के किसी लफ़्ज़ को नहीं भूल जाएँगे। इस मतलब की ताईद सहीह बुख़ारी की इस रिवायत से होती है कि एक बार सुबह (फ़ज्र) की नमाज़ पढ़ाते हुए अल्लाह के रसूल (सल्ल०) क़िरअत के दौरान में एक आयत छोड़ गए। नमाज़ के बाद हज़रत उबई-बिन-कअ्ब (रज़ि०) ने पूछा, “क्या यह आयत मंसूख़ (निरस्त) हो चुकी है?” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “नहीं, मैं भूल गया था।”
9. वैसे तो ये अलफ़ाज़ आम हैं और इनका मतलब यह है कि अल्लाह हर चीज़ को जानता है, चाहे वह ज़ाहिर हो या छिपी हुई। लेकिन बात जिस सिलसिले में कही गई है उसका ध्यान रखते हुए देखा जाए तो इसका मतलब यह होता है कि नबी (सल्ल०) जो क़ुरआन को जिबरील (अलैहि०) के साथ-साथ पढ़ते जा रहे हैं, इसका भी अल्लाह को इल्म है, और भूल जाने के जिस डर की वजह से आप (सल्ल०) ऐसा कर रहे हैं वह भी अल्लाह के इल्म में है। इसलिए आप (सल्ल०) को यह इत्मीनान दिलाया जा रहा है कि आप इसे भूलेंगे नहीं।
وَنُيَسِّرُكَ لِلۡيُسۡرَىٰ ۝ 7
(8) और हम तुम्हें आसान तरीक़े की सुहूलत देते हैं,
فَذَكِّرۡ إِن نَّفَعَتِ ٱلذِّكۡرَىٰ ۝ 8
(9) इसलिए तुम नसीहत करो अगर नसीहत फ़ायदेमन्द हो।10
10. आम तौर पर क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने इन दो जुमलों को अलग-अलग समझा है। पहले जुमले का मतलब उन्होंने यह लिया है कि हम तुम्हें एक आसान शरीअत दे रहे हैं जिसपर अमल करना आसान है, और दूसरे जुमले का यह मतलब लिया है कि नसीहत करो, अगर वह फ़ायदेमन्द हो। लेकिन हमारे नज़दीक ‘फ़ज़क्किर’ का लफ़्ज़ दोनों जुमलों को आपस में जोड़ता है और बाद के जुमले की बात पहले जुमले की बात से जोड़ देता है। इसलिए हम अल्लाह के इस फ़रमान का मतलब यह समझते हैं कि ऐ नबी! हम दीन को फैलाने के मामले में तुमको किसी मुश्किल में नहीं डालना चाहते कि तुम बहरों को सुनाओ और अन्धों को राह दिखाओ, बल्कि एक आसान तरीक़ा तुम्हें दिए देते हैं, और वह यह है कि नसीहत करो जहाँ तुम्हें यह महसूस हो कि कोई उससे फ़ायदा उठाने के लिए तैयार है। अब रही यह बात कि कौन उससे फ़ायदा उठाने के लिए तैयार है और कौन नहीं है, तो ज़ाहिर है कि इसका पता तब ही चल सकता है जब आम लोगों में तबलीग़ (प्रचार-प्रसार) की जाए। इसलिए आम तबलीग़ (प्रचार-प्रसार) तो जारी रखनी चाहिए, मगर उससे तुम्हारा मक़सद यह होना चाहिए कि अल्लाह के बन्दों में से उन लोगों को तलाश करो जो उससे फ़ायदा उठाकर सीधे रास्ते को अपना लें। यही लोग इसके हक़दार हैं कि तुम इनपर ध्यान दो और इन्हीं की तालीम और तर्बियत पर तुम्हें ध्यान देना चाहिए। इनको छोड़कर ऐसे लोगों के पीछे पड़ने की तुम्हें कोई ज़रूरत नहीं है जिनके बारे में तजरिबे से तुम्हें मालूम हो जाए कि वे कोई नसीहत क़ुबूल नहीं करना चाहते। यह क़रीब-क़रीब वही बात है जो सूरा-80 अ-ब-स में दूसरे तरीक़े से यूँ बयान की गई है कि “जो शख़्स बेपरवाही बरतता है उसकी तरफ़ तो तुम ध्यान देते हो, हालाँकि अगर वह न सुधरे तो तुमपर इसकी क्या ज़िम्मेदारी है? और जो ख़ुद तुम्हारे पास दौड़ा आता है, और वह डर रहा होता है, उससे तुम बेरुख़ी बरतते हो। हरगिज़ नहीं, यह तो एक नसीहत है, जिसका जी चाहे उसे क़ुबूल करे।” (आयतें—5 से 12)।
سَيَذَّكَّرُ مَن يَخۡشَىٰ ۝ 9
(10) जो शख़्स डरता है वह नसीहत क़ुबूल कर लेगा,11
11. यानी जिस शख़्स के दिल में ख़ुदा का डर और बुरे अंजाम का अन्देशा होगा उसी को यह फ़िक्र होगी कि कहीं मैं ग़लत रास्ते पर तो नहीं जा रहा हूँ, और वही अल्लाह के उस बन्दे की नसीहत को ध्यान से सुनेगा जो उसे हिदायत और गुमराही का फ़र्क़ और कामयाबी और भलाई का रास्ता बता रहा हो।
وَيَتَجَنَّبُهَا ٱلۡأَشۡقَى ۝ 10
(11) और इससे बचेगा वह इन्तिहाई बदक़िस्मत,
ٱلَّذِي يَصۡلَى ٱلنَّارَ ٱلۡكُبۡرَىٰ ۝ 11
(12) जो बड़ी आग में जाएगा,
ثُمَّ لَا يَمُوتُ فِيهَا وَلَا يَحۡيَىٰ ۝ 12
(13) फिर न उसमें मरेगा, न जिएगा।12
12. यानी न उसे मौत ही आएगी कि अज़ाब से छूट जाए और न जीने की तरह जिएगा कि ज़िन्दगी का कोई मज़ा उसे हासिल हो। यह सज़ा उन लोगों के लिए है जो सिरे से अल्लाह और उसके रसूल की नसीहत को क़ुबूल ही न करें और मरते दम तक कुफ़्र और शिर्क या नास्तिकता पर क़ायम रहें। रहे वे लोग जो दिल में ईमान रखते हों, मगर अपने बुरे आमाल की वजह से जहन्नम में डाले जाएँ, तो उनके बारे में नबी (सल्ल०) ने बताया है कि जब वे अपनी सज़ा भुगत लेंगे तो अल्लाह तआला उन्हें मौत दे देगा, फिर उनके हक़ में सिफ़ारिश क़ुबूल की जाएगी और उनकी जली हुई लाशें जन्नत की नहरों पर लाकर डाली जाएँगी और जन्नतवालों से कहा जाएगा कि इनपर पानी डालो, और उस पानी से वे इस तरह जी उठेंगे जैसे पेड़-पौधे पानी पड़ने से उग आते हैं। यह बात अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से हदीस की मशहूर किताब मुस्लिम में हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) और बज़्ज़ार में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) के हवाले से नक़्ल हुई है।
قَدۡ أَفۡلَحَ مَن تَزَكَّىٰ ۝ 13
(14) कामयाब हो गया वह जिसने पाकीज़गी अपनाई13
13. पागीज़गी से मुराद है कुफ़्र और शिर्क छोड़कर ईमान लाना, बुरे अख़लाक़ छोड़कर अच्छे अख़लाक़ अपनाना और बुरे आमाल छोड़कर नेक आमाल करना। ‘फ़लाह’ से मुराद दुनियावी ख़ुशहाली नहीं है, बल्कि हक़ीक़ी कामयाबी है, चाहे दुनिया की ख़ुशहाली उसके साथ मिले या न मिले। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, हाशिया-23; सूरा-40 मोमिनून, हाशिए—1, 11, 50; सूरा-31 लुक़मान, हाशिया-4)।
وَذَكَرَ ٱسۡمَ رَبِّهِۦ فَصَلَّىٰ ۝ 14
15) और अपने रब का नाम याद किया,14 फिर नमाज़ पढ़ी।15
14. याद से मुराद दिल में भी अल्लाह को याद करना है और ज़बान से भी उसका ज़िक्र करना है। क़ुरआन के मुताबिक़ ये दोनों चीज़ें अल्लाह के ज़िक्र में आती हैं।
15. यानी सिर्फ़ याद करके रह नहीं गया, बल्कि नमाज़ की पाबन्दी अपनाकर उसने साबित कर दिया कि जिस ख़ुदा को वह अपना ख़ुदा मान रहा है उसकी फ़रमाँबरदारी के लिए वह अमली तौर से तैयार है और उसको हमेशा याद करते रहने का एहतिमाम कर रहा है। इस आयत में सिलसिलेवार दो बातों का ज़िक्र किया गया है। पहले अल्लाह को याद करना, फिर नमाज़ पढ़ना। इसी के मुताबिक़ यह तरीक़ा मुक़र्रर किया गया है कि ‘अल्लाहु-अक्बर’ कहकर नमाज़ शुरू की जाए। यह उन तमाम गवाहियों में से है जिनसे मालूम होता है कि नमाज़ का जो तरीक़ा अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने बताया है उसके तमाम हिस्से क़ुरआनी हुक्मों की बुनियाद पर हैं। मगर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के सिवा इन हुक्मों को इकट्ठा करके कोई शख़्स भी नमाज़ की यह शक्ल तरतीब नहीं दे सकता था।
بَلۡ تُؤۡثِرُونَ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا ۝ 15
(16) मगर तुम लोग दुनिया की ज़िन्दगी को तरजीह (प्राथमिकता) देते हो,16
16. यानी तुम लोगों की सारी फ़िक्र बस दुनिया और उसके ऐश व आराम और उसके फ़ायदों और लज़्ज़तों के लिए है। यहाँ जो कुछ हासिल हो जाए तुम समझते हो कि बस वही अस्ल फ़ायदा है जो तुम्हें हासिल हो गया है, और यहाँ जिस चीज़ को हासिल करने से तुम रह गए तुम्हारा ख़याल है कि बस वही अस्ल नुक़सान है जो तुम्हें पहुँच गया।
وَٱلۡأٓخِرَةُ خَيۡرٞ وَأَبۡقَىٰٓ ۝ 16
(17) हालाँकि आख़िरत बेहतर है और बाक़ी रहनेवाली है।17
17. यानी आख़िरत दो हैसियतों से दुनिया के मुक़ाबले में तरजीह (प्राथमिकता) के क़ाबिल है। एक यह कि उसकी राहतें और लज़्ज़तें दुनिया की तमाम नेमतों से बढ़कर हैं, और दूसरे यह कि दुनिया मिट जानेवाली है और आख़िरत बाक़ी रहनेवाली।
إِنَّ هَٰذَا لَفِي ٱلصُّحُفِ ٱلۡأُولَىٰ ۝ 17
(18) यही बात पहले आए हुए सहीफ़ों में भी कही गई थी,
صُحُفِ إِبۡرَٰهِيمَ وَمُوسَىٰ ۝ 18
(19) इबराहीम और मूसा के सहीफ़ों में।18
18. यह दूसरी जगह है जहाँ क़ुरआन में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और हज़रत मूसा (अलैहि०) के सहीफ़ों की तालीम का हवाला दिया गया है। इससे पहले सूरा-53 नज्म, आयत-36, 37 में एक हवाला गुज़र चुका है।
سُورَةُ الأَعۡلَىٰ
87. अल-आला
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।