(10) और नाकाम हुआ वह जिसने उसको दबा दिया।6
6. यह है वह बात जिसपर उन चीज़ों की क़सम खाई गई है जो ऊपर की आयतों में बयान हुई हैं। अब ग़ौर कीजिए कि वे चीज़ें इसपर किस तरह दलील बनती हैं। क़ुरआन में अल्लाह तआला का क़ायदा यह है कि जिन हक़ीक़तों को वह इनसान के ज़ेहन में बिठाना चाहता है, उनकी गवाही में वह सामने की कुछ ऐसी नुमायाँ चीज़ों को पेश करता है जो हर आदमी को अपने आसपास की दुनिया में, या ख़ुद अपने वुजूद में नज़र आती हैं। इसी क़ायदे के मुताबिक़ यहाँ दो-दो चीज़ों को एक-दूसरे के मुक़ाबले में पेश किया गया है जो एक-दूसरे के उलट हैं, इसलिए उनके असरात और नतीजे भी एक जैसे नहीं हैं, बल्कि लाज़िमी तौर पर एक-दूसरे से अलग हैं। एक तरफ़ सूरज है और दूसरी तरफ़ चाँद। सूरज की रौशनी बहुत ही तेज़ है और उसमें गर्मी भी है। इसके मुक़ाबले में चाँद अपनी कोई रौशनी नहीं रखता। सूरज की मौजूदगी में वह आसमान पर मौजूद भी हो तो बुझा हुआ (प्रकाशहीन) सा रहता है। वह उस वक़्त चमकता है जब सूरज छिप जाए, और उस वक़्त भी उसकी रौशनी न इतनी तेज़ होती है कि रात को दिन बना दे, न उसमें कोई गर्मी होती है कि वह काम कर सके जो सूरज की गर्मी करती है। लेकिन उसके अपने कुछ असरात हैं जो सूरज के असरात से बिलकुल अलग होते हैं। इसी तरह एक तरफ़ दिन है और दूसरी तरफ़ रात। दोनों एक-दूसरे के उलट हैं। दोनों के असरात और नतीजे आपस में इतने ज़्यादा अलग हैं कि कोई उनको एक जैसा नहीं कर सकता, यहाँ तक कि एक बेवक़ूफ़-से-बेवक़ूफ़ आदमी के लिए भी यह कहना मुमकिन नहीं है कि रात हुई तो क्या और दिन हुआ तो क्या, किसी से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। इसी तरह एक तरफ़ आसमान है, जिसे पैदा करनेवाले ने ऊँचा उठाया है और दूसरी तरफ़ ज़मीन है, जिसे पैदा करनेवाले ने आसमान के नीचे फ़र्श की तरह बिछा दिया है। दोनों अगरचे एक ही कायनात और उसके निज़ाम और उसकी मस्लहतों (हितों) की ख़िदमत कर रहे हैं, लेकिन दोनों के काम और उनके असरात और नतीजों में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है। इन कायनाती गवाहियों को पेश करने के बाद ख़ुद इनसान के अपने नफ़्स (मन) को लिया गया है और बताया गया है कि पैदा करनेवाले ख़ुदा ने उसमें जिस्मानी हिस्से, हवास (इन्द्रियाँ) और ज़ेहनी क़ुव्वतें मुनासिब तौर पर रखीं कि इनसान भलाई और बुराई, दोनों की तरफ़ बराबर तौर पर झुकाव, रुझान और कशिश रखता है, जो एक दूसरे के उलट हैं और ख़ुदा ने उसके दिल में डालकर इन दोनों का फ़र्क़ समझा दिया कि एक ‘फ़ुजूर’ (नाफ़रमानी) है और वह बुरी चीज़ है, और दूसरा ‘तक़वा’ (परहेज़गारी) है, और वह अच्छी चीज़। अब अगर सूरज और चाँद, दिन और रात, ज़मीन और आसमान एक जैसे नहीं हैं, बल्कि उनके असरात और नतीजे एक-दूसरे से ज़रूर ही अलग हैं, तो नफ़्स का फ़ुजूर और तक़्वा दोनों एक-दूसरे के उलट होने के बावजूद एक जैसे कैसे हो सकते हैं। इनसान ख़ुद इस दुनिया में भी भलाई और बुराई को एक जैसा नहीं समझता और नहीं मानता। चाहे उसने अपने बनाए हुए फ़लसफ़ों (दर्शनों) के मुताबिक़ भलाई-बुराई के कुछ भी पैमाने बना लिए हों, बहरहाल जिस चीज़ को भी वह भलाई समझता है उसके बारे में वह यह राय रखता है कि वह क़ाबिले-क़द्र है, तारीफ़, बदले और इनाम की हक़दार है। इसके बरख़िलाफ़ जिस चीज़ को भी वह बुराई समझता है उसके बारे में उसकी अपनी बेलाग राय यह है कि वह बुरी कही जानेवाली और सज़ा की हक़दार है। लेकिन अस्ल फ़ैसला इनसान के हाथ में नहीं है, बल्कि उस पैदा करनेवाले ख़ुदा के हाथ में है जिसने इनसान के दिल में डाला कि बुराई क्या है और भलाई क्या। ‘बुराई’ वही है जो पैदा करनेवाले के नज़दीक ‘बुराई’ है और ‘नेकी व भलाई’ वही है जो उसके नज़दीक ‘नेकी व भलाई’ है। और पैदा करनेवाले के यहाँ इन दोनों के दो अलग नतीजे हैं। एक का नतीजा यह है कि जो अपने मन को पाक करे वह कामयाबी पाए और दूसरे का नतीजा यह है कि जो अपने मन को दबा दे वह नाकाम हो।
‘तज़किया’ का मतलब है पाक करना, उभारना और नशो-नुमा देना (विकसित करना)। मौक़ा-महल से इसका साफ़ मतलब यह है कि जो अपने मन को ‘फ़ुजूर’ (गुनाह) से पाक करे, उसको उभारकर ‘तक़वा’ (परहेज़गारी) के बुलन्द मक़ाम तक ले जाए और उसके अन्दर भलाई को फलने-फूलने दे वह कामयाबी पाएगा। इसके मुक़ाबले में ‘दस्साहा’ का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है, जो ‘तद्सिया’ से निकला है। ‘तद्सिया’ का मतलब दबाना, छिपाना, इग़वा (अपहरण) करना और गुमराह कर देना है। मौक़ा-महल से इसका मतलब भी वाज़ेह हो जाता है कि वह शख़्स नामुराद होगा जो अपने मन के अन्दर पाए जानेवाले भलाई के रुझानों को उभारने और उन्हें तरक़्क़ी देने के बजाय उनको दबा दे, उसको बहकाकर बुराई के रुझानों की तरफ़ ले जाए, और फ़ुजूर को उसपर इतना हावी कर दे कि तक़वा उसके नीचे इस तरह छिप जाए जैसे एक लाश क़ब्र पर मिट्टी डाल देने के बाद छिप जाती है। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले कुछ आलिमों ने इस आयत का मतलब यह बयान किया है कि “कामयाब हो गया वह जिसके नफ़्स को अल्लाह ने पाक कर दिया और नामुराद हुआ वह जिसके नफ़्स को अल्लाह ने दबा दिया।” लेकिन यह तफ़सीर अव्वल तो ज़बान के लिहाज़ से क़ुरआन के अन्दाज़े-बयान के ख़िलाफ़ है, क्योंकि अगर अल्लाह तआला को यही बात कहनी होती तो वह यूँ फ़रमाता कि ‘क़द अफ़्लहत मन ज़क्काहल्लाहु व-क़द ख़ाबत मन दस्साहल्लाहु’ (कामयाब हो गया वह नफ़्स जिसको अल्लाह ने पाक कर दिया और नाकाम हो गया वह नफ़्स जिसको अल्लाह ने दबा दिया)। दूसरे यह तफ़सीर इसी मौज़ू (विषय) पर क़ुरआन के दूसरे बयानों से टकराती है। सूरा-87 आला में अल्लाह तआला ने फ़रमाया है, ‘क़द अफ़्ल-ह मन तज़क्का’ यानी “कामयाब हो गया वह जिसने पाकीज़गी अपनाई।” (आयत-14)। सूरा-80 अ-ब-स में अल्लाह तआला ने अपने रसूल (सल्ल०) से फ़रमाया, ‘वमा अलै-क अल्ला यज़्ज़क्का’ यानी “और तुमपर क्या ज़िम्मेदारी है अगर वह पाकीज़गी न अपनाए।” (आयत-7) इन दोनों आयतों में पाकीज़गी अपनाना बन्दे का काम ठहराया गया है। इसके अलावा क़ुरआन में जगह-जगह यह हक़ीक़त बयान की गई है कि इस दुनिया में इनसान का इम्तिहान लिया जा रहा है। मिसाल के तौर पर सूरा-76 दह्र, आयत-2 में फ़रमाया, “हमने इनसान को एक मिले-जुले नुतफ़े से पैदा किया, ताकि उसकी आज़माइश करें इसी लिए उसे हमने सुननेवाला और देखनेवाला बनाया।” और सूरा-67 मुल्क, आयत-2 में फ़रमाया, “जिसने मौत और ज़िन्दगी को ईजाद (अविष्कृत) किया, ताकि तुम्हें आज़माए कि कौन तुममें बेहतर अमल करनेवाला है।” अब यह ज़ाहिर है कि इम्तिहान सिरे से ही बेमतलब हो जाता है, अगर इम्तिहान लेनेवाला पहले ही एक उम्मीदवार को उभार दे और दूसरे को दबा दे। इसलिए सही तफ़सीर वही है जो क़तादा, इकरिमा, मुजाहिद और सईद-बिन-जुबैर ने बयान की है कि मन को पाक करने और तरक़्क़ी देनेवाला और उसे दबानेवाला बन्दा है न कि ख़ुदा। रही वह हदीस जो इब्ने-अबी-हातिम ने ‘अन जुवैबिर-बिन-सईद अन ज़ह्हाक अन इब्ने-अब्बास’ की सनद से नक़्ल की है कि ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इस आयत का मतलब यह बयान किया है कि ‘अफ़्ल-हत नफ़्सुन ज़क्काहल्लाहु अज़-ज़ व जल-ल’ (कामयाब हो गया वह नफ़्स जिसको अल्लाह तआला ने पाक कर दिया), तो यह बात हक़ीक़त में नबी (सल्ल०) से साबित नहीं है, क्योंकि इसकी सनद में जुवैबिर से हदीस नहीं ली जाती है और इब्ने-अब्बास से ज़ह्हाक की मुलाक़ात नहीं हुई है। अलबत्ता वह हदीस सही है जो इमाम अहमद, मुस्लिम, नसई और इब्ने-अबी-शैबा ने हज़रत ज़ैद-बिन-अरक़म से रिवायत की है कि नबी (सल्ल०) यह दुआ माँगा करते थे कि अल्लाहुम-म आति नफ़्सी तक़्वाहा व ज़क्किहा अन-त ख़ैरुम-मन ज़क्काहा अन-त वलिय्युहा व मौलाहा’ यानी “ऐ अल्लाह! मेरे नफ़्स को उसका तक़वा दे और उसको पाकीज़ा कर, तू ही वह बेहतर हस्ती है जो इसको पाकीज़ा करे, तू ही उसका सरपरस्त और मौला है।” इसी से मिलते-जुलते अलफ़ाज़ में नबी (सल्ल०) की यह दुआ हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से तबरानी, इब्ने-मरदुवैह और इब्नुल-मुंज़िर ने और हज़रत आइशा (रजि०) से इमाम अहमद ने नक़्ल की है। इसका मतलब हक़ीक़त में यह है कि बन्दा तो सिर्फ़ तक़्वा और तज़किया की ख़ाहिश और तलब ही कर सकता है, रहा उसका नसीब हो जाना, तो बहरहाल अल्लाह ही की देन पर उसका दारोमदार है। और यही हाल तद्सिया का भी है कि अल्लाह ज़बरदस्ती किसी के नफ़्स को नहीं दबाता, मगर जब बन्दा उसपर तुल जाए तो अल्लाह तआला उसे तक़्वा और तज़किए की ख़ुशनसीबी से महरूम कर देता है और उसे छोड़ देता है कि अपने नफ़्स को जिस गन्दगी के ढेर में दबाना चाहे दबा दे।