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سُورَةُ البَلَدِ

90. अल-बलद

(मक्का में उतरी, आयतें 20)

परिचय

नाम

पहली ही आयत ला ‘उक़सिमु बिहाज़ल ब-लदि' (नहीं, मैं क़सम खाता हूँ इस शहर अर्थात् मक्का की) के शब्द 'अल-बलद' को इसका नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

इसका विषय और वर्णनशैली मक्का के आरम्भिक काल की सूरतों जैसी है, मगर एक संकेत इसमें ऐसा मौजूद है जो पता देता है कि इसके उतरने का समय वह था जब मक्का के विधर्मी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की दुश्मनी पर तुल गए थे और आपके विरुद्ध हर जुल्म और ज़्यादती को उन्होंने अपने लिए वैध कर लिया था।

विषय और वार्ता

इस सूरा का विषय दुनिया में इंसान की, और इंसान के लिए दुनिया की सही हैसियत समझाना और यह बताना है कि अल्लाह ने इंसान के लिए सौभाग्य और दुर्भाग्य के दोनों रास्ते खोलकर रख दिए हैं। उनको देखने और उनपर चलने के साधन भी उसे जुटा दिए हैं। और अब यह इंसान की अपनी मेहनत और कोशिश पर है कि वह सौभाग्य की राह चलकर अच्छे अंजाम को पहुँचता है या दुर्भाग्य का रास्ता अपनाकर बुरा अंजाम भोगता है। सबसे पहले शहर मक्का और उसमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर आनेवाली मुसीबतें और आदम की पूरी संतान की हालत को इस तथ्य पर गवाह की हैसियत से पेश किया गया है कि यह दुनिया इंसान के लिए विश्रामालय नहीं है, बल्कि यहाँ इसका जन्म ही परिश्रम की हालत में हुआ है। इस विषय को अगर सूरा-53 नज्म की आयत 39 "इंसान के लिए कुछ नहीं, लेकिन वह जिसके लिए उसने कोशिश की" के साथ मिलाकर देखा जाए तो बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि दुनिया के इस कारख़ाने में इंसान का भविष्य उसकी कोशिश और मेहनत पर निर्भर करता है। इसके बाद इंसान का यह भ्रम दूर किया गया है कि ऊपर कोई सर्वोच्च सत्ता नहीं है जो उसके काम की निगरानी करनेवाली और उसकी पकड़ करनेवाली हो। फिर बताया गया है कि दुनिया में इंसान ने मान-सम्मान और महानता के कैसे ग़लत मानदंड बनाकर रखे हैं। जो आदमी अपनी बड़ाई की नुमाइश के लिए ढेरों माल लुटाता है, लोग उसकी ख़ूब प्रशंसा करते हैं, हालाँकि जो हस्ती उसके काम की निगरानी कर रही है वह यह देखती है कि उसने यह माल किन तरीक़ों से प्राप्त किया और किन रास्तों में किस नीयत और किन उद्देश्यों के लिए ख़र्च किया। इसके बाद अल्लाह फ़रमाता है कि हमने इंसान को ज्ञान के साधन और सोचने-समझने की क्षमताएँ देकर उसके सामने भलाई और बुराई के दोनों रास्ते खोलकर रख दिए हैं। एक रास्ता वह है जो नैतिक पतन की ओर जाता है, और उसपर जाने के लिए कोई कष्ट नहीं उठाना पड़ता, बल्कि मन को बड़ा स्वाद मिलता है। दूसरा रास्ता नैतिक ऊँचाइयों की ओर जाता है जो एक दुर्गम घाटी की तरह है। उसपर चलने के लिए आदमी को अपनी इंद्रियों को मजबूर करना पड़ता है। फिर अल्लाह ने बताया है कि वह घाटी क्या है जिससे गुज़रकर आदमी ऊँचाइयों की ओर जा सकता है। इस रास्ते पर चलनेवालों का अंजाम यह है कि आदमी अल्लाह की दयालुताओं का पात्र हो, और इसके विपरीत दूसरा रास्ता अपनानेवालों का अंजाम जहन्नम (नरक) की आग है जिससे निकलने के सारे दरवाज़े बन्द है |

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سُورَةُ البَلَدِ
90. अल-बलद
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
لَآ أُقۡسِمُ بِهَٰذَا ٱلۡبَلَدِ
(1) नहीं,1 मैं क़सम खाता हूँ इस शहर की2,
1. इससे पहले हम सूरा-75 क़ियामह, हाशिया-1 में इस बात को वाज़ेह तौर से बयान कर चुके हैं कि बात की शुरुआत ‘नहीं’ से करना और फिर क़सम खाकर आगे की बात शुरू करना यह मतलब रखता है कि लोग कोई ग़लत बात कह रहे थे, जिसको रद्द करते हुए कहा गया कि नहीं, बात वह नहीं है जो तुम समझे बैठे हो, बल्कि मैं फ़ुलाँ-फ़ुलाँ चीज़ों की क़सम खाता हूँ कि अस्ल बात यह है। अब रहा यह सवाल कि वह बात क्या थी जिसके रद्द में यह कलाम उतरा, तो उसपर बाद का मज़मून ख़ुद दलील दे रहा है। मक्का के इस्लाम-विरोधी यह कहते थे कि हम ज़िन्दगी के जिस तरीक़े पर चल रहे हैं उसमें कोई ख़राबी नहीं है, दुनिया की ज़िन्दगी बस यही कुछ है कि खाओ, पिओ, मज़े उड़ाओ और जब वक़्त आए तो मर जाओ। मुहम्मद (सल्ल०) ख़ाह-मख़ाह हमारे जीने के इस ढंग को ग़लत ठहरा रहे हैं और हमें डरा रहे हैं कि इसपर कभी हमसे पूछ-गछ होगी और हमें इनाम और सज़ा का सामना करना पड़ेगा।
2. यानी शहर मक्का की। इस जगह यह बात खोलने की कोई ज़रूरत न थी कि इस शहर की क़सम क्यों खाई जा रही है। मक्कावाले अपने शहर का पसमंज़र (पृष्ठभूमि) ख़ुद जानते थे कि किस तरह बग़ैर पानी और हरियालीवाली घाटी में सुनसान पहाड़ों के बीच हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने अपनी एक बीवी और एक दूध पीते बच्चे को यहाँ लाकर बेसहारा छोड़ा, किस तरह यहाँ एक घर बनाकर ऐसी हालत में हज का एलान किया जबकि दूर-दूर तक कोई उस एलान को सुननेवाला न था, और फिर किस तरह यह शहर आख़िरकार तमाम अरब का मरकज़ (केन्द्र) बना और ऐसा हरम (पाक और मुहतरम जगह) क़रार पाया कि सैकड़ों साल तक अरब की अराजकता और लाक़ानूनियत से भरी ज़मीन में इसके सिवा अम्न की कोई जगह न थी।
وَأَنتَ حِلُّۢ بِهَٰذَا ٱلۡبَلَدِ ۝ 1
(2) और हाल यह है कि (ऐ नबी) इस शहर में तुमको हलाल कर लिया गया है,3
3. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘अन-त हिल्लुम-बिहाज़ल-बलद’। इसके तीन मतलब क़ुरआन के आलिमों ने बयान किए हैं। एक यह कि आप इस शहर में रह रहे हैं और उनके इस शहर में ठहरने से इसकी बड़ाई में और इज़ाफ़ा हो गया है। दूसरा यह कि अगरचे यह शहर हरम है, मगर एक वक़्त आएगा जब कुछ देर के लिए यहाँ जंग करना और दीन के दुश्मनों को क़त्ल करना पैग़म्बर के लिए हलाल (वैध) हो जाएगा। तीसरा यह कि इस शहर में जंगल के जानवरों तक को मारना और पेड़ों तक को काटना अरबवालों के नज़दीक हराम (वर्जित) है और हर एक को यहाँ अम्न हासिल है, लेकिन हाल यह हो गया है कि ऐ नबी! तुम्हें यहाँ कोई अम्न नसीब नहीं, तुम्हें सताना और तुम्हारे क़त्ल की तदबीरें करना हलाल (जाइज़) कर लिया गया है। अगरचे अलफ़ाज़ में तीनों मतलबों की गुंजाइश है, लेकिन जब हम आगे के मज़मून पर ग़ौर करते हैं तो महसूस होता है कि पहले दो मतलब उससे कोई मेल नहीं रखते और तीसरा मतलब ही उससे मेल खाता है।
وَوَالِدٖ وَمَا وَلَدَ ۝ 2
(3) और क़सम खाता हूँ बाप की और उस औलाद की जो उससे पैदा हुई,4
4. चूँकि यहाँ बाप और उससे पैदा होनेवाली औलाद के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं और आगे इनसान का ज़िक्र किया गया है, इसलिए इससे मुराद आदम (अलैहि०) ही हो सकते हैं, और उनसे पैदा होनेवाली औलाद से मुराद वे तमाम इनसान हैं जो दुनिया में पाए गए हैं, अब पाए जाते हैं और आइन्दा पाए जाएँगे।
لَقَدۡ خَلَقۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ فِي كَبَدٍ ۝ 3
(4) हक़ीक़त में हमने इनसान को मशक़्क़त में पैदा किया है।5
5. यह है वह बात जिसपर वे क़समें खाई गई हैं जो ऊपर बयान हुईं। इनसान के मशक़्क़त में पैदा किए जाने का मतलब यह है कि इनसान इस दुनिया में मज़े करने और चैन की बंसी बजाने के लिए पैदा नहीं किया गया है, बल्कि उसके लिए यह दुनिया मेहनत और मशक़्क़त और सख़्तियाँ झेलने की जगह है और कोई इनसान भी इस हालत से गुज़रे बिना नहीं रह सकता। यह शहर मक्का गवाह है कि अल्लाह के किसी बन्दे ने अपनी जान खपाई थी, तब यह बसा और अरब का मरकज़ (केन्द्र) बना। इस शहर मक्का में मुहम्मद (सल्ल०) की हालत गवाह है कि वह एक मक़सद के लिए तरह-तरह की मुसीबतें बरदाश्त कर रहे हैं, यहाँ तक कि यहाँ जंगल के जानवरों के लिए पनाह है, मगर उनके लिए नहीं है। और हर इनसान की ज़िन्दगी माँ के पेट में हम्ल (गर्भ) ठहरने से लेकर मौत की आख़िरी साँस तक इस बात पर गवाह है कि उसको क़दम-क़दम पर तकलीफ़, मशक़्क़त, मेहनत, ख़तरों और सख़्तियों के मरहलों से गुज़रना पड़ता है। जिसको तुम बड़ी-से-बड़ी रश्क के क़ाबिल हालत में देखते हो, वह भी जब माँ के पेट में था तो हर वक़्त इस ख़तरे में मुब्तला था कि अन्दर ही मर जाए या हम्ल गिर जाए। पैदाइश के वक़्त उसकी मौत और ज़िन्दगी के बीच बाल-भर से ज़्यादा दूरी न थी। पैदा हुआ तो इतना बेबस था कि कोई देख-भाल करनेवाला न होता तो पड़े-पड़े ही सिसक-सिककर मर जाता। चलने के क़ाबिल हुआ तो क़दम-क़दम पर गिरा पड़ता था। बचपन से जवानी और बुढ़ापे तक ऐसे-ऐसे जिस्मानी बदलावों से भी उसको गुज़रना पड़ा कि कोई बदलाव भी अगर ग़लत रुख़ में जाता तो उसकी जान के लाले पड़ जाते। वह अगर बादशाह या डिक्टेटर भी है तो किसी वक़्त इस अन्देशे से उसको चैन नसीब नहीं है कि कहीं उसके ख़िलाफ़ कोई साज़िश न हो जाए। वह अगर दुनिया का फ़ातेह (विश्वविजेता) भी है तो किसी वक़्त इस ख़तरे से अम्न में नहीं है कि उसके अपने कमांडरों में से कोई बग़ावत न कर बैठे। वह अगर अपने वक़्त का सबसे मालदार आदमी भी है तो इस फ़िक्र में हर वक़्त डूबा और उलझा हुआ है कि अपनी दौलत कैसे बढ़ाए और किस तरह उसकी हिफ़ाज़त करे। ग़रज़ किसी इनसान को भी बिना किसी अन्देशे के पूरी तरह चैन और आराम नसीब नहीं है, क्योंकि इनसान पैदा ही मशक़्क़त में किया गया है।
أَيَحۡسَبُ أَن لَّن يَقۡدِرَ عَلَيۡهِ أَحَدٞ ۝ 4
(5) क्या उसने यह समझ रखा है कि उसपर कोई क़ाबू न पा सकेगा?6
6. यानी क्या यह इनसान जो इन हालात में घिरा हुआ है, इस घमण्ड में मुब्तला है कि वह दुनिया में जो कुछ चाहे करे, उससे ऊपर कोई इक़तिदार (सत्ता) उसको पकड़ने और उसका सिर नीचा कर देनेवाला नहीं है? हालाँकि आख़िरत से पहले ख़ुद इस दुनिया में भी हर पल वह देख रहा है कि उसकी तक़दीर पर किसी और की हुकूमत क़ायम है, जिसके फ़ैसलों के आगे उसकी सारी तदबीरें धरी-की-धरी रह जाती हैं। ज़लज़ले का एक झटका, हवा का एक तूफ़ान, नदियों और समुद्रों की एक तूफ़ानी लहर उसे यह बता देने के लिए काफ़ी है कि ख़ुदाई ताक़तों के मुक़ाबले वह कितना बल-बूता रखता है। एक अचानक हादिसा अच्छे-ख़ासे, भले-चंगे इनसान को अपाहिज बनाकर रख देता है। तक़दीर का एक पलड़ा बड़े-से-बड़े हाकिम (सत्ताधारी) आदमी को ऊँचाई से लाकर धरती पर पटक देता है। तरक़्क़ी के आसमान पर पहुँची हुई क़ौमों की क़िस्मतें जब बदलती हैं तो वे उसी दुनिया में बेइज़्ज़त और रुसवा होकर रह जाती हैं जहाँ कोई उनसे आँख मिलाने की हिम्मत न रखता था। इस इनसान के दिमाग़ में आख़िर कहाँ से यह हवा भर गई कि किसी का उसपर बस नहीं चल सकता?
يَقُولُ أَهۡلَكۡتُ مَالٗا لُّبَدًا ۝ 5
(6) कहता है कि मैंने ढेरों माल उड़ा दिया।7
7. ‘अन्‌फ़क़-त मालल-लु-ब-दा’ (मैंने ढेर-सा माल ख़र्च कर दिया) नहीं कहा, बल्कि ‘अहलक्तु मालल-लु-ब-दा’ कहा, जिसका लफ़्ज़ी मतलब है, “मैंने ढेर-सा माल हलाक कर दिया,” यानी लुटा दिया या उड़ा दिया। ये अलफ़ाज़ ज़ाहिर करते हैं कि कहनेवाले को अपनी मालदारी पर कितना घमण्ड था कि जो ढेर-सा माल उसने ख़र्च किया वह उसकी कुल दौलत के मुक़ाबले में इतना मामूली था कि उसके लुटा देने या उड़ा देने की उसे कोई परवाह न थी। और यह माल उड़ा देना था किस मद में? किसी हक़ीक़ी नेकी (भलाई) के काम में नहीं, जैसा कि आगे की आयतों से ख़ुद-ब-ख़ुद ज़ाहिर होता है, बल्कि अपनी दौलतमन्दी की नुमाइश और अपने फ़ख़्र (गर्व) और अपनी बड़ाई को ज़ाहिर करने में। अपनी तारीफ़ में क़सीदे (शेअर) कहनेवाले शाइरों को भारी-भारी इनाम देना, शादी और ग़मी की रस्मों में सैकड़ों-हज़ारों आदमियों की दावत कर डालना, जूए में ढेरों दौलत हार जाना और जुआ जीत जाने पर ऊँट-पर-ऊँट काटना और ख़ूब यारों-दोस्तों को खिलाना, दूसरे सरदारों से बढ़कर शानो-शौकत की नुमाइश करना, पार्टियों में बेतहाशा खाने पकवाना और आम दावत दे देना कि जिसका जी चाहे आए और खाए, या अपने डेरे पर खुला लंगर जारी रखना कि दूर-दूर तक यह शुहरत हो जाए कि फ़ुलाँ रईस का दस्तरख़ान बहुत बड़ा है। ये और ऐसे ही दूसरे दिखावटी ख़र्चे थे जिन्हें जाहिलियत में आदमी की फ़ैयाज़ी (दानशीलता) और और दरियादिली की निशानी और उसकी बड़ाई का निशान समझा जाता था। इन्हीं पर उनकी तारीफ़ों के डंके बजते थे। इन्हीं पर उनकी तारीफ़ों के क़सीदे पढ़े जाते थे। और वे ख़ुद भी इनपर दूसरों के मुक़ाबले में अपनी बड़ाई जताते थे।
أَيَحۡسَبُ أَن لَّمۡ يَرَهُۥٓ أَحَدٌ ۝ 6
(7) क्या वह समझता है कि किसी ने उसको नहीं देखा?8
8. यानी क्या यह फ़ख़्र जतानेवाला यह नहीं समझता कि ऊपर कोई ख़ुदा भी है जो देख रहा है कि किन ज़रिओं से इसने यह दौलत हासिल की, किन कामों में उसे खपाया, और किस नीयत, किन ग़रज़ों और किन मक़सदों के लिए उसने ये सारे काम किए? क्या वह समझता है कि ख़ुदा के यहाँ इस फ़ुज़ूलख़र्ची, इस शुहरत-तलबी और इस फ़ख़्र जताने की कोई क़द्र होगी? क्या उसका ख़याल है कि दुनिया की तरह ख़ुदा भी इससे धोखा खा जाएगा?
أَلَمۡ نَجۡعَل لَّهُۥ عَيۡنَيۡنِ ۝ 7
(8) क्या हमने उसे दो आँखें
9. मतलब यह है कि क्या हमने उसे इल्म और अक़्ल के ज़राए नहीं दिए? दो आँखों से मुराद गाए-भैंस की आँखें नहीं, बल्कि वे इनसानी आँखें हैं जिन्हें खोलकर आदमी देखे तो उसे हर तरफ़ वे निशानियाँ दिखाई देंगी जो हक़ीक़त का पता देती हैं और सही-ग़लत का फ़र्क़ समझाती हैं। ज़बान और होंठों से मुराद सिर्फ़ बोलने के आलात (यन्त्र) नहीं हैं, बल्कि बोलनेवाला मन है जो इन मशीनों के पीछे सोचने-समझने का काम करता है और फिर इनसे मन की बात ज़ाहिर करने का काम लेता है।
وَلِسَانٗا وَشَفَتَيۡنِ ۝ 8
(9) और एक ज़बान और दो होंठ नहीं दिए?9
وَهَدَيۡنَٰهُ ٱلنَّجۡدَيۡنِ ۝ 9
(10) और दोनों नुमायाँ रास्ते उसे (नहीं) दिखा दिए?10
10. यानी हमने सिर्फ़ सोचने-समझने की ताक़तें देकर उसे छोड़ नहीं दिया कि अपना रास्ता ख़ुद तलाश करे, बल्कि उसकी रहनुमाई भी की और उसके सामने भलाई और बुराई, नेकी और बदी के दोनों रास्ते नुमायाँ करके रख दिए, ताकि वह ख़ूब सोच-समझकर इनमें से जिसको चाहे अपनी ज़िम्मेदारी पर अपना ले। यह वही बात है जो सूरा-76 दह्‍र में कही गई है कि “हमने इनसान को एक मिले-जुले नुतफ़े (वीर्य) से पैदा किया, ताकि उसका इम्तिहान लें और इस ग़रज़ के लिए हमने उसे सुनने और देखनेवाला बनाया। हमने उसे रास्ता दिखाया। चाहे शुक्र करनेवाला बने या नाशुक्री करनेवाला।” (आयतें—2, 3)। तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-76 दह्‍र, हाशिए—3 से 5।
فَلَا ٱقۡتَحَمَ ٱلۡعَقَبَةَ ۝ 10
(11) मगर उसने मुश्किल घाटी से गुज़रने की हिम्मत न की।11
11. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘फ़लक़-त-ह-मल-अ-क़-बः’। ‘इक़तिहाम’ का मतलब है अपने आपको किसी सख़्त और मेहनतवाले काम में डालना। और ‘अ-क़-बः’ उस मुश्किल रास्ते को कहते हैं जो बुलन्दी पर जाने के लिए पहाड़ों में से गुज़रता है। इसलिए आयत का मतलब यह है कि दो रास्ते जो हमने उसे दिखाए उनमें से एक बुलन्दी की तरफ़ जाता है, मगर मेहनतवाला और मुश्किल है। उसमें आदमी को अपने मन और उसकी ख़ाहिशों से और शैतान की तरफ़ से दिए जानेवाले लालच से लड़कर चलना पड़ता है। और दूसरा आसान रास्ता है जो खड्डों में उतरता है, मगर इससे नीचाई की तरफ़ जाने के लिए किसी मेहनत की ज़रूरत नहीं पड़ती, बल्कि बस अपने मन की बागें ढीली छोड़ देना काफ़ी है, फिर आदमी ख़ुद ही ढलान की तरफ़ लुढ़कता चला जाता है। अब यह आदमी जिसको हमने दोनों रास्ते दिखा दिए थे, इसने उनमें से नीचे की तरफ़ जानेवाले रास्ते को अपना लिया और और उस मेहनतवाले रास्ते को छोड़ दिया जो बुलन्दी की तरफ़ जानेवाला है।
وَمَآ أَدۡرَىٰكَ مَا ٱلۡعَقَبَةُ ۝ 11
(12) और तुम क्या जानो कि क्या है वह मुश्किल घाटी?
فَكُّ رَقَبَةٍ ۝ 12
(13) किसी गरदन को ग़ुलामी से छुड़ाना,
أَوۡ إِطۡعَٰمٞ فِي يَوۡمٖ ذِي مَسۡغَبَةٖ ۝ 13
(14) या फ़ाक़े के दिन किसी क़रीबी यतीम
يَتِيمٗا ذَا مَقۡرَبَةٍ ۝ 14
(15) या ख़ाक-नशीन (धूल-धूसरित)
أَوۡ مِسۡكِينٗا ذَا مَتۡرَبَةٖ ۝ 15
(16) मिसकीन को खाना खिलाना।12
12. ऊपर चूँकि उसकी फ़ुज़ूलख़र्चियों का ज़िक्र किया गया है, जो वह अपनी बड़ाई की नुमाइश और लोगों पर अपना फ़ख़्र जताने के लिए करता है, इसलिए अब उसके मुक़ाबले में बताया गया है कि वह कौन-सा ख़र्च और माल का कौन-सा इस्तेमाल है जो अख़लाक़ी गिरावटों में गिराने के बजाय आदमी को बुलन्दियों की तरफ़ ले जाता है, मगर उसमें नफ़्स (मन) की कोई लज़्ज़त नहीं है, बल्कि आदमी को उसके लिए अपने मन को दबाकर ईसार (त्याग) और क़ुरबानी से काम लेना पड़ता है। वह ख़र्च यह है कि आदमी किसी ग़ुलाम को ख़ुद आज़ाद करे, या माल से उसकी मदद करे, ताकि वह अपना फ़िद्या अदा करके रिहाई हासिल कर ले, या किसी ग़रीब की गरदन क़र्ज़ के जाल से निकाले, या कोई बेसहारा आदमी अगर किसी जुर्माने के बोझ से लद गया हो तो उसकी जान उससे छुड़ाए। इसी तरह वह ख़र्च यह है कि आदमी भूख की हालत में किसी क़रीबी यतीम (यानी रिश्तेदार या पड़ोसी यतीम) और किसी ऐसे बेसहारा मुहताज को खाना खिलाए जिसे इन्तिहाई ग़रीबी और तंगदस्ती ने मानो मिट्टी में मिला दिया हो और जिसको सहारा देनेवाला कोई न हो। ऐसे लोगों की मदद से आदमी की शुहरत के डंके तो नहीं बजते और न उनको खिलाकर आदमी की दौलतमन्दी और दरियादिली की वे चर्चाएँ होती हैं जो हज़ारों खाते-पीते लोगों की शानदार दावतें करने से हुआ करती हैं, मगर अख़लाक़ की बुलन्दियों की तरफ़ जाने का रास्ता इसी दुश्वार और मुश्किल घाटी से होकर गुज़रता है। इन आयतों में नेकी और भलाई के जिन कामों का ज़िक्र किया गया है, उनकी बहुत बड़ाई अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने बयान की हैं। मसलन ‘फ़क्कु र-क़-बह्’ (गरदन छुड़ाने) के बारे में नबी (सल्ल०) की बहुत-सी हदीसें रिवायतों में नक़्ल हुई हैं, जिनमें से एक हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की यह रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जिस शख़्स ने एक ईमानवाले ग़ुलाम को आज़ाद किया, अल्लाह तआला उस ग़ुलाम के जिस्म के हर हिस्से (अंग) के बदले में आज़ाद करनेवाले शख़्स के जिस्म के हर हिस्से (अंग) को जहन्नम की आग से बचा लेगा, हाथ के बदले हाथ, पाँव के बदले पाँव, शर्मगाह के बदले शर्मगाह।” (हदीस : मुसनद अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी, नसई)। हज़रत अली-बिन-हुसैन (रज़ि०) (इमाम ज़ैनुल-आबिदीन) ने इस हदीस के रावी सअ्द-बिन-मरजाना से पूछा, “क्या तुमने अबू-हुरैरा (रज़ि०) से यह हदीस ख़ुद सुनी है?” उन्होंने कहा, हाँ। इसपर इमाम ज़ैनुल-आबिदीन ने अपने सबसे ज़्यादा क़ीमती ग़ुलाम को बुलाया और उसी वक़्त उसे आज़ाद कर दिया। मुस्लिम में बयान किया गया है कि इस ग़ुलाम के लिए उनको दस हज़ार दिरहम क़ीमत मिल रही थी। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और इमाम शअ्बी (रह०) ने इसी आयत की बिना पर कहा है कि ग़ुलाम आज़ाद करना सदक़े से बढ़कर है, क्योंकि अल्लाह तआला ने इसे सदक़े से पहले बयान किया है। मिसकीनों की मदद की फ़ज़ीलतें भी नबी (सल्ल०) ने बहुत-सी हदीसों में बयान की हैं। इनमें से एक हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की यह हदीस है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “बेवा और मिसकीन की मदद के लिए दौड़-धूप करनेवाला ऐसा है जैसे अल्लाह की राह में जिहाद में दौड़-धूप करनेवाला।” (और हज़रत अबू-हुरैरा कहते हैं कि) मुझे यह ख़याल होता है कि नबी (सल्ल०) ने यह भी फ़रमाया था कि “वह ऐसा है जैसे वह शख़्स जो नमाज़ में खड़ा रहे और आराम न ले और वह जो लगातार रोज़े रखे और कभी रोज़ा न छोड़े।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)। यतीमों के बारे में तो नबी (सल्ल०) के अनगिनत फ़रमान हैं। हज़रत सह्ल-बिन-सअ्द (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल ने फ़रमाया, “मैं और वह शख़्स जो किसी रिश्तेदार या ग़ैर-रिश्तेदार यतीम के ख़र्च का बोझ उठाए, जन्नत में इस तरह होंगे।” यह कहकर आप (सल्ल०) ने शहादत की उँगली और बीच की उँगली को उठाकर दिखाया और दोनों उँगलियों के बीच थोड़ा-सा फ़ासिला रखा (हदीस : बुख़ारी)। हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) नबी (सल्ल०) का यह फ़रमान नक़्ल करते हैं कि “मुसलमानों के घरों में बेहतरीन घर वह है जिसमें किसी यतीम से अच्छा सुलूक हो रहा हो, और सबसे बुरा घर वह है जिसमें किसी यतीम से बुरा सुलूक हो रहा हो।” (हदीस : इब्ने-माजा, बुख़ारी फ़िल-अदबिल-मुफ़रद)। हज़रत अबू-उमामा कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जिसने किसी यतीम के सिर पर हाथ फेरा। और सिर्फ़ अल्लाह की ख़ातिर फेरा, उस बच्चे के हर बाल के बदले जिसपर उस शख़्स का हाथ गुज़रा, उसके लिए नेकियाँ लिखी जाएँगी, और जिसने किसी यतीम लड़के या लड़की के साथ अच्छा सुलूक किया वह और मैं जन्नत में इस तरह होंगे।” और यह फ़रमाकर नबी (सल्ल०) ने अपनी दो उँगलियाँ मिलाकर बताईं। (हदीस : मुसनद अहमद, तिरमिज़ी)। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) का बयान है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जिसने किसी यतीम को अपने खाने और पीने में शामिल किया अल्लाह ने उसके लिए जन्नत वाजिब कर दी, सिवाय यह कि वह कोई ऐसा गुनाह कर बैठा हो जो माफ़ नहीं किया जा सकता।” (हदीस : शरहुस्सुन्नह्)। हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि एक आदमी ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से शिकायत की कि मेरा दिल सख़्त है। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “यतीम के सिर पर हाथ फेर और मिसकीन को खाना खिला।” (हदीस : मुसनद अहमद)।
ثُمَّ كَانَ مِنَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَتَوَاصَوۡاْ بِٱلصَّبۡرِ وَتَوَاصَوۡاْ بِٱلۡمَرۡحَمَةِ ۝ 16
(17) फिर (इसके साथ यह कि) आदमी उन लोगों में शामिल हो जो ईमान लाए13 और जिन्होंने एक-दूसरे को सब्र और (ख़ुदा के बन्दों पर) रहम की नसीहत की।14
13. यानी इन ख़ूबियों के साथ यह ज़रूरी है कि आदमी ईमानवाला हो, क्योंकि ईमान के बिना न कोई अमल नेक अमल है और न अल्लाह के यहाँ वह क़ुबूल हो सकता है। क़ुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर इसको वाज़ेह किया गया है कि नेकी वही क़ाबिले-क़द्र और नजात का ज़रिआ है जो ईमान के साथ हो। मसलन सूरा-4 निसा, आयत-124 में फ़रमाया, “जो नेक (भला) आमाल करे, चाहे वह मर्द हो या औरत, और हो वह मोमिन, तो ऐसे लोग जन्नत में दाख़िल होंगे।” सूरा-16 नह्ल, आयत-97 में फ़रमाया, “जो नेक अमल करे, चाहे वह मर्द हो या औरत, और हो वह मोमिन, तो हम उसे पाकीज़ा ज़िन्दगी बसर कराएँगे और ऐसे लोगों को उनका बदला उनके बेहतरीन आमाल के मुताबिक़ देंगे।” सूरा-40 मोमिन, आयत-40 में फ़रमाया, “और जो नेक अमल करे, चाहे वह मर्द हो या औरत, और हो वह मोमिन, ऐसे लोग जन्नत में दाख़िल होंगे, वहाँ उनको बेहिसाब रोज़ी दी जाएगी।” क़ुरआन मजीद को जो शख़्स भी पढ़ेगा वह यह देखेगा कि इस किताब में जहाँ भी नेक और अच्छे काम के इनाम और उसके बेहतरीन बदले का ज़िक्र किया गया है वहाँ ज़रूर ही उसके साथ ईमान की शर्त लगी हुई है। ईमान के बिना अमल को कहीं भी ख़ुदा के यहाँ पसन्दीदा नहीं ठहराया गया है और न उसपर किसी इनाम की उम्मीद दिलाई गई है। इस जगह पर यह अहम पहलू भी निगाह से छिपा नहीं रहना चाहिए कि आयत में यह नहीं कहा गया है कि “फिर वह ईमान लाया” बल्कि यह कहा गया है कि “फिर वह उन लोगों में शामिल हुआ जो ईमान लाए।” इसका मतलब यह है कि सिर्फ़ एक शख़्स की हैसियत से अपनी जगह ईमान लाकर रह जाने की माँग नहीं है, बल्कि माँग यह है कि हर ईमान लानेवाला उन दूसरे लोगों के साथ मिल जाए जो ईमान लाए हैं, ताकि इससे ईमानवालों की एक जमाअत बने, एक मोमिन समाज वुजूद में आए, और इजतिमाई तौर पर उन भलाइयों को क़ायम किया जाए जिनका क़ायम करना, और उन बुराइयों को मिटाया जाए जिनका मिटाना ईमान का तक़ाज़ा है।
14. यह मोमिन समाज की दो अहम ख़ासियतें हैं जिनको दो छोटे-छोटे जुमलों में बयान कर दिया गया है। पहली ख़ासियत यह है कि उसके लोग एक दूसरे को सब्र की नसीहत करें। और दूसरी यह कि वे एक-दूसरे को रहम की नसीहत करें। जहाँ तक सब्र का ताल्लुक़ है, हम इससे पहले कई बार इसको वाज़ेह तौर से बयान कर चुके हैं कि क़ुरआन मजीद जिस वसीअ (व्यापक) मानी में इस लफ़्ज़ को इस्तेमाल करता है उसके लिहाज़ से मोमिन की पूरी ज़िन्दगी सब्र की ज़िन्दगी है, और ईमान के रास्ते पर क़दम रखते ही आदमी के सब्र का इम्तिहान शुरू हो जाता है। ख़ुदा की फ़र्ज़ की हुई इबादतों के अंजाम देने में सब्र की ज़रूरत है। ख़ुदा के हुक्मों की पैरवी में सब्र की ज़रूरत है। ख़ुदा की हराम की हुई चीज़ों से बचना सब्र के बिना मुमकिन नहीं है। अख़लाक़ की बुराइयों को छोड़ना और पाकीज़ा अख़लाक़ अपनाना सब्र चाहता है। क़दम-क़दम पर गुनाह अपनी तरफ़ खींचते हैं, जिनका मुक़ाबला सब्र ही से हो सकता है। अनगिनत मौक़े ज़िन्दगी में ऐसे पेश आते हैं जिनमें ख़ुदा के क़ानून की पैरवी की जाए तो नुक़सानात, तकलीफ़ों, मुसीबतों, और महरूमियों से सामना होता है और इसके बरख़िलाफ़ नाफ़रमानी की राह अपनाई जाए तो फ़ायदे और मज़े हासिल होते नज़र आते हैं। सब्र के बिना इन मौक़ों से कोई मोमिन बख़ैरियत नहीं गुज़र सकता। फिर ईमान की राह अपनाते ही आदमी को अपने मन और उसकी ख़ाहिशों से लेकर अपने बाल-बच्चों, अपने ख़ानदान, अपने समाज, अपने देश और क़ौम और दुनिया भर के जिन्नों और इनसानों में के शैतान की रुकावटों का सामना करना पड़ता है, यहाँ तक कि ख़ुदा की राह में हिजरत और जिहाद की नौबत भी आ जाती है। इन सब हालात में सब्र ही की ख़ूबी आदमी के क़दम जमाए रख सकती है। अब यह ज़ाहिर बात है कि एक-एक मोमिन अकेला-अकेला इस सख़्त इम्तिहान में पड़ जाए तो हर वक़्त हार जाने के ख़तरे से दोचार होगा और मुश्किल ही से कामयाब हो सकेगा। इसके बरख़िलाफ़ अगर एक ईमानवाला समाज ऐसा मौजूद हो जिसका हर आदमी ख़ुद भी सब्र करता हो और जिसके सारे लोग एक-दूसरे को सब्र के इस बड़े इम्तिहान में सहारा भी दे रहे हों तो कामयाबियाँ उस समाज के क़दम चूमेंगी। बुराई के मुक़ाबले में एक बेपनाह ताक़त पैदा हो जाएगी। इनसानी समाज को भलाई के रास्ते पर लाने के लिए एक ज़बरदस्त लश्कर तैयार हो जाएगा। रहा रहम (दया), तो ईमानवालों के समाज की एक अलग शान यही है कि वह एक संगदिल, बेरहम और ज़ालिम समाज नहीं होता, बल्कि इनसानियत के लिए रहम करनेवाला, मुहब्बत का जज़्बा रखनेवाला और आपस में एक-दूसरे का हमदर्द और दुख-दर्द बाँटनेवाला समाज होता है। एक शख़्स की हैसियत से भी एक मोमिन अल्लाह की शाने-रहीमी (दयालुता) की निशानी है, और जमाअत की हैसियत से भी मोमिनों का गरोह ख़ुदा के उस रसूल का नुमाइन्दा है जिसकी तारीफ़ में कहा गया है कि “हमने तुमको सारी दुनिया के लिए बस पूरी तरह रहमत बनाकर भेजा है।” (सूरा-21 अम्बिया, आयत-107)। नबी (सल्ल०) ने सबसे बढ़कर जिस बुलन्द अख़लाक़ी ख़ूबी को अपनी उम्मत में बढ़ावा देने की कोशिश की है वह यही रहम की ख़ूबी है। मिसाल के तौर पर आपके नीचे लिखे हुए फ़रमान देखिए— जिनसे मालूम होता है कि आप (सल्ल०) की निगाह में इसकी क्या अहमियत थी। हज़रत जरीर-बिन-अब्दुल्लाह की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया— “अल्लाह उस शख़्स पर रहम नहीं करता जो इनसानों पर रहम नहीं करता।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— “रहम करनेवालों पर रहमान (दयावान रब) रहम करता है। ज़मीनवालों पर रहम करो, आसमानवाला तुमपर रहम करेगा।” (हदीस : अबू-दाऊद, तिरमिज़ी) हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया— “जो रहम नहीं करता उसपर रहम नहीं किया जाता।” (हदीस : बुख़ारी फ़ी-अदबिल-मुफ़रद) इब्ने-अब्बास (रज़ि०) कहते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया— “वह शख़्स हममें से नहीं है जो हमारे छोटे पर रहम न खाए और हमारे बड़े की इज़्ज़त न करे।” (हदीस : तिरमिज़ी) अबू-दाऊद ने नबी (सल्ल०) के इस फ़रमान को हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र (रज़ि०) के हवाले से यूँ नक़्ल किया है— “जिसने हमारे छोटे पर रहम न खाया और हमारे बड़े का हक़ न पहचाना वह हममें से नहीं है।” हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) कहते हैं मैंने सरापा सच अबुल-क़ासिम (नबी सल्ल०) को यह फ़रमाते हुए सुना है— ”बदनसीब आदमी के दिल ही से रहम छीन लिया जाता है।” (हदीस : मुसनद अहमद, तिरमिज़ी) हज़रत इयाज़-बिन-हिमार (रज़ि०) की रिवायत है नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— “तीन तरह के आदमी जन्नती हैं। उनमें से एक वह शख़्स है जो हर रिश्तेदार और हर मुसलमान के लिए रहम करनेवाला और नर्मदिल हो।” (हदीस : मुस्लिम) हज़रत नोमान-बिन-बशीर (रज़ि०) का बयान है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया— “तुम मोमिनों को आपस में रहम और मुहब्बत और हमदर्दी के मामले में एक जिस्म की तरह पाओगे कि अगर एक हिस्सा (अंग) में कोई तकलीफ़ हो तो सारा जिस्म उसकी ख़ातिर सो नहीं पाता और बुख़ार में मुब्तला हो जाता है।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) हज़रत अबू-मूसा अशअरी (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— “मोमिन दूसरे मोमिन के लिए उस दीवार की तरह है जिसका हर हिस्सा दूसरे हिस्से को मज़बूत करता है।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) नबी (सल्ल०) का यह फ़रमान नक़्ल करते हैं— “मुसलमान मुसलमान का भाई है, न उसपर ज़ुल्म करता है, न उसकी मदद से हाथ खींचता है। जो शख़्स अपने भाई की किसी ज़रूरत को पूरा करने में लगा होगा, अल्लाह उसकी ज़रूरत पूरी करने में लग जाएगा। और जो शख़्स किसी मुसलमान को किसी मुसीबत से निकालेगा, अल्लाह तआला उसे क़ियामत के दिन की मुसीबतों में से किसी मुसीबत से निकाल देगा, और जो शख़्स किसी मुसलमान की ख़राबी पर परदा डालेगा, अल्लाह क़ियामत के दिन उसकी कमज़ोरी और ऐब को छिपा लेगा।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) इन फ़रमानों से मालूम हो जाता है कि नेक आमाल करनेवालों को ईमान लाने के बाद ईमानवालों के गरोह में शामिल होने की जो हिदायत क़ुरआन मजीद की इस आयत में दी गई है उससे किस तरह का समाज बनाना मक़सद है।
أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡمَيۡمَنَةِ ۝ 17
(18) ये लोग हैं दाएँ बाज़ूवाले।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِنَا هُمۡ أَصۡحَٰبُ ٱلۡمَشۡـَٔمَةِ ۝ 18
(19) और जिन्होंने हमारी आयतों को मानने से इनकार किया वे बाएँ बाज़ूवाले हैं,15
15. दाएँ बाज़ू और बाएँ बाज़ू की तशरीह हम सूरा-56 वाक़िआ की तफ़सीर में कर चुके हैं। देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-56 वाक़िआ, हाशिया-5, 6।
عَلَيۡهِمۡ نَارٞ مُّؤۡصَدَةُۢ ۝ 19
(20) उनपर आग छाई हुई होगी।16
16. यानी आग इस तरह उनको हर तरफ़ से घेरे हुए होगी कि उससे निकलने का कोई रास्ता न होगा।