(17) फिर (इसके साथ यह कि) आदमी उन लोगों में शामिल हो जो ईमान लाए13 और जिन्होंने एक-दूसरे को सब्र और (ख़ुदा के बन्दों पर) रहम की नसीहत की।14
13. यानी इन ख़ूबियों के साथ यह ज़रूरी है कि आदमी ईमानवाला हो, क्योंकि ईमान के बिना न कोई अमल नेक अमल है और न अल्लाह के यहाँ वह क़ुबूल हो सकता है। क़ुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर इसको वाज़ेह किया गया है कि नेकी वही क़ाबिले-क़द्र और नजात का ज़रिआ है जो ईमान के साथ हो। मसलन सूरा-4 निसा, आयत-124 में फ़रमाया, “जो नेक (भला) आमाल करे, चाहे वह मर्द हो या औरत, और हो वह मोमिन, तो ऐसे लोग जन्नत में दाख़िल होंगे।” सूरा-16 नह्ल, आयत-97 में फ़रमाया, “जो नेक अमल करे, चाहे वह मर्द हो या औरत, और हो वह मोमिन, तो हम उसे पाकीज़ा ज़िन्दगी बसर कराएँगे और ऐसे लोगों को उनका बदला उनके बेहतरीन आमाल के मुताबिक़ देंगे।” सूरा-40 मोमिन, आयत-40 में फ़रमाया, “और जो नेक अमल करे, चाहे वह मर्द हो या औरत, और हो वह मोमिन, ऐसे लोग जन्नत में दाख़िल होंगे, वहाँ उनको बेहिसाब रोज़ी दी जाएगी।” क़ुरआन मजीद को जो शख़्स भी पढ़ेगा वह यह देखेगा कि इस किताब में जहाँ भी नेक और अच्छे काम के इनाम और उसके बेहतरीन बदले का ज़िक्र किया गया है वहाँ ज़रूर ही उसके साथ ईमान की शर्त लगी हुई है। ईमान के बिना अमल को कहीं भी ख़ुदा के यहाँ पसन्दीदा नहीं ठहराया गया है और न उसपर किसी इनाम की उम्मीद दिलाई गई है।
इस जगह पर यह अहम पहलू भी निगाह से छिपा नहीं रहना चाहिए कि आयत में यह नहीं कहा गया है कि “फिर वह ईमान लाया” बल्कि यह कहा गया है कि “फिर वह उन लोगों में शामिल हुआ जो ईमान लाए।” इसका मतलब यह है कि सिर्फ़ एक शख़्स की हैसियत से अपनी जगह ईमान लाकर रह जाने की माँग नहीं है, बल्कि माँग यह है कि हर ईमान लानेवाला उन दूसरे लोगों के साथ मिल जाए जो ईमान लाए हैं, ताकि इससे ईमानवालों की एक जमाअत बने, एक मोमिन समाज वुजूद में आए, और इजतिमाई तौर पर उन भलाइयों को क़ायम किया जाए जिनका क़ायम करना, और उन बुराइयों को मिटाया जाए जिनका मिटाना ईमान का तक़ाज़ा है।
14. यह मोमिन समाज की दो अहम ख़ासियतें हैं जिनको दो छोटे-छोटे जुमलों में बयान कर दिया गया है। पहली ख़ासियत यह है कि उसके लोग एक दूसरे को सब्र की नसीहत करें। और दूसरी यह कि वे एक-दूसरे को रहम की नसीहत करें।
जहाँ तक सब्र का ताल्लुक़ है, हम इससे पहले कई बार इसको वाज़ेह तौर से बयान कर चुके हैं कि क़ुरआन मजीद जिस वसीअ (व्यापक) मानी में इस लफ़्ज़ को इस्तेमाल करता है उसके लिहाज़ से मोमिन की पूरी ज़िन्दगी सब्र की ज़िन्दगी है, और ईमान के रास्ते पर क़दम रखते ही आदमी के सब्र का इम्तिहान शुरू हो जाता है। ख़ुदा की फ़र्ज़ की हुई इबादतों के अंजाम देने में सब्र की ज़रूरत है। ख़ुदा के हुक्मों की पैरवी में सब्र की ज़रूरत है। ख़ुदा की हराम की हुई चीज़ों से बचना सब्र के बिना मुमकिन नहीं है। अख़लाक़ की बुराइयों को छोड़ना और पाकीज़ा अख़लाक़ अपनाना सब्र चाहता है। क़दम-क़दम पर गुनाह अपनी तरफ़ खींचते हैं, जिनका मुक़ाबला सब्र ही से हो सकता है। अनगिनत मौक़े ज़िन्दगी में ऐसे पेश आते हैं जिनमें ख़ुदा के क़ानून की पैरवी की जाए तो नुक़सानात, तकलीफ़ों, मुसीबतों, और महरूमियों से सामना होता है और इसके बरख़िलाफ़ नाफ़रमानी की राह अपनाई जाए तो फ़ायदे और मज़े हासिल होते नज़र आते हैं। सब्र के बिना इन मौक़ों से कोई मोमिन बख़ैरियत नहीं गुज़र सकता। फिर ईमान की राह अपनाते ही आदमी को अपने मन और उसकी ख़ाहिशों से लेकर अपने बाल-बच्चों, अपने ख़ानदान, अपने समाज, अपने देश और क़ौम और दुनिया भर के जिन्नों और इनसानों में के शैतान की रुकावटों का सामना करना पड़ता है, यहाँ तक कि ख़ुदा की राह में हिजरत और जिहाद की नौबत भी आ जाती है। इन सब हालात में सब्र ही की ख़ूबी आदमी के क़दम जमाए रख सकती है। अब यह ज़ाहिर बात है कि एक-एक मोमिन अकेला-अकेला इस सख़्त इम्तिहान में पड़ जाए तो हर वक़्त हार जाने के ख़तरे से दोचार होगा और मुश्किल ही से कामयाब हो सकेगा। इसके बरख़िलाफ़ अगर एक ईमानवाला समाज ऐसा मौजूद हो जिसका हर आदमी ख़ुद भी सब्र करता हो और जिसके सारे लोग एक-दूसरे को सब्र के इस बड़े इम्तिहान में सहारा भी दे रहे हों तो कामयाबियाँ उस समाज के क़दम चूमेंगी। बुराई के मुक़ाबले में एक बेपनाह ताक़त पैदा हो जाएगी। इनसानी समाज को भलाई के रास्ते पर लाने के लिए एक ज़बरदस्त लश्कर तैयार हो जाएगा।
रहा रहम (दया), तो ईमानवालों के समाज की एक अलग शान यही है कि वह एक संगदिल, बेरहम और ज़ालिम समाज नहीं होता, बल्कि इनसानियत के लिए रहम करनेवाला, मुहब्बत का जज़्बा रखनेवाला और आपस में एक-दूसरे का हमदर्द और दुख-दर्द बाँटनेवाला समाज होता है। एक शख़्स की हैसियत से भी एक मोमिन अल्लाह की शाने-रहीमी (दयालुता) की निशानी है, और जमाअत की हैसियत से भी मोमिनों का गरोह ख़ुदा के उस रसूल का नुमाइन्दा है जिसकी तारीफ़ में कहा गया है कि “हमने तुमको सारी दुनिया के लिए बस पूरी तरह रहमत बनाकर भेजा है।” (सूरा-21 अम्बिया, आयत-107)। नबी (सल्ल०) ने सबसे बढ़कर जिस बुलन्द अख़लाक़ी ख़ूबी को अपनी उम्मत में बढ़ावा देने की कोशिश की है वह यही रहम की ख़ूबी है। मिसाल के तौर पर आपके नीचे लिखे हुए फ़रमान देखिए— जिनसे मालूम होता है कि आप (सल्ल०) की निगाह में इसकी क्या अहमियत थी। हज़रत जरीर-बिन-अब्दुल्लाह की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया—
“अल्लाह उस शख़्स पर रहम नहीं करता जो इनसानों पर रहम नहीं करता।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)
हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया—
“रहम करनेवालों पर रहमान (दयावान रब) रहम करता है। ज़मीनवालों पर रहम करो, आसमानवाला तुमपर रहम करेगा।” (हदीस : अबू-दाऊद, तिरमिज़ी)
हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया—
“जो रहम नहीं करता उसपर रहम नहीं किया जाता।” (हदीस : बुख़ारी फ़ी-अदबिल-मुफ़रद)
इब्ने-अब्बास (रज़ि०) कहते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया—
“वह शख़्स हममें से नहीं है जो हमारे छोटे पर रहम न खाए और हमारे बड़े की इज़्ज़त न करे।” (हदीस : तिरमिज़ी)
अबू-दाऊद ने नबी (सल्ल०) के इस फ़रमान को हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र (रज़ि०) के हवाले से यूँ नक़्ल किया है—
“जिसने हमारे छोटे पर रहम न खाया और हमारे बड़े का हक़ न पहचाना वह हममें से नहीं है।”
हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) कहते हैं मैंने सरापा सच अबुल-क़ासिम (नबी सल्ल०) को यह फ़रमाते हुए सुना है—
”बदनसीब आदमी के दिल ही से रहम छीन लिया जाता है।” (हदीस : मुसनद अहमद, तिरमिज़ी)
हज़रत इयाज़-बिन-हिमार (रज़ि०) की रिवायत है नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया—
“तीन तरह के आदमी जन्नती हैं। उनमें से एक वह शख़्स है जो हर रिश्तेदार और हर मुसलमान के लिए रहम करनेवाला और नर्मदिल हो।” (हदीस : मुस्लिम)
हज़रत नोमान-बिन-बशीर (रज़ि०) का बयान है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया—
“तुम मोमिनों को आपस में रहम और मुहब्बत और हमदर्दी के मामले में एक जिस्म की तरह पाओगे कि अगर एक हिस्सा (अंग) में कोई तकलीफ़ हो तो सारा जिस्म उसकी ख़ातिर सो नहीं पाता और बुख़ार में मुब्तला हो जाता है।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)
हज़रत अबू-मूसा अशअरी (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया—
“मोमिन दूसरे मोमिन के लिए उस दीवार की तरह है जिसका हर हिस्सा दूसरे हिस्से को मज़बूत करता है।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)
हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) नबी (सल्ल०) का यह फ़रमान नक़्ल करते हैं—
“मुसलमान मुसलमान का भाई है, न उसपर ज़ुल्म करता है, न उसकी मदद से हाथ खींचता है। जो शख़्स अपने भाई की किसी ज़रूरत को पूरा करने में लगा होगा, अल्लाह उसकी ज़रूरत पूरी करने में लग जाएगा। और जो शख़्स किसी मुसलमान को किसी मुसीबत से निकालेगा, अल्लाह तआला उसे क़ियामत के दिन की मुसीबतों में से किसी मुसीबत से निकाल देगा, और जो शख़्स किसी मुसलमान की ख़राबी पर परदा डालेगा, अल्लाह क़ियामत के दिन उसकी कमज़ोरी और ऐब को छिपा लेगा।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)
इन फ़रमानों से मालूम हो जाता है कि नेक आमाल करनेवालों को ईमान लाने के बाद ईमानवालों के गरोह में शामिल होने की जो हिदायत क़ुरआन मजीद की इस आयत में दी गई है उससे किस तरह का समाज बनाना मक़सद है।